ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 5 padma sharma द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 5

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 5

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय तीन

कहानी का अर्थ, विकास एवं प्रतिनिधि कहानीकारों का जीवन परिचय

1. कहानी का अर्थ

2. कहानी की दिशा

3. कहानी का विकास

(अ) लोक कथायें

(ब) पाश्चात्य प्रभाव

(स) प्रारम्भिक हिन्दी कहानियाँ

(द) प्रेमचन्द युगः विकास युग

(इ) प्रेमचन्द पश्चात काल

(ई) आधुनिक कहानी (चार्ट)

-तीन

कहानी का अर्थ, विकास एवं प्रतिनिधि कहानीकारों का जीवन परिचय

1- कहानी का अर्थः

कहानी का अर्थ है कहना। इसे गल्प, आख्यायिका या कथा भी कहते हैं। जिसे हम आज कहानी कहते हैं वह 19 वीं शताब्दी के अन्तिम दशक और 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दो दशकों मेें विकसित साहित्य-रूप है। हिन्दी में इसका आगमन बंगला के माध्यम से हुआ। स्वयं बंगला में यह अंग्रेजी से आयी। कहानी एक सापेक्ष नाम है। 20 वीं शताब्दी के आठवें दशक में कहानी का जो स्वरूप वर्तमान हैं वह मात्र कहानी नहीं है।.....

आज इस भागदौड़ के युग में जब आदमी को फुरसत के दो‘-चार क्षण भी सामान्यतया उपलब्ध नहीं हैं, आकार की लघुता के कारण कहानी की उपादेयता असंदिग्ध है। यही कारण हैं कि कहानी पूरे विश्व साहित्य में एक सर्वाधिक लोक प्रिय साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित और विकसित हो चली है किन्तु विनोद यह है कि इस असीम प्रतिष्ठित लोकप्रियता के बावजूद कहानी की कोई नीर-क्षीर विवेकयुक्त परिभाषा, मेरी समझ से, एक अपवाद को छोड़कर नहीं दी जा सकी है।

एच.जी.वेल्स ने भय, करूणा मनोरंजन, चमत्कार, सौंेन्दर्य आदि कुछ मानवीय संवेगों का उल्लेख किया है जिनका हमारी संवेदना पर शीघ्र और गहरा प्रभाव पड़ता है कहानी मनुष्य की अनेक अनुभूतियों में से किसी एक को चित्रित करती है इसके अतिरिक्त वेल्स महोदय ने कहानी के लिये बीस मिनट के समय का उल्लेख किया है। संक्षिप्तता कहानी की आवश्यक शर्त है।

जयशंकर प्रसाद

’आख्यायिका में सौन्दर्य की एक झलक का चित्रण और उसके द्वारा रस की सृष्टि होनी चाहिये’’।

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ’अज्ञेय’

’’कहानी जीवन की प्रतिच्छाया है। ’’

प्रेमचन्द

’’कहानी एक रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है।

कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमें गायक महफिल के शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है एक क्षण में चिŸा को इतनी माधुरी से परिपूरित कर देता है जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं होता।

कहानीकार का उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं वरन् उसके चरित्र का एक अंग दिखाना है। वर्तमान आख्यायिका का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक रसास्वादन करना है और जो कहानी इस उद्देश्य से जितनी दूर जा गिरती है, उतनी ही दूशित समझी जाती है।

वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है। सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार, किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।’’

मुझे अपने पर्यवेक्षण में अब तक मात्र दो ऐसी परिभाषाएँ मिली हैं जो कहानी को उसकी समग्रता मे अभिव्यक्त करती हैं। पहली परिभाषा डॉं. लक्ष्मी सागर बार्ष्णेय की है। उनके मतानुसार, ऐसा विवरण जिसमें किसी व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व और मानस व्यापार का रहस्योद्घाटन उसके जीवन की घटनाओं और क्रियाओं अर्थात् उसके सामाजिक परिवेश को लेकर हो, वह कहानी है।

डॉं. बार्ष्णेय की परिभाषा यद्यपि सम्पूर्णता के समीप है किन्तु उसमें भी एक महत्वपूर्ण बात पर दृष्टि पड़ने से रह गयी है। मैं यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हॅू। कि सामाजिक परिवेश के अतिरिक्त स्थितियाँ भी स्वयं कहानी होती हैं वे व्यक्ति से असम्बद्ध नहीं हो सकती हैं।

मुझे जो परिभाषा सबसे अधिक समीचीन और सटीक लगी वह है डॉं. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की परिभाषा। उनके अनुसार कहानी गद्य रचना का कथासम्पृक्Ÿा वह स्वरूप है जिसमें सामान्यतः लघुविस्तार के साथ किसी एक ही विषय अथवा तथ्य का उत्कट संवेदन इस प्रकार किया गया हो कि वह अपने में सम्पूर्ण हो और उसके विभिन्न तत्व एकोन्मुख होकर प्रभावान्विति में पूर्ण योग देते हों। डॉं. शर्मा के शब्द कहानी के सभी आयामों, तत्वों, अंगों और उसकी अपेक्षाओं को समाहित करते हैं।1

कहानी के सम्बन्ध में पूर्वोल्लिखित मन्तव्यों के आधार पर निम्न लिखित निश्कर्ष निकलते हैंः-

01- कहानी गद्य साहित्य की वह विधा है जो जीवन की किसी एक घटना को चित्रित करती है।

02- कहानी एक बैठक में पढ़ी जा सकने वाली होनी चाहिए अर्थात् वह बहुत लम्बी नहीं होनी चाहिए। उसके पढ़ने में पन्द्रह मिनट से लेकर एक घंटे तक का समय लगना चाहिए।

03- कहानी जीवन के किसी एक पक्ष का दिग्दर्ष न कराती है।

04- कहानी में क्रिया प्रभाव और लक्ष्य की एकता होनी चाहिये।

05- कहानी के प्रत्येक शब्द और वाक्य का लक्ष्य कथा वस्तु को आगे बढ़ाना होना चाहिए।

06- सम्पूर्ण घटनाक्रम परिणाम या चरित्र सीमा की ओर उन्मुख होना चाहिए।

07- प्रारम्भ और अन्त आकर्ष क मार्मिक होना चाहिए।

08- अन्य साहित्य रूपों की भाँति कहानी का भी उद्देश्य हृदय की रागात्मक वृत्तियों को जगाकर भाव सम्पृक्त करना और रसास्वादन कराना है।

09- कहानी का आधार जीवन का कोई रहस्य मनोवैज्ञानिक सत्य या जीवन के यथार्थ स्वभाव का चित्रण होना चाहिए।2

2. कहानी की दिशाः

.

3- कहानी का विकासः-

कहानी का आरंभिक स्वरूप किसे माना जाए? यह प्रश्न अत्यन्त जटिल है। एक आरंभिक स्वरूप तो वह है जिसमें कहानी कहने और सुनने, की आदिम प्रवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इनका उद्गम वेद, ब्राह्मण-ग्रंथ, उपनिषद, महाभारत व रामायण आदि प्राचीनतम ग्रंथ है। बौद्ध जातक, पंचतंत्र, हितोपदेश, वृहत कथासरितसागर, वैताल पंचविंशतिका (बैताल पचीसी), शुक सप्तशती, सिंहासनद्वात्रिंशका, दशकुमार चरित आदि प्राचीनतम और प्राचीन ग्रंथों में कहानी का प्रारंभिक स्वरूप परिलक्षित होता है। इन ग्रंथों में प्रतीकात्मक कथाएँ कही गयी हैं जिनका संबंध मानव-जीवन से हैं इन कथाओं की प्रकृति उपदेशात्मक है। इसी क्रम में आगे चलकर वार्ता साहित्य लिखा गया- ’’चौरासी वैष्णवन की वार्ता’’ और ’’दौ सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’’। परन्तु इन्हें कथा या कहानी न कहकर जीवनी कहना अधिक समीचीन होगा।

अ- लोक-कथायें

साहित्य के समानान्तर जनजीवन में भी कथाओं की विपुल सम्पत्ति मौखिक परम्पराओं में सुरक्षित रहती है। लोकजीवन में प्रचलित ये कहानियाँ, प्रेम, उपदेश, हास्य एवं व्यंग्य तथा ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्ण अनेक रूपों में देखी जाती है। हिन्दी का कहानी-साहित्य इनके प्रभाव से सर्वथा मुक्त नहीं माना जा सकता। हिन्दी कहानी साहित्य पर इनके प्रभाव को स्पष्टतः स्वीकार करते हुए डॉं. लक्ष्मीनारायण लाल लिखते हैं -’’ इसी उद्गम-सूत्र से हिन्दी कहानियों की उत्पत्ति को सबसे अधिक प्रेरणा मिली और उस समय प्रायः समस्त हिन्दी कहानीकारों की पहली मौलिक रचनायें इन्हीं लोक कहानियों की प्रतिमायें थीं। उदाहरणस्वरूप, पहले हम ’सरस्वती’ की आरम्भिक कहानियों को लेते हैं। लाल पार्वतीनन्दन की कहानियाँ ’प्रेम का फुआरा’, ’भूतों वाली हवेली’, ’जीवनाग्नि’, ’नरक’ ’गुलजार’ आदि स्पष्ट रूप से इन्हीं लोक कहानियों की प्रेरणा शक्ति से लिखी गई हैं’’।3

ब- पाश्चात्य प्रभावः

पाश्चात्य साहित्य में कहानी-कला का उद्भव सर्वप्रथम अमेरिका में एडगर एलन पो (1809-1849) द्वारा हुआ। अमेरिका के पश्चात् रूस में पुश्किन द्वारा सर्वप्रथम 1830 ईं. में कहानी-साहित्य का श्रीगणेश हुआ। फ्रांस में अमेरिका के उद्गम सूत्र से ही कहानी-कला का जन्म हुआ। अंग्रेजी-साहित्य में कहानी का उद्भव और विकास उपर्युक्त देशों की अपेक्षा देर में हुआ। रूस के प्रसिद्ध कहानीकार चेखव (1860-1904 ई.) की कला का उत्तराधिकार लेकर इंग्लैण्ड में कैथराइन मैसफील्ड (1888-1923 ईं.) ने कहानी-कला का विकास किया। इस प्रकार इग्लैंण्ड में उन्नीसवीं शती के अन्तिम दिनों में कहानी-साहित्य विकसित एवं लोकप्रिय हो सका। बीसवीं शती के प्रारम्भ में, जब हिन्दी-कहानी का उद्भव हो रहा था, हिन्दी-लेखकोें के सामने केवल उतना ही था जितना शिक्षा-संस्थाओं में पाठ्यक्रम में निर्धारित था। उस समय उच्च शिक्षा-केन्द्रों में निर्धारित कहानी-पुस्तकों में मैथेनियल हार्थोन की ’टेंगिलाइड टेल्स’, बाशिंगटन इरविंग की ’स्केच बुक’, चार्ल्स किंग्स्ले की ’दी हीरोज’, चार्ल्स एन्ड मेरी लैम्ब्स की ’टेल्स फ्रॉम श्ैाक्सपियर’ उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त सर वाल्टर स्काट, वाशिंगटन इरविंग और चार्ल्स डिकेन्स की क्रमशः ’दी टू डोवर्स’, ’रिपबान विंकिल’, और ’दी सेविन पुअर ट्रैवलर्स’ आदि कहानियों का एक संग्रह भी ’सेलेक्टेड शार्ट स्टोरीज’ के नाम से प्रचलित था। हिन्दी-कहानी के उद्भव काल में इन कहानी-पुस्तकों ने प्रेरणा दी। कम-से-कम ’टेल्स फ्रॉम शेक्सपियर’ का प्रभाव तो निश्चित रूप से स्वीकार किया जायगा। इसी की प्रेरणा से हिन्दी-लेखकों द्वरा 1900 ई. के आस-पास शेक्सपियर के अनेक नाटकों के अनुवाद ’सरस्वती’ में कहानी रूप में प्रस्तुत किये गये। इसके पूर्व ईसाई मिशनरियों द्वारा ’प्रभु यीशु की कथा’ (1883 ई.), ’केशवराम की कथा’ (1881 ई.), ’यीशू विवरण’ (1883 ई.) आदि छोटी-छोटी कहानियाँ हिन्दी में अनुवादित कराकर प्रकाशित कराई गई थीं। ’माडर्न रिव्यू’ में प्रकाशित होने वाली कहानियों से भी प्रारम्भिक हिन्दी कहानीकारों ने सामग्री ली थी। रूसी और फ्रांसीसी कहानियों का प्रभाव आगे चलकर विकास-युग की हिन्दी-कहानियों पर अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से पड़ा । इस प्रकार जहाँ तक इतिवृŸा का प्रश्न है हिन्दी कहानीकारों ने प्राचीन भारतीय कथा साहित्य, लोक कथायें तथा पाश्चात्य साहित्य इन तीनों से सामग्री ली।4

संबत् 1660 के लगभग लिखे गये ’नासिकेतोपाख्यान’ ग्रंथ में संस्कृत ग्रंथों के आधार पर लिखी गयी कहानियाँ किसी अज्ञातनामा लेखक ने लिखी थीं। सं. 1967 में सूरति मिश्र ने संस्कृत के वैताल पंचविशतिका की कहानियाँ लेकर ब्रजभाषा में ’बैताल पच्चीसी’ नामक कहानियों का ग्रंथ लिखा। खड़ी बोली गद्य में लिखे गये लल्लूलाल, सदल मिश्र और इशाअल्ला खां के ग्रंथ भी एक प्रकार से कथाओं के संग्रह मात्र माने जा सकते हैं। अगर ’कहानी’ शब्द मात्र से ही कहानी का अर्थ लिया जाय, तो इंशा की ’रानी केतकी की कहानी’ हिन्दी की सर्वप्रथम, मौलिक कहानी मानी जा सकती है। इन सभी कहानियों में एक विचित्र बात थी- उनकी सामाजिक तटस्थता तथा तत्कालीन परिस्थितियों से एक अजीब विरस विलगाव। क्योंकि ये कहानियाँ प्राचीन कथा-ग्रंथों का ही हिन्दी रूपान्तर मात्र थीं और इनके लेखकों में वह सामाजिक चेतना नहीं थी, जो प्राचीन कथानकों को अपने समसामयिक संदर्भ में रूपायित करने की प्रेरणाा प्रदान करती है। इनमें कथा को छोड़कर कहानी के अन्य तत्वों का पूर्ण अभाव था।’’5

स- प्रारम्भिक हिन्दी कहानियाँः

हिन्दी-कहानियों का प्रारम्भ सभी इतिहासकारों ने एक स्वर से ’सरस्वती’ के प्रकाशन से ही स्वीकार किया है। ’सरस्वती’ के प्रकाशन के प्रारंभिक दो वर्षों में हिन्दी कहानी की स्वरूप-रचना हो रही थी। इस रचना मेें कई प्रकार के प्रयोग किये जा रहे थे। इन प्रयोगों में - शेक्सपियर के नाटकों के इतिवृत्त के आधार पर वर्णानात्मक शैली में लिखी गई कहानियाँ, स्वप्न-कल्पनाओं के रूप में रचित कहानियाँ, सुदूर देश के काल्पनिक चरित्रों को लेकर लिखी गई संवेदनात्मक कहानियाँ, काल्पनिक यात्रा-वर्णन की कहानियाँ, आत्मकथा रूप में प्रस्तुत कहानियाँ, संस्कृत नाटकों की आख्यायिकायें, घटना-प्रधान सामाजिक संवेदनात्मक कहानियाँ - प्रमुख हैं।

उपर्युक्त प्रयोगों के विषय में डॉं. लक्ष्मीनारायण लाल का निम्नलिखित मत विचारणीय है-’’यहाँ यह भी स्पष्ट है कि इन समस्त प्रयोगों से निर्मित कोई भी कहानी शिल्पविधि की दृष्टि से हिन्दी की मौलिक कहानी नहीं कही जा सकती। क्योंकि इन कहानियों में से कुछ भावपक्ष की दृष्टि से छायावाद हैं, भावानुवाद हैं और शेष कला पक्ष की दृष्टि से कहानी नहीं है, लेकिन यह अवश्य है कि इन प्रयोगात्मक कहानियों में से प्रायः अधिक कहानियाँ अपने लक्ष्य की ओर अवश्यमेव प्रेेेरित है। यही कारण है कि वस्तुतः इन्हीं की प्रेरणा और भाव-शक्ति के फलस्वरूप शीघ्र ही ’सरस्वतती’ के तीसरे ही वर्ष मौलिक हिन्दी-कहानी का आरम्भ हुआ। शिल्पविधि की दृष्टि से प्रथम हिन्दी की मौलिक कहानी है, रामचन्द्र शुक्ल कृत ’ग्यारह वर्ष का समय’’। आगे चलकर हिन्दी की अन्य मौलिक कहानियाँ की सृष्टि होती है, साथ ही बंगला-अंग्रेजी आदि से अनुवाद भी होने लगते हैं।6

1906 ई. की ’सरस्वती’ से हिन्दी-मौलिक कहानियों में विकास परिलक्षित होता है। सातवे बर्ष की ’सरस्वती’ में बंगमहिला कृत ’दुलाई वाली’ कहानी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी गई है। कुछ आलोचकों ने इसे ही हिन्दी की आदि मौलिक कहानी के रूप में स्वीकार किया है।

1909 ई. में काशी से ’इन्दु’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और इसी के माध्यम से ’प्रसाद’ का कहानी-साहित्य में प्रवेश हुआ। ’प्रसाद’ की प्रारम्भिक महत्वपूर्ण कहानियाँ- ’आग’, ’चन्दा, ’गुलाम’, ’चित्तौर-उद्धार’ आदि ’इन्दु’ के प्रारम्भिक वर्षों में ही प्रकाशित हुई है। बॅंगला के प्रसिद्ध पत्र ’प्रवासी’ से अनेक कहानियों का अनुवाद पं. पारसनाथ त्रिपाठी ने ’इन्दु’ में प्रस्तुत किया। हिन्दी-कहानी के विकास में ’प्रवासी’ का प्रभाव ऐतिहासिक महत्व रखता है।

सन 1918 में काशी से ’हिन्दीगल्पमाला’ नामक मासिक पत्र प्रकाशित हुआ। इस पत्र ने कहानियों के कलात्मक विकास में बड़ा योग दिया। इलाचन्द्र जोशी की ’सजनवॉं’ नामक कहानी से मनोवैज्ञानिक कहानियों के विकास की दिशा स्पष्ट हो गई।7

कहानी के आरंभिक स्वरूप का दूसरा प्रकार वह है जो भारतेन्दु युग में जन्मा, प्रेमचन्द युग में विकसित हुआ और प्रेमचन्दोत्तर काल में पूर्णावस्था को प्राप्त हुआ। इन तीनों कालों में कहानी का स्वरूप क्या रहा होगा, इस पर विचार करना समीचीन होगा। भारतेन्दु युग वस्तुतः कहानी का प्रयोगकाल था। ’’भारतेन्दु युग मेंं लघु कथानकों को लेकर कहानी लेखन की परंपरा का जन्म हुआ। राजा शिवप्रसाद सितारे द्वारा लिखित ’राजा भोज का सपना’ राधाचरण गोस्वामी की ’यमलोकयात्रा’, भारतेन्दु की ’एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ ’मूसा पैगम्बर’ आदि रचनाएँ अन्योक्ति पद्धति पर लिखित सफल कहानियाँ मिलती हैं। इनमें कहानी के आवश्यक गुण-चरित्र चित्रण और कथोपकथन का अभाव था।’’8

कहानी में जब परिवर्तन होता है, तो यह परिवर्तन एकांगी नहीं होता अपितु समूची कहानी का होता है इसके कथ्य, भाव, भाषा, संरचना सभी में परिवर्तन होता है। प्रेमचन्द के पूर्व की शिशु कहानी आदर्श वादी सिद्धातों की छोटी-छोटी फ्रॉक पहनकर साहित्य-पथ पर धीरे-धीरे घुटुरून चल रही थी और आगत पश्चिमी सभ्यता के खिलौने को कौतूहलपूर्वक देख रही थी। प्रेमचन्द्र पूर्व का समस्त रचनात्मक साहित्य प्रायः आदर्शात्मक अन्तर्विरोधों के बीच गुजरता हुआ दिखाई देता है। एक ओर जहाँ संस्कृत साहित्य के काव्य सिद्धांत हैं, हिन्दू-धर्म और संस्कृत का एक गौरवमय अतीत है, तभी दूसरी ओर धीरे-धीरे प्रकाश में आ रही एक नयी सभ्यता है, जिसे स्वीकार कर लेना भी उतना ही भयावह और कष्टकारक था, जितना उसे त्याग देना। इसे त्यागा इसीलिए नहीं जा सकता था, क्योंकि भारतीय समाज को अंग्रेजों ने जहाँ एक ओर कई प्रकार की हीन ग्रंथियाँ दीं, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का संपर्क भी संभव किया। संचार, प्रचार व्यवस्था, आधुनिक रहन-सहन तथा ऐसी ही और कई बातें थीं, जिनके माध्यम से भारतीय समाज एकाएक परिवर्तित हुआ- तमाम विरोधों और अन्तर्विरोधों के बावजूद।’’9

द- प्रेमचन्द युगः विकास युगः

हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों में कथानक का विकास आकस्मिक एवं दैवीय घटनाओं पर निर्भर करता था। विकास-युग में यह कथा-विकास चरित्रों की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं द्वारा होने लगा। मनोवैज्ञानिक कथानकों का सूत्रपात प्रेमचन्द की प्रथम कहानी ’पंच परमेश्वर’ से होता है। यह ’सरस्वती’ में जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। आगे चलकर ’हिन्दी गल्पमाला’ के प्रकाशन से इस प्रकार की कहानियों को विशेष प्रोत्साहन मिला। इस प्रकार विकास-युग के प्रथम चरण में ’सरस्वती’ के माध्यम से चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और प्रेमचन्द, ’इन्दु’ के माध्यम से ’प्रसाद’ तथा ’हिन्दी’ गल्पमाला’ के माध्यम से जी. पी. श्रीवास्तव तथा इलाचन्द्र जोशी आदि प्रमुख कहानी लेखक सामने आये। सन् 1925 ई. तक हिन्दी-कहानियों की दो स्पष्ट धारायें परिलक्षित होने लगीं। प्रथम धारा यथार्थवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करती हुई जीवन के व्यावहारिक पक्ष को लेकर विकसित हुईं। इस धारा के अंतर्गत प्रेमचन्द, सुदर्ष न, विशम्भरनाथ शर्मा ’कौशिक’, ज्वालादत्त शर्मा तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी प्रमुख हैं। दूसरी धारा आदर्श प्रधान प्रवृत्ति से प्रेरित होकर भाव सत्य को लेकर आगे बढ़ी इस धारा के अन्तर्गत जयशंकर ’प्रसाद’, चंडीप्रसाद ’हृदयदेश’ तथा राधिकारमण सिंह प्रमुख हैं।

सन् 1930 ई. तक प्रेमचन्द कथा-साहित्य के सम्राट् रूप मे प्रतिष्ठित हुए। प्रेमचन्द ने अपने युग को अपने संस्कारों में ढाल के प्रस्तुत किया। उनकी विशेषता यह थी कि वे निरन्तर युगानुकूल अपने को बदलते रहे। 1907 से चलकर 1936 ई. तक आते-आते प्रेमचन्द्र ने अपनेी जीवन दृष्टि और मान्यताओं में बहुत परिवर्तन कर लिया था।

आलोचकों के अनुसार इन कहानियों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित थे-

(क) चरित्र-प्रधान कहानियाँ

(ख) वातावरण-प्रधान कहानियाँ

(ग) कथानक-प्रधान कहानियाँ

(घ) कार्य-प्रधान कहानियाँ।10

’कहानी’ के रूप में कहानी का वास्तविक स्वरूप प्रेमचन्द काल में ही स्पष्ट उभरा। यह स्पष्टीकरण कहानी के कथ्य और शिल्प दोनों रूपों में परिलक्षित हुआ। इसी काल में जय शंकर प्रसाद की तत्सम शब्दावली प्रधान कहानियाँ परिगणित होती हैं। प्रसाद जी ने अपनी कहानियों कि विषयों का चयन समाज से और इतिहास से किया है। तदनुसार ही उनकी भाषा शैली है। प्रसाद जी कहानी का प्रारम्भ अत्यन्त नाटकीय ढंग से करते हैं। आंधी, आकाशदीप, पुरस्कार, व्रत-भंग, परिवर्तन आदि अनेक कहानियाँ इस कोटि के अन्तर्गत रखी जा सकती हैं। विषय या कथ्य की दृष्टि से भी प्रसाद जी की कहानियों में नवीनता है। ’’प्रसादजी ने अपनी कहानियों में यथार्थवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया, वरन् उन्होंने तो यथार्थवादी शैली को अपनाया है’’।11

प्रेमचन्द काल के अन्य प्रमुख कहानीकारों में विशम्भरनाथ शर्मा कौशिक, पाण्डेय बेचन शर्मा ’उग्र’, सुदर्ष न, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी एवं डॉं. वृन्दावनलाल वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रेमचन्द ने कहानियों का कथ्य और शिल्प से ऐसा सुसज्जित किया है, जिससे उसमें एक ओर तो संपूर्ण कथानक एक इकाई पर केन्द्रित हो गया, दूसरे, कहानी की भाव - भूमि एवं उसके विस्तार का केनवेस अपेक्षाकृत छोटा हो गया और तीसरे, आदर्श व्याख्या एवं उपदेश के स्थान पर उसकी आधारशिला कोई एक भाव या समस्या को बना दिया गया। इतना ही नहीं, प्रेमचन्द ने निम्न से निम्न एवं उच्च से उच्च वर्ग की स्थितियों का अध्ययन करके तत्कालीन जीवन का यथातथ्य चित्रण प्रस्तुत किया’’।12

वस्तुतः प्रेमचन्द्र का काल राजनैतिक उथल-पुथल का काल था। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अनेक राजनीतिक और सामाजिक घटनाए घटित हो रही थी। इनका प्रभाव इस काल की कहानी पर पड़ना स्वाभाविक था और पड़ा भी। ’’इस काल की सबसे बड़ी समस्या समाज के जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया में नारी समस्या थी। गांधीजी के आंदोलन के प्रभाव से नारी, जीवन के खुले प्रांगण में आयी। देश-सेवा की भावना ने उन्हें वैवाहिकी बंधनों से दूर रहकर पुरूषों के समकक्ष जनजागरण के कार्यों की प्रेरणा दी। धीरे-धीरे नयी नारी के उदय का आभास मिलने लगा, किन्तु अंततः भारतीय आदर्श निष्ठ नारियों के चरित्र-स्थापन में ही कथाकारों ने गौरव का अनुभव किया। स्त्रियाँ राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों में गतिशील हुई। अनमेल विवाह पर तीखे प्रहार हुए और वेश्यावृŸिा को नारीत्व का सबसे बड़ा अपमान और सामाजिक जीवन का सबसे घोर कलंक माना जाने लगा। पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क से शिक्षित नारियों में आत्मप्रदर्ष न, वाग्विलास, उन्मुक्त मिलन आदि की प्रवृत्तियाँ जग रही थीं। पाश्चात्य देशों के प्रभाव से तलाक प्रथा ने सिर उठाया, किन्तु जन समर्थन के अभाव में वह सामान्यतः कार्यान्वित होने से वंचित रही। फलस्वरूप तत्कालीन नारी, भारतीय गृहलक्ष्मी के आदर्शों की परिधि से शायद ही बाहर हो पायी।’’13

कहानी की वस्तु में एक पात्र के रूप में निःसंदेह नारी की भूमिका, का विशिष्ट स्थान है। प्रेमचन्द्र के पूर्व युग में नारी का जो आदर्श कथा लेखकों ने अपनी कहानियों में स्थापित किया था, प्रेमचन्द काल में भी उसी रूप को विस्तार दिया गया। परन्तु हजारोें वर्षों से परतंत्रता के जिस खोल में स्त्री का अस्तित्व आवृत था, वह एक झटके में नहीं उतारा जा सकता था। अन्य समसामयिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व आर्थिक विषय तो कहानी के अंग, उपांग बनने ही थे और इस काल में बने भी। पर इस काल की कहानी में नारी का सर्वथा नवीन भूमिका में अवतरण निश्चित ही साहित्य-क्षेत्र की एक अदभुत् घटना थी, जो विशिष्ट थी।

इस काल की कहानी धीरे-धीरे स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रयाण कर रही थी। स्वयं प्रेमचन्द की कहानियों में मनोवैज्ञानिक का प्रवेश हो चुका था, पर मनो-विश्लेषण का अभाव था। यद्यपि इस काल में अन्य लेखकों मे यह आंतरिक शिल्प धीरे-धीरे आकार ले रहा था। जिसे जैनेन्द्र, अज्ञेय व इलाचन्द जोशी आदि ने पूर्णता प्रदान की ’’आज के मनोवैज्ञानिक कहानीकारों की तरह फ्रायड, एडलर, युंग, गेस्टाल्ट के सिद्धांतों का विश्लेषण प्रेमचन्द की कहानियों में नहीं मिलता, फिर भी उनकी ’मनोवृत्ति’ कहानी अपनी कलात्मक प्रौढ़ता के कारण हिन्दी में मनोवैज्ञानिक कहानी का सूत्रपात करती हैं। प्रेमचन्द सांस्कृतिक चेतना सम्पन्न कहानीकार हैं, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में हम प्रसाद को पाते हैं............। वे मानववादी कलाकार है। उन्होंने मानवता के क्रांतिमूलक रूप को न लेकर सुधारमूलक रूप को लिया। गांधीजी की तरह वे पापी से नही, पाप से घृणा करते हैं’’।14

कहानीकार जब अपनी रचना-सृष्टि का विस्तार करता है, तब उसी अनुपात में विभिन्न शैलियाँ भी स्वतः निर्मित होती चली जाती हैं। वस्तुतः प्रेमचन्द युग में दो भिन्न प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से मुखरित हुईं हैं - एक प्रेमचन्द की बाह्य विश्लेषक प्रवृत्ति और दूसरी प्रसाद की आंतरिक रूप के विश्लेषक की प्रवृत्ति । जहाँ प्रसाद-प्रवृत्ति में गीतिकाव्यात्मकता और नाट्य तत्व की प्रधानता है, वहीं प्रेमचन्द्र की बाह्य-विश्लेषक-प्रवृत्ति के कहानीकारों ने आत्मकथात्मक, भाषण, रूपकात्मक, लघुकथात्मिक, आत्मविश्लेषणपरक, नाटकीय, कथोपकथन, पत्रात्मक व चिन्तन प्रधान शैलियों में कहानियाँ लिखी।

इ- प्रेमचन्द पश्चात कालः

यह काल कहानी की प्रौढता, या कहें- ’परिपक्वता’ के लिए जाना जाता है। इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति थी - मनोविश्लेषण के द्वाारा मनुष्य की आंतरिक ग्रंथियों को सुलझााना और उसके परिप्रेक्ष्य में उसकी समस्याओं के निदान की खोज करना। इस काल की सूक्ष्मता ने प्रेमचन्द की स्थ्ालता को बहुत पीछे छोड़ दिया। कहानी में जिस मनोविश्लेषणवाद की बात की जाती है, उसके मूल में पाश्चात्य मनोविश्लेषण सिद्धांत हैं।

यूंँ तो प्रेमचन्द काल में जैनेन्द्र के द्वारा इस शैली का बीजवपन हो चुका था, पर प्रेमचन्दोत्तरकाल में वह तेजी से पल्लवित - पुष्पित हुआ। स्पष्ट है, जब वस्तु बाह्य से अन्तर्मुखी हुई तो उसके शिल्प विधान में भी परिवर्तन हुआ। ’’प्रसाद अथवा प्रेमचन्द की ऐतिहासिक कहानियों के ढर्रे में हम उनकी कहानियाँ नहीं रख सकते। जर्मनी के सम्पूर्णतावादी गेस्टाल्ट मनोविज्ञान से जैनेन्द्र पर्याप्त प्रभावित हैं, जिसका प्रचार बरदरमियर कोइलर, एवं काफ्का द्वारा हुआ या मूलतः आधुनिक मनोविज्ञान के विस्तृत क्षेत्र में गेस्टाल्ट की भूमि ही ऐसी है, जहाँ भारतीय संस्कृति और विचारधारा यूरोपियन विचारधारा से मेल खा सकती है।’’15

जैनेन्द्र की कहानियाँ दार्ष निकता, गेस्टाल्ट के सम्पूर्णतावादी दर्ष न एवं फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद से स्पष्ट रूप से प्रभावित हैं। इनके आगमन से हिन्दी कहानी में एक नये युग का उदय होता है। ’उनकी कहानियों में कथा वामन रूप धारण करके आती है। मानव को लेकर उसे विश्व की परिक्रमा नहीं करनी थी, किन्तु विश्व को लेकर मानव के हृदय और मस्तिष्क की अतल और संकीर्ण अपरिचित गलियों का चक्कर लगाना था, उसके टेढे़-मेढे़ अंधकारपूर्ण कोनों को देखना था।’’16

जैनेन्द्र ने नव-कहानी शिल्प का सूत्रपात किया। इनकी कहानियों के कथानक सूक्ष्म है और चरित्र प्रधान है। इनकी भाषा लक्षणा-व्यंजना प्रधान है और शैली में विविधता है। आत्मविश्लेषण, मानसिक द्वन्द्व एवं घात-प्रतिघात तथा अवचेतन का प्रकाशन इनकी अन्य शिल्पगत विशेषताएँ हैं।

अज्ञेय भी जैनेन्द्र-परम्परा के कहानीकार हैं। पर, जहां जैनेन्द्र फ्रायड के साथ-साथ गेस्टाल्ट से प्रभावित हैं, वहीं अज्ञेय फ्रायड के व्याख्याकार हैं। इन्होंने व्यक्ति और उसके अंतर्मुखी संघर्ष को फ्रायड के सिद्धान्तों की शास्त्रीय भाषा में विश्लेषित किया है। यह मनोविज्ञान अपनी कहानियों में वे दो स्तर पर व्यक्त करते हैं-समाज के व्यापक फलक अर्थात् व्यापक सामाजिक स्तर और दूसरे व्यक्तिगत स्तर पर। डॉं. देवराज उपाध्याय का संदर्भ देते हुए डॉं. मधु संधु लिखती हैं- ’’जिस प्रदेश की ओर देखने का साहस देवकीनन्दन खत्री के ऐय्यार स्पर्ष नहीं कर सके, गहमरीजी के जासूस अपनी सारी चातुरी के बावजूद जिसका रहस्योद्घाटन नहीं कर सके, प्रेमचन्द जिस रहस्य कूप के तट पर झांक कर लौट आयेे, उसी रहस्य का उद्घाटन अज्ञेय की ’कोठरी’ कितने साहस के साथ निःसंकोच कर रही है। यदि फ्रायड के चित्र विश्लेषित मनोविज्ञान ने इसके लिए वातावरण तैयार न कर दिया होता, तो यह बात कभी संभव थीं?’’17

अज्ञेय ने भी अपनी कहानियों में विविध शैलियों का प्रयोग कर उनके शिल्प को अनेकता प्रदान की है। नाटकीय शैली, कथात्मक शैली, आत्मकथात्मक शैली, पत्रात्मक शैली आदि विविध शैलियों का प्रयोग इनकी कहानियों में है। इनकी कहानियाँ आत्मसंघर्ष प्रधान हैं और कथोपकथन इनकी कहानियों की प्रमुख प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति प्रेमचन्दोत्तर

प्रेमचन्दोत्तरकाल के तीसरे प्रमुख कहानीकार हैं - इलाचन्द जोशी। इनकी कहानियों में मध्यवर्गीय ह्रासोन्मुख प्रवृत्तियों और कुण्ठाओं के विश्लेषण के साथ-साथ व्यक्ति के अहं की एकान्तिकता पर प्रहार किया गया है। सेक्स संबंधी घुटन, कुण्ठा और विक्षिप्तियों का मनोविश्लेषण जोशी जी की कहानियों में मिलता है। इनके पात्र असाधारण मनोवृत्ति के होते हैं।

इस काल के जो अन्य प्रमुख व चर्चित कथाकार हैं, उनमें उपेन्द्रनाथ अश्क, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, नागार्जुन एवं भैरवप्रसाद आदि के प्रमुख नाम हैं। यशपाल सहित इन सभी कहानीकारों का मूल स्वर प्रगतिवादी हैं।

सन् 50 से कहानी के कथ्य और शिल्प में सर्वथा नया परिवर्तन परिलक्षित हुआ। इसे नाम दिया गया - ’’नई कहानी’। इसके प्रमुख कहानीकारों में मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, अमरकान्त, मार्कण्डेय, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, शरद जोशी, धर्मवीर भारती, रमेश वक्षी, मन्नू भण्डारी और उषा प्रियंवदा आदि के उल्लेखनीय नाम हैं। नई कहानी के तमाम रूपबंध बदले हुए हैं। आज का कथाकार कहानी के परंपरागत कथानक, पात्रों के चरित्रों का चित्रण, संवाद, शिल्प, वातावरण व उद्देश्य आदि के प्रति सचेत नहीं हैं। स्पष्ट है, जब कहानी से ये तत्व अनुपस्थित रहेंगे तो समीक्षा के मानदण्ड भी बदलेंगे और बदले भी हैं। वस्तुतः आज की कहानी में कथ्य और शिल्प परस्पर गुंथे हुए हैं, जिन्हें परंपरागत तत्वों के आधार पर अलग-अलग विश्लेषित करना असंभव नहीं, तो दुरूह अवश्य है।

’’यह भी एक विडम्बना ही है कि जो कहानीकार सहसा ’नयी कहानी’ के झंडाबरदार हो उठे हैं, वे दरअसल नयी कहानी के हकदार ही नहीं रह गये हैं लगता है, जैसे बाहरी नारा भीतरी खोखल को ढकने का एक बहाना-भर है। मुट्ठी की पकड़ जिस तरह झंडे पर कसती जा रही है, उससे लगता है कि जरूर पांवों के नीचे से जमीन खिसक रही है। लेकिन ये कहानियाँ कब तक छप सकती हैं’’?18

जब भी प्रचलित परिपाटी में परिवर्तन की सुगबुगाहट होती है, उसकी भय एवं कौतूहल मिश्रित प्रतिक्रियाएँ प्रारंभ हो जाती हैं- यह सहज और स्वाभाविक भी है। नयी कहानी के साथ भी ऐसा ही हुआ, पर धीरे-धीरे पूरा परिदृश्य साफ होता गया। ’’नवलेखलन के इस व्यापक परिवेश को देखते हुए, नयी कविता के वजन पर कहानी में भी नयी कहानी का पश्न उठना सर्वथा संगत था और इस पर किसी के चौंकने लायक कोई बात न थी, क्योंकि किसी भी साहित्य के लिए या स्पृहणीय स्थिति नहीं हो सकती कि कविता तो एक भाववोध पर चले और कहानी उपन्यास आदि गद्य कृतियाँ किसी अन्य भाववोध के रास्ते। यदि समूचा नवलेखन एक ही ऐतिहासिक संदर्भ के प्रति प्रतिश्रुत है, तो जीवन-दृष्टियों के भेद और वैयक्तिक विशिष्टताओं के बावजूद समूचे नवलेखन के मूल में एक सी बुनियादी संवेदनाओं का होना ऐतिहासिक आवश्यकता है। और फिर प्रश्न संवेदना का ही नहीं बल्कि एक सी सृजनात्मक भाषा का है, जिसके माध्यम से, चाहे गद्य में हो, चाहे पद्य में, नवलेखन की रचना संभव होती है’’।19

जो भी हो, पर हिन्दी साहित्य में नई कहानी को उसकी समग्रता के साथ स्वीकार किया गया है और अब वह पूरी तरह स्थापित हो चुकी है, अपना स्थान साहित्य में बना चुकी है। अब इस कहानी के ’नयेपन’ से अलग होने का अर्थ है पिछड़ जाना, जिस विशेषण को सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता, पिछड़ापन प्रगतिशीलता का द्योतक तो नहीं ही हो सकता।

नई कहानी की तर्ज पर सन् साठ के बाद की कहानी को साठोत्तरी कहानी, नूतन कहानी, अकहानी आदि नाम दिये गये, पर तत्वतः उनमें कोई मौलिकता नहीं है। ये नामकरण केवल जड़ता या एकरसता को भंग करने के लिए दिये गये फतवे जैसे हैं। सच तो यह है कि प्रेमचन्द पूर्व से कहानी का जो सफर अनगढ़ पंथ पर प्रारम्भ हुआ था, प्रेमचन्द काल में उसे राजपथ मिला और उससे चलकर अब वह और सुगढ तथा सुन्दर मार्ग पर उŸारोत्तर गतिशील हो रही है, होती जा रही है। कहानी का वर्तमान समृद्ध है, भविष्य भी समृद्ध ही होगा।20

ई- आधुनिक कहानी

शिल्प

वर्तमान युग से तात्पर्य सन् 1980 के बाद से आज तक के समय से है। सन् 1990 से देश-विदेश में पर्याप्त राजनैतिक एवं सामाजिक उथल-पुथल हुई। पंजाब समस्या के चलते सन् 1984 में भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री एवं अत्यन्त सशक्त व लोकप्रिय नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी का नृशंस वध उनके ही अंगरक्षकांे द्वारा कर दिया गया। मानव-जीवन में स्थापित अडिग विश्वास पर प्रश्न चिन्ह लग गया और इसके साथ इस बिंदु पर भी कि पुरूष प्रधान समाज में नारी क्या कभी अपना सुरक्षित स्थान न बना पाएगी? इन्हीं दशकों मेे संचार क्रान्ति हुई-जबरदस्त क्रांति, जिसने समूचे विश्व को दूरदर्ष न के एक हाथ लम्बे पर्दे पर संकुचित कर दिया। मनोरंजन एवं सूचना प्रौधोगिकी के नाम से देश विकसित अवश्य हुआ। परन्तु मनुष्य-जीवन के सारे परम्परागतक भौंतिक मूल्य भरभराकर गिर गये। आचार-विचार बदले, खान-पान बदला यहां तक कि संस्कार बदल गये। इन सबका प्रभाव हिन्दी-कहानी पर पड़ना स्वाभाविक था और पड़ा भी।

नवयुग 2000 प्रारंभ होते होते देश में सूचना-प्रौधोगिकी का वर्चस्व स्थापित हो गया। इन्टरनेट एवम् ई-मेल की सुविधा घर-घर में हो गयी। चलित दूरभाष (मोबाइल) जन-जन के कण्ठ का हार बन गया और इसे सम्पन्नता व सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक मान लिया गया। इसी बीच आया ग्रामों के विकास के लिए पंचायती राज, जिससे ग्रामों के शोशितों व कृषकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सत्ता में हुई। इसके लाभ कम, हानियाँ अधिक हुईं। सत्ता व अधिकार पाकर ग्राम वासियों की वर्षों से दमित कामनाएँ सिर उठाने लगीं। प्रजातांत्रिक अधिकारांे का विकेन्द्रीकरण तो हुआ। परन्तु उस भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण हुआ, जिसे ग्रामीण जन कोसते नहीं अधाते थे। पहले यह भ्रष्टाचार अधिकारी-कर्मचारी ओैर राजनेताओं तक सीमित था, अब ऊपर से बहती हुई इस धारा ने ग्रामीण-अर्थात् पंचायत-प्रतिनिधियों को भी आकृष्ट आप्लावित कर दिया। चुनाव का स्वरूप रक्तरंजित हो गया और ग्राम-ग्राम में दलगत तथा व्यक्तिगत वैमनस्यता सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती गयी। यह सब हिंसा उस गांधी के सपनों को साकार करने के लिए हुई और हो रही है जो जीवन भर अहिंसा की साधना करता रहा।

आज का सजग कहानीकार इस ओर सजग है और सामाजिक जीवन की इन नयी विसमताओं को अंकन करने के प्रति सचेष्ट हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों एवम् ग्राम-स्वराज्य के खोखलेपन को आज का कहानीकार अपनी कहानियों की विषयवस्तु बना रहा है। वह कभी सपाटबयानी के द्वारा तो कभी तीखे व्यंग्य के माध्यम से फोड़े में चाकू चुभाकर मवाद को निकालने का प्रयत्न कर रहा है।

अयोध्या में दिसम्बर 1992 में बावरी मस्ज़िद गिरने के साथ ही साम्प्रदायिक दंगों से देश हिल गया। देश के विभाजन के बाद प्रथम बार पुनः वैसा ही दृश्य उपस्थित हुआ। दंगे, लूटपाट, हिंसा और आगजनी ने मानवता को एक बार फिर लज्जित कर दिया। घातों को सहलाने के लिए एक बार फिर ’हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई’ के नारेगली-गली गूंजने लगे, परन्तु दोनों सम्प्रदायों के बीच गहरी होती गयी खाई पट न सकी। अविश्वास के बादल घने होते गये। हिन्दी का कहानीकार इस दिशा में अत्यन्त सजग व सतर्क था। साम्प्रदायिक सौहार्द्र की स्थापनार्थ उसने भी ’पंच परमेश्वर’ के अलग चौधरी और जुम्मन शेख जैसे पात्रों को गढ़ना प्रारम्भ किया। उसे तलाश थी- समाज में बिखरे ऐसे पात्रों की, ऐसे चेहरों की, जिस की सहायता से वह भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप चित्रित कर सके। कहानीकार अपने इस उद्देश्य में सफल भी हुए।

हिन्दी कहानी में जब समसामयिक जीवन का चित्रण हो रहा था, तो ठीक इसी समय एक और आन्दोलन की तैयारी चल रही थी, यद्यपि इसका मूल स्त्रोत महाराष्ट्र में रचित दलित साहित्य था। यह दलित साहित्य मराठी से होता हुआ हिन्दी में आया और इसने हिन्दी-कहानी-लेखकों को पर्याप्त प्रभावित किया। दलित साहित्य-लेखन अकेला नहीं था। इसके साथ था स्त्री विमर्ष । यद्यपि हिन्दी में इस प्रकार का लेखन प्रेमचन्द के समय सेे ही हो रहा था, किन्तु दलित-साहित्य के रूप में नब्बे के दशक में हिन्दी में यह विधा प्रवेशित हुई और शनैः शनैः इसने समूचे हिन्दी साहित्य को प्रभावित किया।

दलित साहित्य लेखन-आन्दोलन का मूल उत्स महाराष्ट्र है। महाराष्ट्र के अनेक दलित लेखकोे ने इसे आन्दोलन का रूप प्रदान किया। डॉ. शरषकुमार लिम्वाले ने तो बाकायदा ’दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’ जैसी कृति लिखकर दलित-साहित्य को शास्त्रीय रूप देने का प्रयास किया है। इसके अनुसार-दलित साहित्य की अपनी रस-सृष्टि हैं, अपने अलंकार में, अपने काव्य रूप हैं और उसका अपना शास्त्रीय स्वरूप और समीक्षा है। डॉ. लिम्बाले प्रेमचन्द प्रभृति लेखकों के लेखन को दलित सहित्य के अन्तर्गत परिगणित नहीं करते।

मराठी के दलित साहित्य लेखन का प्रभाव हिन्दी पर भी पड़ा। दलित साहित्य लेखन में हिन्दी क्षेत्र के ओमप्रकाश बाल्मिीकि, महावीर प्रसाद, कालीचरण-’सतेश्री’ प्रभृति लेखक अच्छा लेखन कर रहे हैं। ’हंस’ का तो एक अंक भी जो सीधे-सीधे दलित साहित्य और स्त्री विमर्ष पर केन्द्रित था। हंस के सम्पादक, जो प्रगतिशील विचारधारा के पोषक हैं (राजेन्द्र यादव) इस आन्दोलन के सबसे बड़े हिमायती हैं। दलित-साहित्य-लेखन के क्षेत्र मे आज अनेक प्राचीन अर्वाचीन कथाकार काम कर रहे हैं। दलित साहित्य-लेखन मूलतः बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन-दर्ष न पर आधारित है। इस तथ्य को डॉ. शरशकुमार लिम्बाले ने स्वयं स्वीकार किया है। डॉ. लिम्बाले का सम्पूर्ण कथा-साहित्य दलित-साहित्य के इसी बिंदु के चारों ओर भ्रमण करता प्रतीत होता है। डॉ. लिम्बाले का यही साहित्य-सिद्धान्त हिन्दी के दलित-लेखन के साहित्य सर्जकों ने अंगीकृत किया। वर्तमान समय में हिन्दी-कहानी का रूझान दलित-लेखन एवं स्त्री-विमर्ष पर हैं, परन्तु यह मानना गलत होगा कि वर्तमान कहानी-लेखन का सम्पूर्ण परिवेश दलित साहित्य के चारों ओर केन्द्रित है। दलित-साहित्य से हटकर समसामयिक विषयों पर भी कहानियों का प्रयत्न हुआ और अघतन हो रहा है। संदर्भ सूची

अध्याय तीन

कहानी का अर्थ, विकास एवं प्रतिनिधि कहानीकारों का जीवन-परिचय

01- डॉं. सूबेदार राय - स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी का विकास - पृ. - 9-15

02- वही पृ. 14

03- डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल-हिन्दी कहानियों की शिल्प-विधि का विकास पृ.- 304

04- डॉं. रामचन्द्र तिवारी - हिन्दी का गद्य-साहित्य - पृ. - 154-156

05- राजनाथ शर्मा - साहित्यिक निबंध - पृ. - 605-606

06- डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल-हिन्दी कहानियों की शिल्प-विधि का विकास पृ.- 57

07- डॉं. रामचन्द्र तिवारी - हिन्दी का गद्य-साहित्य - पृ. - 158

08- डॉं. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी - साहित्यिक निबंध - पृ.- 292

09- डॉं. नीलम गुप्ता - हिन्दी कहानी और रचना सिद्धान्त - पृ. - 22

10- डॉं. रामचन्द्र तिवारी - हिन्दी का गद्य-साहित्य - पृ. - 160

11- डॉं. नीलम गुप्ता - हिन्दी कहानी और रचना सिद्धान्त - पृ. - 60

12- डॉं. द्वारिका प्रसाद सक्सैना - हिन्दी के प्रतिनिधि कहानीकार - पृ. - 82

13- डॉं. राजेन्द्र पंजियार - हिन्दी कथा साहित्य पूर्व परिच्छेद - पृ. 130

14- डॉ. मधु संधु - कहानीकार निर्मल वर्मा - पृ. - 16

15- वही पृ. - 25

16- वही पृ. - 27

17- वही पृ. - 29

18- देवीशंकर अवस्थी - नई कहानीः सदर्भ और प्रकृति - पृ. - 243

19- वही पृ. - 235

20- डॉं. मनोज भार्गव - बुंदेलखण्ड की प्रमुख महिला कथाकारों क लेखन में

सामाजिक स्वरूप - शोध प्रबंध - जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर -2007 पृ. - 72-76