प्रतिष्ठा: महत्वपूर्ण उपलब्धि
प्रतिष्ठा जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होती है यह एक ऐसा वृक्ष है जिसको बडा होने में बहुत समय लगता है और यदि इस पर आघात न हो तो यह पीढी दर पीढी हमारी अमूल्य धरोहर बन जाता है। हमें प्रतिष्ठित होने के लिये जीवन में बहुत परिश्रम करते हुए अपनी संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों को आत्मसात् करना होता है। आपका कोई आलोचक आपकी आलोचना करे तो भी आपको उसके प्रति विनम्रता का भाव रखते हुए मर्यादित व्यवहार करना चाहिए। किसी भी सामाजिक विकास और जनहित के कार्यो में मुक्त हस्त से दान देना चाहिए। आज के समय में उद्योगपति या व्यापारी को राजनीति में अपनी पैठ बनाये रखनी चाहिए जिससे उद्योग या व्यापार को अवांछनीय अवरोधों से बचाया जा सके।
उद्योग, नौकरी या व्यापार में प्रतिष्ठा हेतु हमें अहंकार का त्याग करके प्यार एवं क्षमा का गुण अपने स्वभाव में लाना चाहिए। हम दूसरों से कुछ पाने की जगह समाज को क्या दे सकते है ? यह चिंतन करना चाहिए। एक परिश्रमी, कर्मशील, उद्यमी व्यक्ति दूसरे के प्रति स्नेह का भाव रखता है और सृजन की दिशा में आगे बढता है। वह अपनी प्रगति को सबके साथ बाँटता है और मन में खुशी और संतुष्टि का अनुभव करते हुए निर्मल हृदय से सभी को मदद करने का प्रयास करता हैं। ऐसा व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित होता है।
जीवन में कभी कभी ऐसी घटनायें घटित हो जाती है जिनकी हमने कल्पना भी नही की होती है। मेरे एक मित्र विदेश में बहुत अच्छी नौकरी में थे और उनका वापिस भारत आना कल्पनाओं में भी नही था परंतु परिस्थितियाँ अचानक ही ऐसी बदली कि उन्हें वापिस आना पडा। यहाँ पर उन्हेाने अपना पेट्रोल पंप का व्यवसाय प्रारंभ किया जिसमें उन्हें असीम सफलता मिली। इसका एक प्रेरणाप्रद उदाहरण आपको बता रहा हूँ
श्री अखिलेश कुमार शुक्ल एक इन्जीनियर हैं। उनके प्रपिता पं. रविशंकर शुक्ल मध्य प्रान्त जिसे तब सी. पी. एण्ड बरार कहा जाता था, के मुख्य मंत्री थे। उनके पिता श्री ईश्वरीचरण शुक्ल एक प्रसिद्ध ई. एन. टी. सर्जन थे। श्री अखिलेश शुक्ल 1970 में इन्जीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद एच. ई. एल. भोपाल में काम करने लगे।
श्री शुक्ल ने 1976 में विख्यात अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी में कुवैत में काम करना प्रारम्भ किया। कुवैत में उनका काम अच्छा जम गया। उनका परिवार भी उनके साथ था। उस समय भारत अपनी उन्नति के शिखर से दूर था। उनकी पत्नी और बच्चे सब वहाँ के माहौल में ढल चुके थे। कुवैत विश्व के सबसे अमीर देशो में से एक था। सभी तरह की वैश्विक सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध थीं। अब कुवैत ही उनका घर बन चुका था। उनकी आय भी बहुत अच्छी थी। उनके और उनके परिवार के सभी सदस्यों कुछ वर्षों तक और वहाँ रहना चाहते थे। श्री शुक्ल जीवन के चालीस वसन्त पार कर चुके थे।
अचानक 1988 में उनके जीवन में एक दोराहा आया। उनके पिता का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। उन्हें अपने पुत्रों की देखभाल की आवश्यकता थी। उनके चाचा लोगों ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अब अपने देश वापिस आकर अपने पिता की देखभाल करना चाहिए और यहीं पर काम करना चाहिए। यह समय उनके लिये किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। एक ओर परिवार के सदस्य थे जो एक वैभवशाली जीवन जी रहे थे जबकि दूसरी ओर भारत में उनके परिवार की जीवनशैली सादा जीवन उच्च विचारों वाली थी।
प्रश्न था कि क्या वे इस परिवर्तित जीवनशैली को स्वीकार कर पाएंगे? एक समस्या और भी थी कि अनेक वर्षों तक कठिन परिश्रम करके जो काम और नाम कुवैत में कमाया है उसे छोड़कर भारत में फिर नये सिरे से काम जम सकेगा और क्या उसमें वैसी ही सफलता मिल सकेगी? इसके साथ ही यह भी कि जब पिता को उनकी आवश्यकता है तब क्या वे उनकी अनदेखी कर दें?
अन्त में विजय पारिवारिक संस्कारों की हुई और श्री शुक्ल ने भारत आकर अपने पिता का संबल बनने का निर्णय लिया। वे भारत आ गये। उनके आने से उनके पिता को जो प्रसन्नता हुई थी उसे उन्होंने अनुभव तो किया है किन्तु उसका वर्णन करने में वे अपने आप को असमर्थ पाते हैं। यहाँ आकर उन्होंने नये सिरे से अपना काम प्रारम्भ किया। कड़ी मेहनत की। ईश्वर की कृपा और बुजुर्गों के आशीर्वाद से उन्हें यहाँ भी सफलता मिली। उनका काम भी सुचारू रुप से चलने लगा और समाज में भी उन्हें एक प्रतिष्ठित स्थान मिला। उनका कहना है कि यदि जीवन में सद्विचारों की नींव पर निर्णय लिये जाएं तो उद्योग, व्यापार या नौकरी में सफलता और खुशहाली निश्चित ही प्राप्त होती है।
हमें जीवन में आत्मविश्वास एवं मान सम्मान के लिए हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए। मेरे एक मित्र ने बहुत परिश्रम के साथ अपनी नौकरी छूट जाने पर स्वयं का कारोबार छेाटे से रूप में आरंभ करके वर्तमान में बहुत विस्तृत रूप प्रदान कर दिया है जो कि हमारे लिए एक प्रेरणास्त्रोत है।
रमेश एमबीए की शिक्षा पूरी होने के उपरांत एक कंपनी में सेल्समेन के पद पर कार्यरत था। वह एक मध्यम परिवार से था और इस नौकरी पर ही उसका परिवार आश्रित था। उसने अपने कठिन परिश्रम, लगन एवं समर्पण से अपनी कंपनी के उत्पादन की बिक्री एक ही वर्ष में काफी बढ़ा दी थी, जिससे वह आश्वस्त था कि इससे उसे कंपनी में शीघ्र ही तरक्की प्राप्त होगी।
एक दिन उसे कंपनी के जनरल मैनेजर ने अपने पास बुलाकर उसकी तारीफ करते हुये उसके काम की प्रशंसा की और माल की बिक्री बढ़ाने के लिये उसे धन्यवाद दिया। इसके बाद वे बोले कि मुझे बहुत दुख है कि तुम्हे यह बताना पड रहा है कि मालिक के एक निकट रिश्तेदार जिन्होने हाल ही में सेल्स में एमबीए किया है उन्हें तुम्हारे पद पर नियुक्त किया जा रहा है। हम तुम्हें एक माह का समय दे रहें हैं ताकि तुम कोई वैकल्पिक नौकरी खोज सको।
यह सुनकर रमेश के पांव तले जमीन खिसक गयी और उसने दुखी एवं निराश मन से घर जाकर अपनी माँ को यह बात बताई। उसकी माँ ने उसे समझाया कि जीवन में संकट तो आते ही रहते है। हमें उनका दृढ़ता पूर्वक मुकाबला कर चुनौती को स्वीकार करके उसके निदान की दिशा में प्रयास करना चाहिये। माँ के विचारों ने उसे इन विपरीत परिस्थितियों में भी संबल प्रदान किया। यह सुनकर रमेश ने चिंता छोड़कर इसके समाधान एवं भविष्य की कार्ययोजना पर गंभीर चिंतन, मनन प्रारंभ कर दिया।
उसके मन में विचार आया कि जब मैं कंपनी की बिक्री इतनी बढ़ा सकता हूँ तो क्यों ना मैं स्वयं ही इसी उत्पाद का छोटे रूप में निर्माण करके उसे बाजार में लेकर आ जाऊँ। रमेश इस दिशा में प्रयासरत हो गया और बैंक से कर्ज लेकर उसने उत्पादन प्रारंभ कर दिया उसे बिक्री के क्षेत्र में तो महारत हासिल थी ही और अपने संपर्कों के माध्यम से उसका पूरा उत्पादन आसानी से बाजार में बिकने लगा। अब धीरे धीरे उसने तरक्की करके उसे एक बड़ा रूप दे दिया। उसकी इस सफलता का सीधा प्रभाव उस कंपनी पर पडने लगा जहाँ वह काम करता था। वह कारखाना बिक्री कम होने के कारण घाटे में जाने लगा और एक दिन बंद हो गया।
कोई भी व्यवसाय चाटुकारों और अनुभवहीन रिश्तेदारों से नही चलाया जा सकता है। एक दिन रमेश सोच रहा था कि प्रभु की कितनी कृपा है कि उसे नौकरी से हटाया गया और उसने आत्मनिर्भर बनने के लिये स्वयं का यह काम आरंभ कर दिया। यदि उसे नौकरी से नही हटाया जाता तो उसका सारा जीवन नौकरी में ही बीत गया होता और वह जीवन में सफलता के इस मुकाम पर कभी नही पहुँच पाता। ईश्वर जो भी करता है हमारी भलाई के लिए ही करता है।
जीवन में विनम्रता एवं सद्व्यवहार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्पण होता है। हमारे स्वभाव में यह क्यों होना चाहिए इसके संबंध में एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत है। ऐसी ही एक घटना हमारे कारखाने में हुई, वहाँ कार्यरत एक मजदूर अचानक ही काम करते करते गिर गया। अधिकारियों ने तुरंत एंबूलेंस बुलायी और उसके आने का इंतजार करने लगे। उसी समय अचानक ही मेरा कारखाने में किसी काम से जाना हुआ। मैंने परिस्थिति देखकर तुरंत उस मजदूर को अपने कार की पिछली सीट पर लिटाकर अस्पताल की ओर चल पडा। अस्पताल पहुँचने पर चिकित्सकों ने बताया कि इसको हृदयाघात हुआ है और यदि आप कुछ देर और कर देते तो इसका बचना संभव नही होता।
मुझे मन में बहुत संतोष एवं मानसिक शांति हुई की त्वरित निर्णय से एक मजदूर की जान बच गयी। मैने वापिस कारखाने आकर अधिकारियों को लताडा कि आप लोग क्या अपनी कार मे इसको अस्पताल क्यों नही ले गये। एंबुलेंस का इंतजार करने की क्या आवश्यकता थी। इस घटना ने सभी मजदूरों में मेरी प्रतिष्ठा और मेरे प्रति विश्वास को बहुत बढा दिया।
वर्तमान समय में धन का बहुत महत्व है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रगति के लिए धन के बिना कार्य कर पाना असंभव हैं। आज के समाज में धन प्रतिष्ठा का मूलमंत्र हो गया है परंतु प्रतिष्ठा पाने के लिये आज भी ईमानदारी, नैतिकता, दान धर्म की प्रवृत्ति आचरण आदि का बहुत महत्व है और यही प्रतिष्ठा को स्थायित्व प्रदान करते हैं। प्रतिष्ठा से आपका प्रभाव बढता है एवं आपके कथन पर लोग विश्वास करते है।
आपकी प्रतिष्ठा पर ही किसी भी कार्य को करने के लिए शासकीय एवं गैर शासकीय ऋण, बाजार से कच्चा माल उधार प्राप्त होना एवं आपके द्वारा बनाये गये माल का विक्रय भी बाजार में आपकी प्रतिष्ठा पर निर्भर करता है। किसी भी जगह उच्च पद को प्राप्त करने हेतु आपकी साख एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हमें प्रतिष्ठा प्राप्त करने में वर्षों लग जाते है परंतु एक छोटी सी भूल इसे सदैव के लिए नष्ट कर सकती है इसलिये यह बेहद महत्वपूर्ण है कि हम खुद अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु कृत संकल्पित रहें।
कभी कभी कुछ लोग अपनी बनी हुई प्रतिष्ठा का दुरूपयोग भी करते है इनसे हमें सावधान रहना चाहिए। इंदौर के एक प्रसिद्ध उद्योगपति जिनका शेयर एवं कमोडिटी मार्केट में प्रतिदिन लाखों रूपये का विनियोजन करते थे। उनकी इस क्षेत्र में इतनी प्रतिष्ठा थी कि यदि उनकी जुबान से कोई भी शेयर संबंधी बात निकल जाती थी तो वह तुरंत बडे निवेशकों के बीच फैल जाती थी। वे इतने चालाक थे कि कभी कभी शाम को सार्वजनिक स्थानों क्लब, रेस्टारेंट इत्यादि में जाकर जानबूझकर विभिन्न लोगों से चर्चाओं के दौरान जो शेयर वे खरीदने की इच्छा रखते थे उनके विषय में जानबूझकर उनके भावों को गिरने की अफवाह फैलाते थे जिसका नतीजा यह होता था कि सारे शहर में कुछ घंटों के अंदर ही शेयर की खरीद फरोख्त करने वाले प्रमुख लोगों के बीच यह बात तीर की गति के समान पहुँच जाती थी और वे सभी शेयर धारक अपनी पूंजी का संभावित घाटा बचाने के लिए दूसरे दिन शेयर बाजार खुलते ही उन्हें बेच देते थे। अब शेयर बाजार के बंद हेाने के समय तक उन शेयरों को वे सज्जन खरीद लेते थे। उनकी प्रतिष्ठा इतनी अच्छी थी कि कोई भी उनकी चाल को नही समझ पाता था और वे अपनी प्रतिष्ठा के बल पर लाखों रूपया रोज कमा लेते थे और मन ही मन विक्रेता शेयर धारकों की कार्यप्रणाली पर मुस्कुराते रहते थे। इस प्रकार हम देखेंगे की प्रतिष्ठिा जीवन में विशिष्ट स्थान रखती है। जिसकी रक्षा हमें हर कीमत पर करना चाहिए।