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गिद्ध

कहानी

गिद्ध

अखिलेश श्रीवास्तव चमन

‘‘बिटिया, साहब ने याद किया है तुमको।’’

कम्प्यूटर के की बोर्ड पर तेजी से चल रहीं शीला की उंगलियाॅं एकदम से रुक गयीं। उसने सर उठाया तो सामने सहगल साहब का चपरासी रामसरन खड़ा था। ‘‘तुमको साहब ने याद किया है बिटिया।’’ उसने अपनी बात एक बार फिर से दुहरायी और वापस लौट गया। शीला ने टाइप किए मैटर को सेव किया और कमरे से बाहर निकल गयी। उसके बाहर निकलते ही कमरे में बतकही शुरू हो गयी।

‘‘साहब को भी आॅंखें सेंके बगैर चैन नहीं मिलता। क्यों तिवारी ?’’ रामनाथ बोला।

‘‘अरे, तो उसका मन नहीं है क्या......? उम्रदराज हो गया तो क्या हुआ मन तो उसका भी होता ही होगा।’’ यह हरवंश की आवाज थी।

‘‘ओम् शान्ति ओम......शन्ति ओम....शान्ति ओम।’’ तिवारी ने कहा और सभी ठहाके लगा कर हॅंस पड़े।

अपने सहकर्मियों की ये भद्दी टिप्पड़ियाॅं शीला के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ींे। शीला के लिए नई नहीं हैं ये बातें। साल भर से अधिक हो गए उसको ऐसी भद्दी और अश्लील टिप्पड़ियाॅं सुनते-सुनते।

आफिस के उस हाॅलनुमा कमरे में सात मर्दों के बीच अकेली महिला है वह। वे सातों, विशेषरूप से तिवारी, रामनाथ और हरवंश उसको सुना-सुना कर आपस में अश्लील और द्विअर्थी बातें करते हैं। उनमें से तीन तो उसके पिता की उम्र के हैं और शेष चार भी उसके चाचा या बड़े भाई की उम्र के। फिर वे उसको अपनी बेटी, भतीजी अथवा बहन के रूप में क्यों नहीं देखते। आखिर उन सभी के घरों में भी तो बहनें, बेटियाॅं होंगी ही। तो क्या अपनी बहनों, बेटियों के बारे में भी ऐसी ही सोच रखते होंगे ये लोग। वह अक्सर मन में सोचा करती।

उसके नौकरी में आने के प्रारम्भिक दिनों की बात है। आफिस की कार्य प्रणाली से सर्वथा अनभिज्ञ होने के कारण उसको कदम-कदम पर पूछने की आवश्यकता पड़ती थी। ऐसे में वह प्रायः अपनी बायीं ओर की मेज पर बैठने वाले हरवंश भल्ला से मदद लिया करती थी। लेकिन हरवंश इस मुगालते में रहने लगा कि शीला उसको लिफ्ट देने लगी है। एक दिन सवेरे वह आफिस आयी तो उसके पाॅंव दरवाजे के बाहर ही ठिठक गए। अंदर उसको ही ले कर चर्चा चल रही थी।

‘‘क्यों भई हरवंश, मामला कहाॅं तक पॅंहुचा ? अगर तुमसे नहीं पट पा रही हो तो मुझको मौका दो। अगर एक महीने के अंदर ही लाइन पर नहीं ले आ दिया तो मेरा नाम नहीं।’’ यह तिवारी था।

‘‘बस गुरू अब दिल्ली दूर नहीं है। आहिस्ता-आहिस्ता लाइन पर आ रही है कुड़ी।’’ हरवंश ने जबाब दिया।

सुन कर दिमाग भन्ना गया शीला का। मारे गुस्से के उसने दरवाजे पर जोर से लात मारी। दरवाजा भडाक् की आवाज के साथ दीवार से जा टकराया और वह जा कर अपनी सीट पर बैठ गयी। उस दिन के बाद उसने बात तक नहीं की हरवंश से। न सिर्फ इतना उसने उन लोगों का अभिवादन करना भी छोड़ दिया।

‘‘सर, मे आई कम इन...।’’ उसने सहगल साहब के कमरे का पर्दा हटाते हुए पूछा।

‘‘यस....यस। कम इन।’’

‘‘सर, आपने बुलाया था मुझको ?’’

‘‘हाॅं.....ऐसा है कि शाम को आफिस आवर्स के बाद थोड़ा रुक कर जाना। मेरी केबिन में आ जाना। कुछ कान्फिडेन्सियल लेटर्स भेजने हैं आज।’’

‘‘जी,...।’’ उसने कहा और अपने कमरे में लौट आयी। उसका मन सत्रह कोठे दौड़ने लगा। सहगल साहब ने आफिस आवर्स के बाद रूकने के लिए क्यों कहा है। कहीं उनकी कोई गलत मंशा तो नही ? कान्फिडेन्सियल लेटर्स तो आफिस आवर्स में भी टाइप हो सकते हैं। नहीं.......ऐसा नहीं सोचना चाहिए उसे। सहगल साहब तो उसके पिता की उम्र के हैं। पापा के मरने के बाद कितनी सहायता की थी उन्होंने। वे गलत नहीं हो सकते। अरे ऐसा कुछ नहीं है। उम्र से कोई फर्क नहीं पड़ता। मर्द सब एक जैसे ही होते हैं। औरत को देख कर सारे रिश्ते और लिहाज भूल जाते हैं। वरना प्रकाश चाचा तो उसके सगे चाचा थे। जब वे वैसी घिनौनी हरकत कर सकते थे तो फिर सहगल साहब तो गैर ही हैं।

प्रकाश चाचा का ध्यान आते ही वह तीन साल पीछे लौट गई। उसके पापा कभी इसी आफिस में सबसे बड़े अधिकारी के रूप में बैठते थे। सहगल साहब उनकी ही जगह पर आए हैं। अब से लगभग तीन साल पहले जब दिल का दौरा पड़ने से उसके पापा का आकस्मिक निधन हो गया था, तब वह बी0ए0 फाइनल में थी और उसकी छोटी बहन शोभा हाईस्कूल में। मृतक आश्रित के रूप में उसको अथवा उसकी मम्मी को नौकरी मिल सकती थी। घर में यह तय हुआ कि मम्मी नहीं वह नौकरी करेगी। पहली बार तभी अपनी नौकरी के सिलसिले में सहगल साहब से मिली थी वह। सहगल साहब ने पूरी मदद का आश्वासन दिया था और मदद की भी थी।

नौकरी के लिए कम्प्यूटर का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक था इसलिए पहले कम्प्युटर सीखना जरूरी था। फिर पापा को मिला सरकारी आवास भी खाली करना था। उधर मम्मी लगातार बीमार रहने लगी थीं। परिवार में बड़ी होने के कारण उसको ही सब कुछ सॅंभालना था। किराये के एक छोटे से मकान में सारा सामान रख कर ताला बंद करने के बाद वह अपनी मम्मी तथा छोटी बहन के साथ प्रकाश चाचा के यहाॅं बरेली चली आयी थी। बरेली में ही उसने कम्प्यूटर का कोर्स ज्वाइन कर लिया था।

उसके चार महीने बाद की बात है। प्रकाश चाचा के छोटे बेटे कक्कू का जन्म हुआ था। चाची को पाॅंच दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा था। रात के समय मम्मी चाची के पास अस्पताल में रुकती थीं और वह दोनों बहनें चाचा के साथ घर में। एक रात सोते समय चाचा ने उसको अपने कमरे में बुलाया और अपना सर दबाने को कहा। चाचा लिहाफ ओढ़े, आॅंखें बंद किये लेटे थे और वह सिरहाने की ओर बैठी उनका सर दबा रही थी। थोड़ी देर बाद चाचा उठ कर बैठ गए और उसको खींच कर अपनी गोद में गिरा लिए। वह कुछ समझ पाती तब तक चाचा के हाथ उसकी छातियों पर फिसलने लगे थे। उसने देखा चाचा का चेहरा अजीब सा हो रहा था। उसने चाचा का हाथ झटका और वहाॅं से भाग आयी। अपने कमरे में आ कर उसने अंदर से सिटकनी बंद कर ली।

उस सारी रात शीला इसी उहापोह में पड़ी रही कि प्रकाश चााचा की हरकत के बारे में मम्मी को बताये कि न बताये। काफी सोच-विचार के बाद उसने चुप्पी साध लेना ही उचित समझा। लेकिन उस दिन के बाद उसने प्रकाश चाचा को मौका नहीे दिया। खुद भी सतर्क रहने लगी और छोटी बहन शोभा पर भी चैकन्नी नजर रखने लगी।

कम्प्यूटर का कोर्स पूरा होते ही उसने नौकरी के लिए भागदौड़ शुरू कर दी। सहगल साहब ने बहुत मदद की। शीघ्र ही उसे पापा के ही आफिस में नौकरी मिल गयी। नौकरी लगते ही वह माॅं और बहन के साथ वापस लौट आयी। प्रकाश चाचा की गंदी हरकत को उसने किसी बुरे सपने की तरह भुला दिया।

और आज जब सहगल साहब ने किसी कान्फिडेन्सियल काम के नाम पर आफिस आवर्स के बाद अकेले रुकने के लिए कहा तो एक बार फिर उसके अंदर की मादा चैकन्नी हो गयी। एक मन कहता कि वह न रुके, सहगल साहब की बात को अनसुनी कर के घर चली जाय। फिर अगले ही पल दूसरा मन कहता कि उसे रुक जाना चाहिए। आखिर सहगल साहब उसके बाॅस हैं। अगर नाराज हो गए तो नौकरी मुश्किल में पड़ जायेगी। काफी देर तक हाॅं, ना की उधेड़-बुन में रहने के बाद उसके दिमाग में एक उपाय कौंधा। वह कमरे से बाहर निकली, एक किनारे सीढ़ियों की तरफ गयी और सहगल साहब के कमरे के बाहर बैठे चपरासी रामसरन को ईशारे से अपने पास बुलाया। रिटायरमेंट की कगार पर पॅंहुचे रामसरन उसके पापा के साथ भी चपरासी रह चुके थे और उनका उसी समय से उसके घर पर आना-जाना था।

‘‘काका ! एक बात कहनी है.....।’’ शीला ने अपने चारों ओर सतर्क निगाहें दौड़ाते हुए कहा।

‘‘हाॅं...हाॅं बिटिया...बोलो...।’’ शीला को परेशान देख रामसरन उसे पुचकारते हुए बोले।

‘‘काका ! साहब ने मुझको आफिस के बाद अकेले रुकने के लिए कहा है। कह रहे हैं कि कुछ कान्फिड़ेन्सियल काम करायेंगे। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूॅं.....उनकी बात मानूॅं कि ना मानूॅं।’’ वह बहुत रोआॅंसी हो कर बोली।

‘‘हाॅं बिटिया.....मैं देख रहा हूॅं कि तुम यहाॅं दाॅंतों के बीच अकेली जीभ की तरह कितनी मुश्किल में निबाह रही हो। लेकिन साहब ने रुकने को कहा है तो रुक जाओ। तुम जरा भी मत घबड़ाना। मैं बाहर दरवाजे पर कान लगाये बैठा रहूॅंगा। जरा सी भी कोई बात हो तो आवाज लगा देना। मैं तुरत अंदर आ जाऊॅंगा।’’ रामसरन ने आश्वस्त किया तो उसको भी हिम्मत आयी।

उसने आफिस आवर्स खत्म होने का इंतजार नहीं किया, उसके पहले ही अपनी सीट का काम समेट कर सहगल साहब के केबिन में चली गयी। साहब ने सर उठा कर पहले उसको फिर दीवाल पर टॅंगी घड़ी की ओर देखा और सामने खुली फाइल पढ़ने लगे। वह कोने में रखे कम्प्यूटर को आॅन कर के चुपचाप बैठ गई। पन्द्रह-बीस मिनट की खामोशी के बाद साहब ने कुछ पत्र टाइप करने को कहा। साहब बोलते गए और वह फटाफट टाइप करती गई। सारा काम निपटाने में लगभग एक घंटा लग गया।

‘‘अब मैं जाऊॅं सर।’’ कम्प्यूटर बंद करने के बाद उसने पूछा। उत्तर देने के बजाय साहब अपनी कुर्सी से उठ कर उसके निकट आए और उसके दोनों कंधों को पकड़ कर अपनी तरफ खींचने लगे। शीला ने देखा उनका चेहरा अजीब ड़रावना सा हो रहा था।

‘‘सर......ये क्या...? ये क्या कर रहे हैं आप....?’’ उसने तेज आवाज में चिल्लाकर कहा और उनके हाथों को झटक कर खड़ी हो गयी। अगले ही पल दरवाजा भड़ाक् से खुला और रामसरन अंदर आ गया जब कि उसको हिदायत थी कि जब तक घंटी बजा कर बुलाया न जाय वह कमरे के अंदर न आये। रामसरन को देख शीला की आॅंखों में आॅंसू छलछला आए।

‘‘ना...ना...रोओ मत बिटिया। ऐसा करो कि तुम पुलिस में और हेड़ आफिस में भी इनकी शिकायत करो। मैं गवाही दूॅंगा इनके खिलाफ। शर्म नहीं आती इस नीच आदमी को ऐसी गंदी हरकत करते।’’ सहगल साहब की तरफ अंगार बनी आॅंखों से देखते हुए राम सरन ने कहा।

काठ बने सहगल साहब के चेहरे पर पसीने चुहचुहा आए।

‘‘आक्थू......।’’ शीला ने उनकी तरफ थूका और दुपट्टे से आॅंसू पोछती कमरे से बाहर निकल गई। उसके पीछे राम सरन भी निकल आया।

अखिलेश श्रीवास्तव चमन

सी-2, एच-पार्क महानगर

लखनऊ-226006

मो0-9415215139

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