बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 6 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 6

भाग - ६

बेनज़ीर हल्की मुस्कान लिए बोलीं, ' और आप फिर से स्टेच्यू बन गए तो।'

' मैं पूरा प्रयास करूँगा कि ऐसा ना हो।'

' ठीक है। तो जब काम पीछे छूटने लगा तो कई ऑर्डर भी हाथ से फिसल गए। अम्मी की दवा का खर्च बढ़ता जा रहा था। मुझे लगा कि चिकन से ज्यादा दुकान पर ध्यान दूं तो अच्छा है। वैसे भी अम्मी से नहीं हो पा रहा है। मैं यही करने लगी, पर अम्मी दिल से यह कत्तई नहीं चाहती थीं। लेकिन हालात ने उन्हें अपने कदम पीछे करने के लिए मजबूर कर दिया।

वह रात-दिन एक ही जुगत में लगी रहतीं। उठते-बैठते यही बात कहतीं कि, 'जैसे भी हो, निकाह भर का पैसा इकट्ठा हो जाए तो, कोई भला सा लड़का देखकर तेरा निकाह कर दूं, तो मेरे दिल को सुकून मिल जाए। फिर मैं राजी-खुशी इस दुनिया से रुखसत होऊं। बहुत जी लिया। मैं एड़ियाँ घिस-घिस कर नहीं जीना चाहती।' अम्मी जितना जोर लगा रही थीं अपने को ठीक करने के लिए, बीमारी उन्हें उतनी ही ज्यादा जकड़े जा रही थी।

उनकी हालत देखकर मेरा जी हलक को आ जाता। वह पुरानी बातें याद कर-कर रोतीं। तो मैंने सोचा क्यों ना टीवी का इंतजाम कर दिया जाए। तो मैंने बिना किसी हिचक, लाग-लपेट के सीधे-सीधे उनसे बात कर ली। कह दिया कि, 'जब मर्द देख सकते हैं, तो औरतें क्यों नहीं देख सकतीं? क्या वह इंसान नहीं हैं? आखिर हम औरतें ही सारी तरह की कैद में क्यों हैं?' अम्मी को राजी करने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी, मैं तो यह सोचकर परेशान थी, लेकिन हुआ इसका उल्टा।

अम्मी तो जैसे पहले से ही तैयार बैठी थीं। बस पहल के लिए हिम्मत नहीं कर पा रही थीं। मेरे पहल करते ही वह तैयार हो गईं। मगर यह दिखावा करते हुए कि वह मेरे लिए मानीं। बहुत प्यार से बोलीं, ' तुम्हारा इतना मन है तो ठीक है लगवा देते हैं। अब है ही कौन मना करने वाला। वैसे भी तुम बच्चों के साथ बहुत ही ज्यादा ज्यादती हुई है इस घर में।

मैं रोज ही सोचती थी, मेरा यही ख्वाब था कि दुनिया के बाकी बच्चों की तरह हमारे बच्चे भी खूब पढ़ें -लिखें, खुश रहें, अच्छी तरबीयत पाएं, तरक्की करें। जिससे वह सबके सब अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनें। मगर तुम सबकी या हम सबकी यह बदकिस्मती ही रही कि घर जाहिलियत का अड्डा बना रहा। अखाड़ा बना रहा। मेरे सारे ख्वाब जर्रे-जर्रे होकर तबाह हो गए। मुझे क्या पता था कि, अल्लाहताला मुझे, मेरे किसी गुनाह की सजा देगा । बड़ा सा ख्वाब दिखाकर उसे धूल बना देगा । ऐसे इंसान को मेरे जीवन में भेजेगा जो झूठ-फरेब, धोखे के सिवा कुछ जानता ही नहीं था। जो इंसानियत को कुचलने में ही यकीन रखता था।'

अम्मी अपनी भड़ास निकालते-निकालते रोने लगीं तो उन्हें चुप कराया।

टीवी के लिए पैसे कहां से आयेंगे? यह पूछा, तो जो बात निकल कर सामने आई, उससे हमारे सपने बिखरने लगे। फिर रास्ता निकला कि, टीवी को किस्तों में लिया जाए। मगर दुकानदार की शर्तों के आगे वह भी नामुमकिन लगा । हम किस्तें कहां से देंगे, इसका वह पुख्ता जरिया जानना चाहते थे। हमारे काम से आने वाली आमदनी को वह कच्ची आमदनी कह रहे थे। लेकिन मैं भी जिद पर अड़ी रही, हाथ-पैर मारती रही। अंततः एक सूत्र मुझे मिला।

मेरे घर से कुछ ही दूर आगे रहने वाले एक पड़ोसी के बेटे मुन्ना चीपड़ काम आये।ऐसा आये, मुकद्दर ने कुछ ऐसा खेल-खेला कि पूछिए मत। वह एक बैंड पार्टी में शौकिया सेक्सोफोन बजाने के साथ-साथ, एक एनजीओ भी सालों से चलातेआ रहे थे। इसके जरिए वह लड़के-लड़किओं को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलवाते थे। फिर उन्हें रोजगार शुरू करने या आगे बढ़ने के लिए सरकारी मदद या लोन भी दिलवाते थे।आए दिन किसी ना किसी प्रदर्शनी, कार्यक्रम में इन सबको लेकर जाते थे। इससे उन सबको अपना-अपना व्यवसाय आगे ले जाने में मदद मिलती थी।इससे कई लड़के-लड़कियां अपना काम-धंधा अच्छे से खड़ा कर चुके थे।'

'एक मिनट, मैं यहाँ आपको थोड़ा सा रोकना चाहूंगा। मुन्ना नाम तो समझ में आता है। अच्छा है। बहुत प्यार, स्नेह से मां-बाप द्वारा अपने हृदय के टुकड़े बेटे को ना जाने कब से दिया जाने वाला नाम है। लेकिन यह चीपड़ सरनेम पहली बार सुन रहा हूं। बड़ा अनकामन सा लग रहा है। इस पर भी लगे हाथ कुछ प्रकाश डालेंगी क्या ?'

मेरी इस बात पर बेनज़ीर चेहरे को थोड़ा ऊपर कर, बड़ी स्टाइल से बिल्कुल बॉलीवुड हिरोइनों की तरह हा-हा करके हंसीं। फिर बोलीं, 'दरअसल चीपड़ उनका सरनेम नहीं है। उनके दोस्तों द्वारा उनको दिया गया निकनेम है। दोस्तों का दिया यह नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि, मां-बाप का दिया उपनाम ही खो गया। ऐसा कि, खुद मां-बाप सहित, सभी घर वाले भी चीपड़ ही कहने लगे। '

' ओह बड़े दिलचस्प व्यक्ति लगते हैं। तो इन्होंने आगे क्या किया?'

' दरअसल उनके कामों के कारण उन्हें जानने वालों की संख्या बहुत थी। हां एक समय वह मोहल्ले के सबसे लफंगे लड़के हुआ करते थे। आए दिन लड़ाई-झगड़ा करना, चलती लड़कियों-महिलाओं को छेड़ना उनका रोज का काम था। पूरा मोहल्ला उनसे त्रस्त रहता था। उनकी अब्बू से भी खूब छनती थी, क्योंकि वो कैरमबाजी में भी माहिर थे। अब्बू भी कैरम खेलते थे। एक बार बात-बात में वह राज्य स्तर की कैरम प्रतियोगिता जीत आये । इस जीत ने उन्हें एकदम बदल दिया। वह क्या कहते हैं कि रातों-रात उनका चोला ही बदल गया। पहले जहां लफंगई के कारण चर्चित रहते थे, अब वह अपनी सज्जनता, अच्छे व्यवहार के लिए, अपने काम-धाम के कारण सबकी जुबां पर आ गए।

वह दुकान पर सामान लेने कभी-कभार आ जाते थे। अम्मी से भी थोड़ी- बहुत बात कर लेते थे। कोई रास्ता ना देख अम्मी से मैंने कहा कि, ' इन्हीं से बात करो, यह कोई ना कोई रास्ता निकाल देंगे।' अम्मी भी जैसे पहले से ही यही सोच रही थीं। उनसे बात की तो वह बोले, ' चाची परेशान ना हो, सब हो जाएगा ।' और सच में अगले दिन अम्मी के कमरे की दीवार पर टीवी टंग गया। उन्होंने साथ ही डिश कनेक्शन भी करवा दिया। स्वयं गारंटर बने। जीरो डाउन पेमेंट में काम हो जाने के कारण हमने इतनी राहत महसूस की कि बता नहीं सकते।

पहले दिन अम्मी ने खूब तबीयत से टीवी देखा। तरह-तरह के कार्यक्रम देखती रहीं। बार-बार मुन्ना-मुन्ना करती उनको दुआ भी देती रहीं और यह भी कहती रहीं कि, 'वाकई हम सब न जाने कौन सी जाहिलियत भरी दुनिया में जीते आ रहे थे। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है और हम अंधेरी कोठरी में ही जीवन बिता आए।

झरोखे से ही दुनिया को झांका है तो लगता है ना जाने कौन से इंसानों की दुनिया में पहुंच गए हैं। जहां हमारा कोई है ही नहीं। ना दुनिया हमें पहचान रही है। ना हम दुनिया को। वाह री जाहिलियत तू ऐसे तबाह कर देगी हमारी ज़िन्दगी, ऐसे हमें जानवर सा जीवन बिता डालने के लिए अंधेरे कुँए में झोंक देगी, हम ख्वाब में भी यह नहीं सोच पाए थे। इसके कारण अच्छा-बुरा समझना ही नहीं आएगा, मुझे जरा भी इल्म होता तो सच कहती हूं, बेंजी मैं इस जाहिलियत के खिलाफ इतनी बड़ी बगावत कर देती कि यह जाहिलियत भी थर्रा उठती, कांप उठती, दुनिया देखती। मगर अब तो कुछ बचा ही नहीं है। शैतान हमें तबाह कर जा चुका है। अब उस पर कितने भी कंकड़ मारो कुछ नहीं होने वाला।'

उनके घायल मन की इस दर्द भरी आवाज से मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी रूह भी दर्द से कराह उठी। मैंने कहा, 'अम्मी जो मुकद्दर में लिखा था वह हुआ। बीती बातों को लेकर क्या रोना, उससे क्या फायदा। दिल के पुराने जख्मों को कुरेद-कुरेद कर फिर से खुद को लहूलुहान करने से कुछ नहीं मिलने वाला।' मैंने सोचा अम्मी ने शैतान किसे कहा पूछ लूं। लेकिन फिर सोचा कहीं यह उनके जख्मों पर ताजा गर्म सालन डालने जैसा ना हो। वह मेरी बात पर बोलीं, 'नहीं बेंजी हक़ीक़त यह नहीं है। मुकद्दर तभी होता है, जब उसमें ना बहुत ज्यादा तो कुछ हिस्सा खुशियां भी हों । हमारे मुकद्दर में भी खुशियां हर हाल में रही होंगी । जिन्हें हमारे घर की जाहिलियत व अपनों ने जमींदोज कर दिया।'

मैंने कहा, 'हलकान ना हो अम्मी। अब तू टीवी देखा कर, तेरा जी हल्का होता रहेगा।' 'अब क्या जी हल्का होना, पैर कब्र की ओर बढ चले हैं। रुख्शती का दिन सामने आ गया है। क्या टीवी देख पाऊँगी, क्या जी बहलाऊंगी, तेरी चिंता खाए जा रही है, किसके सहारे तुझे छोड़कर रुखशत होऊँगी, समझ में ही नहीं आ रहा है क्या होगा तेरा।' अम्मी बोलती ही रहीं और टीवी चलती रही, मैं उन्हें समझाती रही। लेकिन अम्मी के जख्म कुछ ऐसे हरे हो गए थे कि ना वो टीवी देख पा रही थीं, ना मेरी बात समझ रही थीं। देर रात खाने तक मैं उन्हें समझाती रही। अब पता नहीं वह मेरी बात समझ गई थीं या थक गईं थीं कि, खाना खाकर बिस्तर पर पड़े-पड़े बिल्कुल चुपचाप टीवी देखती रहीं। मुझसे भी उन्होंने देखने को कहा लेकिन मैंने कहा, 'अभी बहुत काम पूरा करना है। टीवी देखते हुए काम नहीं कर पाऊँगी ।' खाना खाकर मैं अपने कमरे में आ गई।

चिकन के काम का ढेर लगा हुआ था। मैं मोबाइल में तो सब कुछ देखती ही आ रही थी। इसलिए अम्मी के साथ टीवी देखने की मेरी कोई खास इच्छा नहीं थी। टीवी के आने के साथ ही मुझे उसकी किस्त निकालने की चिंता हो गई। मैं अच्छी तरह जानती थी कि अब दुगना काम करके ही किस्त निकाल पाऊंगी। जबकि काम करने में सबसे ज्यादा खलल रियाज़ और ज़ाहिदा कई महीनों से बने हुए थे।

पहले केवल मोबाइल था जिसमें टीवी.सीवी देखने के चलते अक्सर खलल पड़ती थी। हालांकि उसे देखते हुए भी मेरी ऊँगलियाँ कढाई करती रहती थीं। मगर ज़ाहिदा और रियाज़ रोज रात को बड़ी देर तक मुझे सन्न-मन्न कर बुत बनाकर बक्से पर बैठा देते थे। महीना बीता। किस्त देने का टाइम आया तो बड़ी मुश्किल से किस्त जमा हो पाई। साथ ही यह पहला मौका था जब अम्मी ने कहा, 'बेंजी तू ही जाकर जमा कर आ। रिक्शा कर लेना। पैदल थक जाओगी ।'

अम्मी मुझे बेनज़ीर ना कहकर बेंजी ही बुलाती थीं। उनकी इस बात पर मैं उन्हें देखती ही रह गई, तो वह बोलीं, 'मुझसे अब रिक्शे पर भी बैठा नहीं जाता। ऐसे क्या देख रही है। रास्ते तो सब जानती ही है। जाहिलियत से पीछा छुड़ा सीख कुछ। अब जितना सब सीख लोगी वही सब सीखा हुआ तेरे मददगार होंगे।अब बंद कमरे से बाहर निकलकर देख, सब जान -समझ अब। ' अम्मी सच कह रही थीं। अब्बू के जाने के बाद वह तमाम जगह मुझे लेकर जाती रहीं थीं।

पहले कभी-कभी, लेकिन जैसे-जैसे उनकी सेहत गिरती गई । मेरा उनके साथ जाना बढ़ता गया। तो काम-धंधे के सलीके से लेकर रास्ते तक सब जानती थी। मैंने तैयार होकर बुर्का डाला उसकी जेब में टीवी के सारे कागजात रखे। अम्मी से पैसे मांगे तो वह देती हुईं मुझ पर एक नजर डालकर बोलीं, ' बुर्का डाल लिया, अच्छा चलो ठीक है।' मुझे उनका यह प्रश्न बड़ा अटपटा लगा, क्योंकि बिना बुर्का के तो पहले कभी मैं बाहर निकली ही नहीं थी।

ऐसा अम्मी ने क्यों पूछा, मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ लिया, ' क्या हुआ अम्मी ऐसा क्यों पूछ रही हो, बिना बुर्के के कभी निकली हूं क्या?' 'कुछ नहीं, कोई बात नहीं, बस ऐसे ही पता नहीं क्या दिमाग में आ गया और बात निकल गई।' इतना कहकर अम्मी ने चश्मा लगा कर फिर टीवी देखना शुरू कर दिया।

मैंने एक नजर उन पर डाली और बाहर निकल गई। मैं रास्ते भर उनकी बात की गहराई में उतरने की कोशिश करती रही। जहाँ पैसा जमा करना था, वह घर से तीन किलोमीटर दूर था। इसलिए मैं पैसे बचाने के चक्कर में पैदल ही आई-गई। जो पैसे बचे उससे अम्मी के लिए आते समय संतरे खरीद लिए थे। डॉक्टर ने न जाने कितनी बार कहा था कि, 'इनको कोई एक फल रोज दीजिए। इनको विटामिंस, मिनरल्स की बहुत कमी है।' जब ऎसी बातें डॉक्टर कहते थे, तो मुझे बहुत बड़े जाहिल लगते थे। मैं तुरंत ही मन ही मन यह कह कर अपनी खीज मिटाती थी कि, जिन्हें दो जून का खाना भी ठीक से मयस्सर नहीं है, जो अपना इलाज तक पैसे की तंगी के कारण नहीं करा पातीं, उनसे रोज फल खाने को कह रहे हो। पत्थर पड़े तुम्हारी समझदारी पर।

मैं संतरे खरीद कर जब घर को वापस चली तो, इतनी खुश थी कि जैसे ना जाने कितना बड़ा मैदान मार लिया है। ऐसी खुशी कि पांव हवा में उड़ते से लग रहे थे। लग रहा था जैसे खूब तेज आंधी सी चल रही है, और फड़-फड़ करते बुर्के को उड़ा के ले जायेंगे। वैसे भी घर से कुछ आगे चलने के बाद ही मैंने अपना चेहरा खोल दिया था। इतनी उम्र के बाद बाहर ऐसे चल रही थी। मुझे कोई संकोच, कोई झिझक भी नहीं हो रही थी। लग रहा था कि जैसे इतने वर्षों तक मैं किसी डिब्बे में बंद थी। सांस फूलने के कारण बेहोश थी। अचानक ही ढक्कन खुल गया, मुझे हवा मिली और मैं होश में आ गई।

घर पहुंचने से पहले मैंने चेहरा फिर ढंक लिया। घर के भीतर पैर रखते ही मुझे विश्वास हो चुका था कि, मैं अम्मी की बुर्के वाली बात की गहराई नाप चुकी हूं। अम्मी को मैंने बचे हुए पैसे और संतरे थमाते हुए कहा, 'तुम नाहक हलकान हुई जा रही थी। कितना तो सब आसान है। किस्त जमा हो गई। संतरे अच्छे दिखे तो सोचा तुम्हारे लिए ले लूं। डॉक्टर बार-बार कहता है कि तुम्हें फल दूं। विटामिंस की बहुत ज्यादा कमी है तुममें।' मेरी बात सुनते ही अम्मी की आंखें भर आईं और बोलीं, 'अरे मेरी बेंजी, मेरा जिगर अब काहे मेरी इतनी चिंता करती है। इतने पैसे में तो कई टाइम की सब्जी आ जाती।'

उनकी तकलीफ समझते ही मैंने कहा, 'अम्मी परेशान ना हो। मैंने अलग से कोई पैसे नहीं खर्च किए। पैदल आई-गई थी। किराए के जो पैसे बचे उन्हीं में थोड़े से और मिलाकर ले आई हूं।' यह सुनते ही अम्मी बोलीं, ' या अल्लाह तेरी अकल को क्या हो गया है। इतनी गर्मी में इतनी दूर पैदल ही आई-गई। तभी मैं कहूं कि चेहरा इतना लाल, झुलसा-झुलसा क्यों हो रहा है। अरे मेरी बच्ची इतनी तकलीफ ना उठा। यह संतरे खाने से कुछ होने वाला नहीं है। यह सब नसीब वालों के लिए है। देख चेहरा कितना लाल हो रहा है। एकदम कुम्हला गई है।'

इतना कहते हुए अम्मी ने मेरी पेशानी को चूम लिया और, 'कहा अल्लाह हमेशा तेरी हिफाजत करें यही दुआ करती हूं। अब फिर से ऐसा मत करना।' मैंने कहा, 'अम्मी यूं परेशान ना हुआ करो। चेहरा तो बुर्के...।' मेरी बात पूरी होने से पहले ही अम्मी बोलीं, 'हाँ, इतनी गर्मी ऊपर से इतना भारी भरकम बुर्का, खौला के रख देता है बदन।'

मेरे मन में आया कि, अम्मी को बता दूं कि मैंने बाहर चेहरा खोला हुआ था। लेकिन यह सच कहने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। आने के बाद मैंने घर के सारे काम निपटाए। अम्मी की दवा-दारू देखी। कढाई का ज्यादा से ज्यादा काम निपटाने की सोची। पूरी कोशिश भी की, क्योंकि मेरे ज़ेहन में यह बात बखूबी थी कि रात मेरी कैसी बीतेगी, और सारी कोशिश के बावजूद ज़ेहन में जो था रात वैसी ही बीती थी।