कहानी
अनाम रिश्ता
अखिलेश श्रीवास्तव चमन
‘‘बस....बस....बस। यहीं....गेट पर रोक देना बाबा।’’ बाॅंसुरी की स्वर लहरी सी मीठी, सुरीली आवाज कानों में पड़ी तो राममिलन का रोम-रोम हर्षित हो उठा। ऐसे स्नेह, सम्मान और आत्मीयता भरे सम्बोधन तो बस कभी-कभार ही सुनने को मिलते हैं। वरना तो नित्य सुबह से शाम तक दिन भर का समय अबे, तबे और गाली-गलौज के सम्बोधन सुनते ही बीत जाता है। कानों से उस मधुर आवाज के टकराते ही राम मिलन के हाथ और पाॅंव एक साथ हरकत में आ गए। उधर पैरों ने पैड़ल घुमाना रोक दिया और इधर हाथों की अंगुलियाॅं अपने आप ब्रेक पर कस गयीं। रिक्सा थोड़ी दूर रेंगने के बाद गेट के सामने आकर रुक गया। दोनों लड़कियाॅं रिक्से से उतर पड़ीं। उस गोरी-चिट्टी लड़की जो रिक्से में पहले बैठी थी ने पहले से ही रुपया निकाल कर हाथ में ले रखा था। उसने राममिलन के हाथ में दस रूपए की कड़कड़ाती नई नोट पकड़ायी और उसके बाद वह दोनों ही युनिवर्सिटी गेट में घुस कर तेजी से आगे बढ़ गयीं। गले में लिपटे अॅंगौछे से चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछता राममिलन हक्का-बक्का हो उन दोनों को देखता रह गया।
‘‘अजीब पागल लड़की है। बाकी पैसे वापस करने का मौका भी नहीं दिया। पावर हाउस काॅलोनी से युनिवर्सिटी तक का सात रुपए, हद से हद आठ रुपए किराया होता है। मोल भाव करने वाले तो झिकझिक कर के छः रुपए में भी आ जाते हैं। लेकिन यह लड़की तो दस की नोट थमा कर ऐसे चलती बनी जैसे किसी लाट गवर्नर की बेटी हो। या कि उसके घर पर नोट छापने की मशीन लगी हो। ऐसा भी नहीं लगता कि युनिवर्सिटी पहली बार आयी हो। रोज आती-जाती है तो उसको रेट तो पता होगा ही। फिर क्यों अधिक किराया दे गयी....? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके बुढ़ापे और डेढ़ पसली की देह पर तरस खा कर जानबूझ कर अधिक पैसे दे गयी हो....? या हो सकता है अपनी सहेली से बातें करने में इतनी मशगूल रही हो या क्लास में जाने की इतनी जल्दी रही हो कि बाकी पैसे वापस लेना भूल गयी हो। जो भी हो जरूर किसी बड़े बाप की बेटी है। माॅं-बाप मुॅंह माॅंगा पैसा देते होंगे इसीलिए लुटाती फिर रही है।’’ युनिवर्सिटी गेट पर खड़ा राममिलन न जाने क्या-क्या सोचे जा रहा था कि तभी पीछे से कार का तेज हार्न बजने लगा। चैंक कर उसने पीछे की तरफ देखा तो पाया कि ठीक पीछे एक कार खड़ी थी और कार में ड्राइवर की सीट पर बैठा आदमी उसकी तरफ जलती आॅंखों से घूर रहा था।
‘‘अबे स्साले ! बीच सड़क पर क्यों खड़ा है बे...? तेरे बाप की सड़क है क्या..? चल, हट किनारे। इतनी देर से हार्न बजा रहे हैं, सुनाई नहीं दे रहा ?’’ राम मिलन से नजरें मिलते ही कार का ड्राइवर खिड़की से मुॅंह निकाल कर चिल्लाया। राम मिलन का मन एकदम से कसैला हो आया। उसने जल्दी से रिक्सा को किनारे किया और उसे घसीटता हुआ सामने पेट्रोल पम्प की तरफ बढ़ गया।
पेट्रोल पम्प के पास सड़क के किनारे नीम के पेड़ के नीचे रिक्सा खड़ी कर के उसने बीड़ी सुलगायी और रिक्से में बैठ गया। कार ड्राइवर की गाली से उपजे क्षोभ को कपड़े पर लगी धूल की तरह झटक कर वह पुनः उन्हीं दोनों लड़कियों के बारे में सोचने लगा।
‘‘न कोई बोझ न सामान....हाथ में दो-दो कापियाॅं लिए फूल सी हल्की दो लड़कियाॅं....और किराया भी ड्योढ़ा। न कोई मोल-भाव न झिक-झिक। भला इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? ऐसी ही दो-चार सवारियाॅं रोज मिल जाया करें तो फिर तो मजा ही आ जाय। युनिवर्सिटी में पढ़ती हैं दोनों इसका मतलब रोज ही आती होंगी। अगर कल उसी टाइम उसी जगह पॅंहुच जाऊॅं तो शायद कल भी मिल जायें। हो सकता है सक्सेना जी के बच्चों की तरह ये भी परमानेन्ट सवारी बन जायें। फिर तो रोज की दस रूपए की दिहाड़ी पक्की।’’ मन में यह ख्याल आते ही उसकी आॅंखें खुशी से चमक उठीं।
दूसरे दिन सवेरे सक्सेना जी के बच्चों को स्कूल छोडने़ के बाद वह पुनः पावर हाउस काॅलोनी की तरफ तेजी से भागा। अभी काॅलोनी के गेट पर पॅंहुचा ही था कि अंदर से वही कल वाली लड़की आती दिख गयी। उसने दूर से ही हाथ हिला कर रुकने का ईशारा किया। राममिलन रिक्सा रोक कर खड़ा हो गया। ‘‘युनिवसर््िाटी चलोगे.....?’’ पास आने के बाद उस लड़की ने पूछा। उसे क्या पता था कि राममिलन तो उसी के लिए आया ही था। उसके हामी भरते ही अपना दुपट्टा समेटती वह रिक्से में बैठ गयी। पिछले दिन की ही तरह चाॅंदगंज से उसकी सहेली को लेने के बाद वह दोनों को युनिवर्सिटी गेट पर छोड़ आया। उस दिन भी पावर हाउस कालोनी से बैठने वाली उसी गोरी लड़की ने ही दस का नोट पकड़ाया और अपनी सहेली के साथ युनिवर्सिटी के अंदर चली गयी। फिर तीसरे दिन, चैथे दिन, पाॅंचवें दिन, छठें दिन और उसके बाद तो यह रोज का नियम ही हो गया। एक मौन अनुबंध हो गया जैसे। वह दोनों लड़कियाॅं राममिलन की परमानेन्ट सवारियाॅं हो गयीं। अब सक्सेना जी के दोनों बच्चों को सेण्ट जाॅन स्कूल छोड़ने के बाद वह सीधे पावर हाउस काॅलोनी की ओर भागता था। वहाॅं सुनीता नाम की वह लड़की उसके इन्तजार में खड़ी मिलती और बगैर कुछ पूछे उसके रिक्से में सवार हो जाती थी। फिर आगे चाॅंदगंज से उसकी सहेली रिक्से में बैठती थी और उन दोनों को वह युनिवर्सिटी गेट पर छोड़ देता था। बगैर कुछ कहे सुनीता उसे दस रूपए का नोट थमाती और अपनी सहेली के साथ अंदर चली जाती थी।
‘‘इसे कहते हैं भगवान की कृपा। सचमुच ऊपर वाले की माया अपरम्पार है। कैसा-कैसा संयोग बना देता है वह। सवारी के रूप में इन दोनों लड़कियों का मिलना दैवीय संयोग नहीं तो भला और क्या है। अगर उस दिन भी रोज की ही तरह वह गोल चैराहा ही चला गया होता तो कहाॅं भेंट हो पाती इन लड़कियों से।’’ जब भी खाली बैठता राममिलन ऐसा ही सोचता था।
राममिलन पिछले चार सालों से शास्त्रीनगर के सक्सेना जी के जुड़वां बच्चों को सेण्ट जाॅन स्कूल पॅंहुचाने और ले आने का काम कर रहा था। सुबह लगभग आठ बजे उन बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद खाली रिक्सा लिए वह सवारी की तलाश में गोल चैराहे की तरफ चला जाता था। कभी तो तुरन्त कोई सवारी मिल जाती और कभी-कभी घंटों यूॅं ही खाली खड़ा रहना पड़ता था। यही उसकी रोज सवेरे की दिनचर्या थी। लेकिन उस दिन उसके मन में अचानक न जाने क्या आया कि सक्सेना जी के बच्चों को स्कूल गेट पर उतारने के बाद गोल चैराहे की तरफ जाने के बजाय अनायास ही उसने रिक्सा उल्टी दिशा में यानी पावर हाउस काॅलोनी की तरफ मोड़ ली। पावर हाउस काॅलोनी के गेट पर हाथ में दो-तीन कापियाॅं और एक छोटा सा पर्स लिए एक गोरी-चिट्टी सुन्दर सी लड़की खड़ी थी। खाली रिक्सा आते देख उसने हाथ के ईशारे से रोका और पूछा- ‘‘यूनिवर्सिटी चलोगे ?’’ और राम मिलन के हाॅं कहते ही किराए के बारे में पूछताछ किए बगैर ही वह रिक्से में बैठ गयी। रास्ते में चाॅंदगंज में एक गली के मुहाने पर उसने रिक्सा रुकवाया। बमुश्किल दो-तीन मिनट ही बीते होंगे कि एक दुबली-पतली साॅंवली सी लड़की गली के अंदर से लपकती हुयी आयी और रिक्से में पहले से बैठी लड़की के बगल में बैठ गयी। दोनों युनिवर्सिटी गेट पर आ कर उतर गयीं। पहली लड़की ने राममिलन को दस रुपए का नोट थमाया और आपस में बतियातीं वह दोनों युनिवर्सिटी में घुस गयीं। फिर तो यह रोज का ही सिलसिला हो गया।
तीसरे या चैथे दिन की बात है। चाॅंदगंज में गली के सामने उस साॅंवली लड़की के इन्तजार में उसे काफी देर तक खड़ा रहना पड़ा था। रिक्से में बैठी पावर हाउस काॅलोनी वाली लड़की बार-बार अपनी कलाई में बॅंधी घड़ी देखती और उकताती रही। आखिर छः-सात मिनट के बाद उसकी सहेली गली के अंदर से दौड़ती हुयी सी आयी और उचक कर रिक्से में बैठ गयी। दौड़ने के कारण वह बुरी तरह से हाॅंफ रही थी। उसके बैठने के बाद राम मिलन रिक्सा ले कर चल पड़ा।
‘‘क्या बात है....आज देर कर दी तुमने....।’’ पहली लड़की ने पूछा।
‘‘क्या बताऊॅं यार....सब कुछ तो तुम जानती ही हो। तैयार हो कर निकलने ही वाली थी कि बबलू चिल्लाने लगा मेरी स्कूल की शर्ट प्रेस नहीं है। महारानी जी ने हुक्म सुना दिया- ‘शशी.....बबलू की शर्ट प्रेस कर दो।’ अब उनके आदेश का पालन तो करना ही था वरना आसमान सर पर उठा लेतीं देवी जी। सो जल्दी-जल्दी बबलू का शर्ट प्रेस कर के उसे दे के तब आयी हूॅं।’’
‘‘तुम इतना सहती ही क्यों हो ? मना क्यों नहीं कर देती ? तुम दबती रहती हो इसीलिए वह और दबाती रहती है। वाकई बहुत दष्ुट औरत है वह।’’
‘‘मना ही तो नही ंकर सकती....मना करने का परिणाम मैं जानती हूॅं न। वह तो हर समय मुझको परेशान और दुःखी करने का मौका ढ़ूॅंढ़ती रहती है। उससे तो भलाई की उम्मीद करना ही बेवकूफी है। लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को क्या दोष देना। यह सब तो पापा को समझना चाहिए न....। वे तो मेरे सगे हैं....। लेकिन उन्हें तो लगता है जैसे कोई मतलब ही नहीं। वे तो बस उन्हीं महारानी जी की ही आॅंखों से देखते और उन्हीं के कानों से सुनते हैं। जिस दिन भी कुछ बोलूॅंगी या किसी काम के लिए मना करूॅंगी तो समझो कि विस्फोट हो जाएगा घर में। देवी जी को एक बहाना मिल जाएगा और पढ़ाई छुड़ा कर घर बिठा देगी मुझे। वैसे भी वह कई बार कह चुकी है कि बी0 ए0 के बाद आगे नहीं पढ़ाना है। मेरी पढ़ाई पर हो रहा खर्च बहुत अखरता है उन्हें।’’ शशी ने कहा और एक गहरी साॅंस खींच कर खामोश हो गयी। शेष रास्ते दोनों चुप ही रहीं।
वाकई यह मन बहुत ही मनमाना है। कोई वश नहीं चलता है इस पर। न जाने कब कहाॅं उड़ जाए, कब किससे जुड़ जाए, किस बात पर खिल उठे, कब बेवजह मुरझा जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। राममिलन का मन शनैः शनैः शशी नाम की उस साॅंवली लड़की के साथ जुड़ता जा रहा था। दरअसल रोज ही चाॅंदगंज से युनिवर्सिटी गेट तक रास्ते भर वह दोनों लड़कियाॅं बातें करती आतीं थीं जिनका कुछ टुकड़ा छन-छन कर राममिलन के कानों में भी पड़ता रहता था। उनकी बातें सुन कर उसको इतनी जानकारी हो गयी थी कि सुन्दर सी गोरी लड़की का नाम सुनीता तथा दुबली-पतली साॅंवली सी लड़की का नाम शशी था। यह भी कि शशी की माॅं बचपन में ही मर चुकी थी और उसकी सौतेली माॅं उसे बहुत तकलीफ देती थी। यह भी कि उसके पिता पूरी तरह से उसकी माॅं के कहने में रहते थे और उसकी तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते थे। यह भी कि सौतेली माॅं शशी को पढ़ाना नहीं चाहती बल्कि जितनी जल्दी हो सके उसे ब्याह कर उससे मुक्ति पा लेना चाहती है। राममिलन ने यह भी गौर किया कि रिक्सा का किराया रोज सुनीता ही देती है। इतने दिनों में कभी भी एक दिन भी शशी ने किराया नहीं दिया था। ‘‘बेचारी शशी के पास पैसा रहता ही नहीं होगा तो भला कहाॅं से किराया दे वह....? वह तो भला हो सुनीता का जो रोज उसे अपने साथ युनिवर्सिटी ले आती है वरना पैदल ही आना-जाना पड़े बेचारी को।’’ राम मिलन ने सोचा और उसका मन उदास हो गया। यद्यपि कोई मतलब नहीं था, कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी न जाने क्यों धीरे-धीरे उसको शशी के साथ लगाव और गहरी सहानुभूति सी होती जा रही थी।
ऐसे ही एक दिन उन दोनों की बातचीत से राममिलन को पता चला कि अगले सोमवार से सुनीता युनिवर्सिटी नहीं जाया करेगी। उसकी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। लेकिन शशी को अभी पूरे महीने भर जाना होगा। उसकी कक्षायें चलती रहेंगी। आखिर वह दिन भी आ गया जब रिक्सा से उतर कर भाड़ा देते समय सुनीता ने कहा- ‘‘बाबा ! अब कल सवेरे से तुम मत आया करना। कल से युनिवर्सिटी नहीं जाऊॅंगी मैं।’’
वह शनिवार का दिन था। राममिलन सारे दिन, सारी रात शशी के बारे में ही सोचता रहा। इतवार को भी सारे दिन, सारी रात उसके दिलो-दिमाग पर शशी ही छायी रही। ‘‘बेचारी शशी को अब चाॅंदगंज से युनिवर्सिटी तक पैदल ही जाना पड़ेगा। इतनी तेज धूप में इतनी दूर पैदल कैसे जाएगी वह.....? कहीं ऐसा न हो कि वह बीमार पड़ जाय। अगर बीमार पड़ गयी तो उसकी सौतेली माॅं तो ठीक से उसका इलाज भी नहीं करायेगी। बीमारी के कारण यदि परीक्षा नहीं दे सकी तो कहीं उसकी पढ़ाई ही न छूट जाय।’’ इसी तरह की तमाम बातें सोच-सोच कर परेशान होता रहा राममिलन। दिमाग शशी की चिन्ता में उलझे रहने के कारण दो, तीन बार तो उसका रिक्सा दूसरे वाहनों से टकराते, टकराते बचा। देर रात तक चिन्ता और उलझन में रहने के बाद आखिर उसने मन ही मन एक ठोस निर्णय लिया तब जा कर उसे चैन मिल सका। सोमवार की सुबह सक्सेना जी के बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद खाली रिक्सा लिए वह तेजी से चाॅंदगंज की तरफ भागा। रास्ते में किसी सवारी ने उसे रुकने के लिए आवाज भी दी लेकिन वह रुका नहीं। भागता हुआ जा कर वह शशी की गली के मुहाने पर खड़ा हो गया। तीन-चार मिनट बाद तेज कदम चलती शशी अपनी गली से निकली। उसने एक नजर राममिलन की तरफ देखा फिर सिर झुकाए पैदल ही आगे बढ़ गयी। राममिलन किंकर्तव्यविमूढ़ सा गली के मुहाने पर खड़ा रह गया। लेकिन अगले कदम के बारे में निर्णय लेने में उसको देर नहीं लगी। उसने तुरन्त रिक्सा आगे बढ़ाया और सड़क के किनारे-किनारे भागती चली जा रही शशी के पास पॅंहुच कर रिक्सा रोकते हुए बोला- ‘‘बिटिया.....! आओ बैठ जाओ।’’
शशी ने बहुत कातर और बेचारगी भरी नजरों से राममिलन की तरफ देखा, पल भर असमंजस की स्थिति में ठिठकी रही फिर चुपचाप रिक्से में बैठ गयी। राममिलन रिक्सा ले कर चल पड़ा।
‘‘बाबा ! चेन्ज नहीं है मेरे पास.....सौ रूपए का नोट है।’’ यूनिवर्सिटी गेट पर रिक्से से उतरने के बाद शशी ने कहा।
‘‘कोई बात नहीं बेटी......पैसे शाम को दे देना। तुम शाम को कितने बजे निकलोगी यहाॅं से....? बता दो तो मैं उतने समय आ जाऊॅंगा।’’
‘‘एक चालीस पर मेरा क्लास छूटता है....।’’
‘‘ठीक है.....मैं आ जाऊॅंगा.....यहीं इन्तजार करना मेरा।’’ राममिलन ने कहा और पैडल घुमाता आगे बढ़ गया।
सक्सेना जी के बच्चों का स्कूल दो बजे छूटता है। स्कूल से उनके बाहर निकलते- निकलते सवा दो तो बज ही जाता है। कोई खास परेशानी नहीं होगी....शशी को चाॅदगंज छोड़ कर वहाॅं पॅंहुचा जा सकता है। बहुत होगा पाॅंच-दस मिनटों की देर हो जाएगी....इतनी देर तो बच्चे इन्तजार कर ही लेंगे। राममिलन ने मन ही मन सोचा और आश्वस्त हो सवारी की खोज में निकल गया।
ठीक एक बज कर चालीस मिनट पर राममिलन यूनिवर्सिटी के गेट पर पॅंहुच गया था। लगभग दस मिनट बाद शशी गेट पर आयी। ‘‘बाबा! अगर चेंज हो गया हो तुम्हारे पास तो अपना सुबह का पैसा काट लो।’’शशी ने उसकी तरफ सौ रूपए का नोट बढ़ाते हुए कहा।
‘‘रिक्से में बैठो......तुम्हें घर लौटना भी तो होगा।’’
‘‘नहीं...नहीं, मैं पैदल चली जाऊॅंगी...। तुम अपना सवेरे का पैसा ले लो।’’ शशी बोली। वह रिक्से में बैठने में हिचक रही थी। दुविधा भरी परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। राममिलन उसकी मनः स्थिति को अच्छी तरह से समझ रहा था इसलिए उसका संकोच तोड़ते हुए बोला- ‘‘जल्दी बैठो बिटिया....देर न करो....तुम्हें घर छोड़ कर मुझे बच्चों को लेने सेण्ट जाॅन स्कूल जाना है।’’ राममिलन की इस बात ने जाने कैसा जादू किया कि मंत्रमुग्ध सी शशी रिक्से में बैठ गयी और राममिलन पूरी ताकत से पैड़ल मारता तेज गति से रिक्सा भगाता चल पड़ा। चाॅंदगंज में गली के बाहर शशी को उतारने के बाद उसे पैसे देने या कुछ कहने का मौका दिए बगैर वह रिक्सा ले कर तेजी से आगे बढ़ गया।
अगले दिन सवेरे पुनः राममिलन सक्सेना जी के बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद चाॅंदगंज की तरफ भागा और शशी की गली के मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया। लगभग दस मिनट बाद शशी गली से निकली। ‘‘बाबा! तुम अपना कल का पैसा ले लो और चले जाओ। मैं रोज-रोज रिक्सा भाड़ा नहीं दे पाऊॅंगी।’’ शशी ने उसकी तरफ बीस रूपए का एक नोट बढ़ाते हुए कहा।
‘‘अजीब लड़की हो.....तुमसे भाड़ा कौन माॅंग रहा है जी......? दोगी तो भी मैं पैसा नहीं लूॅंगा तुमसे। कहीं अपनी बेटी से भाड़ा लेता है कोई....? चलो जल्दी बैठो....देर हो रही है।’’ राममिलन ने आॅंखें तरेर कर, बनावटी गुस्सा दिखा कर ड़ाॅंटते हुए कहा। असमंजस की स्थिति में खड़ी शशी की आॅंखों में आॅंसू छलछला आए। ऐसे अपनत्व और प्यार भरी मीठी झिड़की सुनने के लिए उसका मन जाने कितने वर्षांे से तरस रहा था। वह दुपट्टे के कोर से अपनी आॅंखें पोंछने लगी।
‘‘अरे ! अरे ! जरा सी ड़ाॅंट पर रोने लगी। अभी तो थप्पड़ भी मारूॅंगा अगर मेरी बात नहीं मानोगी तो। चलो बैठो जल्दी...। पागल कहीं की। इत्ती बड़ी हो गई और रोती है ?’’ राम मिलन ने हॅंसते हुए कहा तो शशी को भी हॅंसी आ गयी। वह उचक कर रिक्से में बैठ गयी और राममिलन रिक्सा ले कर चल पड़ा।
फिर तो जैसे एक मौन संधि हो गयी दोनों के बीच। राममिलन रोज सुबह नौ बजे चाॅंदगंज से ले जा कर शशी को युनिवर्सिटी छोड़ता और दो बजे युनिवर्सिटी से ले आकर वापस चाॅंदगंज में गली के मोड़ पर। इस अवधि में दोनों के मन का जोड़ पुख्ता़ होता चला गया। वे दोनों आहिस्ता-आहिस्ता एक दूसरे से काफी घुलमिल गए। अब शशी आते-जाते रास्ते भर राममिलन से बतियाती रहती थी और वह भी खोद-खोद कर उसके बारे में पूछ-ताछ करता रहता था। शशी अगर किसी दिन उदास दिखती तो राममिलन चुहल कर के उसे हॅंसाने की कोशिश करता। जब कभी वह बहुत दुःखी या परेशान हो जाती तो राममिलन उसे समझाता-बुझाता, सांत्वना देता और यहाॅं-वहाॅं की बातें तथा तरह-तरह की कहानियाॅं सुना कर उसका हौसला बढ़ाए रखता। राममिलन के रूप में शशी को एक ऐसा हमदर्द मिल गया था जिससे अपने मन की हर बात कह कर वह अपना जी हल्का कर लेती थी। रविवार और अवकाश के दिनों में जब उनकी भेंट नहीं हो पाती उस दिन दोनों ही एक-दूसरे के बारे में सोच कर बेचैन हो जाते थे।
लगभग एक महीने बाद शशी की भी कक्षायें चलनी बंद हो गयीं। ‘‘बाबा ! आज से मेरा क्लास खत्म हो गया। अब कल से मुझे युनिवर्सिटी नहीं जाना है। लेकिन अभी इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूॅं़गी....परीक्षा के समय तुम्हें फिर परेशान करूॅंगी। बीस दिनों के बाद यानी अगले महीने की सत्रह तारीख से मेरे पेपर हैं और पेपर तो तुम्हें दिलवाना ही पड़ेगा।’’ एक दिन रिक्से से उतरते समय शशी ने कहा।
‘‘सत्रह तारीख को कितने बजे आ जाऊॅं बेटी...?’’
‘‘सात से दस बजे तक मेरे पेपर होंगे। तुम्हे सवा छः बजे तक तो जरूर आ जाना होगा ताकि हर हालत में पौने सात तक मैं यूनिवसर््िाटी पॅंहुच जाऊॅं।’’
‘‘तुम परेशान मत हो बेटी मैं छः बजे ही आ जाया करूॅंगा। बस तुम अपने शरीर और अपनी पढ़ाई का ध्यान रखना। और हाॅं मेरी कसम है तुमको कभी दुःखी ना होना। बेटी ! हर अॅंधेरे के बाद उजाला और हर धूप के बाद छाॅंव होती है। यही नियम है सृष्टि का। समझ लेना कि अभी धूप में तपा कर तुम्हारा इम्तिहान ले रहा है ऊपर वाला। वह सब ठीक कर देगा। सभी का खयाल रखता है वह।’’ राममिलन ने भरे गले से कहा। सक्सेना जी के बच्चों को स्कूल से ले कर उनके घर छोड़ने के बाद उसने उस दिन कोई सवारी नहीं ली। शेष सारे दिन अपनी कोठरी में उदास पड़ा रहा। ऐसा महसूस हो रहा था उसको जैसे कोई बहुत कीमती चीज खो गई हो।
बीस दिनों का समय गिन-गिन कर काटा राममिलन ने और सत्रह तारीख को सुबह छः बजे रिक्सा लिए वह शशी की गली के सामने उपस्थित था।
‘‘अरे बाबा! तुम तो बहुत पक्के निकले अपनी बात के़़़़़़.....समय से पहले आ गए। मैं तो ड़र रही थी कि कहीं तुम भूल न गए हो।’’ रिक्से में बैठती शशी ने चहकते हुए कहा।
‘‘हाॅं बेटी..! मैं भी यही सोच रहा था कि जानबूझ कर देर कर दूॅं और तुम्हारी परीक्षा छुड़वा दूॅ तो मजा आ जाय।’’ राम मिलन ने हॅंस कर जबाब दिया और रिक्से को सरपट दौड़़ाने लगा।
फिर तो जिस जिस दिन शशी के पेपर होते राममिलन सवेरे छः बजे ही चाॅंदगंज में शशी की गली के सामने पॅंहुच जाता था और पेपर समाप्त होने के समय यूनिवर्सिटी गेट पर हाजिर रहता था। जिस दिन यूनिवर्सिटी से आखिरी पेपर दे कर निकली उस दिन शशी बहुत उदास थी। राम मिलन की भी मनःस्थिति लगभग वैसी ही थी। दरअसल दोनों ही इस बात को लेकर दुःखी थे कि आज के बाद उनकी भेंट होनी बंद हो जाएगी। पिछले लगभग दो-ढाई महीनों के अंदर उन दोनों के बीच एक ऐसा अनोखा सम्बन्ध बन गया था जिसे किसी रिश्ते के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता था। अन्य दिनों रास्ते भर यहाॅं-वहाॅं की कचर, पचर बतियाती रहने वाली शशी उस दिन बिल्कुल चुप थी। राममिलन भी बिल्कुल खामोशी से रिक्सा खींचता रहा। रास्ते भर किसी ने कोई बात नहीं की। अपनी गली के बाहर रिक्से से उतरी तो शशी की आॅंखें ड़बड़बायी हुयी थीं। ‘‘बाबा.! मुझे माफ करना.....तुमको बहुत परेशान किया मैंने।’’ शशी ने रूॅंधे गले से कहा।
‘‘अरी हाॅं....बहुत चालाक न बनो। मैं तुम्हे ऐसे थोड़े न छोड़ूॅंगा। अगले जनम में मेरी बेटी बन कर पैदा होगी तो अपनी खूब सेवा करा के तुमसे सारा हिसाब बराबर कर लूॅंगा।’’ राम मिलन ने चमक कर, हाथ नचा कर कुछ ऐसे अंदाज में कहा कि रो रही शशी को भी हॅंसी आ गयी। दुपट्टे के कोर से आॅंसू पोंछती वह पलट कर गली में घुस गयी। राम मिलन वहीं जड़वत खड़ा उसे तब तक देखता रहा जब तक कि वह आॅंखों संे ओझल नहीं हो गयी।
अखिलेश श्रीवास्तव चमन
सी-2, एच-पार्क महानगर
लखनऊ-226006
मो0-09415215139