बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 8 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 8

भाग - ८

उनकी तकलीफ देखकर मेरे मन में आया कि, आग लगा दूं टीवी को, जिसके कारण अम्मी को इतना दुख मिल रहा है। एकदम अफनाहट में मैंने झटके में बोल दिया कि, 'अम्मी किराएदार से बोलो कि, इतनी ज्यादा जगह इतने कम में ना मिल पायेगी । इसलिए किराया बढाओ और कुछ महीने का एक इकट्ठा पेशगी दो।'

मेरी बात सुनते ही अम्मी खीजकर बोलीं, ' क्या बच्चों जैसी बातें करती हो। ऐसे नहीं होता है समझी।'

मैंने, अम्मी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला। किस्त की तारीख निकल गई। एजेंसी से कई फोन आए, हम कई बार पैसा पहुंचाने की बात कहकर भी जब नहीं पहुंच पाए तो उसने गारंटर मुन्ना को ही फोन कर दिया।

हमें इस बात का अहसास था, आभास था। लेकिन वह इतनी जल्दी गारंटर तक पहुंच जाएंगे यह नहीं सोचा था। तारीख गुजरे दस दिन भी नहीं हुए थे कि, एक दिन देर शाम मुन्ना दुकान पर आकर अम्मी से बात करने लगे । वह बहुत ही संकोच में बात कर रहे थे । कुछ देर अम्मी की खैरसल्लाह लेने के बाद उन्होंने मुद्दे की बात बहुत ही हिचकिचाते हुए कही तो अम्मी ने समस्या बताई कि, ' बेटा क्या बताऊं, चिकन वालों ने काफी पैसा रोका हुआ है। यह लोग काम करा लेते हैं, और पैसा दो-तीन महीने तक रोके रहते हैं। पूरा कभी देते ही नहीं, आधा हमेशा फंसाए रहते हैं। दुकान और किराया जो थोड़ा बहुत मिलता है वो सब मुई मेरी दवाई में चला जाता है। इसी से इतना...।'

मुन्ना बीच में ही बोले, ' चाची इतना परेशान ना हों, मैं हूं ना। जितना इंतजाम हुआ है, उतना ही मुझे दे दीजिए। बाकी मैं मिलाकर दे आऊँगा। आपके पास जब हो तब मुझे दे दीजियेगा।' उनकी बात से मैं क्याअम्मी ने भी बड़ी राहत महसूस की। अम्मी के इशारे पर मैं शरबत ले आई थी। मुन्ना उसे ही धीरे-धीरे पी रहे थे। इस बीच अम्मी ने पैसे निकालकर मुन्ना को दे दिये।

मुन्ना ने पता नहीं अचानक क्या सोचकर, जो रुपये अम्मी ने दिये थे वो, और जितने कम थे वह मिलाकर अम्मी को वापस देते हुए कहा, 'चाची इसे अपने पास रखो। अगर कोई तकलीफ ना हो तो कल आप बेनज़ीर के हाथ भिजवा दीजियेगा। असल में बात यह है कि निष्ठा की शादी एकदम करीब है। बेनज़ीर ने आपको तो बताया ही होगा । बड़ा काम है। कहीं ध्यान से उतर गया तो रह जायेगा । एक बात और कहूंगा कि, आगे ऐसी बात आए तो निसंकोच बता दीजियेगा। आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। सब बहुत आसानी से हो जाएगा। और हां, अम्मा तो आएँगी ही कार्ड लेकर। लेकिन मैं भी, अभी से आपको अपनी बहन की शादी के लिए इंवाइट कर रहा हूं। आप बेनज़ीर को लेकर जरूर आइयेगा। अम्मा ने बेनज़ीर से बाजार में ही कह दिया था। अब तो यह भी बाहर जाने-आने लगी हैं।' यह कहकर मुन्ना उठे, और अम्मी को नमस्कार करके चले गए ।

अम्मी ने उन्हें ढेर सारी दुआएं दीं। उन्हें निष्ठा के काम से कहीं जाना था। वह जल्दी में थे । वह ज्वेलर के यहां अपनी मां के संग मिले थे, मैं अम्मी को मारे तनाव के यह बताना ही भूल गई थी।

मुन्ना के जाने के बाद मैंने अम्मी को तफसील से सारी बातें बता दीं। सुन कर वह बोलीं, ' कहीं इन्हें शक तो नहीं हो गया कि हम गहना बेचने गए थे।' मैंने कहा, 'अम्मी ऐसा होना तो नहीं चाहिए। मैंने पूरी कोशिश की थी कि, उन्हें सच का जरा भी एहसास ना हो। मैंने यही कहा कि, तुम्हारी बाली ठीक कराने आई हूं।' अम्मी बोलीं, ' चलो, जैसी अल्लाह की मर्जी। उसकी रज़ा इसी में है तो यही सही।'

कई दिनों बाद हम दोनों उस दिन चैन से खाना, खा सके और मैंने जी-जान से चिकनकारी की। उस दिन भी ज़ाहिदा-रियाज़ ने हफ्तों बाद बहुत खलल डाला, लेकिन मैं डिगी नहीं। उन पर जो गुस्सा था वह खत्म हो गया था। सोचा परवरदिगार ने इनको खुशियां बख्शी हैं, हमें नहीं दीं, तो हम उनकी खुशियों से क्यों परेशान हों। मैंने परवरदिगार से अपनी सोच के लिए माफी मांगी और दुआ की, कि उनकी खुशियां हमेशा यूं ही बरकरार रखें।'

' एक बात बताइए कि रियाज़-ज़ाहिदा आपके यहां जब आए, उसके बाद से ही आप उन्हें उस ख़ास स्थिति में देखती रहीं। तो वो आपके लिए परेशानी का सबब थे या कि कुछ और?' 'बड़ी मुश्किल बात पूछ ली। मैं खुद आज तक समझ नहीं पाई कि, उनके कारण जो-जो हुआ जो-जो महसूस करती थी, उस हिसाब से क्या कहूं। मुझे लगता है सारी कोशिश के बाद भी यही कह पाऊँगी कि, परेशानी का सबब थी भीं, नहीं भी।'

' छोड़िये इस प्वाइंट पर जब क्लियर होईयेगा तब आगे बताईयेगा । अभी तो किस्तों की समस्या कैसे सुलझी वह कहिए।'

'क़िस्त के मामले में आपको भी काफी रूचि है।'

' बात रूचि की नहीं है। मुझे लगता है कि टीवी और किस्त ने आप दोनों के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। इसलिए पूरा जानना चाहता हूँ।'

' हाँ, यह सही है। जल्दी ही किस्त का एक और दौर सामने आ खड़ा हुआ। हालात पहले से ही थे। इस बीच निष्ठा की शादी हो गई थी।अम्मी शादी में अपनी सेहत और कई अन्य कारणों से जाना नहीं चाहती थीं। लेकिन मुन्ना, उनकी अम्मा के प्यार मोहब्बत के आगे रुक ना सकीं। उनके साथ मैं भी गई। जीवन में पहली बार मैं मोहल्ले में किसी शादी में शामिल हुई थी।

अम्मी को तो सब जानते थे लेकिन मुझ से अधिकांश लोग अनजान थे। कई लोगों ने अम्मी से आखिर कह ही दिया कि पहली बार देख रही हूं आपकी बेटी को। एक चाची ने तो यहां तक कह दिया कि, 'अरे भाभी जी, इतनी चांद सी प्यारी बिटिया को कहाँ इतने दिनों तक छुपाए रखी थी। मैं तो पहली बार देख रही हूं।'

मुझे उनकी बात पर बड़ी शर्म आई। मैं अम्मी से एकदम छोटी बच्ची की तरह चिपकी जा रही थी। मैंने अपना गहरे गुलाबी रंग का घाघरा-कुर्ती पहना था। उस पर वैसी ही हल्के रंग की चुन्नी थी।

यह कपड़ा मेरे लिए बहनों की शादी के समय बनवाया गया था। जिसमें खूब भारी कढाई का काम था, सुनहरी रंग से। तैयार होकर मैंने खुद को एक बार शीशे में गौर से देखा था। तब ऐसा कोई एहसास मन में नहीं था। चलते वक्त मैंने अम्मी से हल्की सी दरख्वास्त की थी कि बुर्का ना पहनूं। एक तो बेहद गर्मी है। दूसरे इतने मोटे भारी कपड़ों पर फिर से एक और कपड़ा डालना बहुत ही मुसीबत वाला काम है। मेरी तो गर्मी के मारे जान ही निकल जायेगी । जाना तो रात में ही है ना। तब अम्मी ने बड़े प्यार से मुझे देखते हुए कहा था, ' मेरी बेंजी, तुझे नजर ना लगे। परवरदिगार तुझे बुरी नजरों से बचाए। जा, तुझे जो अच्छा लगे वह अपने हिसाब से कर ले।'

अम्मी की बातों से न जाने कितने वर्षों बाद मैंने बेइंतिहा खुशी महसूस की थी। बेइंतिहा खुशी मुझे निष्ठा को भी लाल जोड़े में वरमाल के वक्त देखकर भी हुई थी। एकदम परी सी निष्ठा की वही तस्वीर दिल में लिए देर रात तक हम घर वापस आ गए।

आते वक्त अम्मी ऐसी शांत, खोई-खोई सी थीं कहीं, जैसे न जाने क्या सोच रही हैं। न जाने किस दुनिया में हैं। वह जब सोने के लिए लेटीं तब-तक मैं उनके भावों को समझ चुकी थी कि, मोहल्ले की मुझसे करीब दस-बारह वर्ष छोटी लड़की की शादी हो गई थी और उनकी बेटी की निकाह का कहीं दूर-दूर तक कुछ पता नहीं था। मैं भी जब कमरे में आई तो मेरा मन भी अम्मी के मन से कहीं ज्यादा भारी हो रहा था। कुछ करने का जी नहीं हो रहा था। बार-बार लाल जोड़े में निष्ठा और उसके राजकुमार से दूल्हे की तस्वीर नजर आ रही थी और साथ उन चाची की बात कानों में गूंज रही थी कि, 'इतनी चांद से प्यारी बच्ची को कहां छुपा कर रखा था भाभी जी।' मैं सोचते-सोचते शीशे में मैं खुद को देखने लगी ।

मैंने मन ही मन कहा, मैं भी निष्ठा से कम खूबसूरत नहीं हूं। मगर तभी मन में दूसरी आवाज भी उठी कि, मुझसे बदसूरत मुकद्दर वाली भी कोई ना होगी। मैं देखती रही खुद को, इतराती रही खुद को ही देखते हुए, अपनी खूबसूरती पर। बड़ी देर बाद मेरी नजर इस तरफ गई कि मेरे कपड़े अब काफी कस गए हैं। जब सिलवाए गए थे तब से कई वर्षों में अच्छी-खासी मोटी हो गई हूं। चुन्नी हटाकर एक बार फिर देखा तो गुरूर से भर उठी। मगर अपनी हालत का अंदाजा होते ही मैं दुख, गुस्से से कांप उठी, आग लग उठी मेरे तन-बदन में।

मेरी बदकिस्मती देखिए कि, दुनिया में मेरा कोई नहीं था, जिस पर मैं अपना गुस्सा निकालती। एक उस छोटे कमरे की दिवारें ही थीं जिन पर गुस्सा उतारती आ रही थी। उस समय भी उतारा। सारे कपड़े निकाल-निकाल कर सामने दीवार पर दे मारे। उन्हें रोज से भी ज्यादा जख्मी कर दिया, और जमीन पर ही पड़ी रही। न जाने कितनी देर तक। कमरे में अंधेरा कर दिया था। यूं ही पड़े-पड़े अपने चेहरे के आसपास की जमीन को मैं बहुत देर तक नम करती रही। सवेरे जब कानों में अम्मी की आवाज पड़ी, तो आंखें खुल गईं। होश में लौटते ही चौंक कर उठ बैठी। मानो सामने जलजला आ गया हो।

घायल कपड़े दीवारों से सटे हुए आसपास पड़े थे। यह तो पहले भी न जाने कितनी बार हुआ था, मगर इस बार हंगामाखेज यह था कि, दरवाजा रात भर खुला ही रह गया था। यह तो गनीमत थी कि, घर में सिर्फ अम्मी थीं। जो सवेरे-सवेरे चलने-फिरने में एकदम लाचार रहती थीं, और किराएदार का रास्ता अलग था। नहीं तो मेरे लिए यह कयामत की सुबह होती। शादी में पहने कपड़ों को जल्दी-जल्दी उठाकर बिस्तर पर फेंका और घर वाले पहनकर अम्मी के पास पहुंची।

मुझे हांफते हुए देखकर अम्मी ने पूछा, ' हांफ क्यों रही हो, कोई बुरा ख्वाब देखा क्या?' मैंने बचने के लिए सवेरे-सवेरे ही अम्मी से झूठ बोलने का गुनाह किया। कह दिया, ' हाँ हमने बहुत बुरा ख्वाब देखा। तुम्हारी आवाज कानों में पड़ी तब कहीं जाकर उससे निजात मिली।'

'आँखें भी तेरी सूजी हुई लग रही हैं। रात भर सोई नहीं क्या?'

मैंने, 'कहा सोई तो थी। मुझे तो ऐसा नहीं लग रहा है।'

मैंने देखा कि, अम्मी की भी आंखें बुरी तरह सूजी हुई हैं। मन ही मन मैंने कहा, 'अम्मी तू तो रात भर मेरी चिंता में जागती रही, इसलिए तेरी आंखें सूजी हैं। और मैं अपने मुकद्दर पर रोते-रोते सोई, इसलिए मेरी आंखें सूजी हैं। लेकिन दोनों के लिए जिम्मेदार सिर्फ मैं हूं। मैं हूं।'

'इसमें कोई संदेह नहीं कि, आप, आपकी अम्मी ने मानसिक पीड़ा के उस लेवल को भी क्रॉस  किया है, जिस पर पहुंच कर अधिकांश लोग बिखर जाते हैं।'

' हाँ, लेकिन हमें किस्तें देनी थीं, तो हम कैसे बिखर सकते थे। निष्ठा की शादी के बाद जब फिर अगली किस्त का नंबर आया तो हम मां-बेटी पहले की तरह हलकान नहीं हुईं, क्योंकि मुन्ना पर हमें भरोसा था कि वह सब संभाल लेंगे। फिर भी हमने जितना हो सका, उतना पैसा इकट्ठा किया था। आखिरी दिन अम्मी उन्हें फोन करने की सोच ही रही थीं कि वो खुद ही आ गए। अम्मी ने अपने हालात बताये तो उन्होंने कहा, 'आप क्यों बार-बार शर्मिंदा करती हैं। जितने हैं उतने ही दीजिए बाकी हो जाएंगे।'

उस दिन देर शाम को जब वह रसीद देने आये तो अम्मी ने बैठा लिया, कहा, ' बेटा चाय पीकर जाओ।'

वह बहुत संकोच कर रहे थे। जाने को उतावले थे, लेकिन अम्मी की बात नहीं टाल पाए। मैं उनके लिए चाय-नमकीन बिस्कुट लाई थी। अम्मी पुरानी बातें दोहराने लगीं । मैं दरवाजे की आड़ में सुनती रही। उन्होंने बताया कि, 'चिकन का काम अच्छा नहीं चल पा रहा है। बेंजी अकेले कितना करेगी। किराया भी कोई बहुत ज्यादा नहीं आता है। आधी कमाई तो निगोड़ी मेरी बीमारी ही खा जाती है। समय निकला जा रहा है। इसके निकाह की चिंता सताए रहती है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता।'

अम्मी की तमाम बातें बड़े ध्यान से सुनने के बाद मुन्ना ने कहा, ' चाची एक बात कहूं। अगर आप और बेनज़ीर थोड़ी हिम्मत करें तो आसानी से आपकी इनकम बहुत बढ़ जायेगी । इतनी कि, आपकी दवाई, बाकी सारे खर्चे और बेनज़ीर के निकाह के लिए भी, आप बहुत कुछ जोड़ लेंगी।'

'बेटा हम सारी हिम्मत करने को तैयार हैं। बेनज़ीर बहुत मेहनती है। उसकी मेहनत में कमी नहीं है। मगर क्या करें, कुछ समझ में ही नहीं आता। चिकन के काम में मेहनत हमारी होती है, कमाई सब बड़े मगरमच्छ खा जाते हैं।'

' चाची, जितना मेरी समझ में आता है, उस हिसाब से मैं रास्ता बता रहा हूं। आप दोनों खूब सोच-समझ कर बताना। ठीक लगे तो कदम बढ़ाना, नहीं तो कुछ और सोचा जायेगा।'

अम्मी बोलीं, 'सोचना क्या बेटा, कुछ रास्ता बचा ही नहीं है। इसलिए कुछ ना कुछ तो हर हाल में करना ही है। तुम बताओ।'

'चाची पहला काम तो यह कि बेनज़ीर सिलाई-कढाई में मास्टर है। घर में जो करती है वह करती रहे। मेरे ट्रेनिंग सेंटर में सिलाई-चिकनकारी सीखने बहुत सी लड़कियां आती हैं। सेंटर पर अगर बेनज़ीर उन्हें सिखाने के लिए आती हैं, तो हर महीने उन्हें तनख्वाह मिलेगी। उससे आपकी दवा और किस्तें दोनों बड़े आराम से निकल जाएंगी। आप तो जानती हैं कि, हमारा सेंटर हमारी एनजीओ के माध्यम से चलता है। गवर्नमेंट से हमें हेल्प मिलती है, जो तनख्वाह दूसरों को देते हैं, वह बेनज़ीर को मिल जाया करेगी। कहीं दूर जाना नहीं है। सेंटर मेरे ही घर पर है। इसके अलावा चिकन की एक दुकान मैं ऑनलाइन खुलवा दूंगा ।'

इसके बाद मुन्ना ने अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि के बारे में बहुत सी बातें बताईं। अम्मी को खूब समझाया। जिसका विज्ञापन हम टीवी पर देखा ही करते थे। मगर समझ में कुछ नहीं आता था। उस समय भी थोड़ा ही समझ में आया। मुन्ना की बात सुनकर अम्मी ने कहा, ' बेटा बेनज़ीर से भी पूछ लूं, काम उसको करना है। देखते हैं कि वह तैयार होती है कि नहीं।' 'ठीक है चाची, मैंने पहले ही कहा कि, पहले आप दोनों लोग बातचीत करके समझ लीजिए फिर आगे बढिये। जैसा हो वह मुझे कल बता दीजियेगा।'

मुन्ना के जाने के बाद हम मां-बेटी ने बड़ी देर तक सलाह-मशविरा किया। अम्मी ने फिर पुरानी बात दोहराते हुए कहा, ' बेंजी, अब तू यह समझ ले कि, तुझे अपनी हिफाज़त, अपने अच्छे मुस्तकबिल के लिए अकेले ही आगे बढ़ना है। इसलिए हिम्मत कर और काम शुरू कर दे।'

अम्मी ने और तमाम नसीहतें दे डालीं। मुझे रात भर इत्मीनान से सोच-समझ कर फैसला करने को कहा। हालांकि मैं फैसला तो मुन्ना की बात सुनकर ही कर चुकी थी। अम्मी से कहा भी लेकिन वह बोलीं, ' फिर भी सोच-समझ लेने में हर्ज क्या है?'

दो दिन बाद मैं पहली बार मुन्ना के ट्रेनिंग सेंटर पर लड़किओं को ट्रेनिंग देने गई। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि 'घर से मात्र दो सौ कदम की दूरी पर मुन्ना अच्छा-खासा बड़ा सा ट्रेनिंग सेंटर चल रहा था और हमें कुछ भी खास मालूमात नहीं थी। चार पाली में करीब चार सौ लड़कियां ट्रेनिंग लेने आती थीं। मुझे सुबह से शाम तक ट्रेनिंग देनी थी। मैं पहले दिन शर्म-संकोच के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी। लेकिन मुन्ना ने दिन भर में दो-तीन बार ऐसा सिखाया-समझाया कि, अगले दिन से मुझे कोई ख़ास दिक्कत पेश नहीं आई। दो-तीन दिन में ही लड़कियों ने मुन्ना से कह दिया कि, मैं जितना बता रही हूं वैसा तो पहले दूसरी टीचर बता ही नहीं पातीं थीं।

मुन्ना बड़ा खुश हो गए। मुझे भी बड़ी खुशी हुई कि, इतने लोग मेरे हुनर की तारीफ कर रहे हैं। बड़ी बात यह कि लोग मुझसे सीख रहे हैं। अम्मी को बताया तो वह भी खुश हुईं। देखते-देखते महीना बड़ी तेज़ी से बीतने लगा । जैसे-जैसे महीना पूरा होने के करीब आ रहा था वैसे-वैसे तनख्वाह को लेकर मेरी धड़कनें बढ़ रही थीं। अम्मी ने कई बार मुन्ना पर आशंका भी जाहिर की कि, ' पता नहीं जितना पैसा कह रहा है, वह देगा भी कि नहीं। क्या करेगा, कितने दिन यह सब चलेगा।'

'लेकिन जब उनकी इतनी अच्छी छवि थी, वह इतना सबकुछ कर रहे थे आप लोगों के लिए, तो ऐसा शक करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए ।'

'आप सही कह रहे हैं। लेकिन जो बाहिरियों से ज्यादा अपनों से ही हज़ार-हज़ार जख्म पाए हों, ऐसे जख्म जो कभी भरे ही नहीं जा सकते, वो इस मामले में इतना कमजोर हो जाते हैं कि, अपने और गैर का फ़र्क़ करना भूल जाते हैं। हमारे साथ भी यही हो रहा था। इन्हीं आशंकाओं असमंजस के बीच एक महीना पूरा हो गया। लेकिन मुन्ना ने तनख्वाह की बात ही नहीं की। धड़कने और बढ़ गईं। फिर दो-तीन दिन और बीत गए तब अम्मी ने कहा कि, 'आज मुन्ना से पूछना तो क्या हुआ तनख्वाह का ।'

मैंने कहा, ' नहीं अम्मी अभी ठहर जा। कुछ दिन और ऐसे ही चलने दे। किस्त में ही उन्होंने कितने पैसे दे रखे हैं। गारंटी भी ली हुई है। ऐसे में अभी पूछना अच्छा नहीं होगा।'

उस दिन रात को मेरे दिमाग में भी आशंकाएं कई बार कुलबुलाईं, मगर काम-धंधा, मुन्ना के प्रति लोगों का यकीन, खासतौर से वहां पर मेरे अलावा अन्य जो लोग काम कर रहे थे उनका, देखकर मेरा भी भरोसा पक्का बना रहा।