पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 5 Abhilekh Dwivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 5

चैप्टर 5

चढ़ाई की पहली सबक ।

अल्टोना, किएल का मुख्य स्टेशन और हैम्बर्ग का छोटा सा शहर है; जो हमें अपनी मंज़िल के किनारे तक ले जाएगा। अब तक 20 मिनट का सफर पूरा हुआ था और हम हॉलस्टीन में थे और हमारे सामान स्टेशन पहुँच गए थे। वहाँ हमारे सामानों का वजन नापने, पर्ची लगाने के बाद उसे एक बड़ी गाड़ी में डाल दिया गया। हमने अपना टिकट लिया और हम दोनों ठीक 7 बजे, एक दूसरे के आमने-सामने, ट्रेन की प्रथम श्रेणी में बैठे थे।

मौसाजी कुछ नहीं बोल रहे थे। वो अपने पत्रों में खोये हुए थे खासकर उन चर्मपत्र और कुछ सरकारी कागजों में जिसमें आइसलैंड के राज्यपाल से मिलने और पहचान से जुड़े पत्र थे। मेरे लिए तो सिर्फ खड़की से बाहर का नज़ारा ही लुभावना था। लेकिन जैसे ही निर्जन से हरियाली की ओर बढ़ने लगे, ये भी उबाऊ लगने लगा। तीन घंटे में हम किएल पहुँच चुके थे और सामान मोटर-नाव में रख दिया गया था।

अभी हमारे पास पूरा एक दिन था जिसकी वजह से मौसाजी पूरे जोश में थे। हमारे पास शहर देखने के अलावा और कोई काम नहीं था। कुछ समय बाद, लगभग 10.30 बजे हम नाव लेकर आगे बढ़े। रात गहरी थी, समुद्र में हलचल के साथ हवा भी तेज थी, ठीक से कुछ नहीं दिख रहा था लेकिन किनारे पर कहीं अलाव और कहीं प्रकाश-स्तंभ की रोशनी दिख रही थी। सुबह करीब 7 बजे हमने सीलैंड के पश्चिमी छोर का छोटा सा नगर, कोर्सोर को पार किया।

यहाँ से हमने दूसरी ट्रेन पकड़ी जिसने हमें तीन घंटे में कोपेनहेगन पहुँचाया, जहाँ मौसाजी ने चाय-नाश्ता को भी उचित समय ना देते हुए, पहचान पत्र को दिखाने के लिए हड़बड़ी मचा दी। पुरातत्व विभाग के एक निदेशक थे जिनसे हमें मिलना था, उन्हें पहले ही पता था कि हम यात्री हैं तो उनसे जो बन पड़ा उस तरीके से हमारी मदद की। मुझे एक खतरनाक खयाल आया। शायद हमें इतनी दूरी के लिए कोई सवारी ही ना मिले।

नहीं! एक पुर्तगाली नाविक 2 जून को रिकिविक के लिए निकल रहा था। जिस गर्मजोशी से उसके आगामी सवार ने उनसे हाथ मिलाया, कप्तान एमo बार्न को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसके लिए आइसलैंड के लिए नाव खेना स्वाभाविक था। लेकिन मौसाजी ने उसके काम को ज़्यादा ही अहमियत दे दी। ईमानदार नाविक ने किराया दोगुना करने में समय नहीं गंवाया।
"मंगलवार, सुबह 7 बजे।" कप्तान ने पर्ची काटकर बढ़ाते हुए कहा।
"बहुत बढ़िया! ज़बरदस्त!" मौसाजी ने खाने के लिए बैठते हुए अपनी खुशी जाहिर की, "तुम भी कुछ खा-पी लो लड़के, फिर ये नगर घूमेंगे।"
भोजन होने के बाद हम राजा के अतिविशिष्ट महल, संग्रहालय के पास तालाब के ऊपर पुल, थॉरवाल्डसेन के स्मारक, रोसेनबर्ग का किला, और भी कई चीज़ें थीं जिनमें मौसाजी को कोई रुचि नहीं थी, वो अपने खोज को लेकर खोये हुए थे।
लेकिन कोपेनहेगन के दक्षिणी पूर्वी के चौथाई हिस्से में एमक द्वीप पर स्थित एक इमारत ने उनका ध्यान खींच लिया था। मौसाजी ने उसी तरफ चलने को कहा, जहाँ जाने के लिए किराए पर कुछ नाव खड़े थे। हम जल्दी ही उसके उस किनारे पर थे।
वहाँ सड़क पर चलते हमें रंग-बिरंगे कपड़े पहने गुलामों के कई समूह मिले जिसे उनके मालिक छड़ी से हाँक रहे थे और आखिरी में हम उस गिरजाघर तक पहुँच गए।
ये गिरजाघर तो वैसे कुछ खास नहीं था, हाँ उसके गोलनुमा चबूतरे पर बने होने और चारों ओर से लिपटी हुई सीढ़ियों को देखकर वो ज़रूर प्रभावित थे।
"चलो, चढ़ते हैं।" मौसाजी ने कहा।
"लेकिन मैं कभी ऊँचाई पर नहीं चढ़ सकता," मैं गिड़गिड़ाया, "मुझे चक्कर आने लगते हैं।"
"इसलिए तुम्हें चढ़ना चाहिए। तुम्हारी इस बीमारी का इलाज मैं करूँगा।"
"लेकिन मौसाजी..."
"मैं कह रहा हूँ न? समय बर्बाद कर के क्या फायदा होगा?"
मौसाजी के तानाशाही फरमान के आगे बहस करना बेकार था। मन मारकर आगे बढ़ गया। पैसे देने के बाद वहाँ के कर्मचारी ने चाबी दे दी, वो भी आगे नहीं जाना चाहता था। मुझे दिशा का संकेत देते हुए मौसाजी खुद किसी स्कूली बच्चे की तरह सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। जहाँ तक सम्भव था मैं उनके अनुसार चल रहा था लेकिन ऊँचाई पर पहुँचते ही मेरा दिमाग घूमने लगा। मैं कोई चील थोड़ी था। मेरे लिए तो ज़मीन ही सही थी। इससे भी बुरी हालत तब हुई जब 150 सीढ़ी चढ़ने के बाद हम एक मचान तक पहुँचे जहाँ तेज़ ठंडी हवाएँ मुझे छू रहीं थीं। मैं काँप रहा था इसलिए सीढ़ी के जंगले को पकड़ लिया। मैंने ऊपर की तरफ देखा। वो घुमावदार सीढ़ियाँ मुझे अब और खतरनाक लग रही थी जो बादलों की तरफ जा रहे थे।
"अभी और है हेनरी।"
"मुझसे नहीं होगा।" मैंने असहाय होते हुए कहा।
"तुम सही में डरपोक हो क्या?" उन्होंने दया दिखाते हुए कहा, "मैंने कहा न, ऊपर आओ।"
इसका जवाब देना सम्भव नहीं था। और वो हवाएँ मेरी नस तक को छेद रही थे। आकाश, पृथ्वी सब नाचते हुए प्रतीत हो रहे थे, बस वो गिरजाघर अडिग था। किसी शराबी की तरह मैं लड़खड़ा रहा था। हाथों और घुटनों के सहारे किसी सांप की तरह मैं रेंगते हुए, आँखें बंद कर के खुद को आगे धकेल रहा था।
"देखो अपने चारों ओर," मौसाजी ने सख्ती से कहा, "भगवान ना जाने आगे क्या देखना पड़े, इसकी आदत डालो।"
ठंड से काँपते हुए मैंने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। क्या दिखा? जैसे किसी भ्रम की तरह बादल, गिरजाघर, उसपर वायु-दिशा बताने वाला यंत्र और हम दोनों स्थिर थे, एक तरफ हरे-भरे मैदान तो दूसरी तरफ समुद्र का चमकता पानी। एलसिनॉर की तरफ से आवाज़ें आ रही थी और सफेद जहाज़ किसी समुद्री पक्षी के जैसे दिख रहे थे और दूसरी तरफ स्वीडन नज़र आ रहा था। सारा नज़ारा किसी चित्रमाला से कम नहीं था।
लेकिन मेरी घबराहट और बेचैनी का कोई इलाज नहीं था। हर हाल में खड़े रहना था। मेरे तमाम विरोध के बावजूद मुझे एक घंटे तक ज्ञान मिला। लगभग दो घंटे बाद हमने धरती को छुआ, मैं दर्द से किसी बूढ़े, गठिया- पीड़ित जैसा महसूस कर रहा था।
"आज के लिए काफी है।" मौसाजी ने अपने हाथों को सहलाते हुए कहा, "कल फिर शुरू करेंगे।"
इनका कोई इलाज नहीं था। अगले पाँच दिनों तक ये सबक चला और अंत होने तक मैं सब सीख चुका था। अब उस ऊँचाई से बिना पलक झपकाये, मैं देर तक उन नज़ारों का आनंद ले सकता था।