समझौता नहीं समर्पण Dr Vinita Rahurikar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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समझौता नहीं समर्पण

समझौता नहीं समर्पण

 

“ रिश्ते बनते तो प्यार से है लेकिन निभाए समझौते से ही जाते है. जो जितना

ज्यादा समझौता करेगा उसका जीवन और रिश्ता उतना ही सुखी दिखेगा लोगो को. “

मनस्वी ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा.

बाहर घाना कोहरा छाया हुआ था. बुँदे बरस रही थी दिलो की उदासी मौसम पर

छाई थी और मौसम की उदासी दिलो पर. बादलों से पानी की नहीं दर्द की बूंदे बरस

रही थी. अन्वी ने शौल को अपने कंधो पर कसकर लपेट लिया.

“ तो क्या दीदी रिश्तो में प्यार कभी बचता ही नहीं है “?

“ होता है , शुरू में रिश्ते प्यार के मलमल में ही लिपटे होते है लेकिन बहुत

जल्द ही प्यार का मलमल फट जाता है और रिश्तो को ढकने के लिए समझौते का पैबंद

लगाना पड़ता है. प्यार की बजाय समझौते का पैबंद ही मजबूत होता है और जिंदगी भर

रिश्तो को बंधे रखता है.” मनस्वी ने एक गहरी सास ली. उसकी गर्म सांसो की

धुंध खिड़की के शीशे पर जमा होकर उसे धुंधला कररही थी.

“ तो क्या रिश्ते कभी भी सिर्फ और सिर्फ प्यार के ही सहारे नहीं चल सकते ?”

अन्वी ने कंपकपाती आवाज में पूछा. पता नहीं उसकी आवाज में कम्पन ठण्ड के कारन

था की अपने सवाल के कारन.

“ रिश्ते खड़े तो प्यार के पैरो पर होते है लेकिन उमर का सफर समझौते की बैसाखी

के सहारे तय करते है.” मनस्वी के स्वर में घना सर्द कोहरा छाया था.

अन्वी के पैर कंपकपा गए अबकी उसने अपने पैरो को शौल से ढक लिया फिर भी ऐसा

लग रहा था जैसे कमजोर से हो गए हे. पता नहीं उठकर चल पायेगी की नहीं. बाहर

छाया कोहरा दोनों की छातियो में जम गया था. लाइब्रेरी की किताबे भी अपने-अपने

पन्नो को समेट कर अलमारियो में दुबकी पड़ी थी मन में छाया अँधेरा अब डूबती शाम

का घनेरा बनकर कमरे में उतर आया.

“तुम दोनों यहाँ अँधेरे में बैठी क्या कर रही हो ? मैं कब से तुम दोनों को सब

और ढूढ रही हु. और बैठी ही हो तो कम से कम बत्ती तो जला लेती शाम की चाय का

भी होश नहीं रहा आज ? “ अम्मा ने आकर लाइब्रेरी की बत्ती जलाकर थोड़े रोष भरे

स्वर में कहा फिर मनस्वी की ओर संदेह भरी दृष्टी से देखा. मनस्वी उनकी दृष्टी

में छिपे अर्थ को समझकर मन ही मन चिढ गयी.

अचानक अम्मा के आने से अन्वी शर्मिंदा होकर हडबडा गयी. बातों में शाम कब इतनी

गहरा गयी पता ही नहीं चला.

(१ )

“ माफ़ करना अम्मा दीदी से बाते करते हुए समय का ख्याल ही नहीं रहा.में अभी

चाय का इन्तेजाम देखती हू.” अन्वी उठकर बाहर जाने लगी.

“चाय हो चुकी हे तुम दोनों के लिए बाहर टेबल पर रखी हे चल कर पी लो. “ अम्मा

का स्वर काफी कुछ ठंडा हो चला था. मगर उनकी आँखों का रोष अब भी मनस्वी के

चेहरे पर जमा हुआ था. आजकल वे देख रही थी अन्वी कुछ परेशान और उदास सी लगती

हे. आकाश से भी कुछ खिची खिची सी रहती हे. नयी नयी शादी है एक दुसरे को

समझने में , सामंजस्य बिठाने में थोडा समय तो लगता है यही सोचकर उन्होंने

अन्वी से कभी कुछ पूछा नहीं. यु भी किसी के निजी जीवन में दखल देना उनके

स्वाभाव में नहीं था.

लेकिन अब देख रही है मनस्वी जब से ई हे अन्वी के चेहरे की उदासी दिनोदिन

गहराती जा रही है. जब भी मनस्वी आती है अन्वी के चेहरे पर उदासी की चादर खीच

कर जाती हे.

छह महीने ही तो हुए है अन्वी को आकाश की बहु बनाकर घर लायी है. और आकाश की

शादी के साल भर पहले बेटी मनस्वी की शादी हुई है. जितना होनहार और समझदार

दामाद मिला है उतनी ही प्यारी बहु भी मिली है. अन्वी घर की परंपराओ का पुरे

मनायोग से पालन करती है. घर के प्रति सारे कर्तव्य निभाती है. लेकिन दो-तीन

महीनो से वे देख रही थी , अन्वी बुझी-बुझी रहती है. और जब भी मनस्वी आती है

दोनों में पता नहीं क्या बाते होती है कि अन्वी और उदास हो जाती है. मनस्वी

स्वयं भी तो वैसी खुश नहीं दिखती जैसी अभय जैसा पति मिलने के बाद उसे लगना

चाहिए.

क्या करे ?

मनस्वी बहुत “डिमांडिंग’ है. रिश्तो से हर बात में बहुत ज्यादा उम्मीदे रखती

है. हर रिश्ते में उसे लगता है कि सामने वाला उसे हथेली पर लेकर घूमता रहे

उसपर भी छोटी-छोटी बातो में उसके अहम् को ठेस लगती है और मुह फूल जाता है.

हर्ट होकर वह अपने आपको और दुसरो को दुखी करती रहती है. बचपन से ही उसे

समझाने का बहुत प्रयत्न किया उन्होंने लेकिन वह नहीं सुधरी. वो तो भला हो अभय

जैसे समझदार और अंडरस्टैंडिंग रखने वाले पति का जो तब भी हर बार स्थिति को

संभाल लेता है वर्ना भगवान जाने मनस्वी का ससुराल में क्या होता. फिर भी अभय

के आगे उन्हें कभी-कभी अपराधबोध होने लगता है. मनस्वी की नादानियो को वो

कितनी समझदारी से तरह दे देता है. रात के खाने के टेबल पर अभय, आकाश और

बाबूजी ने मिलकर मजेदार बातो से माहौल को काफी हल्का-फुल्का कर दिया था. यु

भी घर की तीनो औरतो के मन पर छाये अपनी-अपनी चिन्ताओ के बादलो की उन्हें कोई

खबर नहीं थी. वे तीनो तो अपनी रोंमें मस्त थे. डिनर के बाद अभय मनस्वी को

लेकर घर चला गया. अम्मा ने राहत की साँस ली. अगर मनस्वी यहाँ रहती तो अन्वी

और उसमे फिर पति-पत्नी संबंधो को लेकर बात होती और अपने ‘डिमांडिंग नेचर ‘ के

कारण वह अन्वी को गलत राय ही देती.

(२ )

उस रात देर तक अन्वी को नींद नहीं आई. रिश्ते समझौते के  पैबंद ,

समझौते की बैसाखिया  बस यही सब उसके मन मस्तिष्क में घूमता रहा. क्या सच में

ही कुछ ही दिनों में रिश्तो में प्यार प्यार ख़त्म हो जाता है और सिर्फ समझौता

ही करना पड़ता है. आकाश के साथ क्या हर बात में सिर्फ एडजस्ट ही करना होगा.

सुबह की चाय से लेकर रात में बिस्तर तक. हर बात सर झुकाकर माननी पड़ेगी तभी

लोगो के सामने यह भ्रम बना रहेगा की वे दोनों बहुत सुखी है. ऐसे तो साथ सुख

का न होकर बोझ बन जायेगा.

दो दिन पहले की ही बात है एक जगह शादी में जाना था. अन्वी

ने अपनी मनपसंद साड़ी और गहने निकालकर रखे थे दोपहर से ही लेकिन ऑफिस से आते

ही आकाश ने उसकी पसंद की बजाय अपनी पसंद की साड़ी दी उसे पहनने को.

अब कपडे भी दुसरे की पसंद मर्ज़ी  से पहनने पड़ेंगे क्या

फिर आकाश ने भी पूछा था की “मैं क्या पहनू?” लेकिन अन्वी ने उसपर

अपनी पसंद नहीं थोपी. कहा जो मन हो पहन लीजिये.

एक दिन उसका मनोहर डेयरी में खाना खाने का मन था लेकिन आकाश उसे विंड एंड

वेव्स ले गया. ऐसी कितनी ही बाते है जो रोज़ होती है और अन्वी को ही आखिर

समझौता या एडजस्ट करना पड़ता है. लेकिन ये सारी बाते कहे किससे. कौन समझेगा ?

बस एक मनस्वी दीदी है जिनसे बाते करके थोडा मन हलका हो जाता है वे ही समझाती

है अन्वी को.

सात-आठ दिन बाद मनस्वी फिर आई. एक ही शहर में ब्याही थी तो आना जाना लगा रहता

था. दिन में दोनों शापिंग करने गयी और फिर चार बजे तक घर आ गयी. अन्वी ने

सबके लिए चाय बनाई अम्मा बाबूजी को उनके कमरे में चाय देकर अन्वी अपनी और

मनस्वी की चाय लेकर बेडरूम में आ गयी. दोनों बाते करने लगी अन्वी ने मनस्वी

के साथ साड़ी और मनोहर डेयरी वाली बाते शेयर की. मनस्वी ने उसके दुःख को समझा

, समझौता करना पड़ा उस पर सहानुभूति जताई. दोनों अपने में ऐसी खोई हुई थी की

उन्हें पता ही नहीं चला कि कब से अम्मा दरवाजे की आड़ में कड़ी होकर उनकी बाते

सुन रही थी.

जब अम्मा से रहा नहीं गया तो वे कमरे में अन्दर चली आई. उन्हें देखकर

दोनों हडबडा गयी.

“शाबास बेटा रिश्तो का क्या खूब विश्लेषण किया है तुम लोगो ने. प्यार को

एकबारगी सीरे से ख़ारिज करके समझौते की बैसाखिया ही लाद दी. लेकिन एक बार भी

सोचा नहीं की प्यार के पैर पोलियो की बीमारी से तुमने ही तो ख़राब किये है “

अम्मा दोनों की और देखकर बोली.

“ जी माजी हम तो बस..........” अन्वी अम्म्मा के सामने अपनी कहि हुई बाते याद

करके शर्मिंदा सी हो गयी

“ पहले तो में तुम्हारी ही समस्या का समाधान कर दू अन्वी. शनिवार-रविवार को

मनोहर डेयरी में इतनी भीड़ होती है की वहा पैर रखने को भी जगह नहीं मिलती और

शोरगुल अलग होता है. हो सकता है आकाश तुम्हे

(३ )

आराम और सुकून के पल देना चाहता हो इसलिए तुम्हे बड़े और खुले रेस्टोरेंट् में

ले गया. इसे तुम पोसिटिव वे में भी तो ले सकती थी. लेकिन उसके प्यार को

तुमने समझौते का बोझ बनाकर अपने मन पर ओढ़ लिया. और शादी में तुम लाइट पीच कलर

की साड़ी पहन रही थी जबकि तुम्हारा रंग गोरा है तो आकाश ने इसीलिए डार्क कलर की

साड़ी पहनने को कहा था क्योंकि रात में वह रंग तुम पर खूब खिल रहा था. पति अगर

यह चाहे की उसकी पत्नी सुन्दर दिखे तो यह उसका प्यार होता है न की किसी तरह का

समझौता करने का दबाव” अम्मा ने एक अफ़सोस भारी निगाह अन्वी पर डाली.

अन्वी सर नीचे किये चुपचाप सुनती रही. उसकी आँखों से बस आंसू बरसने ही वाले

थे.

“ किसी अपने की ख़ुशी के लिए उसकी कोई बात मान लेना समझौता नहीं सहज समर्पण

होता है. मगर तुम लोग समझौते और समर्पण के बीच के अंतर को समझ ही नहीं पाते

हो. समर्पण में आपसी सामंजस्य होता है , उससे रिश्तो में प्रेम बना रहता है.

जबकि यदि इसे समझौता सोचकर सामने वाले पर अहसान मानकर निभाया जाए तो रिश्ते और

जीवन दोनों बोझ बन जाते है.

और मनस्वी रिश्ते हमेशा प्यार से ही बनते है और प्यार से ही उमर

का सफ़र तय करते है लेकिन अगर तुम सफ़र की  शुरुवात में ही प्यार

के पैर काटकर समझौते  की बैसाखी थाम लोगी तो दोष तुम्हारा है

रिश्ते का नहीं “ अम्मा मनस्वी की और देखकर कठोर स्वर में बोली.

“  रिश्ते बैंक की तरह होते है. बैंक में सिर्फ डिमांड करने

से काम नहीं चलता पहले वह उतना ही डिपाजिट करना पड़ता है. इसी तरह

रिश्तो में अगर प्यार  और सम्मान चाहिए तो  पहले रिश्तो को प्यार

और सम्मान देना सीखो. सिर्फ डिमांड पर डिमांड करने से बहुत जल्दी

एकाउंट खली हो जाता है “ अम्मा ने एक बार फिर मनस्वी पर कटाक्ष किया.

मनस्वी गर्दन झुकाए चुपचाप सुन रही थी और अन्वी की आँखों से लगातार आंसू बह

रहे थे.

“ हलवे में अगर मिठास चाहिए तो उसमे चीनी मिलनी पड़ती है. करेले का रस मिलाकर

मिठास की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. इतना ज्यादा डिमांडिंग बनोगी मनस्वी तो

रिश्तो में और जीवन में हमेशा कडवाहट और दूरिया ही हासिल होंगी. क्योंकि तुम

देना नहीं जानती सिर्फ लेने की इच्छा रखती हो. “ अम्मा एक गहरी साँस भरकर

बोली. समझौते का जहर अपने दिमाग से निकालकर समर्पण के रेशमी धागों से बंधकर

प्रेम को सहेजना सीखो लडकियों तो दांपत्य का सफ़र उमर भर प्यार से चलता रहेगा

.” कहकर अम्मा कमरे से बाहर चली गयी.

मनस्वी और अन्वी अपराधबोध से सर झुकाए कड़ी थी. लेकिन घने कोहरे को चीरकर

सुनहरी धुप के समान दोनों के मन में अम्मा समर्पण के रेशमी धागे में सफल हो

चुकी थी.

 

- डॉ. विनीता राहुरीकर