एक कदम आगे Akhilesh Srivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक कदम आगे

कहानी
एक कदम आगे
अखिलेश श्रीवास्तव चमन

‘‘मुन्नू की माॅं, तुम कुछ ज्यादा ही भावुक हो रही हो। कोई जरूरी नहीं कि जो तुम सोच रही हो वही सच हो। सच्चाई तुम्हारी सोच के उल्टा भी तो हो सकती है। दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है। ठगी के एक से बढ़ कर एक नए-नए तरीके खोज लिया है लोगों ने। खास कर के आज की नई पीढ़ी के बच्चे बहुत आगे हैं इस मामले में। जमीन-जायदाद की लालच में कोई भी षणयंत्र....कोई भी नाटक कर सकते हैं ये लोग। मुझको लगता है यह चिट्ठी हमें इमोशनल ब्लैकमेल करने की एक सोची-समझी साजिश हो सकती है।’’
‘‘चलिए माना कि यह सब नाटक है, षणयंत्र है, चाल है, तो फिर उन तस्वीरों के बारे में क्या कहना है आप का जो उसने पत्र के साथ भेजे हैं।’’
‘‘अरे देवी जी ! आज कम्प्यूटर के जमाने में तो यह बहुत ही आसान काम है। किसी भी दो लोगों की अलग-अलग तस्वीरों को एक साथ मिला कर जैसी चाहे वैसी तस्वीर बनाई जा सकती है। आजकल ब्लैकमेलिंग का नया तरीका चल पड़ा है यह। कहो तो मैं तुम्हारी किसी गैर मर्द के साथ अंतरंग तस्वीर बनवा के दिखला दूॅं।’’
‘‘यही तो खराबी है आप में कि हर समय आप वकालत वाले दिमाग से ही काम लेते हैं। अरे कभी तो सामान्य इंसान की तरह सोचा करिए। क्या कोई अच्छी-खासी, पढ़ी-लिखी नौकरीशुदा लड़की इस हद तक गिर जाएगी कि आपकी जमीन-जायदाद की लालच में अपना चरित्र, अपनी इज्जत और अपनी जिन्दगी को दाॅंव पर लगा देगी। यदि वह चाहती तो बहुत आराम से सब कुछ छुपा सकती थी। चुपचाप अपने गर्भ की सफाई करा लेती और किसी को कानों-कान पता भी नहीं चलता। लेकिन सब कुछ के बावजूद वह भारतीय संस्कारों में पली, बढ़ी लड़की है। शायद इसीलिए अपनी बदनामी और अपने भविष्य की चिन्ता किए बगैर उसने सच्चाई जाहिर की है। मैं तो उसकी हिम्मत, ईमानदारी और प्रेम के प्रति उसके समर्पण की तारीफ करती हूूॅं। वरना आजकल की शहरी लड़कियाॅं तो आए दिन इस तरह से मर्द बदलती हैं जैसे कपड़ा बदल रहीं हों।’’
‘‘यानी तुम्हारा कहना यह है कि उस लड़की के पेट में पल रहा बच्चा अंकित का ही है। क्यांे....?’’
‘‘हाॅं, अभी तक तो मुझे ऐसा ही लग रहा है कि वह झूठ नहीं बोल रही है....पत्र में लिखी बातें सच हैं। फिर भी अंतिम रूप से किसी निर्णय पर पहॅंुचने से पहले मैं एक बार उससे मिल कर आमने-सामने बात करना चाहती हूॅं। आप भी समझते हैं कि आमने-सामने की बात में झूठ ज्यादा देर तक नहीं टिक पाएगा। जैसी भी स्थिति होगी दूध का दूध, पानी का पानी साफ हो जाएगा। यदि आप भी साथ चलिए तो बहुत अच्छा वरना मेरा रिजर्वेशन करा दीजिए। मैं जितनी जल्दी हो उससे मिल कर सच्चाई जानना चाहती हूॅं।’’
‘‘ठीक है भाई। जैसी तुम्हारी मर्जी। मैं तो नहीं जा सकूॅंगा....। तुम चली जाओ।’’

शहर के मशहूर एड़वोकेट रोहित सिनहा का बड़ा बेटा अंकित बी0टेक0 और एम0बीए0 की पढ़ाई पूरी करने के बाद पिछले दो वर्षों से कोलकाता में किसी कम्पनी में कार्यरत था। उसके नौकरी में लगने के साथ ही उसकी माॅं और पिता उसकी शादी के लिए कहने लगे थे लेकिन वह किसी न किसी बहाने टाल-मटोल करता आ रहा था।
‘‘देख मुन्नू......साफ-साफ बता कि आखिर तू चाहता क्या है। अगर तूने कोई लड़की पसन्द कर ली हो तो वो बता.....हमें कोई आपत्ति नहीं। हम उसी के साथ कर देंगे तुम्हारी शादी। वरना अगर हाॅं कह तो हम ढ़ूॅंढ़ें तुम्हारे लिए कोई लड़की। चाहे जहाॅं भी कर लेकिन अब शादी कर ले तू।’’ पिछले साल दुर्गा पूजा की छुट्टियों में घर आया तो अंकित की मम्मी ने उसकी घेर-घार की।
‘‘ठीक है मम्मी......बताऊॅंगा। बहुत जल्दी ही बताऊॅंगा। अगले दुर्गा पूजा तक कर लूॅंगा शादी...। प्रामिज है। लेकिन प्लीज अभी कहीं बातचीत मत करना तुम लोग।’’
‘‘समझ गई...समझ गई। इसका मतलब कहीं कोई चक्कर है तुम्हारा। अरे ! तो बताता क्यों नहीं ?’’ मम्मी ने आॅंखें नचाते हुए कहा तो अंकित मुस्कुराता हुआ बाहर चला गया।
और इस साल दुर्गा पूजा से ठीक तीन महीने पहले उसका फोन आया-‘‘मम्मी, इस बार आप को और पापा को दुर्गा पूजा की छुट्टियों में कोलकाता आना है। अभी तुरन्त रिजर्वेशन करा लीजिए, वरना बाद में मुश्किल हो जाएगी। पूजा के समय बहुत मारा-मारी रहती है कोलकाता की ट्रेनों में।’’
‘‘क्यों...? इस बार छुट्टियों में तू घर नहीं आएगा क्या....?’’
‘‘नहीं मम्मी, इस बार आप लोग इधर आइए। जरूर से जरूर आइए। बंगाल का दुर्गा पूजा देख कर तबियत खुश हो जाएगी आप लोगों की। आने, जाने दोनों तरफ का रिजर्वेशन करा लीजिए अभी से....या पापा से पूछ कर तारीख बताइए तो मैं ही करा देता हूॅं।’’ अंकित ने फोन पर इसरार किया।
बेटे की इच्छा के अनुसार कोलकाता का प्रोग्राम बन गया था। वकील साहब ने अपना और पत्नी का हाबड़ा तक का आरक्षण करवा लिया था। पूरे एक सप्ताह का कार्यक्रम बनाया था उन लोगों ने। सोचा था कोलकाता तक जायेंगे तो जगन्नाथपुरी और गंगासागर भी हो आयेंगे। लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर थी। दुर्गा पूजा से ठीक एक महीना पहले अंकित के सड़क दुर्घटना में घायल हो कर अस्पताल में भर्ती होने की खबर मिली। पति-पत्नी भागे-भागे कोलकाता पॅंहुचे। देखा तो अंकित एक प्रायवेट अस्पताल में बेहोशी की हालत में भर्ती था। सड़क पार करते समय किसी तेज रफ्तार वाहन ने उसको टक्कर मार दी थी। वह सिर के बल गिरा था और तभी से बेहोश पड़ा था।
ड़ाक्टरों की सारी कोशिशों और माॅं शोभा देवी की सारी मनौतियों के बावजूद अंकित होश में नहीं आ सका था। बेहोशी की हालत में ही तीसरे दिन उसका देहान्त हो गया था। वकील साहब और शोभा देवी पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। रोते-कलपते उन लोगों ने कोलकाता में ही बेटे का अंतिम संस्कार किया। उस अनजान जगह में कोई सगा-सम्बन्धी तो था नहीं। अंकित के दोस्तों के सहारे ही सारा क्रिया-कर्म सम्पन्न हुआ। उसके कई दोस्त अस्पताल से ले कर श्मसान तक लगातार साथ रहे जिनमें एक लड़की भी थी। अस्पताल में भी और लोग तो आते-जाते रहते थे लेकिन वह लड़की एक मिनट के लिए भी अंकित के बेड़ के पास से नहीं हटी थी। बगैर खाए-पीए और बगैर पलक झपकाए वह लड़की लगातार बेहोश पड़े अंकित के पास बैठी रही थी। उसी लड़की ने वकील साहब की पत्नी को अंकित के फ्लैट की चाबी दी थी। वह लड़की शुरू से अंत तक खामोशी की चादर ओढ़े बुत बनी रही थी। संभवतः अधिक रोने अथवा लगातार जागते रहने के कारण उसकी आॅंखें सूर्ख लाल हो कर सूज आयी थीं। बेटे के गम में दुःखी वकील साहब और शोभा देवी ने उसकी तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया और अंकित का जो थोड़ा-बहुत सामान लाने लायक था उसे ले कर वापस आ गए।
कोलकाता से वापस लौटने के लगभग डेढ़ महीने के बाद वकील साहब को स्पीड़-पोस्ट से भेजा एक लिफाफा मिला। भेजने वाले की जगह उस पर रूपा भट्टाचार्य नाम लिखा था। लिफाफा खोला तो उसमें एक पत्र तथा पोस्टकार्ड साइज की चार तस्वीरें थीं। तस्वीरों को देखते ही उसमें दिख रही लड़की को वकील साहब पति-पत्नी एकदम से पहचान गए। तस्वीरों में अंकित के साथ वही लड़की थी जो उन्हें कोलकाता के अस्पताल में अंकित के बेड़ के पास बैठी मिली थी और विद्युत शवदाह गृह तक साए की तरह साथ-साथ लगी रही थी। तस्वीरें खुद इस बात का बयान कर रही थीं कि अंकित और उस लड़की के बीच काफी अंतरंग सम्बंध रहे थे।
तस्वीरें देख चुकने के बाद वकील साहब ने पत्र खोला। पत्र इस प्रकार था-
‘‘आदरणीया मम्मी एवं पापाजी। सादर चरण-स्पर्श।
शायद इस पत्र के साथ भेजी तस्वीरों से आप लोग पहचान गए होंगे, मैं वही लड़की हूॅं जो कोलकाता के अस्पताल में अंकित के पास आप लोगों से मिली थी। मैं और अंकित एक साथ ही एक ही कम्पनी में नौकरी करते थे। नौकरी के दौरान ही हम एक दूसरे के निकट आए थे और अब पूरी तरह से एक दूसरे के हो चुके थे। लगभग चार माह पहले कालीबाड़ी में माॅं काली को साक्षी बना कर हमने शादी भी कर ली थी। मुझको आप लोगों से मिलवाने तथा हमारे इस प्रेम-विवाह पर आप लोगों की स्वीकृति की मुहर लगवाने के उद्देश्य से ही इस बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में अंकित ने आप लोगों को कोलकाता बुलाया था। लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि विधाता को यह मंजूर नहीं हुआ।
एक खास बात जिसके कारण मैं यह पत्र लिखने के लिए विवश हुई हॅंू वह यह है कि मेरे गर्भ में अंकित का अंश पल रहा है। वैसे अगर मैं चाहूॅं तो किसी को भी भनक लगे बगैर इससे छुटकारा पा सकती हूॅं, लेकिन ऐसा करना अंकित के साथ विश्वासघात होगा। यह गर्भ किसी जोर-जबरदस्ती अथवा सिर्फ वासनापूर्ति का परिणाम नहीं है। यह हमारे विशुद्ध प्रेम और समर्पण का प्रतिफल है। इसलिए मैं इस गर्भ को दुनिया में ले आना चाहती हूॅं। मुझे इस बच्चे को जन्म देने तथा पालने में कोई शर्म, भय या समस्या नहीं है। मैंने कोई पाप नहीं किया है इसलिए बिनब्याही माॅं बनने के बाद मिलने वाले दंश को झेलने तथा समाज के दुत्कार को सहने का साहस है मुझमें। बस मुझको चिन्ता इस अजन्मे बच्चे के भविष्य को ले कर है। चिन्ता इस बात को ले कर है कि बच्चा जब बड़ा होगा तो लोग उसके बाप को लेकर ताना देंगे। समाज उसको नाजायज औलाद कह कर दुत्कारेगा तो उसका जीना दूभर हो जाएगा।
मेरे पास एक विकल्प यह भी है कि मैं जन्म देने के बाद चुपचाप बच्चे को किसी अनाथालय में दे दूूॅं। लेकिन अनाथालयों में बच्चों की जो दुर्दशा होती है उसे देख और जान कर मेरी वैसा करने की हिम्मत नहीं हो रही है। फिर मेरे जीते जी मेरी संतान अनाथालय में पले यह बात भी मुझसे बर्दाश्त नहीं हो सकेगा। अतः आप लोगों से मेरी विनती है कि अंकित की निशानी मान कर आप लोग इस बच्चे को अपना लें। इसके बदले में मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। उल्टे मैं तो उसके पालन-पोषण का खर्च वहन करने के लिए भी तैयार हूॅं। मेरे बच्चे को सामाजिक पहचान मिल जाए, बाप का नाम और परिवार मिल जाए और वह एक सामान्य बच्चे की तरह पल जाए मेरे लिए यही काफी है।
आशा है आप लोग मेरे इस पत्र का उत्तर देंगें। आप लोगों का जो भी निर्णय हो कृपया शीघ्र बतायें। आपकी बेटी- रूपा।’’
पत्र मिलने के बाद दो दिनों तक पति, पत्नी के बीच मंथन चलता रहा। प्रकरण की विभिन्न कोणों से समीक्षा होती रही। वकील साहब दिमाग से सोच रहे थे तो उनकी पत्नी शोभा देवी दिल से। वकील साहब एक पुरुष की दृष्टि से सोच रहे थे तो शोभा देवी एक स्त्री की हैसियत से। वकील साहब को मामला पूरी तरह से संदिग्ध और एक सुनियोजित षणयंत्र लग रहा था तो शोभा देवी को उसमें सच्चाई की संभावना दिख रही थी। वकील साहब उस लड़की को बिल्कुल भी महत्व देने के पक्ष में नहीं थे लेकिन शोभा देवी उससे एक बार मिलना निहायत जरूरी समझ रही थीं। अंततः तय हुआ कि शोभा देवी कोलकाता जायेंगी और रूपा से मिल कर सच्चाई की तहकीकात करेंगी।
ट्रेन में आरक्षण कराने के बाद शोभा देवी ने रूपा को अपने कोलकाता आने की सूचना दे दी थी। सप्ताह भर बाद एक दिन सवेरे जब उनकी ट्रेन हाबड़ा स्टेशन पर पॅंहुची तो रूपा उनकी अगवानी करने के लिए प्लेटफार्म पर उपस्थित मिली। रूपा उनको साथ ले कर अपने आवास पर पहुॅंची।
‘‘अरे ! यह तो वही फ्लैट है जहाॅं से मैं अंकित के सामान ले गयी थी।’’ शोभा देवी ने चैंकते हुए कहा।
‘‘जी मम्मी....। अंकित के जाने के दो महीने पहले से मैं और अंकित इसी फ्लैट में साथ-साथ रहने लगे थे।’’ फ्लैट का ताला खोलती रूपा ने रूॅंधे गले से बताया।
दो कमरे के छोटे से फ्लैट के ड्राइंग रूम में सामने की दीवार पर शरारत से मुस्कुरा रहे अंकित की एक बड़ी सी तस्वीर लटकी थी जिस पर फूलों का हार पड़ा था। सामने के सोफे पर बैठीं शोभा देवी उस तस्वीर को एकटक देखतीं न जाने किन खयालों में खो गयीं। दफ्न हो चुकीं अनगिनत यादें जिन्दा हो गयीं और उनकी आॅंखें ड़बड़बा आयीं।
‘‘मम्मी ! चाय।’’ उनके सामने चाय की प्याली रखते हुए रूपा बोली तो उनकी तंद्रा भंग हुयी।
‘‘नहीं बेटी, पहले मैं नहाऊॅंगी। नहाए बगैर कुछ नहीं खाती-पीती मैं।’’ शोभा देवी ने अपनी भर आयी आॅंखों को पोंछते हुए कहा और अपना सामान खोलने लगीं।
शोभा देवी नहा-धो कर बाथरूम से निकलीं तब तक रूपा मेज पर नाश्ता लगा चुकी थी। उनका कुछ भी खाने का मन नहीं हो रहा था लेकिन रूपा की जिद के आगे उनको हार माननी पड़ी। भारी मन से नाश्ते की खानापूर्ति करने के बाद शोभा देवी और रूपा बेड़ रूम में आ बैठीं। बातों का सिलसिला चला तो शीघ्र ही उनके बीच उम्र, रिश्ता, शिक्षा, अनुभव और अजनवीपन आदि की सभी दिवारें ढ़ह गयीं। अब वहाॅं सिर्फ दो औरतें बैठी थीं। आकण्ठ दुःख और करूणा में डूबी दो औरतें। एक दूसरे की पीड़ा को आत्मसात करतीं दो औरतें। एक, दूसरे को समझातीं, सॅंभालतीं, और सांत्वना देतीं दो औरतें। कुछ जुबान ने कहा, कुछ आॅंसुओं ने कहा, कुछ हिचकियों ने बताया और बची-खुची कहानी उन दोनों के बीच पसरी गहरी खामोशी ने बयान कर दिया।
‘‘आप यकीन करें मम्मी.....यह जो कुछ भी हुआ अंकित की जिद के चलते हुआ। मैं लाख मना करती रही.....लाख समझाती रही लेकिन....।’’ अपने उभरे हुए पेट की तरफ संकेत करते हुए रूपा ने कहा।
‘‘तुम सही कह रही हो बेटी। वह बचपन से ही बहुत जिद्दी था। जिद में आ जाने पर किसी की भी नहीं सुनता था वह।’’
‘‘वह तो पिछले एक साल से ही साथ-साथ रहने के लिए कह रहे थे लेकिन मैं यह कह कर टाल रही थी कि शादी से पहले साथ रहना ठीक नहीं होगा। आखिर एक दिन जब वह खाना-पीना छोड़ कर बच्चों की सी जिद पर अड़ गए तो मैं विवश हो गई। काली माॅं को साक्षी बना कर हमने शादी की और यहाॅं साथ रहना शुरू कर दिया। फिर उनका यह अंश आ गया मेरे गर्भ में।’’
‘‘तुम्हारे माॅं, पिता को पता है यह सब....?’’
‘‘जी, नहीं। अपने घर के लोगों से एक साल से कोई सम्पर्क नहीं है मेरा। मैं पिछले साल अंकित को अपने पापा, मम्मी से मिलाने के लिए ले गई थी। उन लोगों को हमारा रिश्ता मंजूर नहीं हुआ। हम लोग बंगाली ब्राह्मण हैं न इसलिए। पापा किसी भी कीमत पर मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मुझसे अपने और अंकित में से किसी एक को चुनने के लिए कहा। मैं अंकित का हाथ थाम कर वापस आ गई। कुछ दिनों के बाद पापा की चिट्ठी आयी थी। उन्होंने लिखा था-‘रूपा हम तुम्हें एक आखिरी मौका दे रहे हैं। या तो उस विजातीय लड़के को छोड़ कर तुम वापस आ जाओ या फिर यह समझना कि तुम हम लोगों के लिए मर चुकी हो। हमारे यहाॅं आना तो दूर भविष्य में तुम अपनी गंदी जुबान से हम लोगों का नाम भी नहीं लेना।’ मम्मी ! अंकित के लिए मैं सारी दुनिया को छोड़ने के लिए तैयार थी। इसलिए मैंने अपने पापा की बात नहीं मानी। पापा की चिट्ठी का जबाब भी नहीं दिया मैंने। उसके बाद कोई रिश्ता नहीं रहा उन लोगों से।’’
शोभा देवी विस्फारित नेत्रों से देख रहीं थीं रूपा को। पल भर की चुप्पी के बाद उसने फिर कहना शुरू किया-‘‘मम्मी मेरे गर्भ के बारे में अभी किसी को भी पता नहीं है। पिछले पन्द्रह दिनों से मैं आफिस भी नहीं गई हूॅं। एक बार मेरे जी में आया कि चुपचाप सफाई करा लूॅं किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगा। लेकिन ऐसा कर नहीं सकी। जिस अंकित को मैंने इतना टूट कर चाहा था, जिसके लिए अपने माॅं, बाप, भाई, बहन सभी को छोड़ आयी थी उस अंकित के अंश को नाली में बहा दूॅं यह मेरे दिल को स्वीकार नहीं हुआ। मम्मी मैं इस बच्चे को जन्म दूॅंगी। इसे हर हाल में जन्म दूॅंगी और पालूॅंगी। आप लोग सहारा देंगी तो भी और अगर नहीं देंगी तो भी।’’ रूपा ने कहा और चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में छुपा कर फफक पड़ी। काफी देर से ठहरा आॅंसुओं का सैलाब फुट पड़ा। शोभा देवी ने उसको खींच कर अपने सीने से लगा लिया। उनके वक्ष में मुॅंह छुपाए रूपा नन्ही सी बच्ची बन गई और न जाने कितनी देर तक हिलक-हिलक कर रोती रही।
‘‘हम तुम्हारे साथ हैं बेटी। हम हर कदम तुम्हारे साथ रहेंगे। सिर्फ अंकित का अंश ही नहीं अब तू भी हमारी जिम्मेदारी है। हम तुम्हारी हर बात मानेंगे लेकिन तुमको भी हमारी एक शर्त माननी पड़ेगी।‘‘ शोभा देवी अपने आॅंचल से रूपा के आॅंसू पोंछते हुए बोलीं।
‘‘शर्त...? वो क्या....?’’ रूपा चैंक पड़ी। शोभा देवी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगी। उसके चेहरे पर आशंका की लकीरें उभर आयीं।
‘‘शर्त यह है बेटी कि अंकित का अंश हमें सौंपने के बाद तुम्हें फिर से नई जिन्दगी शुरू करनी होगी। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। हम करेंगे तुम्हारी शादी। तुम्हें ड़ोली में बिठा कर अपने घर ला नहीं सके तो क्या हुआ पूरे धूमधाम से ड़ोली में बिठा कर तुमको विदा करेंगे हम। अभी तो मेरे साथ चलो। अपना घर देख आओ। अंकित के पापा से मिल आओ। फिर आने वाले कल के बारे में मिल, बैठ कर निर्णय लेंगे हम।’’ शोभा देवी ने कहा और अपने दोनों हाथों में रूपा का चेहरा भर कर उसे चूम लिया।
रूपा की आॅंखों से सावन की झड़ी शुरू हो गई जिसका उत्तर शोभा देवी की आॅंखों ने उसी रूप में दिया। एक-दूसरे के कंधे से लगीं दोनों स्त्रियाॅं न जाने कितनी देर तक सिसकती रहीं।


अखिलेश श्रीवास्तव चमन
सी-2, एच-पार्क महानगर
लखनऊ-226006
मो0-9415215139