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व्यवस्था कैसी भी हो। प्रजातन्त्र हो। राजशाही हो। तानाशाही हो। सैनिक शासन हो। स्वेच्छाचारिता हमेशा स्वतन्त्रता पर हावी हो जाती है। सामान्तवादी संस्कार समाज मंे समान रूप से उपस्थित रहते है। कामरेड हो या कांग्रेसी कामरेड हो या केसरिया कामरेड या रूसी कामरेड या चीनी कामरेड या स्थानीय कामरेड सब व्यवस्था के सामने बौने हो जाते है। सब व्यवस्था रूपी कामधेनु को दुहने मंे लग जाते है। राजनीति मंे किसकी चण्डी मंे किसका हाथ, हमाम मंे सब नंगे। हमाम भी नंगा।
स्थानीय नेताजी का भी छोटा, मोटा दरबार उनके दीवान-ए-आम मंे लगता था। दीवाने-आम के पास ही एक छोटे मंत्रणा कक्ष को जानकार लोग दीवाने-ए, खास बोलते थे। नेताजी इसी मंत्रणा कक्ष मंे अपने हल्के के फैसले करते थे।
अफसरो, छटभैयांे से मिलते थे। दीवान-ए-खास के अन्दर ही एक कक्ष उनकी आरामगाह था। जहां पर प्रवेश वर्जित था। उसमंे ऐशो आराम के सब सामान थे। आप कहंेगे ये सामान कहां से आये है। प्रयोगशाला कहां से आती है। तो इसका सीधा सपाट जवाब ये है कि क्यांे नहीं आपको एक झापड़ मार दिया जाये ताकि आप और आप जैसे दूसरे लोग इस तरह के सवाल बूझना बन्द कर दे और अपने काम से काम रखे। अरे भाई नेता है तो क्या उनका निजि जीवन नहीं हो सकता और यदि निजि जीवन है तो आप उसमंे ताका झाकी करने का क्या अधिकार रखते है। तांक-झांक का काम मीडिया वालांे को सौंप दीजिये और निश्ंिचत होकर नेताजी के सामन्ती संस्कारांे की पालना मंे चरण छुइये। पांव लांगी कीजिये। भंेट-पूजा रखिये। यदि याराना है तो एक-आधा धोप-धप्पा खाईये और नेताजी की शान मंे नित नये कसींदे गढ़कर सुनाईये। हमेशा चारणीय जय-जयकार कीजिये या फिर अपना रास्ता नापिये।
इस वक्त नेताजी शहर के बुद्धिजीवियांे, कवियांे, पत्रकारांे से घिरे बैठे है। बाहर चांदनी छिटकी है और बु़िद्धजीवी बार-बार चिन्तन-मनन कर रहा है। चिन्तकांे की सबसे बड़ी बीमारी चिन्तन, मनन, मंथन ही है। कवि की सबसे बड़ी बीमारी कविता है। वो कविता न कर सके, कोई बात नहीं। मगर स्वयं को राजकवि, राष्ट्रकवि, संतकवि, अन्तराष्ट्रीय कवि तो घोषित कर ही सकता है। इसी प्रकार पत्रकार जो है वो स्वयं को नीति-पथ प्रदर्शक समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाला समझता है वो अक्सर कहता है।
‘नेताजी देश आपसे जानना चाहता है कि....।’
नेताजी तुरन्त सुधार करते है-
‘...देश नहीं आपके पाठक...। आपके पाठक देश नहीं है।’
‘देश नहीं है लेकिन देश का हिस्सा तो है।’ पत्रकार स्वयं को आहत महसूस करते हुए कहते है।
वास्तव मंे जनता को सभी अन्धांे का हाथी समझते है और जनता इन लोगांे को सफेद हाथी समझती है। व्यवस्था मंे कुछ हाथी रंग-रंगीले भी होेते है। कभी-कभी गरीब के घर मंे भी व्यवस्था का हाथी पूरी साज-सज्जा के साथ घुस जाता है और गरीब बेचारा टापरे के बाहर खड़ा होकर हाथी को टापता रह जाता है।
इस समय नेताजी के कक्ष मंे उपस्थित बुद्धिजीवी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के महान प्रयास मंे प्रयासरत है। चिन्तक नेताजी को अपनी और खींच रहा था तो कवि नेताजी को कविता के नये सोपानांे मंे उलझाये रखना चाहता था। पत्रकार कल लगने वाली लीड खबर की चिन्ता मंे मगन था। चिन्तक बोला।
‘सर विपक्षी का वक्तव्य तो एकदम लच्र और कमजोर था।’
‘हूं।’ नेता उवाच।’
दूसरा चिंतक कैसे पीछे रहता।’
‘सर ये वक्तत्य तो गैर जिम्मेदाराना था।’
‘हूं।’ नेता उवाच।’
लेकिन सर आपका स्टेटमंेट मिल जाये तो कल लीड़ लगा दूं। पत्रकार कम सम्पादक कम अखबार मालिक बोल पड़े।
‘हूं।’ नेता उवाच।
इस हूं...हूं को सुनकर तीनांे बुद्धिजीवी थक गये थे। मगर क्या करते।
‘देखिये सर।’ कवि बोल पड़ा जो स्वयं को राजकवि राष्ट्रकवि और अन्तरराष्ट्रीय कवि समझता था आगे बोला।
‘कविता समाज मंे समरसता पैदा करती है। वो एक बेहतर इंसान बनाती है।’
‘ठीक है कवि महाराज मगर ये जो हास्यास्पदरस की कविता, तुम गाते हो उसे आलोचक क्यांे नही पहचानते।’ सम्पादक बोल पड़े।
कवि को यह अनुचित लगा। मगर सम्पादक से वैर मौल लेने पर कविता का प्रकाशन बन्द हो जाता। सो चुप रहे। वे मन ही मन कविता करने लगे।
‘लेकिन कविता से चुनाव नहीं जीता जा सकता। विकास, भारत उदय, इण्डिया शाहिनिंग, चार कदम सूरज की और जैसा चिन्तन चाहिये।’
‘इस खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व से क्या होता है।’ जनता की नब्ज की पहचान जरूरी है। सम्पादक-पत्रकार फिर बोल पडे।
अब नेताजी ने अपना मौन तोड़ा।
‘तुम लोग अपना-अपना काम करो। चुनाव की चिन्ता छोड़ो। वो मेरे पर छोड़ो। मैं जानता हूं चुनाव कैसे, कब जीता जा सकता है। चुनाव आयंेगे तो देखंेगे।
चिन्तक कम बुद्धिजीवी, कविकर्म मंे निष्णात अन्तरराष्ट्रीय कवि और सम्पादक-मालिक-विशेष संवाददाता-पत्रकार सभी ने मंत्री जी की ध्वनि को पत्थर की लकीर मान लिया।
ठीक इसी समय मंच पर सुकवि कुलदीपकजी अवतरित भये। वे जानते थे कि आजकल नेपथ्य मंे संभावनाएंे ज्यादा है और मंच पर कम।
वे आते ही नेताजी के चरणांे मंे लौट गये और बोले...।
‘इस बार तो अकादमी पुरस्कार दिलवा दीजिये भगवन।’
नेताजी फिर चुप रहे। राष्ट्रकवि ने क्रोधित नजरांे से कुलदीपक को देखा।
सम्पादकजी शून्य मंे देखने लग गये। चिन्तक ने चिन्ता करना शुरू कर दिया। नेताजी बोले।
‘तुम्हंे और अकादमी पुरस्कार। बाकी सब मर गये है क्या।’
‘मरे तो नहीं, मगर मुझे पुरस्कार मिलते ही मर जायंेगे।’
तो इन हत्याआंे का पाप मैं अपने सिर पर क्यांे लूं?
‘वो इसलिए सर कि इस बार प्राथमिक चयन मंे मेरी पुस्तक ही आपके हल्के से आई है।
‘अकादमी का अध्यक्ष आपके क्षेत्र तथा जाति का है।’
‘हां वो तो है, मैनंे ही उसे बनवाया है।’
‘फिर झगड़ा किस बात का है सर। मुझे केवल पुरस्कार चाहिये। पुरस्कार राशि मैं आपके श्री चरणों मंे सादर समर्पित कर दूंगा।’
‘और निर्णायकांे का क्या होगा ?’
‘उनके सायंकालीन आचमन की व्यवस्था भी मैं ही कर दूंगा।’
‘फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा।’
‘मुझे पुरस्कार का प्रमाण-पत्र, माला और शाल मिल जायेगी। जो पर्याप्त है। वैसे भी एक बड़े फाउण्डेशन का पुरस्कार कवि तथा निर्णायकांे मे बराबर-बराबर बंट गया था।
यह सुनकर राष्ट्रकवि नाराज होकर चले गये। चिन्तक ने मौन साध लिया और नेताजी ने सब तरफ देखकर कुलदीपक की सिफारिश कर दी। समय पर कुलदीपकजी को पुरस्कार मिला। पुरस्कार राशि नेताजी को मिली। अकादमी अध्यक्ष को समय-वृद्धि मिली। चिन्तक अकादमी के सदस्य हो गये। कवि फिर कवियाने लगे। चिड़ियाएं चहकने लगी। कौए गाने लगे और कोयलांे ने मौन साध ली।
नेताजी ने अपान वायु का विसर्जन प्राणवायु मंे किया। प्रातःकालीन समीर ने इसे सहर्ष स्वीकारा। आज नेताजी परम प्रसन्न मुद्रा मंे अपने दीवाने-आम मंे खास तरह से विराजे हुए थे, अर्थात् मात्र लुंगी और बनियान की राष्ट्रीय पौशाक मंे सौफे पर पड़े थे। रात्रिकालीन विभिन्न चर्याआंे के कारण वे अभी भी अलसा रहे थे, अपने विश्वस्त नौकर के माध्यम से उन्हांेने अपने पुराने, चहेते मालिशिये रामू को बुलवा भेजा था। रामू नेताजी का मुंह लगा मालिशिया था, उसे अपनी औकात का पता था और नेताजी के विभिन्न राजो का भी पता था। नेताजी उसे प्यार भी करते थे, घृणा भी करते थे और उससे डरते भी थे। मगर ये किस्सा बाद मंे। सर्वप्रथम आप नेताजी के मानस मंे प्रस्फुटित हो रहे विभिन्न विचारांे से दो-चार होईये।
नेताजी को आज जाने क्यांे वे पुरानी यादंे याद हो आई। अकाल हो तो अकालोत्सव, बाढ़ हो तो बाढ़ोत्सव, भूकम्प आये तो भूकम्पोत्सव, विकास के नाम पर विकासोत्सव, सुनामी आये तो सुनाम्योत्सव। उत्सव ही उत्सव। भूख के नाम पर भूखोत्सव तो रोजाना ही चलता है। कितने मजे है। पिछली बार इलाके मंे बाढ़ आई तो मुख्यमंत्री के हेलीकोप्टर मंे वे भी साथ थे। चारांे तरफ पानी...सैलाब...पानी और पानी।
भूखी प्यासी गरीब जनता हेलीकोप्टर को निहार रही थी। उन्हंे दया आई और कुछ ब्रेड के पैकेटस नीचे गिरा दिये। चील-कोवांे की तरह जनता उन पैकेटांे पर टूट पड़ी। छीना-छपटी हुई। एकाध कुचला गया। जो पा गये वे घर की और दौड़ पड़े। जिन्हंे नहीं मिली वो उनके पीछे दौड़ पड़े। एक ऐसा दृश्य जो उन्हंे आनन्दित कर गया। उन्हांेने मुख्यमंत्री की और देखा और मुस्करा दिये। बाढ़ मंे ही वे अपने अफसरांे के साथ दौरा करते है। दौरे मंे भी अनन्त आनन्द आता है। पत्नी, बच्चांे की भी पिकनिक हो जाती है। पिछली बार अकाल के दौरान ऐसे ही एक पिकनिक मंे जानवरांे की हड्डियांे के ढेर के पास किया गया केम्प फायर डिनर उन्हंे अभी भी याद है। इस डिनर की तस्वीरंे भी अखबारांे मंे छपी थी। मगर उससे क्या ?
बाढ हो या अकाल या सुनामी, गरीब का चेहरा एक जैसा होता है। सच पूछा जाये तो गरीबी का एक निश्चित आकार, एक निश्चित मुखौटा होता है, जिसे हर गरीब हर समय पहने रहता है। पिछली बार की घटना उन्हंे फिर याद आई। वे बाढ़गस्त क्षेत्रांे का जमीनी दौरा कर रहे थे।
एक गांव के किनारे एक गरीब विधवा अपनी इकलौती बच्ची के भोजन के लिए अपनी अस्मत का सौदा कर रही थी। वे क्या कर सकते थे। इस देश मंे लाखांे औरतंे रोज इसी तरह मर-मर कर जीती है। सच मंे वे कुछ भी करने मंे असमर्थ थे। दौरे किये, अफसरांे ने टी.ए. बिल बनाये, अनुदान लिये, कमीशन लिया-दिया। बस हो गई अकाल राहत सेवा। बाढ़ पीडित सेवा। सबकुछ-कुछ दिनांे मंे सामान्य हो जाता है। इस गरीब भोली-भाली जनता की स्मरण शक्ति कितनी कमजोर है। उन्हांेने सोचा ये लोग शंखपुष्पी या स्मरणशक्ति के लिए दवा क्यांे नहीं खाते। सोचते-सोचते नेताजी उनीन्दे से हो गये। ये रामू अभी तक मरा क्यांे नहीं।
तभी रामू आया। नेताजी ने उसे आग्नेय नेत्रांे से घूरा। रामू सहम गया। चुपचाप अपने काम मंे लग गया। उसने मालिश का तेल गरम किया। उसमंें कुछ दिव्य-भव्य औषाधियां मिलाई। नेताजी के लिए एक चादर बिछाई। नेताजी लेटे। उसने नेताजी के पांव-हांथ-छाती-पीठ-सिर-गर्दन-कन्धे-टखने-अंगुलिया आदि पर धीरे-धीरे मालिश शुरू की। गरम तेल से नेताजी को मजा आने लगा। शरीर मंे कुछ देर स्फूर्ति का संचार होने लगा। नेताजी...रामू...संवाद कुछ इस प्रकार शुरू हुआ।
‘नेताजी’- और क्यांे बे रामू शहर के क्या हाल है....।
‘रामू-शहर की कुछ न पूछो बाबूजी। सब सत्ताधारी पार्टी से खार गये बैठे है। ’
नेताजी-क्यो। क्यांे ?
रामू-अब का बताये बाबूजी, सर्वत्र अनाचार, अराजकता हो कोई भी काम बिना सुविधा शुल्क के नहीं होता है।
नेताजी-अब काम कराने मंे शर्म नहीं तो सुविधा शुल्क देने मंे कैसी शर्म।
रामू-सवाल सुविधा शुल्क का नहीं। उसकी मात्रा और प्रकार का है।
रामू ने जांघांे पर तेजी से हाथ मारते हुए कहा। इस तेजी के कारण रामू का हाथ नेताजी के अण्डरवियर मंे दूर तक चला गया था। नेताजी चिल्लाना चाहते थे, मगर चुप रहे। कुछ देर के मौन के बाद रामू फिर बोला।
‘बाबूजी आजकल उत्कोच के बाजार मंे उत्कोच के नये-नये तरीके विकसित हो गये है।’
नेताजी ‘वो क्या।’
‘बाबूजी उत्कोच भंेट मंे आजकल केश से ज्यादा काइण्ड चल रहा है। नकदी मंे फंसने का डर है। अतः उत्कोच मंे कार्य को सम्पन्न करने वाला, बार गर्ल, शराब, डिनर, डिस्को के टिकट, विदेश यात्रा, मनोरंजन आदि की मांग करता है जैसा काम वैसा दाम।’
नेताजी ‘वो तो ठीक है। काम के दाम है और गरीबांे की बस्ती के क्या हाल है?’
रामू ‘गरीबांे के क्या हाल और क्या चाल। बेचारा झोपड़पट्टी मंे जन्मता है ओर झोपड़ीपट्टी मंे ही मर जाता है।’
नेताजी ‘उसे तो मरना ही है। भूख से नहीं मरेगा तो किसी ट्रक के नीचे आकर मरेगा। ये तो साले पैदा ही मरने के लिए होते है।’
रामू ‘मरना तो सबको है बाबूजी।’ यह कहकर रामू ने सिर की चम्पी शुरू की। नेताजी को मजा आने लगा। रामू की चम्पी के साथ वे भी सिर हिलाने लगे। मालिश का प्रातःकालीन सत्र पूरा हुआ। नेताजी नहाने चले गये।
नेताजी नहा धोकर बाहर निकले तो दीवाने-आम मंे विशाल और माधुरी को प्रतीक्षारत पाया। आज माधुरी किसी अप्सरा की सी सजी-धजी थी। नेताजी समझ गये आज कोई विशेष समस्या है और समाधान भी विशेष ही करना होगा। माधुरी की मीठी मुस्कान और विशाल के चरण स्पर्श से नेताजी मुलकने लगे। थिरकने लगे।
माधुरी ने चरणांे मंे स्पर्श किया तो नेताजी ने उसकी पीठ पर इस तरह आर्शीवाद स्वरूप हाथ रखा कि अंगुलियां सीधी जा के ब्रा के हुक पर पड़ी। माधुरी ने कटाक्ष किया, मगर नेताजी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। मालिशिये के जाने के बाद यह अवसर नेताजी के लिए आनन्द लेकर आया था।
विशाल बोल पड़ा।
‘सर। दफ्तर तो खुल गया है मगर अभी तक बैंक से काम-काज शुरू नहीं हो सका है।’
‘वो कैसे होगा, तुमने जो चैक किसानांे को दिये थे वे वापस हो गये है।’
विशाल चुप रहा। माधुरी बोली।
‘चैक सिकर सकते है यदि जमीन पर कब्जा मिल जाये।’
‘कब्जा मिल सकता है, यदि चैक सिकर जाये।’ नेताजी ने उसी भाषा मंे जवाब दिया।
माधुरी चुप रह गई। अभी भी उसकी पीठ मंे चीटियां रंेग रही थी।
विशाल बोल पड़ा।
‘सर कुछ किसान नेताआंे को आप सुलटाये। बाकी मैं देख लूंगा।’
‘लेकिन उस टाऊनशिप वाली जमीन के पास वाली जमीन जो तुम्हारे ससुराल की है उसका क्या?’
‘सर। उस जमीन के मालिकाना हक बेनामी है। सास के पास कागज है, ससुर की मृत्यु के बाद सब कुछ गड़बड़ा गया है।’
‘तो उस जमीन को भी इसमंे जोड़कर काम शुरू कर दो। काम शुरू होते ही किसान भी अपनी जमीन दे दंेगे।’
‘लेकिन वे काफी ज्यादा मांग कर रहे हैं।’
‘मांग तो आपूर्ति पर आधारित है और तुम जानते हो जमीन का उत्पादन नहीं किया जा सकता। उसे रबर की तरह खींचकर बढ़ाया भी नहीं जा सकता।’
‘वो तो ठीक है सर...।’ विशाल चुप हो गया।
‘ऐसा करो विशाल तुम सास को पार्टनर बनाकर अवाप्त भूमि पर काम शुरू कर दो। सेम्पल फ्लेट बनाओ। फ्लेटांे की बुकिंग कर लो। जो पैसा आये उससे किसानांे को संतुष्ट करो। मैं भी सरकार मंे तुम्हारे लिए केबिनेट मंे लडूंगा।’
‘और मेरे विश्वविद्यालय की जमीन का क्या होगा।’ माधुरी बोली।
‘वो भी मिलेगी। पहले पूरी जमीन तो मिल जाये।’
‘सर एक और आईडिया है। काफी वर्षों से शहर की झील का हिस्सा सूखा पड़ा है, इसे रिसोर्ट के रूप मंे विकसित कराया जा सकता है। मैंने प्रस्तुतिकरण तैयार कर लिया है।’
‘लेकिन सरकार इस झील को नहीं देगी।’
‘सर आप चाहे तो...।’ विशाल बोला।
‘झील वैसे भी बेकार पड़ी है, पशु-पक्षी आते है और कुछ देखने वाले बस। वर्षा होती नहीं, झील भरती नहीं। ऐसी स्थिति मंे झील के एक किनारे पर दीवार बनाकर झील को रिसोर्ट बनाया जा सकता है।’
‘मैं तो केवल लीज पर लूंगा। बाकि स्वामित्व तो सरकार का ही रहेगा।’
‘बात तो ठीक है मगर ये मीडिया वाले। ये एन.जी.ओ वाले। ये सूचना के अधिकार वाले। सब हाथ-मुंह धोकर हमारे पीछे पड़ जायेंगे।’
‘अब इस डर से काम तो बन्द नहीं कर सकते। आप निर्देश दे तो मैं प्रस्तुतीकरण के लिए विकास प्राधिकरण मे बात करूं।’
‘ये काम कौन देखता है।’
‘कमिश्नर साहब।’
‘वो तो ईमानदार है।’
‘ईमानदार इतने ही है कि पैसे के खुद हाथ नहीं लगाते। इस रिसोर्ट मैं उनका भी हिस्सा रहेगा।’
‘मतलब तुम सब तय कर चुके हो।’
विशाल चुप रहा मगर उसकी आंखांे ने सब कुछ धूर्तता के साथ कह दिया। शहर के एक हिस्से मंे विशाल की टाउनशिप और दूसरे छोर पर रिसोर्ट। पूरब से पश्चिम तक सब मंगल ही मंगल।
नेताजी खुश। माधुरी खुश। विशाल खुश। किसान नेता खुश।
छोटा किसान दुःखी। पक्षी दुःखी। झील दुःखी। पक्षी-प्रेमी दुःखी। इस दुःख मंे आप भी दुःखी होईये।
ग् ग् ग्
अविनाश, यशोधरा, कुलदीपक और झपकलाल चारांे नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कस्बे की झील के किनारे रात्रि मंे टहलने का उपक्रम कर रहे थे, वे चारांे जीवन के अन्धियारे मंे भटक रहे थे। अविनाश को स्थायी काम की तलाश थी मगर अपनी शर्तों पर। यशोधरा बच्चे के बड़े होने के बाद खाली थी और इस खालीपन को भरने तथा गृहस्थी की गाड़ी को खींचने मंे मदद देना चाहती थी। मगर गाड़ी थी कि खिंचती ही नहीं थी। मिट्टी की इस गाड़ी को स्वर्णाभूषणांे से लादने की तमन्ना थी यशोधराकी। कुलदीपक बापू की मृत्यु के बाद पारिवारिक पंेशन तथा पुश्तेनी मकान के सहारे कविता के मलखम्भ पर चढ़ते उतरते रहते थे। कभी एक पांव चढ़ते तो कोई आलोचक या सम-सामायिक कवि उन्हंे नीचे खींच लेता। अक्सर कुलदीपक सोचता कि जो असफल रह जाते है उनका सीधा और बड़ा काम यही रह जाता है कि सफल व्यक्ति की धोती खोले। उसकी लंगोट खोलो। उसकी चड्डी उतारो। उसे ऐसी लंगड़ी-टंगडी मारो कि सीधा नीचे गिरे और यदि ज्यादा ऊंचाई से गिरे तो मजा आ जाये। झपकलाल कस्बे के स्थायी बेरोजगार थे और इस मण्डली मंे वे एक स्वीकृत विदूषक की हैसियत रखते थे। खाने-कमाने की चिन्ता उन्हांेने कभी नहीं की क्योंकि कछ करने मंे धीरे-धीरे पास होने के बजाय फेल होने का खतरा ज्यादा था।
झील शान्त थी। कस्बांे मंे दूर नववर्ष की धिगांमस्ती चहक रही थी। कस्बंे मंे बारांे मंे, होटलांे मंे, रिर्सोटांे मंे, फार्म हाऊसांे मंे और ऐसे तमाम स्थानांे पर वह सब हो रहा था, जिसके लिए नया साल कुख्यात या विख्यात था। इन चारांे के पास साधनांे का अभाव था। अतः झील के किनारे बैठकर नववर्ष का स्वागत करना चाहते थे, मगर नववर्ष को इनकी चिन्ता नहीं थी, वो अपनी गति से चपला लक्ष्मी की तरह भागा जा रहा था।
यशोधरा बोल पड़ी।
‘देखो नई पीढ़ी कहां से कहां जा रही है ? हमारी संस्कृति। हमारी सभ्यता। हामरी परम्परा। हमारे सामाजिक सरोकार।’
‘ये सब बेकार की बातंे है। संस्कृति को ओढ़ो, बिछाओं। परम्पराआंे का ढोल मत पीटो। कुलदीपक बोला।’
‘मगर क्या हम भी अपने जीवन को ऐसे ही नहीं जी सकते या नहीं जीना चाहते।’ झपकलाल बोला।
‘चाहने से क्या होता है ? मनुष्य बहुत कुछ चाहता है, मगर ईश्वर कुछ और चाहता है।’ अविनाश बोले।
‘ईश्वर को बीच मंे क्यांे पटकते हो ? वो तो सभी का भला चाहता है।’ यशोधरा बोली।
‘अगर ईश्वर सभी का भला चाहता है तो हमने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है।’ झपकलाल बोल पड़ा।
‘सवाल ये नहीं कि आपने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है। सवाल ये कि आप स्वयं अपने लिए क्या कर रहे है ? समाज के लिए क्या करे हैं ? देश के लिए क्या कर रहे है? अविनाश उवाचा।
‘अब यार, ये आदर्श और प्रवचन तो तुम रहने ही दो।’ उपदेश के तथा आदर्शों के लिए इस देश मंे इतने भगवान, साधु, सन्त, महात्मा, योगाचार्यजी, ऋषि, मुनि है कि अब और ज्यादा आवश्यकता नहीं है।’ यशोधरा बोल पड़ी।
और इतने लोगो के बावजूद भी समाज मंे भय, आतंक, डर, बदमाशियां बढ़ती ही जा रही है। रूकने का नाम ही नहीं लेती। इनमंे जातिवाद, साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद के जहर और मिला दो। झपकलाल ने जोड़ा।
‘इतने भगवान। मगर शान्ति नहीं । है भगवान, कितने भगवान।’ अविनाश बोला।
झील मंे कहीं से एक कंकड़ गिरा। लंहरे उठी। एक जलपक्षी चीखता हुआ उड़ गया। रात गहरा रही थी। बच्चा यशोधरा के कंधे पर ही सो गया था।
वे चारांे झील के किनारे बनी बेंच पर बैठ गये। बातचीत मुड़कर राजनीति की तरफ आ गयी।
‘साठ वर्षों के प्रजातन्त्र ने हमंे क्या दिया।’
‘लेकिन प्रजातन्त्र ने आपसे लिया भी क्या?’
‘हर तरफ असुरक्षा, आतंक, अविश्वास, आर्थिक साम्राज्यवाद आदि का बोलबाला।’ ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार।
‘ठीक है सब, मगर आलोचना का यह अधिकार भी तो प्रजातन्त्र की ही देन है। यदि प्रजातन्त्र नहीं होता तो क्या हमंे बोलने, लिखने और पढ़ने की आजादी होती।’ कुलदीपक बोला।
’स्वतन्त्रता का मतलब स्वच्छन्दता तो नही होता है।’ अविनाश फिर बोला।
‘प्यारे ये क्रान्ति भूखे पेट ही अच्छी लगती है। जब तुम्हारा पेट भरा हो तो उबकाई आती है, उल्टी होती है। व्यवस्था पर वमन करते हो और शत्तुरमुर्ग की तरह रेत मंे सिर छुपा कर तूफान के गुजर जाने का इन्तजार करते हो।