उजाले की ओर - 19 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 19

 

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आ,स्नेही एवं प्रिय मित्रो

सादर ,स्नेह नमस्कार  

 


           लीजिए आ गया एक और नया दिन  ...पता ही नहीं चलता कब सात दिन उडनछू हो जाते हैं और ऐसे ही माह,वर्ष और फिर पूरी उम्र ! जैसे पल भर में पवन न जाने कहाँ से कहाँ पहुंच जाती है |हम पलक झपकते ही रह जाते हैं और समय ये गया-–--वो गया |पीछे मुड़कर एक बार देखता भी नहीं है यह समय!कभी कभी तो लगता है ‘कितना निष्ठुर है न समय !’हम उसके पीछे दौड़ते हैं,पुकारते हैं किन्तु उसे हाथ नहीं आना है सो वह हाथ नहीं आता |

 

        प्रभात की नवीन किरणों से लेकर गोधूलि  और फिर रात्रि कहाँ चली जाती है,पुन: नवीन प्रभात आकर धरती को रोशनी से आप्लावित कर देता है , हमारे मन के द्वार खटखटा देता है किन्तु हम फिर भी उसी रफ़्तार से चलते रहते हैं जैसे हमें चलना है | प्रकृति सदा अपनी रफ़्तार  से चलती है,उसकी  रफ़्तार में वह  सौन्दर्य है जो हमें अभीभूत करता रहता है ,वह रोशनी है जो अंधेरों से निकालकर हमें उजालों से रंग देती है ,वह ममता है जो हमारे मन में फुहार बनकर झूमती रहती है,वह आनंद है जो हमें भीतर तक जिलाए रखता है लेकिन हम उसकी चाल को जान ही नहीं पाते,पहचान ही नहीं पाते ,पकड़ ही नहीं पाते|वास्तव में हम उसे समझ ही नहीं पाते और जब समझने का प्रयास करते हैं तब बहुत देर हो चुकी होती है |  

ज़िन्दगी कहाँ विराम लेती है कोई नहीं जानता फिर भी हमारी चाल तो वही रहती है |वास्तव में ज़िन्दगी का हम सही प्रकार से उपयोग नहीं कर पाते |जिंदगी बारंबार इंगित करती है,इशारे करती है,किसी न किसी प्रकार याद भी दिलाती है ; ‘जागो! समय बहुत कम है’ लेकिन हमारी निद्रा बहुत प्रगाढ़ है |हम अटक गए हैं ,भटक गए हैं ,भूल गए हैं कि समय का जितना अधिक सदुपयोग कर लें ,वह हमारे लिए ही उपयुक्त है| हमें लगता है हम दूसरों के लिए जीते हैं किन्तु क्या हम जानते हैं कि वे दूसरे कौन हैं ?

      मित्रो! क्या यह प्रश्न विचारणीय है कि ये दूसरे कौन हैं? क्या केवल हमारा रक्त का संबंध ही हमारा होता है? क्या हमने रक्त के संबंधों को टूटते नहीं देखा?क्या हम इस वास्तविकता से परिचित नहीं हैं कि संबंध भावनाओं के होते हैं ,संवेदनाओं के होते हैं ,ममता के व स्नेह के ,प्रेम के होते हैं ....स्वार्थ के नहीं |स्वार्थ के संबंधों का कोई श्वेत परिधान नहीं होता , स्निग्धता नहीं होती,लगाव नहीं होता |वे स्वार्थवश बनते हैं ,बिगड़ते हैं और फिर टूट जाते हैं |

जब हम यह स्वीकारते हैं कि हम सब एक परमपिता की संतान हैं तब सभी हमारे मित्र ही हुए बल्कि सब हमारे संबंधी ही हुए न ? हाँ,यह बात अवश्य है कि हम भौतिक  रूप से पूरे विश्व के लिए कुछ नहीं कर सकते किन्तु यह भी विचारणीय है कि प्रेम,स्नेह,ममता बेमोल हैं |उन्हें किसी को धन देकर अथवा भौतिक वस्तु देकर न तो खरीदा जा सकता है और न ही बेचा जा सकता है |तो बस .......इतना ही तो चाहिए हमें |सब पर प्रेम ,स्नेह की वर्षा  कर सकें |सबके लिए नि:स्वार्थ भाव से उत्तम सोच सकें, आवश्यकता पड़ने पर यथाशक्ति एक-दूसरे के काम आ सकें और सबके लिए प्रार्थना कर सकें |केवल अपने लिए नहीं ...उनके लिए भी जो हमें हेय दृष्टि से देखते हों,हमारे लिए अकल्याणकारी सोचते हो |क्या फ़र्क पड़ता है ? एक बार उनके लिए भला सोचकर तो देखें ,हम पाएंगे कि हमारी कटुता विगलित हो गई है,प्रसन्नता बढ़ गई है ,हमारे मन की रोशनी में ईश्वरीय प्रकाश फ़ैल रहा है |उससे प्राप्त गुणों को अपने चिन्तन ,मनन से ,बांटने से द्विगुणित करें ...अपने द्वार बंद न करें |

प्राण प्राण तो एक है ,कुछ तो करें विचार,

क्यों मन में कटुता भरें ,यूँ ही बारंबार |

 

                         आइए,प्रकाश से स्वयं को भर लें ,भली भावनाओं से सबको रोशन कर दें |

                             इसी शुभ विचार के साथ चिंतन करें 

                                   स्वस्थ रहें,प्रसन्न रहें ,मुस्कुराते रहें

                                       आप सबकी मित्र

                                        डॉ.प्रणव भारती