बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 3 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 3

भाग -३

अम्मी के बहुत दबाव पर जब आगे बढे तो कुछ इस तरह कि, कई जगह रिश्ते बनते-बनते ऐसे टूटे कि अम्मी आपा खो बैठीं। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि, 'तुम जानबूझकर लड़कियों का निकाह नहीं होने देना चाहते। तुम इनकी कमाई हाथ से निकलने नहीं देना चाहते।' इस बात पर अब घर में खूब हंगामा होने लगा। कई महीने बड़े हंगामाखेज बीते। फिर अचानक ही एक जगह अम्मी के प्रयासों से दो बड़ी बहनों का निकाह एक ही घर में तय हो गया। एक ही दिन निकाह होना तय हुआ।

अम्मी को परिवार बहुत भला लग रहा था। लड़के भी सीधे लग रहे थे और बड़ी बात यह थी कि दोनों अपने खानदानी धंधे टेलरिंग को जमाए हुए थे। अच्छा-खासा खाता-पीता घर था। कस्बे की बाजार में दोनों की टेलरिं की दुकान थी। अम्मी ने सोचा इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। लड़कियां चिकनकारी से जुड़ी हैं, यह सब मिलकर काम खूब बना ले जाएंगे । जीवन भर खुश रहेंगे । एक दिन लड़के और उनके परिवार वाले आकर सगाई कर गए। दो महीने बाद ही निकाह का दिन मुकर्रर हो गया। अम्मी का वश चलता तो निकाह तुरंत का तुरंत कर देतीं। लेकिन पैसों की कमी के चलते वह तैयारी के लिए थोड़ा समय लेने के लिए विवश थीं।

अब्बू के लिए वह साफ-साफ कहती थीं कि वह खुले मन से निकाह के लिए तैयारी नहीं कर रहे हैं। हाथ नहीं बंटा रहे हैं। इन बातों के कारण रोज दो-चार बार दोनों में तू-तू मैं-मैं होती रही। इस बीच लड़कों के अम्मी-अब्बू हर हफ्ते मिलने आने लगे । लड़कों की बहनें भी जरूर आतीं।

सभी बेहद हंसमुख स्वभाव की थीं। जब दूसरी बार वह सब आईं तो दो मोबाइल भी लेकर आईं और छुपाकर दोनों बहनों को दे गईं। यह मोबाइल लड़कों ने ही भिजवाए थे। संदेश भिजवाया था कि बात जरूर करें। जाते-जाते मोबाइल चलाना भी सिखा गईं। अब्बू को पता ना चले इसलिए दोनों ने मोबाइल को साइलेंट मोड में लगा दिया था। केवल वाइब्रेटर ऑन था। देते समय कहा, 'चलाना सीख जाना तो अपने हिसाब से कर लेना।'

हम बहनों के लिए यह मोबाइल किसी अजूबे से कम नहीं थे। उस दिन हम चारों बहनें खाने-पीने के बाद चिकनकारी के काम में लगे थे। पूरा दिन अम्मी के साथ निकाह की तैयारियों में निकल गया था। अम्मी थक कर चूर थीं, तो सो गईं। मगर चिकन का ऑर्डर था तो हम बहनें उसे ही पूरा करने में लगी रहीं । रात नौ बजे होंगे कि दोनों ही मोबाइल की लाइट ब्लिंक करने लगी । थरथराहट भी हो रही थी।

बड़ी दोनों बहनों ने मोबाइल हम छोटी बहनों के हाथ में थमा दिया। उन्हें संकोच हो रहा था। मगर हमें कॉल रिसीव करना भी नहीं आ रहा था। संकोच और नासमझी के चलते कॉल खत्म हो गई लेकिन हम रिसीव नहीं कर सके। अम्मी-अब्बू का डर अलग था। अम्मी तो खैर कुछ ना कहतीं लेकिन पता चलने पर अब्बू हमारी खाल खींच लेते। हम सब बहनें इस बात से भी डर रही थीं कि लड़के कहीं नाराज ना हो जाएं। उन्होंने इतने महंगे मोबाइल अपनी बहनों के हाथ भिजवाए हैं। हो ना हो बहनें भी इससे नाराज होंगी । कुछ ही समय बाद कॉल फिर आ गई।

कॉल आते ही एक बहन पानी के बहाने आंगन में गई कि, देख आए अब्बू-अम्मी सो रहे है कि नहीं। उसने लौटकर बताया कि दोनों लोग सो रहे हैं। अब्बू के कमरे से उनके खर्राटों की आवाज आ रही है। लेकिन तब-तक कॉल फिर खत्म हो गई। हम डर गए कि अब निश्चित ही नाराज हो जायेंगे । हम खुसुर-फुसुर आपस में बातें कर रहे थे।

काम भी करते जा रहे थे और तय हुआ कि इस बार कॉल रिसीव करनी है और जो हरा-लाल रिसीवर इसमें फुदकने लगता है। इसमें हरे वाले को ही पकड़ना है। हम बहनों का अंदाजा सही निकला। करीब तीन-चार मिनट के बाद फिर जैसे ही कॉल आई, दोनों मोबाइल वैसे ही बड़ी बहनों ने हम दोनों छोटी बहनों के हाथों में थमा दिया।

दोनों संकोच कर रही थीं। हम छोटी बहनें चुहुलबाजी पर उतर आई थीं। पहले तय बातों के अनुसार हमने हरे रिसीवर को छू लिया। कान में लगाया तो लड़की की आवाज आई। उसने तुरंत पहचान लिया और अपना परिचय देते हुए बताया कि वह लड़कों की बहन बोल रही है। फिर मोबाइल पर भी उसने सलाम किया और बड़े प्यार से दोनों बड़ी बहनों से बात कराने को कहा।

वह दोनों ही मोबाइल पर एक साथ थी। यानी दोनों मोबाइल उसने एक साथ कान से लगाए थे। हमने मोबाइल बड़ी बहनों को पकड़ा दिए। कुछ संकोच के साथ दोनों ने बात शुरू कर दी। पहले बहन ने कुछ देर बात की फिर लड़के लाइन पर आ गए। हम दोनों छोटी बहनें बड़ी बहनों के कान से अपने कान सटाए उनकी बातें सुन रही थीं । दोनों ही लड़के बड़ी शालीनता से बातें कर रहे थे।

पहले दिन की बातचीत करीब पन्द्रह मिनट चली। फिर यह सिलसिला चल निकला। दिन भर में चार-पांच बार से ज्यादा बातें होतीं। हम बहनें इसलिए बातें कर पा रही थीं क्योंकि अब अम्मी दिनभर कामों में व्यस्त रहतीं, बाहर रहतीं या घर के अगले हिस्से में। हमारे लिए राहत की बात थी तो सिर्फ इतनी कि हमारे तीनों भाई निकाह के बाद अलग रहने लगे थे। अब्बू से उन सबकी एक मिनट भी नहीं पटती थी। निकाह के पहले से ही। इतना ही नहीं, तीनों भाइयों ने घर भी एक ही दिन छोड़ा था। एक साथ किराए का मकान लिया था। फिर तीनों को लगा कि लखनऊ में रहकर कुछ ख़ास नहीं कर पाएंगे, तो जल्दी ही मुंबई निकल गए।

जाते समय सब कुछ देर को घर आए थे। अम्मी और हम सब से मिलने। इत्तेफ़ाक़ से अब्बू भी थे, तो उनसे भी मुलाकात हो गई। लेकिन अब्बू के तानों से उन सभी ने फिर किनारा कस लिया और नाराज होकर चले गए। जाते-जाते अम्मी के गले मिल कर गए थे। अब्बू पहले ही नाराज़गी जाहिर करते हुए कहीं बाहर चले गए थे। तीनों भाभियां भी खिंची-खिंची सी हम सबसे मिली थीं।

यह तीनों भाई घर पर ही होते, तो हम बहनों का इस तरह लड़कों से रोज-रोज बात करना संभव ना हो पाता। पहले दिन के बाद से ही जब भी कॉल आती तो बड़ी बहनें अपने-अपने मोबाइल लेकर कहीं कोनों में छिपकर बातें करतीं, देर तक। इस दौरान हम उनके चेहरों को कई बार सुर्ख होते अच्छी तरह देख लेते थे। हम बहनें जल्दी ही मोबाइल चलाने में पारंगत हो गई थीं ।

पहली बार मोबाइल पर ही हम पिक्चरें देख रहे थे। सीरियल देख रहे थे। जिनके बारे में पहले सिर्फ सुना ही करते थे। पहली बार हम जान रहे थे कि दुनिया कहां पहुंच गई है और हमारी दुनिया यही एकदम अंधेरी सी कोठरी है। लगता ही नहीं कि हम आज की दुनिया के हैं । हमें लगता कि जैसे हम नई दुनिया में पहुंच गए हैं। इस नई दुनिया को देखने और काम के चक्कर में हम बहनें तीन-चार घंटे से ज्यादा सो भी नहीं पा रही थी।

देखते-देखते दो महीने का समय बीत गया और बारात दरवाजे पर आ गई। खुशी के मारे हम सातवें आसमान पर थे। पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। शादी के जोड़ों में हमें दोनों बहनें हूर की परी लग रही थीं। उनके हसीन सपने उनकी आंखों में तैर रहे थे। पूरा घर मेहमानों से खचाखच ऐसे भरा था, जैसे कि मोबाइल की मेमोरी।

अब्बू की लापरवाही, खुदगर्जी के कारण अम्मी के कंधे पर दोहरा भार था। उनके कदम रुक ही नहीं रहे थे। कभी यहां, तो कभी वहां चलते ही जा रहे थे। मगर खुशी उनके भी चेहरे पर अपनी चमक बिखेर रही थी। बारातियों, मेहमानों का खाना-पीना खत्म हुआ। निकाह के लिए मौलवी जी पधारे कि तभी पूरे माहौल में मातमी सन्नाटा छा गया। अम्मी गश खाकर गिर गईं।

बड़ी मुश्किल से उनके चेहरे पर पानी छिड़क-छिड़क कर उन्हें होश में लाया गया। कुछ ही देर में पूरा माहौल हंगामाख़ेज़ हो गया। अब्बू ने निकाह पूरा किए जाने से साफ मना कर दिया। मौलवी और उनके स्वर एक से थे कि दूल्हे, उनका परिवार देवबंदी मसलक के हैं इसलिए यह निकाह नहीं हो सकता। तमाम हंगामें पुलिस-फाटे के बाद खर्चे का हिसाब-किताब हुआ और बारात बैरंग वापस लौट गई। दोनों बहनें गहरे सदमे में थीं।अम्मी बार-बार गश खाकर बेहोश होती जा रही थीं। अब्बू ने रिश्तेदारों, दोस्तों की इस बात पर गौर तक करना गवारा न समझा कि, निकाह होने दो, यह मसला कोई ऐसा मसला नहीं है, जिसका कोई हल ना हो। कोई ना कोई हल निकाल ही लिया जाएगा ।

पूरे घर में हफ़्तों मातमी सन्नाटा पसरा रहा। कई दिन तक अम्मी का गुस्सा अब्बू पर निकलता रहा। उन्होंने चीख-चीख कर कहा, 'तुमने हमारे बच्चों के दुश्मन की तरह काम किया है। तुमने जानबूझ कर निकाह खत्म कराया है।' एक दिन तो बात हाथापाई की स्थिति तक आ गई। अम्मी का गुस्सा उस दिन सबसे भयानक रूप में सामने था।

अब्बू भी सीधे-सीधे लगाए गए आरोपों से तिलमिला उठे थे। लेकिन अम्मी की एक-एक बात सच थी तो वह जवाब नहीं दे पा रहे थे और गाली-गलौज पर उतर आए। यह अम्मी के बर्दाश्त से बाहर था तो वह हाथापाई पर आईं। हम लड़किओं ने दोनों को अलग किया। निकाह रद्द होने के बाद हम बहनें यह सोचकर परेशान थीं कि उनका मोबाइल उन्हें कैसे वापस करें। तीन-चार दिन बीत गए थे, लड़कों की कोई कॉल नहीं आई। इस दौरान हम बहनें सन्नाटे में रहतीं। दोनों बड़ी बहनों की आंखों में हमें आंसू भी दिखाई देते।

बात करते-करते उन दोनों की आंखें बरसने लगतीं। दोनों मोबाइल अब हमें ऐसे लगते जैसे वह दोनों लड़के ही हमारे बीच बैठे हों। एक बार रात को मेरी नींद खुली तो मैंने बड़ी वाली को करवटें बदलते और कई बार मोबाइल चूमते हुए देखा।

यह देखकर मुझे उन पर बड़ा तरस आया। मन में आया कि खुद ही दोनों बहनों को उनके पास ले जाकर निकाह करा दूं। जैसे यह दोनों यहां तड़प रही हैं, वैसे ही वह दोनों भी तो तड़प रहे होंगे । बड़ी कोफ्त हुई कि अब्बू को आखिर क्या मिल गया निकाह खत्म कराकर। एक दिन मैंने बहनों से कहा कि, 'कहो तो फोन लगाऊं, बात करूं। हो सकता है वह लोग कोई रास्ता निकालें।' दोनों बहनें डरती रहीं। लेकिन मैंने देखा वह मना भी नहीं कर रही हैं, तो मैं समझ गई कि उनका जवाब क्या है। वह वही चाहती हैं जो मैं सोच रही हूं।

मैंने अगले दिन रात में उसी समय फोन लगाया जिस समय पहले बात हुआ करती थी। फोन बड़े वाले ने उठाया। मैंने बहुत झिझकते हुए उनसे जो कुछ हुआ उसके लिए माफी मांगी । अफसोस जाहिर किया। मेरा अनुमान था कि वह नाराज होंगे, लेकिन नहीं, वह पहले की ही तरह शालीनता से बोले, 'जो मुकद्दर में था वह हुआ। अफसोस या माफी की जरूरत नहीं है।' इसके बाद मैंने बहुत कहा कि, 'आपके मोबाइल, हम आप तक कैसे पहुंचाएं, समझ नहीं पा रहे हैं।' तो वह झिझकते हुए बोले, 'इसकी जरूरत नहीं है, हमने तोहफा दिया था। तोहफा वापस नहीं करते और ना ही लिए जाते हैं।'

इसी के साथ उन्होंने बहनों का हालचाल पूछ लिया तो मेरी हिम्मत बढ गई। मैंने कह दिया, 'बहुत ग़मगीन है।' मैंने लगे हाथ यह बोलकर ही दम लिया कि, 'आप अपने घर के बड़े -बुजुर्गों से बात करिए कि, वह अब्बू से मिलकर कोई रास्ता निकालें। सारी तैयारियां तो हैं ही। निकाह होने में समय नहीं लगेगा ।'

वह कुछ देर सोच कर बोले, 'हमें कोई गुंजाईश नहीं दिखती। आपके वालिद ने हमारे बुजुर्गों को बहुत जलील किया। इसलिए मैं तो बात करने की हिम्मत नहीं कर सकता। आपके वालिद ही पहल करें तो इतना यकीन के साथ कहता हूं कि मेरे वालिद रास्ता निश्चित ही निकाल लेंगे।' उनकी बात सुनकर मैंने सोचा मेरे वालिद इतना चाहते होते तो बात बिगाड़ते ही क्यों। उस दिन मैंने मौका देख कर दोनों बहनों की भी बात करवाई। दोनों ने जितनी देर बात की उतनी देर उनकी आंखों से आंसू निकलते ही रहे।

उनके आंसू देखकर मेरे मन में उनकी तकलीफ गहरे उतर गई। गुस्सा भी उतने ही गहरे उतरता जा रहा था। कोई रास्ता कैसे निकल सकता है मैं यह सोचने लगी। तीनों सो गईं, लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। अगले दिन सुबह मेरी नींद तब खुली जब अम्मी की आवाज कानों में गूँजी, ' बेंज़ी उठेगी भी, कि सोती ही रहेगी घोड़े बेचकर।' सच में उस दिन बहुत देर हो गई थी। नौ बज गए थे। बाद में पता चला कि उस दिन बाकी बहनें भी देर से उठी थीं।

उस दिन अम्मी का मूड कुछ सही देख कर, दोपहर को मैंने उनसे बात उठाई। मैंने साफ-साफ कहा, 'अम्मी अब्बू का जो रवैया है उससे तो बहनों का निकाह होने से रहा। इतना अच्छा घर-परिवार भी उन्होंने ठुकरा दिया। तू ही फिर कदम बढ़ा तभी कुछ हो पायेगा।' मैंने देखा कि अम्मी ने बड़ी गंभीरता से मेरी बात सुनी है, तो मैंने अपनी बात और आगे बढ़ाई । तब अम्मी बड़े गंभीर स्वर में बोलीं, ' कोशिश की तो थी जी-जान से। लेकिन इसने सब पर पानी फेर दिया। कहीं का नहीं छोड़ा हमें। हर तरफ कितनी बेइज्जती हुई, कितनी बदनामी हुई। अब और रिश्ता कहां से ढूंढ लें । इसके कर्मों के कारण लड़कों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है। कितनी बार बुलाया लेकिन कोई नहीं आया।

अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया है कि, इसके रहते तुम लोग बिना निकाह के ही रह जाओगी । इससे जान छुड़ाने की जितनी भी कोशिश की, यह उतना ही गले पड़ गया है।' अम्मी की इस बात ने मुझे हिम्मत दी। मैंने सीधे-सीधे कहा, 'अम्मी अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। लड़के वाले बड़े नेक हैं। अब भी चाहते हैं। तू अब्बू को अलग कर, खुद बात कर तो वह मान जाएंगे। तब चार लोगों को बुलाकर निकाह पढ़वा देना। हमें विश्वास है कि वह लोग नेक इंसान हैं, वह हमारी बात मान जायेंगे।'

मेरी बात पर अम्मी मुझे आश्चर्य से देखने लगीं । मैंने कोशिश जारी रखी। तीसरे नंबर वाली ने भी पूरा साथ दिया। दोनों बड़ी तटस्थ बनी रहीं। दो दिन की मेहनत के बाद मैंने सोचा कि अम्मी की बात कैसे कराऊं, दोनों मोबाइल का जिक्र तो किसी हालत में उनसे कर नहीं सकती थी। तो एक छोटा मोबाइल खरीदने के लिए तैयार कर लिया कि, मोबाइल लाकर उसी से बात करें।

लेकिन एक बार फिर हमारी उम्मीदों पर कहर टूट पड़ा । लड़कों के अब्बू मोबाइल पर ही कहर बनकर टूट पड़े । चीखने लगे । लानत-मलामत जितना भेज सकते थे, जितना जलील कर सकते थे, उतना करके फोन काट दिया। उनकी बातों से यह साफ़ जाहिर था कि उन्होंने लड़कों को धोखे में रखा, नहीं तो वो बात कराते ही नहीं । उनकी जाहिलियत भरी बातों से अम्मी को गहरा सदमा लगा । मुझे भी सदमा उनसे कम नहीं लगा था।

दिनभर और फिर रात को भी हम बहनों और अम्मी ने भी खाना नहीं खाया। चिकनकारी का काम बेमन से ही करते रहे, आखिर ऑर्डर पूरा करना था। वह लेट हो रहा था। रात काफी हो चुकी थी और हम काम में जुटे हुए थे। आपस में कोई बात भी नहीं कर रहा था। हम चारों के चेहरे ऐसे मातमी हुए जा रहे थे कि, मानो जैसे अभी-अभी किसी प्रिय को कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक करके आए हैं।

उस दिन हम बहनों ने दोनों मोबाइल पर ना तो कोई चैनल ऑन किया, ना ही कोई पिक्चर लगाई। मशीन की तरह अपना काम करते रहे। आधी रात होने वाली थी कि तभी एक मोबाइल की लाइट जलने-बुझने लगी । थरथराने लगा । नंबर पहचान कर हमने तुरंत कॉल रिसीव की। उधर से लड़के की आवाज सुनकर मैं अचंभे में पड़ गई, क्योंकि अब तो सब कुछ खत्म हो गया था। फिर क्यों कॉल की।

कॉल रिसीव करते ही उसने बड़े अदब से बात शुरू कर दी। मैंने तुरंत ही बहन को मोबाइल दे दिया। दोनों ही भाइयों ने बहनों से बात की। फिर यह सिलसिला रोज का हो गया। बहनों के चेहरे से उदासी रोज ब रोज कम होती जा रही थी। हमें बड़ी तसल्ली हो रही थी कि अब बुजुर्गों की बजाय जवान अपने रास्ते तलाशने में लगे हैं।

यह सब होते-होते महीना भर बीत रहा था और गर्मी दिन पर दिन बढती जा रही थी। जुम्मे का दिन था। हम अपने बिस्तर में ही दुबके हुए थे। आसमान में एक-दो तारे अब भी दिखाई दे रहे थे। चिड़ियों की चहचहाहट शुरू हो गई थी। घर के बाहर सड़क पर एक पुराने बड़े पीपल के पेड़ पर इन पक्षियों का बसेरा था।

अचानक अम्मी की तीखी तेज़ आवाज़ में पंछियों की चहचहाहट गुम हो गई । वह चीख रही थीं कि, 'यह दरवाजा रात भर से खुला है क्या? कौन उठा है? बोलती क्यों नहीं तुम सब।' मगर हम सांसें रोके पड़ी रहीं। अम्मी कमरे के पास आकर चीखीं तो मैंने कहा, ' बंद तो किया था। अप्पी उठी होंगी।'  ' अरे उठी होंगी तो दरवाजा क्यों खुला है, कोई बाहर गया है क्या ?' इतना कहते-कहते अम्मी हमारे बिस्तर के पास आकर खड़ी हो गईं। दोनों अप्पी के बिस्तर खाली थे। अम्मी फिर दहाड़ीं, ' अरे कहां गई दोनों, गुसलखाने में भी नहीं हैं।'