अपने-अपने कारागृह - 7 Sudha Adesh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने कारागृह - 7


अपने-अपने कारागृह-6

इसी बीच पदम और डेनियल को कन्या रूपी रत्न प्राप्त हुआ । उषा और अजय बेहद प्रसन्न थे । वह इस खुशी में सम्मिलित होने पदम के पास जाना चाहते थे पर अजय को छुट्टी नहीं मिल पाई । वे मन मसोस कर रह गए थे । सुकून था तो सिर्फ इतना कि डेनियल और बच्ची सकुशल तथा इस समय डेनियल के मम्मी- पापा उसके पास पहुँच गए थे ।

समय खिसक रहा था । उम्र के साथ उषा के कार्य करने की क्षमता घटी नहीं, बढ़ी ही थी । अब वह और अधिक तन्मयता से अपने सामाजिक कार्यों को अंजाम देने में लग गई थी । सिर्फ घर परिवार में समर्पित महिलाओं को विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ उनकी योग्यता को निखारना उसकी हॉबी बन गई थी । इसके साथ ही अब वह प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में जाकर पढ़ाने भी लगी थी ।

वैसे तो रिया को उसके पास आने का समय ही नहीं मिलता था पर डिलीवरी के समय वह उसके पास आ गई थी । उसकी ससुराल में मान्यता थी कि पहली डिलीवरी मायके में होनी चाहिए । इस मान्यता के पीछे वजह थी कि एक लड़की के लिए मां बनना जीवन का बहुत ही नाजुक मोड़ है । इस मोड़ पर उसको अपनी मां के पास ही रहना चाहिए आखिर मां के साथ ही बेटी सहज रहती है जिसके कारण वह बिना झिझक माँ से अपनी समस्याएं शेयर कर सकती है ।

उषा को भी रिया का आना आत्मिक संतुष्ट दे गया था । कम से कम अब वह रिया के साथ क्वालिटी टाइम बिता सकेगी जो उसे रिया की पढ़ाई तथा तत्पश्चात नौकरी के कारण नहीं मिल पाया था । मम्मी जी इस खुशखबरी को सुनने के पश्चात स्वयं को रोक नहीं पाई तथा सारे पूर्वाग्रह त्याग कर उनके पास आ गेन । अपनी पोती के बच्चे को वह अपनी गोद में खिलाना चाहती थीं । अभी वह खुशी को आत्मसात भी नहीं कर पाई थी कि महिला क्लब की अध्यक्षा प्रभा मेनन ने उसे बुलाया तथा 'हस्बैंड नाइट ' के आयोजन की तारीख फिक्स कर दी । यद्यपि ' हस्बैंड नाईट' की तारीख तथा रिया की डिलीवरी डेट में महीना भर का अंतर था पर फिर भी उसे लग रहा था कि कहीं इस कार्यक्रम की वजह से रिया की देखभाल में कमी न रह जाए अतः उसने अध्यक्षा से बेटी की डिलीवरी की समस्या बताई तो उन्होंने कहा,' उषा इस समय यह आयोजन हो गया तो हो गया वरना फिर कई महीनों के लिए टल जाएगा क्योंकि मुझे अगले महीने ही अपनी बहू की डिलीवरी के लिए यू.के. जाना है । वैसे भी अभी रिया की डिलीवरी में तो अभी समय है ।'

आखिर उषा को सहमति देनी पड़ी । घर आकर जब मम्मी जी और रिया को इस कार्यक्रम के बारे में बताया तब मम्मी जी ने कहा, ' तू निश्चित रह, मैं तो हूँ ही रिया के पास ।'

'हस्बैंड नाइट' के दिन महिलाओं द्वारा एक छोटे से सांस्कृतिक कार्यक्रम को अंजाम दिया जाना था यद्यपि मम्मी जी के कहने से बावजूद वह स्वयं को अपराध बोध से मुक्त नहीं कर पा रही थी पर उसके लिए प्रोग्राम की सफलता भी आवश्यक थी अतः उसे जाना ही पड़ता था ।

एक दिन मम्मी जी ने कहा ,' उषा रिया को कहीं घुमा ला और नहीं तो उसे चाट खिला ला । वह अकेली बैठी बैठी बोर हो जाती है ।'

मम्मी जी की बात सुनकर एक बार फिर उषा यह सोचकर अपराध बोध से भर उठी कि रिया को कहीं लेकर जाने की बात उसके मस्तिष्क में पहले क्यों नहीं आई । स्वयं को संयत कर उसने मम्मी जी से कहा , मम्मी जी आप भी हमारे साथ चलिए ।'

' नहीं बेटा ...तुझे तो पता है मैं यह सब पचा नहीं पाती हूँ । तुम दोनों चले जाओ ।' सहज स्वर में उन्होंने कहा था ।

पहले तो रिया ने मना किया पर दादी के बार-बार आग्रह को वह ठुकरा नहीं पाई तथा साथ चलने को तैयार हो गई । वे चाट खा ही रही थी कि प्रभा मैडम का फोन आ गया तथा उन्होंने आग्रह पूर्वक उससे क्लब आने के लिए कहा । यद्यपि उस दिन उसने उनसे ना आने के लिए आग्रह किया था वह मान भी गई थी पर अब तो जाना ही था अतः वह रिया को साथ लेकर ही वह क्लब पहुँची । उनको देखकर प्रभा मेनन ने सॉरी कहते हुए रिया से उसका हालचाल पूछा तथा प्रोग्राम के संदर्भ में बात करने लगीं ।

क्लब का माहौल , जुनून और प्रोग्राम के लिए महिलाओं को प्रैक्टिस करते देख कर रिया आश्चर्यचकित रह गई । उससे भी ज्यादा आश्चर्य से अपनी मम्मा को हर प्रोग्राम का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते देखकर हो रहा था । वह न केवल प्रैक्टिस करने वाली महिलाओं को की कमियों को इंगित करते हुए सुधार लाने के लिए टिप्स बता रही थीं वरन साथ ही साथ ड्रेस, मेनू और सजावट के मुद्दे पर प्रभा मेनन और क्लब की कार्यकारिणी के सदस्यों के साथ संजीदगी से चर्चा भी कर रही थीं । यह सब देखकर रिया उनकी फैन हो गई घर आकर उसने मम्मा से कहा, ' मम्मा आपकी नजर बहुत सूक्ष्म और निर्णय लाजवाब है । अगर आप कहीं काम करती तो मेरा विश्वास मानिए आप बहुत उन्नति करतीं । '

रिया के इन शब्दों ने न केवल उसको तसल्ली पहुँचाई वरन प्रोग्राम को और भी अच्छी तरह से करवाने का साहस भी पैदा कर दिया । आखिर उसकी बेटी भी अब उसके साथ थी ।

एक बार वह बाहर से लौटी तो नौकर को असमय सोया पाकर वह उस पर शब्दों के चाबुक चलाने लगी । उस समय तो रिया ने कुछ नहीं कहा पर उसके अंदर आते ही उसने कहा , ' ममा, अब जमाना बदल गया है । नौकरों से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए आखिर वह भी इंसान है ।'

' तुम जैसा करो या सोचो । वैसे भी तुम्हें नौकरों के भागने का डर होगा पर यह कहाँ भागेंगे । सरकारी मुलाजिम है । यह इतने कामचोर हैं कि अगर इनके साथ कड़ाई से पेश नहीं आये तो ये काम ही नहीं करेंगे...आखिर इन्हें अनुशासन में रखना भी बेहद आवश्यक है ।' मन का अहंकार जाने अनजाने उनके शब्दों में झलक ही आया था । उस समय वह यह भी भूल गईं कि वह किसी अन्य से नहीं वरन अपनी बेटी से बातें कर रही हैं ।

रिया चुप हो गई थी पर उसके चेहरे से लग रहा था कि उसे उसका इस तरह से नौकर को डांटना उसे अच्छा नहीं लगा है पर फिर भी वह अपनी बात पर कायम रही शायद ऐसा करते हुए वह भूल गई थी कि रिया अब बच्ची नहीं एक मेच्योर एवं अनुभवी लड़की है । उसकी बात काटना उसे अपमानित करना ही हुआ पर उस समय वह स्वयं नहीं उनका अहंकार बोल रहा था । वह तो गनीमत थी मम्मी जी उस समय पड़ोस में रहने वाली शुचिता भल्ला के घर गई थीं ।

शुचिता उसकी पडोसन थीं । उसकी सास देवयानी से उनका पहनावा हो गया था । एक पंजाबी और एक बंगाली, पर जब मन मिल जाता है तो सरहदों की दीवारें छोटी हो जाती हैं । देवयानी आंटी के पैरों में अर्थराइटिस की वजह से बेहद दर्द होता था । उनकी उम्र भी 85 के करीब थी । उनके दोनों घुटनों का ऑपरेशन होना था पर ब्लड प्रेशर, डायबिटीज तथा किडनी की समस्या के कारण डॉक्टर कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहता था अतः ऑपरेशन टलता जा रहा था । स्थिति यह हो गई थी कि वह वाकर से ही चल फिर पाती थीं । देवयानी आँटी तो आ नहीं पाती थीं अतः मम्मीजी ही उनका हालचाल लेने कभी-कभी उनके पास चली जाया करती थीं । हम भी खुश थे कम से कम उनके कारण मम्मी जी का मन तो लग रहा है । देवयानी आंटी का बचपन लखनऊ में बीता था अतः बातों का अकाल नहीं पड़ता था ।

समय पर रिया ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया । समाचार सुनकर पल्लव अपनी मम्मी के साथ आ गया । वह बेहद प्रसन्न था पर उसकी मम्मी ने कहा, ' कन्या तो सुंदर है पर अगर पहला बेटा होता तो आगे बेटा हो या बेटी चिंता नहीं रहती ।'

अपनी सास के वचन सुनकर रिया के चेहरे पर आई खुशी फीकी पड़ गई थी । पल्लव समझ नहीं पा रहा था कि मम्मा को इस खुशी के अवसर पर यह कहने की क्या आवश्यकता थी ।

आखिर उषा से रहा नहीं गया उसने कहा, ' कविता जी अगर मैं गलत नहीं हूँ तो शायद आपके घर 30 वर्ष पश्चात लक्ष्मी आई है ।'

'आप सच कह रही हैं उषा जी । मेरे दो पुत्र ही हैं ।'

'फिर तो आपको खुश होना चाहिए इतने वर्षों पश्चात आपके घर लक्ष्मी आई है ।'

' वास्तव में पुत्र और पुत्री दोनों ही परिवार को पूर्ण बनाते हैं । इस बात को मैंने भी समय-समय पर महसूस किया है । वह बात मैंने सामान्य रूप से कही थी । मैं बहुत खुश हूँ इस नन्ही गुड़िया को पाकर । पल्लव जा मिठाई लेकर आ । अस्पताल में सबको बांटनी है । आखिर लक्ष्मी आई है हमारे घर.. ।' कहते हुए उन्होंने रुपए निकालकर पल्लव को दिए थे ।

पता नहीं उषा की बात सुनकर कविता का मन बदला या स्वयं ही उन्हें एहसास हुआ पर इतना अवश्य था कि उनकी बात सुनकर उषा को सुकून का अहसास हुआ वरना उनकी प्रतिक्रिया देखकर एक बार तो वह डर ही गई थी । आज भी बेटी होना हमारे समाज में सुख का नहीं वरन दुख का ही सबब होता है । वह आज तक नहीं समझ पाई कि क्यों ?

एक बार बेटा कर्तव्यच्युत हो भी जाए पर बेटी माता- पिता को कभी अकेला नहीं छोड़ती जितनी अच्छी तरह वह उनके सुख- दुख को महसूस करती है उतना बेटा नहीं पर फिर भी उसे सदा पराया धन कहकर अपमानित किया जाता है आखिर क्यों ? तन से बेटी भले ही दूर रहे पर मन से वह सदा अपने माता- पिता के पास ही रहती है । उनके दुख में वह जार जार रोती है । यह बात अलग है परिस्थितियां उसे उसके मन का न करने दें ।

बेटी माँ के जीवन का वह खूबसूरत एहसास है जिसमें वह अपना अक्स ही नहीं देखती अपना बचपन भी तलाशती है । पल-पल उसे बढ़ते देखना जहाँ सुकून पहुँचाता है वहीं यह एहसास भी जीने नहीं देता कि एक दिन उसे अपनी प्यारी नाजुक कली को किसी दूसरे को सौंपना होगा । क्या वहाँ उसे वही प्यार और दुलार मिल पाएगा जिसकी वह आकांक्षी है ? अपने दिल के टुकड़े को अनजान आदमी को सौंपते हुए कांपता है दिल, पर सामाजिक बंधनों को तो निभाना ही पड़ता है ।

बेटी वह कड़ी है जो दो परिवारों के मिलन का कारण ही नहीं बनती वरन उन्हें जोड़कर भी रखती है । कुछ अपवादों को छोड़ दें तो रिश्तो की संवाहक स्त्री ही होती है । स्त्री ही संसार की निर्मात्री है । वास्तव में कन्या एक ऐसा हीरा है जिसे जितना तराशो उतना ही चमकता है तथा अपनी चमक से दो परिवारों को प्रकाशित करता है । सबसे अधिक दुख तो उसे तब होता है जब स्त्री ही स्त्री के बाल रूप को स्वीकार नहीं कर पाती ।

नन्हीं परी को अपने हाथों में पाकर मम्मी जी की खुशी खुशी का ठिकाना नहीं था आखिर परपोती को खिलाने का सौभाग्य कितनों को मिल पाता है !! वह बहुत खुश थी कि ईश्वर ने उन्हें यह अवसर दिया है । वह अपने हाथों से उसकी तेल मालिश करतीं, कसरतें करवातीं तथा उसे नहलातीं तथा उसके साथ बातें भी करतीं । माहौल एक बार फिर सहज हो गया था ।

रिया की खुशी में सम्मिलित होने से पदम स्वयं को नहीं रोक पाया तथा उसने आने का कार्यक्रम बना लिया । उसके आने का समाचार सुनकर अजय और उषा ने अनिला और परी के लिए एक पार्टी का आयोजन कर लिया । इष्ट मित्रों की शुभकामना और आशीर्वाद ने इस अवसर को खूबसूरत बना दिया था ।

पदम और डेनियल की पुत्री अनिला की तोतली बोली तथा नन्ही परी की मासूम हँसी ने मम्मी जी की हँसी लौटा दी थी । जब वह नन्हीं रिया को तेल लगातीं तो 4 वर्षीय अनिला कहती, ' बड़ी अम्मा यह तया कल रही हो ?'

' बेटा, देख तेरी छोटी बहन कमजोर है । वह बैठ भी नहीं पाती इसलिए इसको तेल लगाकर मजबूत बना रही हूँ ।'

' मुझे भी लगाओ न, मुझे भी पापा की तरह स्ट्रांग बनना है । '

और वह तेल लगाकर ही मानती । मम्मी का बदला रूप देखकर अंजना भी बहुत खुश हुई थी । समय के साथ पदम और डेनियल चले गए थे । अनिला के मासूम प्रश्नों के अभाव में रिया और परी के रहने के बावजूद भी घर में सूनापन आ गया था । जो आया है वह जाएगा भी सोच कर मन को संतुष्ट कर लिया था ।

सुधा आदेश

क्रमशः