A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 9 Sarvesh Saxena द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt - 9

हॉरर साझा उपन्यास

A Dark Night – A tale of Love, Lust and Haunt

संपादक – सर्वेश सक्सेना

भाग - 9लेखक – सोनू समाधिया

कबीलों के घरों से उठती आग की लपटें रात्रि के अन्धकार में ज्वालामुखी के उद्गार के समय उत्पन्न प्रकाश की भाँति दीप्तिमान हो रही थीं।

चारों तरफ़ त्राहि त्राहि मच गई थी। सब अपने घरों में आग की वजह से कैद होकर जान बचाने का असफल प्रयास कर सहायता की गुहार लगा रहे थे।

कुछ घरों से जलते हुए लोगों की दहशत भरी आवाजें रात के माहौल को खौफजदा बना रहीं थीं।

इस भीषण नरसंहार को देख रहे शैतान के पुजारी उस तांत्रिक के वीभत्स और विकृत चेहरे पर मुस्कान उभर आई।

उसने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाकर शैतान के देवता का आह्वान करते हुए कहा कि “ - "हे! मेरे मालिक

शैतानों के देवता देखिए इंसानों पर हमारा प्रभाव होने लगा है। प्रेम और इंसानियत अपना दम तोड़ रही है। इसकी जगह नफरत और हैवानियत ने ले ली है। हम अपने लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करेंगे।

इंसानों की बेबसी, लालच और प्रतिषोध की चाह उन्हे हम शैतानों की ओर आकर्षित करेगी ...हा...हा...हा...हा..हा..... ।”

कबीले के लोगों में केवल उन लोगों को बन्दी बनाया गया जो काम करने लायक थे और महिलाओं में केवल सुंदर और जवान महिलाओं को बन्दी बनाया गया था।

बंदी लड़के और लड़कियों को लोहे की भारी जंजीरों से जकड़ कर घसीटते हुए ले जाया रहा था।

जमीदार के आदमियों में जश्न का माहौल था।

वो कभी औरतों को छेड़ते तो कभी लड़कों पर कोड़े बरसाते हुए आगे बढ़ रहे थे।

दूर कहीं कबीले का सरदार बहादुर एक पेड़ की ओट से अपने घरों और अपने आदमियों को जलते हुए देख रहा था। अगर समय रहते उसे जमीदार के मंसूबों की भनक न लगती और वह घर से दूर नहीं भागता तो वह अभी घर में जलकर मर गया होता।

उसका मन दुख और प्रतिशोध की ज्वाला से भड़क उठा लेकिन उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांती भी थी।

बंदियों को ले जाते हुये सुजान सिंह के एक आदमी जिसका नाम शेर सिंह था, उसकी नजर कैदियों मे चल रही एक लड्की पर पडी जो खुद को जंजीरों से छुडाने के प्रयास मे छ्टपटा रही थी।

चेहरे से सांवली दिखने वाली उस लड़की का भरा हुआ बदन और आकर्षक उभारों को शेर सिंह देखता रह गया।

तभी उसकी नजर साथ चल रहे अपने साथी कलुआ पर पड़ी वह भी उस लड़की को ललचाई नजरों से देख रहा था।

शेर सिंह ने अपनी मशाल दूसरे साथी के हाथों में थमाते हुए कलुआ के पास जाकर बोला “ क्यूं रे कलुआ, क्या देख रहा है ऐसे आँखें फाड़ फाड़ के।”

"जो मैं सोच रहा हूँ, कहीं तुम भी तो नहीं सोच रहे हो शेर सिंह भैया।" - कलुआ ने मुस्कुराते हुए कहा।

"मुझे तो लगता है कि इस बार जमींदार को जूठन ही मिलेगी हा हा हा हा हा..।"

"चलो भाई अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वैसे भी हम लोगों को हमेशा चखने को जूठन ही तो मिली है, कभी ताज़े का आनंद नहीं लिया। आज का मौसम भी बढ़िया है और रात भी है।" कलुआ ने लगभग अपने होंठो पर जीभ फेरते हुए कहा।

" तो फिर देर किस बात की, चल ना।"-शेर सिंह इतना कहते हुए उस लड़की की ओर बढ़ा।

" साथियों आगे बढ़ते रहो। मैं जरा अपना काम निपटा के आता हूँ चल कलुआ।" शेर सिंह ने अपने साथियों से कहा।

शेर सिंह और कलुआ जैसे ही उस लड़की के पास पहुंचे तो वह लड़की उन्हें देख कर डर गईं। ऊपर से उन्हें जमींदार द्वारा किसी को मारने की स्वतंत्रता थी।

वह लड़की सकुचाते हुए अपने ओर बढ़ रहे शेर सिंह और कलुआ से बोली -"मैंने कुछ नहीं किया साहेब! मुझे छोड़ दो।"

वह लड़की हाथ जोड़ते हुए दोनों के पैरों में गिड़गिडाने लगी।

शेर सिंह और कलुआ एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे।

"अरे! उठ पहले" - शेर सिंह ने उस लड़की का हाथ पकड़ कर उसे उठा लिया। वह लड़की सिहर उठी, उसने घबराते हुए अपने से दूर जाती हुई टुकड़ी को देखा।

उस लड़की को दोनों के मनसूबों को समझते हुए देर न लगी।

"साहेब दया करो। हम जैसे गरीब की दुआ लगेगी।"

"काहे की गरीब है तू हां। तेरे पास तो सब कुछ है। सही कहा न कलुआ मैंने।"

" हाँ भाई सही कहा तुमने हाहाहा...।"

कलुआ हंसता हुआ उस लड़की के पीछे पहुंच गया।

वह लड़की सहायता के लिए चीखने लगी मगर किसी भी ने उसकी चीख न सुनी और न ही उसकी ओर मुड़कर कर देखा। वह लड़की आबरू को खतरे में पड़ता देख फूट फूट कर रो पडी।

" ज्यादा तमाशा न कर। मेरी बात सुन मैं तुझे जाने दूँगा। वो भी जिंदा अगर तू मेरी बात मानेगी तो।" - शेर सिंह ने उस छ्‍टपटाती हुए लड़की के बाल को पकड़ लिए जिससे वह लड़की दर्द से तड़प उठी और उसका सर स्थिर हो गया। अब उस लड़की का चेहरा शेर सिंह के चेहरे के बिल्कुल पास था।

" कौन सी बात। कहीँ तुम मेरे साथ कुछ गलत तो नहीं करोगे न।"-उस लड़की दर्द को सहन करते हुए कहा। यह उसके दर्द से लरजते हुए होंठो से साफ़ जाहिर था।

"अगर तू हम दोनों को खुश कर देगी और उसके बाद तू ये गाँव छोड़कर कहीं दूर चली जाय कभी वापस नहीं आये तो तुझे छोड़ देंगे हैं न शेर सिंह भाई।"-कलुआ ने उस लड़की को पीछे से अपनी बाहों में भरते हुए कहा।

उसके स्पर्श से वह लड़की भयाक्रांत हो चीख उठी। उसकी चीख से वातावरण गूँज उठा और रात को पेड़ों पर सोते हुए पक्षियों के झुंड एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कलरव करते हुए जाने लगे।

दोनों अपनी नीच हरकतों पर अट्ठाहास कर रहे थे। उनके चेहरों पर हैवानियत छलक रही थी।

वह लड़की कलुआ के चंगुल से खुद को छुड़ाने की नाकाम कोशिश करने लगी।

परंतु कलुआ बहुत हट्टा कट्टा छ्ह फुटा नौजवान था , उसने लड़की को अपनी बाँहों मे उठा लिया, जो जाल मे फंसे परिन्दे की तरह फड़फडा रही थी।

कलुआ ने लड़की के कान में कहा कि - "बोलो मंजूर है?"

तभी एक तेज़ हवा का झोंका आया और उस लड़की के शरीर को छूता हुआ निकल गया जिससे लड़की के शरीर में एक तरंग उठी जो एक अपार ऊर्जा के रूप में परिणित हो गयी।

लड़की ने चीखना बंद कर दिया और वो उस अपार शक्ति को अपने शरीर में महसूस करने लगी।

"तुम लोग नीच और पापी हो। तुम सोच भी कैसे सकते हो कि मैं तुम्हारे हाथ आने वाली हूँ।"

शेर सिंह और कलुआ लड़की की निडर और साहसिक बातों को सुनकर दंग रह गए।

तभी उस लड़की ने अपने सर से पीछे की ओर कलुआ के चेहरे पर वार किया और दूसरे पल शेर सिंह को धक्का देकर जंगल की ओर भाग गई। कलुआ अपनी नाक अपने हाथों में भरकर धरती में पड़ा तिलमिलाने लगा और शेर सिंह ने खड़े होकर जंगल की ओर भाग रही लड़की को देख रहा था।

"पकड़ो उस नीच और वाहियात लड़की को आज मैं इसे ऎसा सबक सिखाउँगा कि इसकी सात पुश्तें भी मेरे नाम से कांपेंगीं।" इतना कहते हुए कलुआ एक हाथ से अपनी नाक को पकड़ कर उस लड़की की ओर दौड़ा। उसकी नाक से खून निरंतर बहे जा रहा था।

शेर सिंह और कलुआ उस लड़की का पीछा करते हुए भागने लगे।

" देखो... वो रही पकड़ो उसे।"-कलुआ ने अपनी अंगुली से उस लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा और दौड़ पड़ा।

वह लड़की जंगल के उस भाग में थी जहां वो कभी नहीं आई थी। इसलिए वह जिधर भी रास्ता दिखाई पड़ता उसी दिशा में भागने लगती। उसके पैर जंगली कटीले झाड़ों से कट चुके थे। उसकी आंखों से बहते हुए अश्कों के धारे उसके गालों से होते हुए गर्दन और उसकी कमीज को भीगा रहे थे।

आज उस लड़की ने यह सिद्ध कर दिया था। कि कोई स्त्री अपनी गरिमा और आत्मसम्मान हेतु किसी भी हद तक गुजर सकती है।

तभी उस लड़की को सामने एक छोटा सा मैदान दिखा वह उसी दिशा में पीछे की ओर देखते हुए भागने लगी।

शेर सिंह और कलुआ भूखे भेड़ियों की तरह उसकी ओर दौड़े जा रहे थे। वह लड़की दोनों से महज तीन गज दूर थी कि तभी उस लड़की की एक दह्शत भरी चीख पूरे मैदान मे गूंज उठी, मैदान के छोर पर खडे कलुआ और शेर सिंह ने देखा कि उस लड़की का पैर फिसल गया और वो खाई मे जा गिरी।

कुछ क्षण बाद उसकी लड़की की चीख सुनाई देना बंद हो गई।

कलुआ और शेर सिंह ने मैदान के दूसरे छोर पर जाकर देखा तो उस तरफ एक बड़ी खाई थी।

यह खाई उस तरफ से बिल्कुल भी दिखाई नहीं दे रही थी।

शेर सिंह और कलुआ ने खाई की ढलान में झाँक कर देखा तो उन्हे वह लड़की नहीं दिखी। दोनों हताश होकर वापस लौटने लगे।

"बचाओ मुझे........ आहह.....।"

खाई से आ रही इस आवाज को सुनकर शेर सिंह और कलुआ के कान खड़े हो गए दोनों ने मुस्कुराते हुए एक दूसरे की ओर देखा और भागते हुए खाई के किनारे पर पहुंच गए।

उन्होने देखा कि वह लड़की ढलान में निकले एक नुकीले पत्थर पर अटक गई है और वह उसे केवल अपने हाथों से पकड़े हुए थी कुछ देर बाद उसकी हिम्मत और ताकत जबाब दे चुकी थी इसलिए उसके हाथों की पकड़ पत्थर से ढीली पड़ने लगी थी। उसके पास सहायता के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था इसलिए उसने इन दरिंदों को सहायता के लिए गुहार लगाई थी।

कलुआ दौड़ कर ढाल के किनारे अपने पेट के बल लेट गया और अपना हाथ उस लड़की की ओर बढ़ा दिया।

"चल पकड़ मेरा हाथ और ऊपर आ जा।" कलुआ ने कहा।

उस लड़की का शरीर जबाब दे चुका था। उसका सारा बदन थकान , भय और दर्द से काँप रहा था। उसका सारा चेहरा धूल और खून के मिश्रण से गन्दा हो चुका था। उसके बहते हुए आँसू चेहरे पर लकीर बना रहे थे। उसने न चाहते हुए उसने कलुआ का हाथ थाम लिया और बिलख बिलख कर रो पड़ी।

कलुआ खुश होकर उसे ऊपर खींचने लगा। शेर सिंह का लड़की को देख कर खुसी का कोई ठिकाना न रहा उसका मन उछल उछल कर किलोल करने लगा था क्योंकि उसे उस लड़की से वासना अग्नि को शांत करने के साथ ही उससे बदला जो लेना था।

कलुआ ने उस लड़की को ऊपर निकाल भी नहीं पाया था कि अचानक उस लड़की के चेहरे पर भय और दर्द की जगह गंभीरता ने ले ली थी।

"बिना इज्जत और आबरू की जिंदगी जीने से बहतर यही है कि मैं स्वाभिमान के साथ मौत को गले लगाऊँ।" - इतना कहते ही उस लड़की ने कलुआ का हाथ छोड़ दिया।

"नहीं........ ।" - कलुआ जोर से चिल्लाता उस लड़की को गिरते हुए देखे जा रहा था।

देखते ही देखते वह लड़की एक जोरदार आवाज के साथ नीचे एक बड़े से पत्थर पर जा गिरी। उस पत्थर पर उस लड़की के सर के बल गिरने से वह पत्थर रक्त वर्णित हो उठा।

कुछ देर तक कलुआ स्तब्ध हुआ वहीं पड़ा उस लड़की को देखता रहा और शेर सिंह भी अपना सर पकड़ कर वहीं बैठ गया।

कुछ देर बाद दोनों खड़े होकर अपनी टुकड़ी में पहुंच गए। उन्हें आज बहुत दुख हो रहा था। वैसे तो उनके लिए ये रोज़ की बात थी लेकिन उन्हे आज इस बात का दुख था कि उनकी दिली ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाई थी।

सारे बंदियों को हवेली की बैठक के तहखाने में जानवरों की तरह ठूंस दिया गया।

अगले दिन सुजान सिंह रुद्रांश के बारे मे सोचते हुये उस बियावान जंगल की ओर अकेले ही बढ़ गया।

हवा का तेज़ रुख जैसे सुजान सिंह को पकड़ कर रोकने का प्रयास कर रहा था। मानों वह उसे जंगल में आगे बढ़ने से रोक रही हो।

जंगली जानवरों की आवाज सुनकर ऎसा लग रहा था कि जंगल के अंधेरे पक्ष में आ पहुंचा हो। अंधेरा पक्ष डायन, डाकनी और शैतान की गतिविधियों के लिए जाना जाता है।

सुजान सिंह बड़ा ही ढीठ किस्म का इंसान था वह लोभ और लालच में अंधा होकर कुछ भी कर सकता था।

"बड़ी अजीब बात है। मेरे आदमियों को तो यहां कुछ भी नहीं दिखा था?"

सुजान यह सोचता हुआ निडरता से आगे बढ़ रहा था।

कुछ समय तक चलने के बाद सुजान को कुछ दूर धुंआ के साथ ज्वाला भी दिखी। उसने उसी दिशा में अपने कदम जल्दी से बढ़ा दिए।

सुजान सिंह ने नजदीक से जाकर देखा तो उसके रोंगटे खड़े हो गए। पीछे से उसने देखा कि कोई दानव जैसा इंसान एक कुंडी में जल रही आग के सामने ध्यान लगाए हुए बैठा था।

कुंडी के आसपास नर मुण्ड और कुछ कपाल रखे हुए थे।

वह अपने हाथ में पकड़े सर्वा (हवन के लिये एक विशेष लकडी से बने चमचानुमा वस्तु) से अपने पास रखे एक कटोरे मे लाल तरल पदार्थ को बार बार उठाकर आहूति दे रहा था, शायद वह लाल तरल पदार्थ इंसानी खून ही था।

दरअसल वह तांत्रिक शैतान का पुजारी था। उसी कुंडी से उठती ज्वाला और धुआँ सुजान को दिखी थी।

सुजान जैसे ही उस तांत्रिक के पीछे और करीब आया तो उसने बिना देखे ही अपनी क्रिया को स्थगित कर दिया और अपनी आंखों को बिना खोले मुस्कराया।

"शैतान की जय हो महाराज।" - सुजान ने प्रणाम करते हुए कहा।

"बोलो तुम्हारा किस उद्देश्य से यहां आगमन हुआ है।" - तांत्रिक की आवाज वातावरण में गूँज रही थी जैसे मानो कोई भूचाल आया हो।

"बाबा आप मेरी मंशा को भली भाँति जानते हैं।" - सुजान ने सर झुका कर और हाथ जोड़ते हुए कहा।

सुजान की बात सुनकर तांत्रिक ने एक अट्ठाहाश किया और बोला “ लोभ, लालच, पद, और प्रतिषोध के लिये तुम इंसान कुछ भी कर सकते हो, आओ मेरे शैतान आका तुम्हारी मुराद जरूर पूरी करेंगे।”

तांत्रिक इतना कहकर झूम उठा।

"बोल क्या चाहिए तुझे मेरे आका से.... ।"

उस तांत्रिक ने सुजान की तरफ घूरते हुए कहा।

" बाबा मुझे शैतानी ताक़त दे दो जिससे मैं आसपास के सभी गाँव पर कब्जा कर लूँ और जिससे बहुत सारा खजाना इकट्ठा कर लूँ और धीरे धीरे सारी दुनिया पर राज करूं।"-सुजान से अपनी मंशा जाहिर की।

"सुन इसके लिए तुझे मेरा एक काम करना पड़ेगा। क्योंकि तुझे मेरी और मुझे तेरी आवश्यकता है।"

"कौन सा काम बाबा?" - सुजान सिंह ने हैरानी भरे लहजे में कहा।

" मुझे इंसानी शरीर चाहिए। जिससे मैं अपने आका शैतानों के देवता को धरती पर बुला सकूं। उसके लिए मुझे मंत्रों को इस चमड़े से निर्मित तिलस्मी किताब पर भेड़िये के दाँत से और इंसानी खून से लिखना है। जिसके लिए मुझे पूर्ण विकसित इंसानी शरीर चाहिए।"

"लेकिन बाबा उसके बाद मेरा काम कैसे होगा?"

" मैं तेरी आत्मा को कुछ दिनों के लिए तेरे शरीर से आजाद कर दूँगा। इसके बाद तेरी आत्मा साधारण नहीं शैतानी शक्तियों से पूर्ण आत्मा होगी।"

" परंतु.....? "-इतना कहकर वह तांत्रिक चुप हो गया।

" परंतु क्या? बाबा।"

" परंतु तू अपनी भौतिक सुख और सुविधाओं का लाभ और आनंद नहीं ले सकता जब तक तेरी आत्मा तेरे शरीर से बाहर रहेगी।"

"तो बाबा इससे मुझे क्या लाभ मिलेगा और रही बाद की बात आप पर कैसे भरोसा कर लूँ की आप मेरा शरीर मुझे बापस लौटा दोगे।"

कुछ पल रुकने के बाद सुजान बोला -" बाबा एक काम करो तो मैं आपके पास एक अपने आदमी को भेज देता हूँ तो आप उसके शरीर को ले लेना फिर चाहे बाद में भलेही बापस मत करना। लेकिन मुझे सारी शैतानी शक्तियां दे दीजिए।"

" नहीं..... । शैतानों के देवता को इस विधि में किसी इंसान का शरीर तब तक मान्य नहीं है जब तक वो अपनी स्वेच्छा से अपना शरीर शैतान को भेंट न करे और दूसरी बात जिसका शरीर स्वीकार होगा उसी को बदले में शैतानी शक्तियाँ मिलेंगी।"

" तो बाबा जी रहने दीजिए। राम राम .... अब मैं चलता हूँ। इससे अच्छा है कि मैं श्मशान में डाकनी साधना कर लूंगा। बलि के लिए भी काफी बन्दी पड़ें हैं।"-सुजान ने जाते जाते कहा।

उसे तांत्रिक की बातों पर गुस्सा आ रहा था लेकिन वह विवश था।