बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 15 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 15

भाग - १५

उनकी यह बात सुनकर सोचा कि, अम्मी तुम और जो हुआ वह जानकर ना जाने क्या कहोगी । मगर मुझे खुद पर कोई पछतावा नहीं है, क्योंकि मैं पक्के तौर पर कहती हूं कि मैंने कुछ भी नाज़ायज़ नहीं किया। उस समय मेरे मन में चाहे जितनी उथल-पुथल थी, लेकिन पुरस्कार की खुशी उस पर भारी थी। तो मैंने सबसे पहले ग्यारह हज़ार रुपये और ट्रॉफी उनके हाथ में देते हुए कहा, 'अम्मी, मुझे वहां बहुत सारे लोगों के बीच यह पुरस्कार दिया गया। इसकी असली हकदार तुम्हीं हो। तुमनेअपना हुनर ना सिखाया होता तो मुझ अनपढ़ को कहां कोई पूछता।'

अम्मी ने कांपते हाथों से रुपये और ट्रॉफी को लिया और बड़ी हसरत भरी नजरों से देखने लगीं। उनकी आंखें भर आई थीं। बहुत भावुक हुई जा रही थीं।

मैंने प्यार से उन्हें पकड़ते हुए पूछा, 'अम्मी तुम खुश हो ना? काहे परेशान हो रही हो ?'

'नहीं बेंज़ी, मैं परेशान नहीं हूं, मैं तो खुश हूं। सोच रही हूं तू, तेरी बहनें कितनी हुनरमंद हैं। मगर सब कैसे क्या से क्या हो गया। ऊपर वाले का शुक्र है कि उसने तुम्हें मौका दे दिया। तू आगे बढ़ चली है। नाम रोशन करने लगी है, भले ही देर से ही सही। मगर बाकी दोनों को अपना हुनर दिखाने का मौका ही नहीं मिला। मेरी तरह निकाह, शौहर बच्चों में पिस रहीं हैं। हर चीज का एक समय होता है। अब वो कहां कुछ कर पाएंगी, सिवाए रोटी-दाल के लिए मशक्कत के। मुझे अब उन दोनों से कोई उम्मीद नहीं रही।'

'इसीलिए कहती हूं अम्मी, तुम मेरे निकाह की चिंता छोड़ दो। मुझे मौका दो कि मैं दुनिया में तुम्हारा नाम रोशन करूं।'

'नहीं बेंज़ी निकाह भी जरूरी है। बच्चे भी जरूरी हैं। बस तुम्हें शौहर ऐसा मिले, जो तुम्हारी, तुम्हारे हुनर की कद्र करने वाला हो। तुम्हारी तरक्की के लिए मददगार बने ना कि तुम्हारे पैरों की बेड़ियाँ। ना ही ऐसा जाहिल मिले, कि सांसें कितनी लो यह भी गिन कर तय करे।' अम्मी की इन बातों ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया तो मैंने उनसे कहा, 'अम्मी छोड़ ना निकाह-विकाह की बातें। यह बताओ कि खाना खाया कि नहीं?'

'नहीं, सोचा कि आ जाओ तो साथ ही खाऊँगी।'

'क्याअम्मी, बड़ा ज़ुल्म करती हो खुद पर। बताओ दो बज गए हैं। खाना तक नहीं खाया। यह देखो नाश्ता भी रखा है। तुम ऐसे भूखी रहोगी तो, ना मैं कुछ कर पाऊँगी, न आगे बढ़ पाऊँगी।'

'अरे भूख नहीं लगी तो क्या करती।'

'ठीक है, मैं दो मिनट में गुसल करके आई।'

रात दो बजे नहाने का कोई वक्त नहीं था, लेकिन उस हालत में, मैं अम्मी के साथ खाना नहीं खाना चाहती थी। अभी तक दुपट्टे को अजीब ढंग से आगे किए हुए, भीतर ही भीतर थर-थर कांप रही थी कि, अम्मी की नजर कहीं उस जगह न पड़ जाए जो झट से मेरी उनसे चुगली करने के लिए बेताब है।

उन्होंने कहा भी, 'इस समय क्या नहाओगी, हाथ-मुंह धो लो बस।' लेकिन मैं हर हाल में गुसल करना चाहती थी। इसलिए दिन भर धूल-पसीने का वास्ता दिया और जल्दी-जल्दी गुसल करके अम्मी के साथ खा-पीकर अपने अस्त-व्यस्त से कमरे में आ गई।

तभी मेरे दिमाग में आया कि देखूं ज़ाहिदा, रियाज़ जाग तो नहीं रहे हैं। नहीं तो इतनी रात को आने की खबर इनको हो गई होगी। मैंने आंखें उनके कमरे में गड़ाई तो देखा दोनों एक दूसरे की आगोश में समाए सो रहे थे। बच्चा एक तरफ सो रहा था। ट्यूबलाइट जल रही थी। जिसे देख कर मुझे गुस्सा आई कि बिल देते समय पचास तरह का मुंह बनाएंगे कि इतना ज्यादा बिल कैसे हो गया। मगर दोनों की बेइंतिहा मोहब्बत देख कर मन में यह आए बिना नहीं रहा कि जो भी हो मुझे प्यार करने वाला ऐसे ही टूट कर प्यार करने वाला हो। तब मुझे मुन्ना का प्यार ज़ाहिदा-रियाज़ के प्यार से भी ज्यादा गहरा लगा। मैं उसके ख्वाबों में खो गई।

नींद में भी वह मुझे बेइंतिहा प्यार करता रहा। कभी वह मेरी बाहों में, कभी मैं उसकी बाहों में। मेरा यह हसीन सपना कानों में पड़ीअम्मी की तेज़ आवाज़ ने तोड़ दिया।

मैं हड़बड़ा कर उठी, कपड़े पहने, अम्मी के पास पहुंची तो वह बोलीं, 'क्या बेंज़ी, सेंटर नहीं जाना क्या? देख कितना टाइम हो गया है।'

सुबह के साढ़े नौ बज गए थे। मैंने कहा, 'अभी तैयार हुई अम्मी। इतनी रात हो गई थी कि नींद ही नहीं खुली।' यह पहली रात थी जब ज़ाहिदा-रियाज़ नहीं मुन्ना के कारण मैं रात भर सो नहीं सकी थी। तकरीबन चार बजे तो आंख लगी थी। सेंटर में भी दिन भर ठीक से काम नहीं कर पाई और मन मुन्ना से ही जुड़ा इठलाता रहा, अठखेलियां करता रहा। मुन्ना दो बार आये और काम की जो बातें थीं बताकर चले गए।

उन्हें देखकर लग ही नहीं रहा था कि, वह कुछ वैसा ख़ास समय मेरे साथ बिता चुके हैं । जो मैं आखिरी सांस तक भुलाए ना भूल पाऊँगी। शाम को चलने को हुई तभी मुन्ना आये और मुझे एक महीने बाद काशी में होने वाले एक कार्यक्रम के बारे में बताया। जो मुख्यतः कढाई -बुनाई या बुनकरों से जुड़ा हुआ था। उन्होंने कहा, 'यह तुम्हारे लिए बाराबंकी से भी बड़ा अवसर है। शामिल होने के लिए फॉर्म ऑनलाइन भरना है। आज लास्ट डेट है। चलना चाहोगी। मैं तो जा रहा हूं। उम्मीद है वहां काफी फायदा होगा। मुझे भी अभी घंटे भर पहले ही किसी दोस्त से मालूम हुआ है।'

मुन्ना की बात पर मैंने तुरंत हां कर दी। फॉर्म भी उन्होंने ही भर दिया। मुझे वह एक-एक बात ऐसे बता रहे थे, जैसे सिखा रहा हों। मुझ से यह भी कहा कि पहले अम्मी से पूछ लो। बहुत जोर दिया। लेकिन मैंने कहा, 'वह मान जाएंगी, मना नहीं करेंगी। तुम फॉर्म भर दो।' उन्होंने गौर से मुझे देखा, फिर फॉर्म भर दिया। उसमें फोटो भी अटैच करनी थी। तो अपने मोबाइल से ही फोटो खींचकर उसे भी अटैच कर दिया। फोटो खींचते समय, कपड़े ठीक करने के बहाने उन्होंने कई बड़ी खूबसूरत सी शरारत भी मेरे साथ कर डाली। जो मुझे भीतर तक गुदगुदा गई। मुझे शर्म नहीं, डर लगा कि कहीं कोई देख ना ले।

घर आकर अम्मी को बताया कि, 'अम्मी करीब आठ-दस दिन के लिए काशी जाना है। बाराबंकी वाले से भी बड़ा कार्यक्रम है। अगर सब ठीक रहा तो फिर कोई बहुत बड़ा ईनाम जीत सकती हूं। वहां सबसे छोटा इनाम भी दो लाख रुपये का है। तुम यहां पर काम कर रही लड़कियों को आराम से देखती ही रहती हो। सब काम भी अच्छा कर रही हैं।'

मेरी बात सुनकर अम्मी बड़ी चिंता में पड़ गईं। बड़ी देर तक सोचने के बाद बोलीं, 'इतनी दूर तुम अकेली ही जाओगी।'

'नहीं मुन्ना भी है। उसी के साथ जाऊँगी।'

'अरे वो लेकिन है तो बाहर का ही ना। एक मर्द ही है ना। उस पर इतना यकीन कैसे करूं। वह भी आठ-दस घंटे के लिए नहीं आठ-दस दिन के लिए। तुम्हें कितनी बार बताया कि किसी भी लड़की, औरत के लिए मर्द की नजर एक ही होती है। मौका मिलते ही उसकी आबरू पर हाथ साफ कर देना ही उनकी जेहन में चलता है। तू होशियार रहे, अपनी आबरू की अहमियत को समझे, इसके लिए तुझे, तेरे बचपन की एक घटना की बार-बार याद दिलाती रहती हूं। जब तू सोलह-सत्रह की रही होगी तब दूर के तेरे एक चच्चा आए थे। हज पर जाने से पहले सबसे मिलने के लिए निकले थे। यहां भी आए, उनका पूरा परिवार था। उन्हीं का बड़ा मासूम सा दिखने वाला सोलह-सत्रह साल का लड़का तेरी आबरू का दुश्मन बन बैठा था। वो तो तेरा मुकद्दर अच्छा था जो मौके पर तेरी दोनों बड़ी बहनें पहुंच गईं और तेरी आबरू बचा ली थी। नहीं तो उस कलमूंहे ने तेरी आबरू लूटने में कोई कोर कसर-बाकी नहीं रखी थी।

अपने मकसद में कामयाब हो जाता तो तू एक लुटी हुई आबरू वाली लड़की होती। घर के किसी कोने में पड़ी रहती। लोग पुलिस में भी जाने से रोक रहे थे कि, घर की बात घर में ही निपटा लो। मैं तो उस करमजले को उसी वक्त पुलिस को हर हाल में दे देना चाहती थी। मेरा खून खौल रहा था कि मेरी फूल सी बच्ची पर उसकी गंदी नज़रें, गंदे हाथ पड़े। लेकिन तेरे अब्बू ने रोक दिया की बदनामी होगी जातीय मसले हैं। कौम की बदनामी पर क्यों अमादा है। मुझे गाली देते हुए बोले, 'तेरे गलीज दिमाग में इतना नहीं आया कि मामला पुलिस में गया तो भाईजान की हज यात्रा भी मुश्किल में पड़ जाएगी। इतना बड़ा गुनाह करके तुझे दोजख में भी जगह नहीं मिलेगी।'

मुझे बड़ी गुस्सा आई थी कि गुनाह कौन कर रहा है, गुनाहगार सामने है, और गुनाहगार मुझे बताया जा रहा है। अजीब आदमी है। अपने बच्चे के साथ जिसने गुनाह किया उसकी मुखालफत करने, उसे सजा दिलाने के बजाय उल्टा हमें ही, बच्ची को ही ऐसे गुनाहगार कह रहा है कि जैसे दुनिया के सबसे बड़े गुनाहगार हम हैं। वह तो उसके अब्बू की यह बात मानने तैयार हो गए कि, जब वह हज़ से लौटेंगे तो उसी लड़के से तेरा निकाह करा देंगे।मैंने कहा बस बहुत हुआ, भलाई इसी में है इनकी कि तुरंत भागे यहां से नहीं, अब पुलिस बुलाने में देर नहीं करूंगी। मगर इनकी निखट्टई, शह के कारण वह करमजला और उसके अब्बा भी ऐसे ऐंठे हुए थे कि, जैसे गुनाह हमने किया है। मैं बड़ी मुश्किल से थाने जाने से खुद को रोक पाई थी। लेकिन फिर भी जिद पर अड़ गई कि पूरा परिवार इसी वक्त भागे यहां से। मैं उनको भगा कर ही मानी। लेकिन इसके लिए तेरे अब्बू ता-ज़िंदगी मुझसे, जब-जब याद आता तब-तब झगड़ा करते रहे।'

अम्मी की बातों को गौर से सुनने के बाद मैंने कहा, 'अम्मी एक बात बताऊँ, आबरू की बात आती है तो सोचती हूं कि आबरू क्या सिर्फ औरतों, लड़कियों की ही होती है। मर्दों की नहीं होती। जब भी वह लुटती है तो केवल औरतों, लड़किओं की ही लुटती है। आज तक मैंने नहीं सुना कि किसी मर्द की आबरू लुट गई। अरे उस समय दोनों की आबरू लुटती है। लुटने वाली की भी और लूटने वाले की भी। मर्द लड़की की आबरू लूटने के लिए उसे नंगी करता है, तो खुद भी तो नंगा होता है। लड़की की शर्मगाह नंगी होकर उसके जुल्मों सितम का शिकार होती है तो उसकी शर्मगाह भी तो बेपर्दा होती है। बल्कि मर्द तो और भी ज्यादा बत्तर होता है। वो खुद ही अपने हाथों से अपनी इज्जत तार-तार करता है। फिर यह क्यों कहा जाता है कि लड़की की आबरू लुटी। यह क्यों नहीं कहते कि मर्द की भी आबरू इसी दरमियान लुट गई। उसका भी बलात्कार हुआ। वह इतना बड़ा जाहिल था कि अपने ही हाथों अपनी आबरू लुटा बैठा।'

अम्मी मुझे आश्चर्य से देखती, सुनती रहीं। मैंने सोचा कि वह मेरी बात से रजामंद होंगी। कहेंगी कि, बेंज़ी तू तो बड़ी-बड़ी बातें करने लगी। लेकिन मेरा सोचना गलत निकला। वह बोलीं, 'अरे बेंज़ी तू कैसी बातें कर रही है। इतनी बड़ी हो गई तुझे इतना भी नहीं मालूम कि औरत और मर्द की शर्मगाह में जमीन-आसमान का फ़र्क़ होता है। औरत की शर्मगाह मर्द की शर्मगाह को बेआबरू कर ही नहीं सकती। जबकि उसकी शर्मगाह औरत की शर्मगाह की आबरू लूट सकती है। उसे तार-तार कर सकती है। तू अभी नादान है। इन सबके चक्कर में ना पड़। इससे कोई मकसद हल होने वाला नहीं।'

'अम्मी तुम मेरी बात ही नहीं समझ रही हो। खैर छोड़ो इन बातों को। इनमें क्या रखा है। ऐसे मामलों में जमाने से जो चला आ रहा है, सब मानेंगे तो वही ना। मगर अम्मी मैं पूरे यकीन से कहती हूं कि जमाना बदलेगा भी। अपना ही घर देख लो ना, पहले क्या था, अब क्या है, लेकिन अभी यह मसला दर-किनार करके यह बताओ कि मैं काशी जाऊं या तुम्हारी इच्छा है कि मैं ना जाऊं।'

'बेंज़ी मैं तुझे क्या समझाऊं। मैं खुद ही कुछ नहीं समझ पा रही हूं।'

'अम्मी अगर तुम्हारे मन में एक पैसे के बराबर भी यह बात है कि मैं काशी ना जाऊं तो मुझे बेधड़क रोक दो। काशी ना जाने दो। क्योंकि मैं चाहती हूं कि तुम आधे-अधूरे मन से मुझे बिल्कुल ना भेजना। अपनी दुआओं के साथ ही भेजना। तेरी दुआओं, तेरी तरबियत से ही मैं वहां भी भारी इनाम जीतूंगी। अम्मी सच बताऊं जिन लोगों को बाराबंकी में मैंने पहला, दूसरा, तमगा लेते देखा, सच में वह सब मेरे काम के आगे दसवें पायदान के काबिल भी नहीं थीं। बाद में मुन्ना ने भी यही कहा था। ऐसी जगहों पर भी पूरी ईमानदारी कहां बरती जाती है। लेकिन अम्मी काशी वाला कार्यक्रम बहुत बड़ा कार्यक्रम है। वहां दिल्ली से बड़े-बड़े अधिकारी और नेता आएंगे। इसलिए वहां पर यहां से ज्यादा ईमानदारी होगी। अम्मी इसीलिए मुझे वहां से बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं कि, मैं वहां पर बहुत आगे रहूंगी। सच में। मेरा यकीन करो ।'

मेरी बात पर अम्मी बड़ी देर तक मुझे गौर से देखती रहीं, फिर बोली, 'ठीक है बेंज़ी। अभी तो एक महीने का टाइम है। मुझे कुछ सोचने-समझने का समय दो। बाराबंकी पास में है। रात में अपने घर आ जाती थी। काशी तो दूर है। आना-जाना और दस दिन रुकना कुल मिलाकर बारह-तेरह दिन घर से बाहर रहना होगा। यह बहुत बड़ी बात है बेंज़ी, कोई मामूली बात नहीं है।'

'तुम सही कह रही हो अम्मी। बहुत बड़ी बात है। लेकिन काम भी तो बहुत बड़ा है। सारे हुनरमंदों के वहां रुकने और खाने-पीने की व्यवस्था सरकार कर रही है। फिर भी हम अपनी तैयारी से तो रहेंगे ही।'

'और मुन्ना काहे के लिए जा रहा है?'

'अरे संस्था तो उसी की है ना। कोई हुनरमंद वहां अकेले भाग नहीं ले रहा है। संस्थाएं अपने यहां से जुड़े उन्हीं हुनरमंदों को लेकर जाएंगी जो अपने काम में माहिर हैं। चिकनकारी में मुन्ना के यहां अकेली मैं ही हूं।'

'तो अकेली तुम्हीं जाओगी ?'

'नहीं, दूसरे कामों के भी कई हुनरमंदों को मुन्ना ने रजिस्टर किया है। उसे भी आज ही शाम को मालूम हुआ था। तो जल्दी-जल्दी जो हो सका, उसने किया।'

मैं अम्मी को बड़ी देर तक समझाती रही लेकिन वह असमंजस से बाहर नहीं आ सकीं।

मैंने सोचा अभी बहुत टाइम है। बाद में फिर बात करूंगी। कोई ना कोई रास्ता निकल ही आएगा, क्योंकि अब अम्मी घर में कैद रहने वाली सोच से बाहर आ चुकी हैं। अम्मी को बस थोड़ा संकोच यह है कि बाहर बारह-चौदह दिन रहना पड़ेगा। वह भी किसी बाहरी के साथ। पर अब अम्मी को क्या बताऊं कि, मुन्ना अब मेरे लिए बाहरी नहीं है। मेरा मुन्ना है। वह मेरी हर तरह से मदद कर रहा है। उसने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया है। अब घर में कितने ज्यादा पैसे आने लगे हैं। पहले तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचती थी कि इतने पैसे हाथ में आएंगे। पूरे घर की सूरत-सीरत कितनी बदल गई है।

कितनी ढेर सारी नई-नई चीजें आ गई हैं और खुद अम्मी और मुझमें अब कितनी तब्दीली आ गई है। पहले से अम्मी कितनी अच्छी हो गई हैं। सेहत उनकी कितनी सुधर गई है, और अपनी क्या कहूं, इन कुछ दिनों में बदन पहले से कितना ज्यादा भर गया है। अम्मी दो बार खुद ही कह चुकी हैं कि, मुझमें बहुत बड़ा निखार आ गया है, जैसे कि उम्र को कई बरस पीछे कर दिया है। अभी कुछ ही दिन पहले ही की तो बात है जब एक दिन नहा-धोकर कपड़े सूखने के लिए डाल रही थी, तभी मुझे गौर से देखते हुए तुम बीते दिनों को याद कर बोलीं, 'बेनज़ीर सही ही कहा गया है कि सुकून की नमक-रोटी भी सेहतमंद कर देती है। फसाद की कबाब रोटी भी सेहत गलाती जाती है।'

अम्मी को तैयार करने में मुझे आठ-नौ दिन लग गए। लेकिन इतने दिनों बाद जब उन्होंने खुशी-खुशी कहा कि, 'बेंज़ी, अब तू इतनी बड़ी, इतनी समझदार हो गई है कि, अब सारे मसलों पर खुद ही फैसला लिया कर। अब मेरी उम्र हो गई है। आज नए जमाने की चीजें मेरी समझ में ज्यादा नहीं आतीं। तू अब सब जगह आने-जाने लगी है। दुनिया समझने लगी है। बहुत कम वक्त में बहुत कुछ जान-समझ लिया है। पूरे घर को देखने लायक बना दिया है। पहले कितना गंदा रहता था। हर तरफ टूटा-फूटा सामान भरा रहता था। हर एक सामान से कंगाली ही दिखाई देती थी। अब सब बदल गया है।

लगता है कि इस घर में भी पैसा है। यहां के लोग जाहिल नहीं, तरक्की पसंद हैं। वक्त के साथ चलने वाले हैं। यह सब तूने ही किया है बेंज़ी। इसलिए अब तू रुक ना, बस आगे-आगे बढ़ती जा। तरक्की की उस बुलंदी पर पहुंच, जहां पहुंचकर दुनिया के लिए एक मिसाल बन जा। हर मां-बाप अपने बच्चों को तुम्हारी मिसाल देकर कहे, कि बेंज़ी ने कितना बड़ा काम किया है। तुम भी कुछ करो। बेंज़ी जैसी बनो।' तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी बातों ने मुझमें कुछ देर के लिए बड़ा गुरूर भर दिया। अम्मी मुझे इसी तरह दुआएं देती जा रही थीं और मैं आगे बढ़ती जा रही थी। बड़ी व्यवसाई मजूमदार शॉ, इंदिरा नुई जैसी महिलाएं मेरी आदर्श बन चुकी थीं। इनके बारे में मुन्ना ने कई बार बताया था। यूट्यूब पर उनके बारे में सुनती-देखती तो उनसे भी आगे निकलने का ख्वाब देखती।