अर्थ पथ - 19 - आध्यात्म से व्यक्तित्व का विकास Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

अर्थ पथ - 19 - आध्यात्म से व्यक्तित्व का विकास

आध्यात्म से व्यक्तित्व का विकास

आप नौकरी में मालिक को अपनी सेवाओं से इतना प्रभावित करें कि आपका मालिक अपने कार्यों को सफलता पूर्वक निपटाने के लिए आप पर निर्भर हो जाए तब आप ऐसी परिस्थितियों में मजबूत होकर उभरेंगे। अब यदि आपके पास किसी दूसरे संस्थान का इससे भी अच्छे वेतन पर नौकरी पाने का आश्वासन मिलता है तो आप उनसे नियुक्ति पत्र ले ले अब आपके दो रास्ते रहते है। पहला कि आप नये संस्थान में नौकरी शुरू लें या दूसरा कि वर्तमान मालिक को ही नियुक्ति पत्र दिखाकर विनम्रतापूर्वक उनसे आग्रह करें कि आपको इस संस्थान को छोडने का बहुत दुख है और आप यही कार्य करना चाहते हैं। आपकी योग्यता से यदि मालिक बहुत प्रभावित होंगे तो वे आपका वेतन नियुक्ति पत्र देखकर बढा देंगे। अब आप अपनी स्वेच्छा दोनो में से कोई भी विकलप चुन सकते है।

मेरे एक मित्र ने व्यापार करने के लिए शेयर मार्केट के काम को चुना और प्रतिदिन शेयर की खरीद और विक्रय करने लगा। उसे किसी ने समझा दिया था कि इसमें लाखों रूपये का मुनाफा है। मैने उसे समझाया कि तुम्हें इस व्यापार का कोई अनुभव नही है इसलिये तुम इस चक्कर को छेाड दो नही तो घनचक्कर बनकर एक दिन भारी नुकसान में पड जाओगे। शेयर मार्केट में जो प्रतिदिन खरीद बेच करते हैं वे जीवन में कभी भी धन नहीं कमा सकते। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसने लाभ कमाया हो। शेयर मार्केट में सिर्फ वही धन कमा सकता है जो शेयर खरीदकर लम्बे समय तक उन्हें अपने पास रखे। यह एक प्रकार का वैधानिक सट्टा है। भारत सरकार को प्रतिवर्ष अरबों रूपया टैक्स के माध्यम से प्राप्त हो रहा है इसलिये वे शेयर मार्केट को महत्व देते हैं।

जीवन में बुद्धिमानी एवं अवसरवादिता में टकराव होता है। समय और भाग्य भी ठहर गये हैं ऐसा प्रतीत होता है। मानव अपने उद्देश्यो से भटककर कल्पनाओं में खो जाता है और वास्तविकता के धरातल से दूर होकर खुशी व प्रसन्नता से विमुख हो जाता है। बुद्धिमानी आकाश के समान विषाल है, जिसका प्रारम्भ एवं अन्त हम नहीं जानते। परन्तु अवसरवादिता का प्रारम्भ एवं अन्त दोनों हमारे हाथों में ही रहते हैं। अवसरवादिता बुद्धिमानी पर कभी हावी नहीं हो सकती। केवल वह कुछ क्षण के लिये मानसिक तनाव कम कर सकती है। क्योंकि बुद्धिमानी एवं चतुराई हमारा पूरा जीवन सुखी एवं समृद्धशाली बनाती है। यह जीवन के अन्त तक हमारा साथ देती है।

बुद्धिमत्ता जहां पर है वहां पर आत्मा में ईमानदारी व सच्चाई रहेगी। जहां ये गुण हैं वहीं पर लक्ष्मी जी व सरस्वती जी का वास होगा। इससे यह स्पष्ट है कि हमें चतुराई एवं बुद्धिमानी पर निर्भर रहना चाहिए तथा अवसरवादिता का त्याग करना चाहिए। यही जीवन का यथार्थ है।

जीवन में मस्तिष्क से ज्ञान, मन में इसके मन्थन से दिशा और हृदय से जीवन जीने के सिद्धांतों का उदय होता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कितने वर्ष जीवित रहते हैं महत्व इस बात का है कि हमारी सांसें कितने समय तक सद्कार्यों में व्यस्त रहती है। यदि इस पर गम्भीरता पूर्वक सोचेंगे तो पाएंगे कि जीवन का दस प्रतिशत समय ही जीवन जीने पर दिया होगा। बाकी नब्बे प्रतिशत समय ऐसा बीतता है जिसका कोई उपयोग एवं उद्देश्य हमारे स्वयं के लिये एवं समाज के लिये नगण्य रहता है। इसका अर्थ यह है कि समय कम है और काम बहुत अधिक। इसलिये प्रत्येक क्षण का उपयोग करें जिससे जीवन परिवर्तित हो सकता हैं।

एक दिन रात्रि का समय था। मैं अपने विचारों पर लीन था कि परोपकार व सदाचार का जीवन यापन करना हमारा कर्तव्य है। हमारे मन में ऐसी भावना का आना धर्म के प्रति आस्था है एवं इसे कार्य रुप में परिवर्तित करना कर्म है। धर्म कर्म और कर्तव्य में सामन्जस्य हो तभी जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह विलक्षण रुप से सकारात्मक रहती है एवं नकारात्मकता को समाप्त कर देती है।

मन में अब नया प्रश्न आएगा कि मैं कौन हूँ, चेतना हूँ या चेतन मन की कल्पना हूँ। धर्म से कर्म है या जीवन में कर्म ही हकीकत में सुख है। धर्म एक सिद्धांत है, इसका जीवन में अनुसरण करना धर्मपथ है। यह कर्मपथ को मोक्ष की ओर मोड़ता है। धर्म के लिये हम आपस में लड़ते हैं। विश्व में अनेक संग्राम धर्म के लिये धरती पर हुए हैं। किन्तु कर्म के लिये सोचने का समय किसी के पास नहीं है। ऐसी परिस्थिति में धर्म व कर्म दोनों मानव पर उपहास करते हैं। धर्म एक शाश्वत सत्य है जिसकी हार नहीं होती है। तुम यदि धर्म एवं कर्म को समझदारी के साथ सम्पन्न करो तो यह जीवन में सुख समृद्धि व शान्ति का आधार बनेगी।

भारतीय संस्कृति में प्रायः प्रत्येक शुभ अवसर पर दीपक प्रज्ज्वलित किये जाने की परम्परा है। मिट्टी के बने दीपक में तेल भरकर जब बाती प्रज्ज्वलित की जाती है तो वह प्रकाश बिखराती है। वह अंधेरे को दूर करती है। जब तक तेल रहता है बाती जलती रहती है जब तेल समाप्त हो जाता है तो दीपक बुझ जाता है। मानव जीवन भी किसी जलते हुए दीपक के समान होता है। जन्म के बाद हमारी स्थिति मिट्टी के दीपक के समान होती है। हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारे संस्कार इस दीपक में डाले गये तेल के समान होते हैं। हमारे कर्म बाती के समान हैं जिनमें हमारी शिक्षा और संस्कारों के तेल का प्रभाव होता है और समाज को प्रकाशित करता है। यह हमारे जीवन के अंधकार को दूर करता है। बाती जल जाए या तेल खत्म हो जाए तो जीवन भी समाप्त हो जाता है। इसी तरह एक दिन यह शरीर कार्य करना बन्द कर देता है और जीवन समाप्त हो जाता है। यह एक निरन्तर चलने वाली स्वाभाविक क्रिया है। मानव एक दिन यह तन छोड़कर अपने धर्म और कर्म को साथ लेकर अनन्त में विलीन हो जाता है। मानव जीवन और दीपक का जीवन एक समान है। हमारा जीवन दीपक के समान ज्योतिपुंज बनकर समाज एवं राष्ट्रहित के काम में आये यही अपेक्षा है।

वर्तमान युग में माता पिता भी यही सोच रखते है कि बच्चों को जन्म देकर उनका शारीरिक पोषण करके, अच्छी शिक्षा दिलाने के बाद, धनोपार्जन करना सिखाकर, उन्हें अपने पैरों पर खडा कर देना ही उनके कर्तव्य का पूर्ण हो जाना है। इसे ही वे अपने धर्म का पालन करना मान लेते है। यह सोच उचित नही है क्योंकि यदि ऐसा हो तो मनुष्य और पशु पक्षियेां में क्या अंतर होगा ?

मनुष्य जीवन एक उच्च उद्देश्य के लिए प्राप्त हुआ हैं जो कि आध्यात्मिक जगत के ज्ञान की प्राप्ति है। सभी माता पिता का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान को सिर्फ भौतिक जगत से संबंधित शिक्षा देकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री न समझें बल्कि उन्हे भौतिक जगत से आध्यात्मिक जगत की ओर समर्पित होना भी सिखाएं।

प्रभु की कृपा से हमें मनुष्य योनि की प्राप्ति हुई है। हमें अपने धर्म का पालन करते हुए आध्यात्मिक जगत की समुचित शिक्षा बाल्यकाल से ही अपनी संतानों को देना चाहिए। आज समाज में जो विसंगतियाँ और पारिवारिक विच्छेद हो रहे है उसका प्रमुख कारण आध्यात्मिक शिक्षा की कमी है। यदि बच्चों को भौतिक जगत की बातों के साथ साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी बाल्यकाल से ही प्राप्त हो तो वे अपनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के प्रति समर्पित रहेंगें।