भाग - ७
वही ज़ाहिदा-रियाज़, फिर अपने कपड़ों के साथ जंग । उतार-उतार कर उन्हें दीवारों पर रात भर के लिए दे मारना। फिर अपने ही तन बदन को देख-देख कर इतराना। और आखिर में मायूसी के दरिया में डूब कर खूब आंसू बहाना कि, हाय रे मेरा मुकद्दर। मेरे संग ऐसा क्यों कर रहा है? और जमीन पर ही पड़े-पड़े सो जाना रात भर के लिए। और चिकनकारी, वह भी मेरी तरह मायूस रात भर जमीन पर पड़ी रहती।
सवेरा होता तो दीवारों से टकरा-टकरा कर जख्मी पड़े, अपने कपड़ों को फिर उठाती। रात के अपने गुनाहों के लिए उनसे माफी की दरख्वास्त करती, फिर उन्हें प्यार से झाड़-पोंछकर पहन लेती। रोज-रोज के इस फसाने से मैं दिन में यह महसूस करती थी कि जैसे मैं बहुत तंग आ गई हूं। लेकिन रात में इस फसाने से एकदम जुदा एहसास होते। यही होते-होते अगली किस्त जमा करने का समय आ गया।
इस बार पहले से कहीं ज्यादा दिक्कतें दरपेश हुईं। मगर किसी तरह जोड़-गाँठ कर किस्त जमा कर आई। इस बार भी पहली बार ही की तरह पैदल ही आई-गई, लेकिन अम्मी के लिए संतरे नहीं ले पाई। एक भी नहीं। क्योंकि किस्त के अलावा दो-तीन रुपये ही बचे थे। किराए के भी पैसे नहीं थे। रास्ते भर मन बड़ा दुखी रहा। लोगों को हंसते-बोलते, आते-जाते देखकर बार-बार यह सवाल ज़ेहन में खड़ा होता कि हमारे मुकद्दर में ऐसी हंसी-खुशी क्यों नहीं लिखी है। घर पहुंची तो देखा टीवी चल रहा है। दुकान पर आए एक बच्चे को अम्मी कुछ सामान दे रही थीं। बैठे-बैठे सामान देने में भी उन्हें इतनी तकलीफ थी कि चेहरे पर दर्द साफ-साफ अपने निशान छोड़ रहा था।
मैंने अंदर आकर उनसे कहा, 'अम्मी पैसे जमा कर आई।' इसके आगे मैं कुछ बोल नहीं पाई, क्योंकि मैं दिल में घुसी अनगिनत फांसों का दर्द महसूस कर रही थी कि, अम्मी के लिए कुछ ला ना पाई। मेरा दिल रो रहा था। पूरा मन आंसुओं से नहा रहा था और जून के दूसरे हफ्ते की धूप में आने-जाने के कारण पसीने से तन नहाया हुआ था। मैंने बुर्का उतार कर अलग किया, एक गिलास पानी पी कर बैठी, तो ध्यान दिया की अम्मी इस दौरान लगातार मुझे ही देख रही थीं।
मैंने पूछ लिया, 'क्या हुआ अम्मी, ऐसे क्या देख रही हो?' ' तेरी तकलीफ देख रही हूं। बाहर अभी दोपहर भी नहीं हुई है और आसमान से जैसे शोले बरस रहे हैं। अपना चेहरा देखो कितना लाल हो रहा है। नकाब ठीक से नहीं डाला था क्या?' अम्मी की बात से मैं सिहर उठी। उन्हें सीधे देखने की हिम्मत नहीं कर पाई। इस बीच अम्मी ने दुकान में रखे बिस्कुट का एक छोटा सा पैकेट उठाकर मुझे देते हुए कहा, 'लो पानी पी लो। खाली पानी नुकसान करेगा।' मैं दुबारा पानी पीती रही और सोचती रही कि अम्मी की बात का क्या जवाब दूं।
उनकी बात से साफ है कि उन्होंने सच भांप लिया है। मैं खुद देख रही थी कि जितना बदन कपड़े से ढंका था, वह पसीने-पसीने जरूर था। लेकिन चेहरे और ढके हिस्से के रंग में फ़र्क़ था। मैंने सोचा कि सच बता देना ही मुनासिब होगा, नहीं तो अम्मी ना जाने क्या-क्या सोचकर हलकान होती रहेंगी। मैं कुछ सहमती हुई बोली, ' अम्मी एक बात बताऊं, नाराज तो नहीं होगी ?' ' क्या? बताओ ना, परेशान क्यों हो रही हो तुम, हमें मालूम है कि तुम कुछ भी करोगी, लेकिन गुनाह नहीं करोगी । हमें तुम पर पूरा एतबार है। बताओ।'
अम्मी की बात से मेरा हौसला थोड़ा बढ़ा । लेकिन फिर भी मैंने डरते-डरते कहा, 'अम्मी पता नहीं तुम गुनाह कहोगी या क्या कहोगी, लेकिन बाहर सबको देख-देख कर मैं खुद को रोक नहीं पाई। मोहल्ले से निकलने के बाद मैंने नकाब.. ।' इसके आगे मैं बोल नहीं पाई। तो अम्मी बोलीं, 'दिल-दुखाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे चेहरे से जान तो हम पिछली बार ही गए थे कि, तुम नकाब बिना ही आई-गई हो। इतनी तेज़ धूप में चेहरे की रंगत ही बदल गई है।'
अम्मी की बात से मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने कहा, 'तो अम्मी तुम नाराज नहीं हो।'
'अरे काहे की नाराज़गी । शर्मो-हया इज्जत का अपनी ध्यान रखो, उसके साथ कोई कोताही न करना, नकाब आखिर है इसी के लिए न । तो अगर बिना नकाब के ध्यान रखा जा सकता है तो नकाब के सहारे की जरूरत ही क्या है ?'
अम्मी की बात को पूरा समझकर मैंने सोचा लगे हाथ एक बात और साफ कर लूं, तो थोड़ा झिझकते हुए पूछा, 'तो अम्मी अब बिना नकाब कहीं आ-जा सकती हूं? तुम्हें कोई एतराज नहीं है।'
मेरे सवाल पर कुछ देर चुप रहने के बाद अम्मी बोलीं, 'अब कहा तो नकाब बुर्का सब शर्मो-हया की हिफाजत के लिए ही बनाए गए हैं। अगर इनके बिना भी हिफाजत कर सकती हो तो क्या जरूरत है लबादे की।' अम्मी की इस बात से मुझे लगा कि, मैं मानों तेज बर्फीली हवाओं के बीच से गुजर रही हूं। मैं बेहद खुश थी कि, अम्मी नाराज नहीं हुई थीं और इतना ही नहीं साफ-साफ यह भी बता दिया कि अगर मैं अपनी शर्मो-हया का बखूबी ख्याल रख सकती हूं तो नकाब क्या बिना बुर्के के भी निकल सकती हूं। मेरी यह खुशी किसी जलसे में शामिल होने की खुशी से कम नहीं थी।'
बेनज़ीर यह कहकर हल्के से मुस्कुराई तो मैंने कहा, 'देखा जाए तो जीवन में एक तरह से आपको पहली बार आज़ादी मिली, जिसे याद कर आप इस वक्त भी रोमांचित हुईं। उस दिन से पहले कभी सोचा था कि, आपको आपकी अम्मी ही इतनी आज़ादी देंगी।'
'नहीं, कभी नहीं सोचा था, लेकिन ख्वाब में, मन में तो सबकी तरह आज़ादी की बात रहती ही थी। और फिर सबसे बड़ी बात यह कि, जब जो होना होता है, जो ऊपर वाला चाहता है, वही होता है।'
'सही कह रही हैं आप, तुलसीदास जी भी यही कह गए हैं कि, '' होइहि सोइ जो राम रचि राखा।''
'हाँ, ऐसा ही सोचकर हम बड़ी-बड़ी मुश्किलें भी जीत लेते हैं।'
इतना कहकर बेनज़ीर जैसे खो गईं बीते दौर में, कुछ देर में लौटती हुई बोलीं, 'मेरी यह खुशी मेरे खाना पकाने से लेकर उस रात चिकनकारी के काम में भी साफ-साफ दिखी। कई महीनों बाद मैंने उस रात उतना काम किया जितना तब किया करती थी, जब सारी बहनें एक साथ हुआ करती थीं। जल्दी ही तीसरी किस्त का समय करीब आ गया। समय जैसे-जैसे करीब आ रहा था वैसे-वैसे मुझे लग रहा था जैसे कोई बड़ी मुसीबत करीब आ रही है। हफ्ता भर रह गया था लेकिन आधा पैसा भी नहीं जुटा पाई थी।
हम दोनों परेशान थीं कि बड़ी बेइज्जती हो जाएगी मोहल्ले में। एक तो किस्तों पर टीवी लिया, वह भी तब, जब मोहल्ले में एक-एक घर में न जाने कितने वर्षों पहले ही टीवी लग गई थीं, और यहां आलम यह है कि तीसरी किस्त ही नहीं निकल पा रही है। मारे गम के अम्मी ने दो दिन टीवी ऑन ही नहीं किया। मैं भी हिम्मत नहीं कर सकी कि टीवी ऑन कर दूं। इन दोनों दिन मेरा भी मन इतना परेशान रहा, इतना गमजदा रहा कि, रात भर ना तो ज़ाहिदा रियाज़ मुझे परेशान कर सके, ना ही उनकी आती आवाज़ों का कोई फ़र्क़ मुझ पर पड़ा, और ना ही दीवारों से टकराकर रोज की तरह मेरे कपड़े घायल हुए, न सुबह मुझे उनसे माफी मांगनी पड़ी, ना उन्हें जमीन से उठाने की जहमत उठानी पड़ीं ।
दोनों रात मैंने जमकर चिकनकारी की। इतनी कि उंगलियां अकड़ने लगीं, जवाब देने लगीं । मगर मैं रुकी नहीं। मालिश-वालिश करके उन्हें काम लायक बनाती रही।
लेकिन दूसरे दिन जब सुबह उठी तो मन में एक ख्याल आ गया। किस्त को लेकर मन में जो गम था उसे उस ख्याल ने कम कर दिया। फिर उस दिन अम्मी को चिंता ना करने के लिए कहते हुए मैंने टीवी ऑन कर दिया। लेकिन अम्मी का मन उखड़ा रहा, तो उखड़ा ही रहा। मैंने कहा, 'अम्मी ऐसे अपने को हलकान करने से क्या फायदा। कहा ना इंतजाम हो जायेगा ।' मगर अम्मी ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय एक बार गौर से मुझे देखा और फिर मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया।
उनकी आंखें आंसुओं से भरी थीं। भाव कुछ ऐसे थे जैसे मुझ पर तरस खा रही हों। मुझे बड़ा दुख हुआ। मैंने सोचा कि कहीं अम्मी यह तो नहीं सोच रहीं कि, मेरे कहने में आकर उन्होंने टीवी लेकर बड़ी जहमत मोल ले ली है। यह सोचकर मैं तड़प उठी। मैं अम्मी को दुखी नहीं देख सकती थी। मैं उनके पास जाकर बैठ गई। चेहरे को देखा तो उनके आंसू भी निकल रहे थे। वह चुपचाप रोए जा रही थीं।
उनकी हालत देखकर मेरा कलेजा कांप उठा। मैंने उनके दोनों हाथों को पकड़ कर चूम लिया और कहा, ' अम्मी-अम्मी काहे को हलकान हुई जा रही हो। कुछ नहीं होगा । क़िस्त जमा हो जाएगी । बल्कि सारी किस्तें एक साथ जमा हो जाएँगी। बस तुम मेरी एक बात मान लो, ना मत कहना।' मेरी इस बात पर अम्मी ने कुछ पल आश्चर्य से मुझे ऐसे देखा कि मानो पूछ रही हों, अच्छा तो तुम्हारे पास इतना पैसा कहां से आ गया? उनकी सवालिया नजरों का मैंने तुरंत जवाब दे देना उचित समझा।
मैंने समझाते हुए कहा, 'अम्मी ऐसा करो ना कि निकाह के लिए जो गहने इकट्ठा किये हैं, उनमें से कुछ बेचकर टीवी का सारा पैसा चुका दो। टीवी के लिए जैसे पैसा इकट्ठा करते हैं, वैसे ही इकट्ठा करके धीरे-धीरे गहने बनवा लिए जायेंगे । इससे कम से कम गले में फांसी तो नहीं रहेगी कि, आज ही किस्त जमा करनी है।आगे-पीछे इकट्ठा करने से सारा काम बन जायेगा। वैसे भी कौन सा अभी का अभी मेरा निकाह होने जा रहा है।'
मेरी बात सुनकर अम्मी ने कुछ जवाब देने के बजाय एक बार मुझे देखा फिर पहले की तरह सामने दिवार देखने लगीं । जैसे दीवार पर कुछ चल रहा हो। मुझसे रहा नहीं गया। तो मैं अपनी बात पर अड़ गई। क्योंकि मैं किस्त की जहमत से अम्मी और खुद को भी निजात दिलाने की ठान चुकी थी। बड़ी जद्दोजहद के बाद आखिर अम्मी ने बहुत ही दर्द भरी आवाज में मुक्तसर सी अपनी सहमति दे दी। मुझे लगा कि जैसे मुझे मेरी रुकी हुई सांसों के लिए फिर से हवा मिल गई।'
अपनी बात पूरी करते-करते बेनज़ीर जैसे खो गई उन्हीं यादों में। समय जैसे उल्टा घूम गया था, और वह अम्मी के साथ किस्त का मसला सुल्टा रही थी। मैं भी एकदम चुप रहा कि, इन्हें एक बार फिर जी लेने दो अपने बीते हुए पल को। मिल लेने दो अपनी अम्मी से। एकदम पिनड्रॉप सायलेंट हो गया। करीब मिनट भर बाद बेनज़ीर ने एक गहरी सांस लेकर छोड़ते हुए कहा, 'ओह टीवी किस्त। इस किस्त ने भी दरवाजे की ही तरह मेरी लाइफ में अहम किरदार निभाया।' यह कह कर वह मेरी आंखों में देखने लगीं । उनकी आंखें, साफ भरी हुई झील सी चमक रही थीं।
मैंने पूछा, 'क्या कोई ख़ास मसला इस किस्त के साथ भी जुड़ा हुआ है ?'
' ऐसा ही मानिए बल्कि ऐसा ही है। उस दिन धूप अपने पूरे शबाब पर थी। अम्मी ने एक अनुमान से कुछ गहने निकाल कर मुझे दिए। उन्हें बड़ी हिफाजत से बुर्के में रखकर मैं बाजार के लिए चल दी, अकेली। पहले अम्मी ने साथ चलने की हिम्मत की। लेकिन फिर थक कर, पस्त हो बैठ गईं। तैयार होते-होते ही इतना हांफने लगीं कि, उनका सांस लेना मुश्किल हो गया, तो मैंने उन्हें रोका, दवा-पानी दिया। जब उनकी सांस कुछ संभली तो मैं चल दी बाहर। कुछ ही देर बाद मैंने नकाब फिर से हटा दिया।
हटाते समय बड़ीअजीब सी गुस्सा से भरी हुई थी। मन में यही सोच रही थी कि, लगने दो चिलचिलाती धूप। झुलस कर कठोर हो जाने दो इस गोरे नाजुक से चेहरे को। गोरेपन को बदल जाने दो सांवले या कालेपन में। ऐसे गोरेपन से भी क्या लेना-देना। क्या अहमियत जो एक पल की खुशी भी मयस्सर ना होने दे। जल जाने दो इस मासूमियत को। खूबसूरती को। मन में बहुत सी आंधियाँ लिए मैं आंधी-तूफ़ान सी कत्तई नहीं जा रही थी। बिल्कुल आराम से टहलते हुए चल रही थी। मैं बड़े इत्मीनान से एक-एक चीज, एक-एक शख्स को गहराई से देखती-समझती और यह सोचती जा रही थी कि ऐसा कौन सा काम करूं कि, कमाई बढ़ा सकूं। अम्मी की कायदे से दवाई हो सके और ज़ाहिदा-रियाज़ को घर से बाहर कर सकूं।
जिनके कारण ना जाने कितनी रातों से मैं सो नहीं पा रही हूं। काम-धंधा सब चौपट हो गया है और खुद मैं भी। इनसे निजात पाना जरूरी हो गया है। जितना वह किराया देते हैं, बस उसका इंतजाम हो जाए।
मैं यही सब सोचती हौले-हौले टहलते हुए बड़ी देर बाद एक सोने-चांदी की दुकान के करीब पहुंची। दुकान की सीढियों तरफ मुड़ी ही थी कि, अंदर से मुन्ना चीपड़ अपनी मां के साथ दुकान का शीशे का दरवाजा खोलकर एकदम सामने आ गए। सीधे आंखों से आंखें मिल गईं। बचने का कोई रास्ता नहीं रह गया था। मैं हड़बड़ा उठी। ध्यान नकाब, खुले चेहरे की तरफ गया। लेकिन मेरे हाथ इसके लिए बढे ही नहीं कि नकाब डालूं।
जब-तक मैं कुछ सोचूं-समझूं, आगे बढूं कि, जैसे मैं उन्हें देख ही नहीं रही हूं, मैं उस दुकान के लिए आई ही नहीं, तब-तक मां-बेटे मेरे सामने खड़े थे। मुन्ना ने बेहिचक पूछा, 'आप इतनी धूप में कहां जा रही हैं?' मेरे लब हिल भी ना पाए थे कि उनकी मां बोलीं, 'अरे बेटा तुम अकेले ही, क्या बात है? कुछ परेशान लग रही हो। हमें बताओ, हम हैं मदद के लिए।'
अब-तक मैं खुद को संभाल चुकी थी। मैंने कहा, ' नहीं चच्ची, परेशानी वाली कोई बात नहीं है। अम्मी की दवा लेने निकली थी। उनकी कान की बाली टूट गई थी, सोचा लगे हाथ बाली भी ठीक करवा लूं। वही कराने आई हूं।'
' ठीक है बेटा। अच्छा एक बात तुम्हें अभी से बता रही हूं कि जल्दी ही निष्ठा की शादी है। उसमें तुम्हें जरूर आना है। घर आऊँगी तुम्हारी अम्मी के पास शादी का कार्ड लेकर। उन्हें भी इंवाइट करूँगी।आजकल सारा घर शादी की तैयारी में ही लगा है। ठीक है बेटा, चलूं अभी बहुत काम बाकी है।'
'मैंने कहा, ठीक है चच्ची जरूरआऊँगी।'
मुन्ना ने अब-तक अपनी बाइक स्टार्ट कर दी थी। चाची दो-तीन बैग लेकर बैठ गईं। मुझे पक्का यकीन था कि वह निष्ठा के लिए गहने लेने आईं थीं। जब वह चली गईं तो मैं दुकान में दाखिल हो गई। मेरे कानों में कहीं दूर से बैंडबाजे की आवाज पड़ने लगी ।
धूप में अपने को जितना मैं झुलसा सकती थी, उतना झुलसा कर ढाई घंटे बाद अम्मी के पास पहुंची। वह बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थीं। पहुंचते ही मैंने कुछ नहीं कहा। बुर्का उतार कर कुछ देर अपना पसीना सुखाती रही। थोड़ी देर बाद एक गिलास पानी पिया। सोचा अम्मी अब कुछ पूछेंगी, लेकिन वह चुप रहीं। तभी एक ग्राहक कुछ सामान लेने आ गया तो मैंने उसे सामान देकर पैसे ले लिए। मगर अम्मी ने उसके बाद भी कुछ नहीं पूछा। शायद उन्होंने मेरा चेहरा पढ़ लिया था। तजुर्बे से अपने क्या हुआ यह जान लिया था।
उनका इस तरह चुप रहना मुझे छूरी सा चीरने से लगा । आखिर मैं खुद ही बोली, 'अम्मी मैं गहने वापस लेती आई हूं। वह पुराने गहने के नाम पर बिल्कुल ठगने को लगा था। जबकि सारे गहने नए हैं। मैं दो दुकानों पर गई लेकिन दोनों ही दुकानों पर एक ही बात कही गई तो सोचा ऐसे बेचना तो इन्हें एक तरह से लुटा आना होगा। तो सोचा पहले एक बार तुमसे मशविरा कर लूं।'
जब मैंने अम्मी को वह रकम बताई जो ज्वेलर दे रहा था, तो वह दोनों हाथ उठाकर बोलीं, ' अल्लाह शुक्र है तेरा, तूने लुटने से बचा लिया। यह तो जितने में खरीदा था उसका आधा भी नहीं है। अच्छा किया जो तू चली आई। मगर अब किस्त का क्या करूं।' यह कहकर उन्होंने अपना माथा पीट लिया।