बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 14 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 14

भाग - १४

मैंने तुरंत बात का रुख बदलते हुए देर होने की बात छेड़ दी, उन्हें बात समझाने के लिए मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी। उससे कहीं ज्यादा मशक्कत तो वहां पर जो भी काम-धंधा था उसे समझाने में करनी पड़ी। लेकिन इसके बाद उन्होंने फिर बाकी जितने दिन वहां पर जाना हुआ, जाने दिया। कभी मना नहीं किया। जबकि पूरी तरह कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद रोज घर पहुंचते-पहुंचते रात ग्यारह बज जाते थे, क्योंकि देर शाम को कार्यक्रम खत्म होता था। फिर सब कुछ बंद करवाने, अगले दिन के लिए भी कुछ तैयारियां करवाने में मुन्ना को काफी टाइम लग जाता था। उन्हें दस बजे के बाद ही फुर्सत मिल पाती थी। मैं सुबह से लेकर रात तक उनके जोश-जज्बे को देखकर हैरत में पड़ जाती थी।

मैं सोचती थी कि, यह कहां से इतनी कूवत पाते हैं कि, चौहद-पन्द्रह घंटे काम करने पर भी इनके चेहरे पर थकान नहीं दिखती। सुबह से रात घर लौटने तक करीब सौ किलोमीटर गाड़ी ड्राइव करते हैं। मोबाइल पर किसी ना किसी से बातें भी करते रहते हैं । बिजनेस के बारे में, और आगे बढ़ते जाने के बारे में।

दो-तीन दिन में ही उनसे बात करने को लेकर मेरी जो थोड़ी बहुत हिचक थी वह भी खत्म हो गई। काफी समय बिजनेस की, या फिर इधर-उधर की बातें शुरू हो जातीं। मुझे उनसे बात करना इतना अच्छा लगता कि, मन करता कि बात खत्म ही ना हो। मैं यकीन से कहती हूं कि मुन्ना भी यही सोचते थे। वापसी में उनकी गाड़ी की स्पीड उतनी नहीं होती थी, जितनी कि जाते समय होती थी। मतलब साफ़ था कि, वह भी ज्यादा समय तक मेरे साथ रहना चाहते थे । छठे-सातवें दिन ही हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ने, छूने लगे थे।

प्रदर्शनी में कई बार ऐसा कुछ होता कि, मैं उनका हाथ पकड़ कर एक तरफ ले जाकर बातें करती। जैसे एक ऑर्डर लेने की बात हो रही थी, लेकिन जो आदमी मुझसे बातें कर रहा था उसकी आधी अंग्रेजी, आधी हिंदी में कही जाने वाली बातें मेरी समझ में नहीं आ रही थीं। तभी मुझे मुन्ना थोड़ी दूर खड़े दिखे, तो मैं भाग कर उन्हें बुला लाई। आवाज देने के बजाय मैंने उन्हें बेझिझक पकड लिया था।

इस तरफ मेरा ध्यान तब गया, जब उस आदमी से मुझे ठीक-ठाक ऑर्डर मिल गया। मैं बहुत यकीन से कहती हूं कि, उस तरफ ध्यान जाते ही मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था। आइना तो पास था नहीं कि, तब झट से देख लेती। इस एहसास के साथ ही जिस तरह मैं सकपकाई थी, उसको देखते मैं यही कहूंगी कि मेरे मन में कुछ ऐसी बातें तेज़ी से चल चुकी थीं काफी पहले ही, जिसे मुहब्बत ही कहेंगे। अब जल्दी ही हम हल्की-फुल्की हंसी-मजाक भी करने लगे। आते-जाते समय वह मेरा एक हाथ पकड़े ही रहते थे । एक हाथ से ही गाड़ी चलाते थे । जल्दी ही हम इतने करीब आ गए कि एक दूसरे को किस भी करने।'

इतना कह कर बेनज़ीर कुछ रुक कर बोलीं, 'मैं देख रही हूँ, कि आप ''किस'' सुनते ही कुछ पूछने के लिए बहुत उतावले हो रहे हैं, पहले आप पूछ लीजिये फिर आगे बढें ।'

उनका अनुमान सही था। उनका बेहद बिंदास अंदाज देख कर मेरे मन में तुरंत यही प्रश्न उठा कि क्या शुरुआत उन्होंने की ? यह सुनते ही वह खिलखिला कर हंसती रहीं देर तक, फिर बड़े खूबसूरत अंदाज में मेरे प्रश्न को टालती हुईं बोलीं, 'मैं अपनी बात आगे बढ़ाती हूँ, उसी में आप अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढिएगा, पहली बार जब उनके होंठों से मेरे हाथ टकराए थे, तो मैं सिहर उठी थी। शर्म के मारे दूसरी ओर मुंह करके बाहर देखने लगी थी। मेरा हाथ बड़ी देर तक उनके होठों से जुड़ा ही रहा। गाड़ी धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ रही थी, पीछे की सारी गाड़ियां हम से आगे निकलती जा रहीं थीं। ज्यादा समय लगने से मुझे घबराहट नहीं बल्कि अच्छा लग रहा था। दरअसल वापसी में मेरे मन में हमेशा यही आता कि यह गाड़ीअपने आप ही टहलती हुई सी चलती, चली जाए। मुन्ना के दोनों हाथ खाली रहें। हाथ ही नहीं उनकी आंखें भी, सब कुछ, जिससे कि वह मुझसे इत्मीनान से मोहब्बत कर सकें । यह सिलसिला आते-जाते रोज का बन गया था।

आखिरी दिन हम करीब ग्यारह बजे वापसी के लिए चल पाए। हमारे उनके बीच अब बातों की कोई सीमा नहीं थी। हर मामलों पर हम बातें करते थे। उस दिन भी चलते समय हम दोनों ने एक होटल में खाना खाया था। मुन्ना बहुत खुश थे और मैं भी। क्योंकि दस दिवसीय कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हो गया था। मुझे छोटे-छोटे ही सही कई ऑर्डर मिल गए थे। जो मेरे अब-तक हो रहे कामधाम के सात-आठ महीने के काम के बराबर थे। ऑर्डर पूरा करने पर मुझे भारी मुनाफा होने वाला था। इसके अलावा मुझे अन्य कई लोगों की तरह बड़े सरकारी अधिकारी, एक सांसद द्वारा सम्मानित भी किया गया था।

सम्मानस्वरूप शील्ड और ग्यारह हज़ार रुपये नकद मिले थे। जो चिकन कार्य के मेरे हुनर के कारण मिला था। हालांकि पहले दो बड़े पुरस्कार अन्य दो लोगों को मिले थे। लेकिन मेरे लिए तीसरा पुरस्कार भी बहुत बड़ा पुरस्कार था। मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मुन्ना को क्या कहूं कुछ समझ नहीं पा रही थी। जो भी था सब उन्हीं के कारण हुआ था। पल-भर में उनके कारण मेरे घर की काया पलट गई थी। मेरा जीवन ही बदल गया था। वापसी के लिए गाड़ी में बैठने पर मैंने मुन्ना से कहा, 'इस ईनाम के असली हकदार तो आप ही हैं। सारा कुछ आप ही ने किया है।'

मेरी बात सुनकर वह गाड़ी की इग्निशन में चाबी लगाते-लगाते ठहर गए । वह मेरी तरफ प्यार से देखते हुए बोले, 'नहीं, अवार्ड तुम्हें, तुम्हारी काबिलियत के कारण मिला है। मैंने तो तुम्हारी काबिलियत को पहचान कर, तुम्हें सही जगह ले जाकर खड़ा कर दिया बस। मैंने पहली बार जब तुम्हारा काम देखा, तभी तुम्हारी इन जादुई उँगलियों का दीवाना हो गया था।' इतना कहकर उन्होंने अचानक ही मेरी उंगलियों को चूम लिया।

मैं सिहरन, रोमांच लिए उन्हें प्यार से देखती रही। उन्होंने भी प्यार से मुस्कुराते हुए देखा और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए। शहर से निकलकर हाईवे तक आते-आते हमारी बातें चलती रहीं। हाईवे पर पहुंचने से कुछ पहले जो आंधी शुरू हुई थी वह तेज़ होती गई। मौसम की यह चौथी आंधी थी। इसके पहले आई तीनों आँधियों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया था। धूल-भरी आंधी के कारण जब सामने देखने में मुश्किल होने लगी, तो मुन्ना ने सड़क किनारे एक सही जगह पर गाड़ी रोक दी। कच्चे फुटपाथ से भी और किनारे कर ली थी। मुझे लगा यह अच्छा ही किया। ऐसे मौसम में सड़क से जितना दूर, किनारे रहें उतना ही अच्छा है। मगर इस खराब मौसम में भी तमाम गाड़ियों को पूरी स्पीड में आगे जाते देख रही थी। तभी शायद आंधी के कारण आसपास की लाइट भी चली गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा हो गया था। आती-जाती गाड़ियों की हेडलाइट से ही थोड़ी-थोड़ी रोशनी बीच-बीच में हो रही थी।

आंधी बहुत तेज़ तो नहीं थी, लेकिन धूलभरी होने के कारण ज्यादा मुश्किल पेश कर रही थी। मैंने सोचा पांच-दस मिनट में निकल जाएगी, लेकिन वह चलती ही रही। जैसे-जैसे देर हो रही थी, वैसे-वैसे अम्मी को लेकर मेरी चिंता बढ़ रही थी। मैं यह अच्छी तरह समझ रही थी कि वह अम्मी हैं, और उनकी चिंताएं कई तरह की होंगी। ना जाने कितनी तरह के ख्यालात मन में उनके आ-जा रहे होंगे कि, उनकी जो बेंज़ी बिना सिर ढंके आंगन में भी कदम नहीं रख सकती थी, वह आज रात बारह बजने को है, और वह घर से दूर, फिर कहूंगी कि एक गैर मर्द के साथ ना जाने क्या कर रही होगी, किस हाल में होगी।

पिछले तीन घंटे में दस-बारह बार बात हो चुकी है। लेकिन हर पांच मिनट बाद कॉल कर रही हैं, और हर बार मुन्ना से बात जरूर कर रही हैं। मुन्ना से मैं बात तो जरूर करवा रही थी, लेकिन मन में मेरे ऐसी ही बातें घूम रही थीं। मैं यह सोचकर व्याकुल हो रही थी कि अम्मी को यकीन कैसे दिलाऊं कि यहां का मौसम कैसा है।

इस मौसम में गाड़ी चलाना कितना जानलेवा हो सकता है। आंधी की तरह हमारी गपशप चल ही रही थी कि, फिर अम्मी की कॉल आ गई। रिंग सुनते ही मुन्ना ने कहा, सुनो उनसे बोलो कि तुम इधर से वीडियो कॉल कर रही हो। हम यहां का सारा मौसम दिखाते हैं।' हमने यही किया। बड़ी मुश्किल से कॉल कनेक्ट हुई। खराब मौसम के कारण नेटवर्क बहुत वीक हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अम्मी को दिखाया कि कितनी धूल-धूक्क्ड़ है। सड़क पर इक्का-दुक्का ट्रक, बस, बड़ी गाड़ियां ही निकल रही हैं।

मगर तूफान दिखाते-दिखाते हमें लगा कि यह करके हमने और बड़ी गलती कर दी है। अम्मी फोन पर ही रो पड़ीं। आखिर मुन्ना ने बहुत समझाया तब चुप हुईं। मौसम की हालत देखकर मैं भी अब घबराने लगी थी। फिर सोचा जो होगा देखा जाएगा। होगा तो वही जो ऊपर वाले ने सोच रखा होगा। हमारे हाथ में है क्या जो हम लोग परेशान हो रहे हैं।

मैंने अपना पूरा मन मुन्ना से बात करने में लगा दिया। उसने पिछले आधे घंटे में यही कोई आठ-दस बार मेरे हाथ को अपने हाथों में लेकर बड़े प्यार से चूमा था। मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैं कह नहीं सकती। मेरा भी मन कर रहा था कि मैं भी उसके हाथों को वैसे ही चूमूं। आखिर मैं खुद को ज्यादा देर तक नहीं रोक पाई। मैंने चूम लिया। साथ ही मुझे हंसी आ गई तो वह भी हंस पड़ा। हमारी मोहब्बत भरी बातें जो अभी तक कुछ संकोच के साथ हो रही थीं, उस संकोच को भी हम दोनों ने निकालकर गाड़ी से बाहर फेंक दिया कि जाओ तुम भी भागो तूफ़ान के साथ।

अब हमारे हाथ एक दूसरे को बहुत सी जगहों पर छू रहे थे, और बीच में जो भी अड़चनें आती थीं, उन्हें भी संकोच की तरह हटाते जा रहे थे। हमारे कपड़े अपनी जगह से हटते जा रहे थे। हाथ एक दूसरे की शर्मगाहों पर मोहब्बत के साथ कई-कई तरह से सफर कर रहे थे। अचानक मुझे लगा कि यह सफर बहुत हुआ, तो मैंने उन्हें अचानक ही पूरे जोर से अपने ऊपर खींच लिया। वह भी जैसे इसी के इंतजार में थे। मुझ पर आने के साथ ही उन्होंने ना जाने ऐसा कौन सा बटन दबाया, घुमाया या फिर खींचा कि, सीट पीछे को चली गई। मुन्ना पूरा का पूरा मुझ पर छा गया। उनकी मोहब्बत का तूफान इतना तेज़ था कि बाहर का तूफान उसके सामने ठहरी हुई हवा भी नहीं था। मैं भी उससे कम नहीं थी। दोनों के तूफान की रफ्तार एक जैसी थी। एक ही तरह की थी। मैं भी उसके साथ-साथ, उसकी ही तेज़ी से बढ़ती चली जा रही थी। जब हम अपना सफर पूरा कर ठहरे तो बुरी तरह हांफ रहे थे, मगर जो जन्नत सी खुशी हमें मिली, उसके लिए मेरे पास कोई अल्फ़ाज़ ना तब थे, ना अब हैं। जब हमारी सांसें संभलीं, तब हम अपनी-अपनी सीटों पर आ गए। मेरी सीट को उसने फिर सीधा कर दिया था।'

बेनज़ीर यहीं पर फिर क्षण भर को रुक कर बोली, 

'अरे, आप फिर मुझे इस तरह एकटक देख रहे हैं। क्या हो जाता है आपको?'

हल्की मुस्कान के साथ कही गई उनकी बात का मैंने भी बिल्कुल उन्हीं के लहजे में जवाब दिया। कहा, 'मेस्मराइज़ ! मेस्मराइज़ हो जाता हूं मैं आपकी इस बोल्डनेस, इस बेबाकी से। मैं पूरी ईमानदारी के साथ आपसे कहता हूं कि जब, आपसे मीटिंग निश्चित हुई तो उस समय भी मैंने यह कल्पना नहीं की थी किआप इतनी बेबाकी से बात करेंगी। अपनी पूरी तरह से निजी बातों को भी इतना ओपनली, इतना डिटेल में बिना किसी संकोच के बताती जाएंगी। इतना तो यकीन था कि, आप जब बोलेंगी तो बोलती ही चली जाएंगी।मगर ऐसे..।'

मेरे इतना कहते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ीं । फिर, बोलीं मुझे मुलम्मों में जीना पसंद नहीं। दोहरे चरित्र या हिप्पोक्रेसी से मुझे नफरत है। सच बोलने में कोई हिचक नहीं। क्योंकि सच को छिपाकर, तोड़-मरोड़ कर बोलना, मैं झूठ बोलने के जैसा मानती हूं। फिर इन बातों के आधार पर आप उपन्यास लिखेंगे, न कि मेरी जीवनी। उपन्यास से कौन जानेगा कि यह किस बेनज़ीर की कहानी या उसका वास्तविक जीवन है। पढ़नेवाला तो उसे लेखक की कल्पनालोक की उड़ान समझ कर ही पढेगा।'

' निश्चित ही आपने बातचीत के लिए तैयार होने से पहले बहुत गहराई से होमवर्क किया है।एक-एक बिंदु पर विश्लेषण किया है।आप बहुत बहादुर, बहुत ईमानदार, बड़ी सत्यवादी हैं, लेकिन एक प्रश्न शुरुआत से ही उत्तर जानने को उत्त्सुक है कि आपके पति बातचीत में शामिल क्यों नहीं हुए ? जबकि आपको पूरी छूट दी कि जो ठीक समझो करो।'

'हाँ, उन्होंने जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मुझे यहाँ भी सब कुछ अपनी मर्ज़ी से तय करने की पूरी छूट दी, एक बात आपको और साफ़ कर दूँ कि जितनी आज़ादी वो अपने लिए चाहते हैं, उतनी ही मुझे भी देते हैं । बातचीत में वह भी मेरी तरह बहुत स्पष्टवादी हैं, उन्होंने साफ़-साफ़ कहा, 'नावेल बेनज़ीर पर लिखा जाना है, बातें बेनज़ीर की होनी हैं, जिसे उसके अलावा और कोई बता नहीं सकता, इसलिए मेरे बैठने का कोई मतलब नहीं। मुझसे सम्बंधित जो भी बातें होंगी, उसमें भी तुम अनिवार्य रूप से जुड़ी हो, तो वह भी तुम बता सकती हो, इसलिए मेरा बैठना बेकार है, बल्कि मेरे बैठने से डिस्टर्बेंस ही होगा, तुम बहुत सी बातें बताने में संकोच भी कर सकती हो ।' मुझे उनकी बात ठीक लगी तो मैंने उन्हें इस काम से आज़ाद कर दिया।'

मुस्कुराते हुए अपनी बात पूरी कर बेनज़ीर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगीं तो मैंने कहा, 'आपने सही ही कहा था, वह भी स्पष्ट वक्ता हैं । हाँ, बात जहां ठहरी थी, अब उसे आगे बढाते हैं, उस तूफ़ान ने और कैसे अनुभव दिये?'

'मैं आज भी, अब भी कहती हूं कि उस तूफ़ान में उससे ज्यादा रोमांचकारी, वैसा अद्भुत, अविस्मरणीय अनुभव और हो ही नहीं सकता। कार के अन्दर हमारे तूफ़ान की रफ्तार अपनी मंजिल पर पहुँच कर ठहर गई थी। अब मैं ज्यादा परेशान हो उठी घर के लिए। मगर बाहर तूफान अब भी अपनी रफ्तार पर चल रहा था। उसके कारण मैंने मुन्ना को गाड़ी से बाहर नहीं निकलने दिया। इससे सीट सीधा करने में उसे थोड़ी दिक्कत हुई। कपड़े ठीक-ठाक कर पानी पीने के बाद जब हमने टाइम देखा तो मैंने मुन्ना का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, 'जैसे भी हो अब हमें चलना चाहिए। यह तूफान लगता है हमें रात भर यहीं रोके रहेगा। धीरे-धीरे चलेंगे तो भी आधा-पौन घंटे में पहुंच जायेंगे। यहां विराने में रुके रहना भी कम खतरनाक, कम जानलेवा नहीं है।' मुन्ना मेरी बात मान गए और गाड़ी की सारी लाइट्स छोटी-बड़ी सभी ऑन करके चल दिए। मैंने सोचा कि वह धीरे-धीरे चलेंगे, लेकिन वह दिन से भी कहीं ज्यादा तेज़ चल रहे थे। आंखें सड़क पर गड़ाए हुए, पूरी मुस्तैदी से गाड़ी संभाले हुए थे।

फिर भी बीच-बीच में उनका हाथ कभी मेरे गालों, कभी मेरी छातियों से मोहब्बत कर, झटके से वापस स्टेयरिंग पर चले जाते थे। उन्हें चलाने में कोई अड़चन ना हो इसलिए मैं लाख कोशिशें करती रही, लेकिन फिर भी खुद को भी कई बार रोक नहीं पाई। लेकिन जब एक जगह मुझे लगा कि इसके चलते एक बार स्टेयरिंग कुछ बहकी है, और इस मौसम में यह खतरनाक होगा तो मैंने तुरंत ही खुद को काबू में किया। गाड़ी के शीशे पर तमाम धूल-धक्क्ड़ पड़ रही थी। कभी किसी पेड़ की छोटी-मोटी टहनी, तो कभी कूड़े का कोई टुकड़ा आकर टकराता था। धूल इतनी थी कि लग रहा था जैसे घने कोहरे से भरी सर्द रात हो।'

'एक मिनट मैं आपको थोड़ा रोक कर यह पूछना चाहता हूं कि मान लीजिए घर पर अम्मी की चिंता की बात नहीं होती, तो क्या तब भी आप तूफ़ान में ही चल देतीं।'

मेरी बात पर बेनज़ीर ने हल्की मुस्कान के साथ प्रति प्रश्न कर दिया, 'आप बताइए, आप मेरी जगह होते तो क्या करते?'

मैंने तुरंत जवाब दिया, 'घर की चिंता ना होती तो मैं ऐसे मौसम, ऐसे शानदार साथ, अद्भुत क्षण को तब-तक एन्जॉय करता जब-तक तूफान चलता रहता, क्योंकि ऐसा दुर्लभ क्षण संयोगवश ही मिल पाता है।'

' तो निश्चित मानिए मैं भी एंजॉय करती । ...खैर गाड़ी जब घर के करीब पहुंच गई तो मैंने मुन्ना से कहकर सामने ऊपर की तरफ लगे शीशे को अपनी तरफ करवा लिया। ताकि मैं यह देख सकूं कि ऐसा कुछ तो नहीं है कि, अम्मी की तेज़ नजरें हमारी तूफानी मोहब्बत की कोई तस्वीर देख लें। ऐसी कई तस्वीरें मुझे दिखीं भी। जिन्हें देखकर बेशुमार तजुर्बे वाली अम्मी जान लेतीं कि हमने तूफ़ान का बेजा इस्तेमाल किया है। मैंने जल्दी-जल्दी सारी तस्वीरें मिटा डालीं। मगर उस छोटे से शीशे में सब कुछ नहीं देख पा रही थी तो मैंने मुन्ना से पूछा कि, 'सब ठीक तो है ना?'

उसने ऊपर से नीचे तक गहरी नजर डालकर कमर से नीचे कुर्ते पर एक जगह इशारा किया। जिसे देखकर मेरी जान हलक में आ गई कि अब क्या करूं, उसने मेरी घबराहट का कारण समझते हुए कहा, 'अपने दुपट्टे को ऐसे सामने किये रहना कि वह दिखे ना।' उनके बताए रास्ते के अलावा मुझे और कोई तरीका नहीं दिखाई दिया। घर के और करीब पहुंचने पर मुन्ना ने कहा, 'अम्मी को फोन कर दो कि, दरवाजा खुला रखें। दरवाजा खटखटाने या फिर हॉर्न बजाने पर पड़ोसी जान जाएंगे, और तुम्हारा किराएदार भी।' असल में इस तरफ मेरा ध्यान गया ही नहीं था।

दरअसल हम दोनों नहीं चाहते थे कि कोई हम दोनों को इतनी रात को साथ आते हुए देखे। उसने करीब दो सौ कदम पहले ही गाड़ी की हेडलाइट भी ऑफ कर दी। दरवाजे के पास गाड़ी रोक दी और सम्मान के साथ उतार कर जल्दी से अपने घर चला गया। मैं भी उतनी ही तेज़ी से घर के अंदर पहुंचकर दरवाजे को बंद कर दिया।अम्मी दरवाजा खोले खड़ीं थीं। किराएदार ना जाग जाए यही डर मन में था। बाहर तूफान अभी भी शांत नहीं हुआ था। नामुराद बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

मैंने पहले अम्मी को पकड़ कर बिस्तर पर बिठाया। वह बुरी तरह हांफ रही थीं। उन्हें पानी पिलाया फिर कहा, 'अम्मी हमें माफ करना। तुम देख ही रही हो कि तूफान बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह नामुराद ना होता तो मैं कब का आ गई होती।'

'इसीलिए तो मेरी जान हलक में अटकी थी कि पता नहीं क्या हो रहा है। बार-बार मन में आ रहा था कि, मुन्ना गाड़ी तो चला ही सकता है। कार के अंदर तो धूल-कबाड़ नहीं पहुंच रहा होगा।'

उनकी इस बात से मैं सहम गई। मैंने कहा, 'अम्मी तुम ठीक कह रही हो। लेकिन शीशे के बाहर सड़क भी तो दिखनी चाहिए ना। सड़क पर जगह-जगह लकड़ियां कबाड़ पड़ा हुआ था। आगे कुछ दिखना मुश्किल हो रहा था। रास्ते में कई गाड़ियां पेड़ से टकराई हुई दिखीं। मुन्ना बड़ी मुश्किल से चलाकर आ पाए। हम दोनों बार-बार कह रहे थे कि, तुम परेशान हो रही होगी।'

इसी बीच अम्मी को और एक गिलास पानी देते हुए कहा, 'लगता है दिन भर तुमने पानी भी नहीं पिया। तुम टीवी में समाचार लगाओ, तो तुम्हें सब दिख जाएगा ।'

मैं अम्मी की बातों से भीतर ही भीतर दहल जा रही थी, अम्मी रिमोट लिए बैठी रहीं। टीवी ऑन नहीं किया तो मुझे लगा कि, वह ज्यादा गुस्सा हो गई हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था तो अचानक ही रिमोट लेकर टीवी ऑन कर दिया। उस समय मेरा मुकद्दर जैसे मेरे साथ खड़ा हुआ था। टीवी पर मौसम का हाल ही दिखाया जा रहा था। जगह-जगह होर्डिंग्स, न जाने क्या-क्या उखड़े हुए थे। जिन्हें देखकर अम्मी को मेरी बात पर ऐतबार हो गया। उन्होंने कहा, 'शुक्र है ऊपर वाले का कि तुम सही सलामत आ गई।'