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उजालों की बारिश

कहानी

उजालों की बारिश


अखिलेश श्रीवास्तव चमन


‘‘कीशू.....कम हियर...। चलो, मेरे पास आओ।’’ किंशुक की नानी ने आॅंखें तरेर कर उसको डाॅंटते हुए तीसरी बार आवाज लगायी। लेकिन किंशुक पर उनकी ड़ाॅंट का रंच मात्र भी असर नहीं हुआ। मानो उसने कुछ सुना ही न हो। अपने नन्हें हाथों में पापा की पिंडलियों को लपेटे, आॅंखों को ऊपर उठाये खड़ा किंशुक एकटक पापा के चेहरे की तरफ देख रहा था। एक-दूसरे के साथ गुॅंथीं पापा की दोनों हथेलियाॅं पीछे की ओर लटके किंशुक के सर के पीछे सहारा बनी टिकी थीं। न तो किंशुक कुछ बोल रहा था और न ही पापा। ऐसा लग रहा था जैसे पापा की बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी, बिखरे बालों तथा सॅंवलाये चेहरे को देख कर किंशुक असमंजस में पड गय़ा हो। अपनी याददाश्त पर जोर ड़ाल कर वह पापा को ठीक से पहचानने का प्रयास कर रहा हो। दूसरी तरफ किंशुक की आॅंखों में झाॅंकतीं पापा की ड़बड़बायी आॅंखें थीं जिन्होंने उनकी जुबान पर ताला लगा रखा था।
लगभग दस कदमों की दूरी पर नानी और छोटे मामा के संग खड़ी किंशुक की मम्मी बाप, बेटे की तरफ बहुत कातर नजरों से देख रही थीं। अपनी ड़ाॅंट का असर नहीं होते देखा तो नानी दाॅंत पीसतीं, लपकती हुयी आयीं और झपट्टा मार कर किंशुक को उसके पापा से अलग कर दिया। यह देख मम्मी ने अपना मुॅंह दूसरी तरफ को घुमा लिया। नानी किंशुक का हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुयी ले गयीं। नानी के संग जाता किंशुक कचहरी के गेट से बाहर निकलने तक, जब तक पापा दिखायी देते रहे, पलट कर उनको ही देखता रहा। उधर नीम के पेड़ के पास उसके पापा बिना हिले-ड़ुले ऐसे खड़े थे जैसे वे भी पेड़ हो गए हों। गेट पर पहॅंुचने के बाद किंशुक की मम्मी ने भी एक बार पलट कर पापा की तरफ देखा फिर गेट से बाहर निकल गयीं।
किंशुक के पापा सतीश कुमार को कुछ ध्यान ही नहीं रहा कि उस नीम के पास काठ बने वे कब तक खड़े रहे। उनकी तंद्रा तो तब भंग हुयी जब उनके वकील का मंुशी रामधनी उनको ढ़ॅंूढ़ते हुए वहाॅं आया। ‘‘अरे साहब ! आप यहाॅं खड़े हैं, मैं आधे घंटे से ढ़ॅंूढ़ रहा हूॅं आपको। चलिए, बस्ते पर वकील साहब इंतजार कर रहे हैं।’’ मंुशी ने कहा तो सतीश कुमार जैसे अचानक सोते से जग पड़े। एकदम से ध्यान आया उनको कि वे तो कचहरी में आए थे....मुकदमें की पेशी पर। फिर किसी अनुशासित बच्चे की तरह चुपचाप मंुशी के पीछे-पीछे चल दिए।
वकील तथा मंुशी को उनकी फीस देने, मुकदमे की अगली तारीख की जानकारी करने तथा अगली तारीख की तैयारी के लिए वकील की कुछ हिदायतें लेने के बाद सतीश कुमार जब घर लौटे उस समय लगभग सवा दो बज रहा था। वो तो संयोग अच्छा था कि आज केस का नम्बर लंच से पहले आ गया था वरना अक्सर शाम के पाॅंच तो कचहरी में ही बज जाया करते हैं। पिछले दो सालों से यही हो रहा है। सारी सी0एल0 मुकदमें की पेशी में ही खर्च हो रही है। लगभग हर महीने मुकदमे की तारीख पड़ती है। जिस दिन तारीख होती है उस दिन आफिस से छुट्टी ले कर सतीश कुमार सारे दिन कचहरी में ड़टे रहते हैं और शाम को अगली तारीख की जानकारी ले कर लौट जाते हैं।
घर लौटे तो सतीश कुमार का मन बुरी तरह से खिन्न था। आॅंखों में लगातार मासूम किंशुक का बेचारगी भरा चेहरा नाच रहा था। विशेष रूप से अपनी नानी द्वारा घसीट कर ले जाए जाते समय उसका पलट-पलट कर देखना भुलाए नहीं भूल रहा था। सवेरे से बगैर कुछ खाए-पिए होने के कारण सर असहनीय दर्द के मारे फटा जा रहा था। किचन में जा कर देखा तो कमली पराठा, सब्जी बना कर रख गयी थी। यद्यपि सवेरे से कुछ खाये नहीं थे। जल्दी-जल्दी में सिर्फ एक प्याली चाय पी कर कचहरी के लिए निकल गए थे फिर भी खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। गैस जला कर चाय बनाया, दवाइयों के डिब्बे से ढ़ॅंूढ़ कर सर दर्द की गोली निकाली और उसे चाय के साथ निगल कर बिस्तर में लेट गए। आॅंखें बंद किए लेटे सतीश कुमार सोचते रहे कि क्या वास्तव में सारी बातों के लिए सिर्फ वे ही दोषी हैं। यदि हाॅं तो उनसे गलती कहाॅं हुयी ?’’
गलती शायद वहीं हो गयी जब बेमेल परिवार में शादी कर ली। लेकिन वह गलती भी तो उनकी नहीं उनके पिता की थी। उन्होंने तो बस पिता की आज्ञा का पालन किया था। उनको जो संस्कार मिले थे उनमें पिता के निर्णय का विरोध करने की गुंजाइश ही नहीं थी। और पिता....? ईश्वर जाने दीपा के पिता की सामाजिक हैसियत के प्रभाव में या कि अच्छे दान-दहेज के लालच में या कि दीपा की सुंदरता पर मुग्ध हो कर उनके पिता ने बगैर ज्यादा सोचे-विचारे शादी के लिए हाॅं कर दी थी। और जब पिता ने हाॅं कर दी तो अनुशासन की डोर में बॅंधे सतीश कुमार चुपचाप मण्डप में जा बैठे थे। सप्तपदी पूरी कर दीपा को ब्याह लाए थे।
सिर्फ सतीश कुमार के पिता की क्यों, इस बेमेल शादी में गलती दीपा के पिता की भी तो थी। सतीश कुमार की कमाऊ पद वाली सरकारी नौकरी को देख कर उन्होंने आगा-पीछा नहीं सोचा और अपने से काफी कम हैसियत वाले परिवार में बेटी ब्याह दी थी। पद, पैसा और प्रभाव वाले पिता की अत्यधिक लाड़-दुलार में पली दीपा को शादी के कुछ दिनों बाद से ही असुविधा होने लगी थी। कदम-कदम पर असुविधा होने लगी थी। पहली असुविधा तो यह हुयी कि अपनी ससुराल के कस्बानुमा शहर में उसे सास-ससुर के साथ एक दिन भी रहना गॅंवारा नहीं था। शादी के बाद विदा हो कर आयी तो बड़ी मुश्किल से दो दिन बिताया और तीसरे ही दिन मायके लौट गयी। अगली विदाई पर वह मायके से सीधे सतीश के पास मेरठ गयी। मेरठ दीपा अकेली नहीं गयी, उसकी व्यवस्था के लिए साथ में उसकी माॅं तथा छोटे भाई भी गए।
‘‘भई, मेरी दीपा ने तो आज तक कभी अपने हाथ से ले कर एक गिलास पानी तक नहीं पीया है....किचन का काम तो बहुत बाद की चीज है। सबसे पहले तो एक ऐसी नौकरानी की व्यवस्था करनी होगी जो झाड़ू-पोछा, चैका-बरतन और बनाने-खिलाने से ले कर कपड़े धुलने, सहेजने तक घर के सारे काम करे।’’ आते ही सासजी ने फरमान सुनायी और दूसरे ही दिन से कमली की नियुक्ति हो गयी।
अभी तक एकाकी जीवन बीता रहे सतीश कुमार के पास गृहस्थी के नाम पर कुछ भी नहीं था। तीसरे दिन शाम को आफिस से लौटने पर सतीश कुमार ने देखा कि बाहर का कमरा सामानों से अटा पड़ा था। थाली, कटोरी, गिलास और कूकर से ले कर एलईडी, फ्रिज और ए0सी0 तक, गद्दा, चादर, तकिया और पर्दा से ले कर बेड, सोफा और डायनिंग टेबिल तक तथा घी-तेल, मिर्च-मसाला और राशन से ले कर नमकीन, मिठाई, बिस्किट और सूखे मेवे तक सुख-सुविधा की सारी चीजें घर में आ चुकी थीं।
‘‘देखा तुमने.....मेरे पापा-मम्मी कितना खयाल रखते हैं मेरा ?’’ सतीश के घर में घुसते ही दीपा चहकते हुए बोली।
‘‘हाॅं भई सतीश ! हम तो तुम्हारा घर देख कर हैरान हैं कि इसमें कैसे रहते थे तुम ? मेरी तो तुम्हारी काठ की चैकी पर सोने से दो दिनों में ही कमर और पीठ में दर्द होने लगी है। भई, हमारी बेटी तो नहीं रह सकती ऐसे भिखारियों के जैसे। हमें अगर पता होता कि तुम्हारा रहन-सहन ऐसा है तो हम यहाॅं आने से पहले ही सारा सामान भिजवा दिये होते।’’ दीपा के चुप होते ही उसकी माॅं बोल पड़ीं। उनकी आॅंखों और चेहरे से दर्प की बारिश हो रही थी।
सासजी का ताना सुन कट कर रह गए सतीश कुमार। अपने पिता के पैसों पर पत्नी का इतराना और सासजी द्वारा उनकी हैसियत का ऐसे भद्दे ढ़ंग से मजाक उड़ाना कहीं अंदर तक चुभ गया सतीश कुमार को। एक हफ्ता रुक कर, बेटी के घर-गृहस्थी की सारी व्यवस्थायें पूरी करने के बाद सासजी वापस चली गयीं। जाते-जाते सतीश कुमार को अपनी दुलारी बेटी को आराम से रखने के सम्बन्ध में ढ़ेर सारी हिदायतें दे गयीं।
नकचढ़ी पत्नी सतीश कुमार के लिए जी का जंजाल बन गयी थी। बाकी सब तो फिर भी ठीक था लेकिन बात-बात में उसका अपने पिता के पद और पैसों की धौंस देना सतीश कुमार की बर्दाश्त के बाहर हो जाता था। इसके अतिरिक्त जब देखो तब वह सतीश कुमार की कम आमदनी का मजाक उड़ाती तथा उसे गलत पैसे कमाने के लिए उकसाती रहती थी। अगर कुछ कहो तो बात का बतंगड़ बना कर लड़ाई शुरू कर देती थी। खाना-पीना छोड़ कर कोप-भवन में पड़ जाती थी। जब-तब फोन कर के अपनी माॅं को बुला लेती थी। उसकी माॅं आतीं तो बेटी की लगायी-बुझायी सुन कर बाघिन की तरह गुर्राया करती थीं। जिन्दगी नर्क बन गयी थी सतीश कुमार की। माॅं, बेटी की प्रताड़ना के शिकार सतीश कुमार दिन-रात कुढ़ते रहते थे।
शादी का दूसरा साल पूरा होने से पहले ही में परिवार में एक और सदस्य किंशुक आ गया। सतीश कुमार ने सोचा शायद अब दीपा का ध्यान कुछ बॅंटे। शायद अब बेटे के बहाने वह अपने घर-परिवार के बारे में सोचे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। स्थिति पूर्ववत ही रही। घर में आए दिन कलह और बात-बात में दीपा के मायके वालों का हस्तक्षेप बना रहा।
वैसे ही लड़ते-झगड़ते, रूठते-मनाते चार साल का समय बीत गया। तभी वह दुर्घटना हो गयी। उस साल दीपा के छोटे भाई की शादी थी। गहनों से ले कर मॅंहगे कपड़ों आदि तक शादी के लिए दीपा ने औकात से बढ़ कर खरीददारी की। घर में शान्ती बनी रहे यह सोच कर सतीश कुमार ने उसे जैसे-तैसे पूरा किया। फिर भी मुॅंह दिखायी वाले आइटम को ले कर बात बिगड़ ही गयी। दीपा अपनी छोटी भाभी को मुॅंह दिखायी में हीरे का हार देना चाहती थी। सुनार की दुकान पर उसने जो हार पसंद किया था उसकी कीमत पूरे नब्बे हजार थी। अपने बूते से बाहर बता कर सतीश कुमार ने उस हार को खरीदने से साफ इंकार कर दिया। फिर तो दीपा के चीखने-चिल्लाने, लड़ने-झगड़ने और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया।
‘‘मेरे तो भाग्य ही फूटे थे जो ऐसे टॅंुटपुजिए, दरिद्र के पल्ले पड़ गयी। आज तक मेरा एक भी शौक पूरा नहीं हुआ इस आदमी से...।’’
‘‘अरे, तो क्या मैं बुलाने गया था तुम्हारे बाप को...? यह तो तुम्हारे बाप को सोचना चाहिए था कि अपनी नकचढ़ी बेटी को किसी करोड़पति के यहाॅं ब्याहें।’’
‘‘खबरदार जो मेरे बाप को कुछ कहा....। हमारे बाप की जूती के बराबर भी नहीं है तुम्हारी औकात....। समझे....?’’
‘‘अगर बाप की दौलत का इतना ही घमण्ड है तो जा कर वहीं क्यों नहीं रहती...। तुम्हारे बिना यहाॅं अयोध्या का राज नहीं सूना हो जाएगा। कल जाना हो तो आज चली जाओ...। देखें कितने दिन तक रखते हैं तुम्हारे बाप।’’ यह पहला अवसर था जब सतीश कुमार ने दीपा को उसी की भाषा में जबाब दिया था।
बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ी कि उस शाम आफिस से लौटने पर सतीश कुमार को घर खाली मिला। दीपा बेटे को ले कर अपने मायके चली गयी थी। उस रात दीपा की मम्मी ने फोन पर सतीश कुमार को खूब लताड़ लगायी, बहुत उल्टा-सीधा सुनाया। फिर तो सतीश कुमार ने भी जिद पकड़ ली। वे छोटे साले की शादी में भी ससुराल नहीं गये।
साले की शादी में सतीश कुमार का ससुराल नहीं जाना ने आग में घी का काम किया। दीपा के घर वालों ने इसे अपना अपमान माना। फिर तो दोनों तरफ से ठन गयी। दीपा की मम्मी का कहना था कि जब तक सतीश ससुराल आ कर दीपा से माफी नहीं माॅंगेगा, दीपा वापस नहीं जायेगी। उधर सतीश कुमार का कहना था कि दीपा अपने आप गयी है तो उसे अपने आप ही आना भी होगा। वे न तो माफी माॅंगेंगे और न ही उसे लेने जायेंगे। अहं की इस लड़ाई में कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं था। बात बढ़ती गयी, बढ़ती गयी और इतनी बढ़ी कि दीपा की ओर से कचहरी में तलाक का मुकदमा दायर हो गया।
आज की तारीख पर बयान के लिए दीपा को कोर्ट में बुलाया गया था। आज पूरे दो सालों के बाद उसने सतीश कुमार को कचहरी में देखा था। एकबारगी तो वह पहचान ही नहीं पायी कि यह वही सतीश है जिसे वह दो साल पहले छोड़ कर आयी थी। उसका खिलता रंग गायब हो चुका था, चेहरा मानो झुलस गया था, गाल पिचक गए थे और उस पर बढ़े बाल तथा इंच भर लम्बी बेतरतीब दाढ़ी उसको और भी अधिक कुरूप बना रहे थे। सतीश कुमार को उस दशा में देख कर दीपा के अंदर कुछ पिघलने सा लगा था। विशेष रूप से उस दृश्य जब पापा-पापा करता किंशुक सतीश के पैरों से चिपटा था और दीपा की माॅं उसे जबरन खींच लायी थी, ने दीपा को बेचैन सा कर दिया था। घर लौट आने के बाद भी सतीश का उतरा चेहरा और सूनी आॅंखें उसका पीछा करती रहीं। घर में सभी ने महसूस किया कि उस दिन के बाद से दीपा अब गुमसुम और कुछ खोई-खोई सी रहने लगी थी।
आज धनतेरस था। एक दिन बाद दीपावली थी। दीपा के दोनों भाई अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ खरीददारी करने बाजार गए थे। किंशुक ने भी बाजार जाने की जिद की, मचला था लेकिन दोनों में से कोई भी उसे साथ ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। दीपा के पापा अपने कमरे में लेटे आराम कर रहे थे और मम्मी टी0वी0 के सामने बैठीं अपनी मनपसंद सीरियल देख रही थीं। किंशुक कुछ देर तक रोने और हाथ-पाॅंव पटकने के बाद अब बाहर के बरामदे में उदास बैठा था।
‘‘बाकी तो जो है सो है लेकिन मुझको इस मासूम से पिता का प्यार छिनने का क्या हक है ? मेरी जिद का खामियाजा यह मासूम क्यों उठाये ? ऐसे में तो यह कुंठा और हीन भावना का शिकार हो जायेगा।’’ किंशुक का उदास चेहरा देख दीपा के मन में इस तरह के तमाम प्रश्न उठने लगे थे। सोचते-सोचते अचानक उसने एक अप्रत्याशित निर्णय ले लिया।
अॅंधेरा घिर चुका था लेकिन सतीश कुमार के घर की बत्ती नहीं जली थी। अंदर, बाहर हर जगह अॅंधियारे का कब्जा था। आफिस की छुट्टी थी। इस कारण दोपहर में खाना खाने के बाद से ही सतीश कुमार बिस्तर में अलसाए पड़े थे। अचानक डोर बेल बजी तो वे चैंक गए। कौन हो सकता है ? इस वक्त तो किसी के भी आने की संभावना नहीं थी। धनतेरस की पूजा के कारण आज कमली ने भी छुट्टी ले रखी थी। सतीश कुमार उधेड़बुन में पड़े थे कि इतने में डोर बेल दोबारा बज गयी। उन्होंने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने जो कुछ देखा उस पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। दरवाजे पर बेटे को साथ लिए दीपा खड़ी थी। वे कुछ समझें, कुछ पूछंे उससे पहले ही वह साधिकार घर के अंदर घुस आयी।
‘‘अरे ! यह पूरे घर में अॅंधेरा क्यों कर रखा हैं....? स्वीच दबाने में भी मेहनत लगती है क्या ?’’ दीपा ने प्यार से झिड़कते हुए कहा और पट-पट-पट-पट घर के सारे स्वीच आन कर दिया। क्षण भर के अंदर पूरा घर रोशनी से भर गया। सतीश कुमार अवाक् खड़े थे मानो कोई सपना देख रहे हों। उनको ऐसा लगा मानों उजालों की बारिश हो रही हो जिसमें सालों से जमे अॅंधियारे की मैल धुलती जा रही हो।

अखिलेश श्रीवास्तव चमन
सी-2, एच-पार्क महानगर
लखनऊ-226006
मो0-9415215139

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