बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 4 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 4

भाग -४

देखते-देखते पूरा घर छान मारा गया। लेकिन दोनों अप्पी नहीं मिलीं। 'कहाँ गईं, जमीन निगल गई या आसमान ले उड़ा । या अल्लाह अब तू ही बता कहां हैं दोनों...।' अम्मी माथा पीटते हुए जमीन पर बैठ गईं। अब्बू ने न आव देखा ना ताव हम दोनों ही बहनों को कई थप्पड़ रसीद करते हुए पूछा, ' तुम चारों एक ही कमरे में थीं, वो दोनों लापता हैं और तुम दोनों को खबर तक नहीं है। सच बताओ वरना खाल खींच डालूंगा तुम दोनों की।'

हम दोनों ही छोटी बहनें मार खाती रहीं, लेकिन कुछ बोले नहीं, सिवाय इसके कि, ' हम नहीं जानते। हम तो साथ सोए थे। दोनों कब उठीं हमें नहीं पता।' चिमटे के कई निशान हमारे बदन पर उतर आए थे लेकिन हमारे जवाब नहीं बदले। बदल भी नहीं सकते थे, आखिर हम दोनों ने, दोनों अप्पियों से वादा किया था कि हमारे शरीर से पूरी की पूरी चमड़ी भी उधेड़ ली जायेगी, तब भी हम कुछ नहीं बोलेंगे ।

दोपहर होते-होते अब्बू अपने भरसक हर उस जगह हो आए थे जहां भी उन्हें जरा भी शक था। पूरी कोशिश यह भी करते रहे कि मोहल्ले में किसी को खबर ना हो। अम्मी घर पर कभी इधर, तो कभी उधर बैठकर रोतीं। हम दोनों को, तो कभी उन दोनों को कोसतीं। उन्होंने अब्बू से पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने के लिए कहा, तो वह दांत पीसते हुए बोले, 'चुप कर, और तमाशा बनवाएगी । पहले तूने खूब बनवाया, अब तेरी कमीनी औलादें तमाशा बनवा रही हैं।' अब्बू पुरानी बातें लेकर झगड़े पर उतर आए। खूब तमाशा कर, हम दोनों को फिर मारपीट कर कहीं चले गए। हमें मार-मार कर वह अधमरा ही कर देते यदि अम्मी बीच में ना होतीं।

शाम को एक नया कोहराम मच गया। इसका अंदाजा हमें पहले से ही था। अब्बू ने शक के आधार पर लड़कों के बारे में पता किया। किसी के जरिए उन्हें सच मालूम हो गया कि दोनों अप्पी उन्हीं दोनों लड़कों के साथ दूर कहीं अपना आशियाना बनाने के लिए निकल गई हैं। दोनों लड़कों ने शहर छोड़ने के बाद अपने घर वालों को फोन करके बता दिया था। बाद में यह भी पता चला कि अपने घर वालों को यह भी हिदायत दे दी थी कि वह सब अपनी मर्जी से जा रहे हैं। सोच समझकर जा रहे हैं। यदि किसी को परेशान किया गया तो वह कोर्ट भी जा सकते हैं।

उन सबने अपने मोबाइल बंद कर दिए थे। हमसे भी कहा था कि मोबाइल मामला शांत होने तक नहीं खोलना। अपने नए आशियाने की तलाश में उन्हें मुंबई पहुंचना था तो वह वहां पहुंच गए। बहनों और अपने अपने टेलरिंग हुनर के सहारे उन्हें वहां अपनी दुनिया को सजाने संवारने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी ।

यहां अब्बू-अम्मी तो वहां उनके वालिद माथा ठोंक कर बैठ गए कि सारे बच्चे बालिग हैं। इसलिए पुलिस में भी जाने का कोई फायदा नहीं है। अब हम दोनों बहनों पर पाबंदियां और सख्त हो गईं। रात सोते वक्त मुख्य दरवाजे पर ताला लगने लगा । दोनों बहनों के जाने से पैसों की किल्लत बढ़ने लगी । क्योंकि अब काम आधा हो रहा था तो आमदनी भी आधी हो गई थी।

अम्मी की आंखें अब साथ नहीं दे रही थीं। अब्बू को गठिया बड़ी तेज़ी से जकड़ रहा था। साथ ही काम धंधे के प्रति लापरवाह भी और ज्यादा हो गए। उनका यह रवैया तभी से हो गया था, जब से काम हम चारों बहनों ने संभाल लिया था। हम दोनों बहनों की हालत अब कोल्हू के बैल सरीखी हो गई थी। खाना-पीना, काम, बस और कुछ नहीं। कढाई करते-करते, नींद पूरी न होने से हमारी आंखों के नीचे स्याह थैलियां बन गई थीं। हां एक चीज और अम्मी अब्बू के ताने गालियां अब पहले से ज्यादा मिल रही थीं। हम दानों बहनों को महीनों हो जाते दरवाजे से बाहर दुनिया देखे, छत पर भी जा नहीं सकते थे। वहां भी ताला पड़ा था।

बाहर की दुनिया हम उतनी ही देख पाते थे जितना आंगन में खड़ी होकर ऊपर आसमान दिख जाता था। वह भी तब, जब आंगन में अम्मी-अब्बू कोई ना रहे। अप्पी खीझ कर कहतीं, ' गलती की हमने। अप्पी के साथ हम दोनों भी निकल जाती तो अच्छा था। दोनों मुकद्दर वाली थीं। अच्छे चाहने वाले शौहर मिल गए। अपनी दुनिया, अपने घर में, अपने मन की ज़िन्दगी जी रही हैं। यहां हम कीड़े-मकोड़ों की तरह अंधेरे कोने में पड़े हैं। धूप तक नसीब नहीं होती। ईद तक पर तो बाहर निकल नहीं पाते। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर। बदकिस्मती भी हमारी इतनी कि कोई...।' इतना कहकर अप्पी सुबुकने लगतीं। मोटे-मोटे आंसू उनकी बड़ी-बड़ीआँखों से गिरने लगते थे। जिन्हें बड़ी देर बाद रोक पाती थीं।

मगर उनके यह आंसू बेकार नहीं गए। एक दिन अम्मी-अब्बू में बहुत तीखी नोकझोंक, गाली- गलौज हुई। हम अम्मी को अपने कमरे ले आए। वह अपने मुकद्दर को कोसते हुए रो रही थीं कि, ' न जाने वह कौन सी नामुराद घड़ी थी जो इस जालिम, जाहिल के जाल में फंस गई। गले का पत्थर बना पड़ा हुआ है।'

वह खूब रोते हुए दोनों अप्पियों का नाम लेकर बोलीं, ' इसी के चलते वह दोनों इस हाल को पहुंचीं, पता नहीं कहां हैं, किस हाल में हैं, ज़िंदा भी हैं कि नहीं।' उनके इतना बोलते ही मेरे मुंह से निकल गया कि, 'बिलकुल ठीक हैं। तुम परेशान ना हो।' मेरे इतना कहते ही वो एकदम चौंककर मुझे देखने लगीं । तो मैंने फिर कहा, ' दोनों अप्पियां ठीक हैं। तुम परेशान ना हुआ करो।' फिर मैंने छोटे वाले मोबाइल से उनकी बात भी करा दी। लेकिन दोनों बड़े मोबाइल के बारे में, और बाकी कुछ नहीं बताया।

इतना भर कहा कि, छोटे वाले मोबाइल का नंबर उन लोगों के पास था। उनका एक दिन फोन आया, तब पता चला। इस बातचीत का सिलसिला आगे चलता रहे मैं यही चाहती थी। कोशिश भी की। लेकिन नहीं हो सका। बस कभी-कभार हाल-चाल भर की बातें हो पाती थीं। शायद दोनों बहनोई नहीं चाहते थे। थोड़ा सा अम्मी का व्यवहार भी ज़िम्मेदार था। वह पुरानी बातों को लेकर शुरू हो जाती थीं, और माहौल गर्मा जाता था।

बार-बार यही होता था तो बहनोइयों ने भी हाथ खींच लिया। हालांकि हम बहनों के बीच छुपे तौर पर बातें अक्सर हो जाती थीं। साल बीतते-बीतते अम्मी ने एक दूर के चचा जात भाई के रिश्तेदार से बेहद साधारण ढंग से तीसरी अप्पी का निकाह कर दिया। लड़के की पहली दो बेगमें जचगी के दौरान गुजर गईं थीं। उनकी ठीक-ठाक कमाई थी। तो अम्मी ने बात चलते ही निकाह करने में देर नहीं की।

अब मैं एकदम अकेली पड़ गई। काम कई गुना ज्यादा बढ़ गया। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मैं उतना काम नहीं कर पा रही थी जितना कि पहले कर लिया करती थी। इस कारण काम पिछड़ता जा रहा था और आमदनी घटती जा रही थी। इतनी घटी कि खाना-पीना और अम्मी-अब्बू की दवा-दारू के भी लाले पड़ने लगे । तो आखिर आधा मकान अम्मी ने किराए पर दे दिया।

एक कमरे में मैं और चिकन का सारा काम। आंगन में एक कामचलाऊ दीवार उठवा दी गई। मकान में दो हिस्से हो गए। गुसलखाना, आने-जाने का रास्ता साझा था। मेरे कमरे का जो दरवाजा दूसरे कमरे की तरफ खुलता था अम्मी ने उसमें ताला जड़ दिया। एक बड़ा बकस जो पूरे बेड के बराबर था उसको दरवाजे से चिपका कर रख दिया। अपनी जान उन्होंने हर वह इंतजाम किया जिससे मुझ तक परिंदा भी पर ना मार सके। उधर के हिस्से में किराएदार आकर रहने लगा । अम्मी के ही दूर के रिश्तेदार थे। एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी की बस में क्लीनर थे। बस किसी कम्पनी से अटैच थी।

किराए से मिलने वाले पैसों से किसी तरह गुजर-बसर होने लगी । मगर दवा के बढ़ते खर्च के आगे सारी आमदनी कम पड़ती जा रही थी। अम्मी की मेरे निकाह को लेकर चिंता बढ़ती जा रही थी। देखते-देखते उनकी सेहत इतनी तेज़ी से बिगड़नी शुरू हुई कि वह बाहर जाने, कच्चा माल लाने, बना हुआ देकर आने की स्थिति में नहीं रहीं।

अब्बू जाते तो सारा पैसा गायब हो जाता। जो भी पैसा उनके हाथ लगता वह उसे सट्टे में उड़ा देते। सेहत उनकी भी उनसे दूर होती जा रही थी। मेरे लिए बदकिस्मती जैसे इतनी ही काफी नहीं थी। सट्टेबाजी में कहीं लेनदेन को लेकर अब्बू मारपीट का शिकार हो गए। गिर पड़े, या जाने क्या हुआ कि सीने पर कई जगह गंभीर चोटें आईं। हॉस्पिटल में महिना भर भर्ती रहे, लेकिन फिर घर लौटकर नहीं आ पाए। मरनी-करनी सब मिलाकर बहुत कर्जा हो गया।'

' यह तो आपके परिवार पर ऊपर वाले की बड़ी तगड़ी मार थी। कैसे संभाला खुद को।'

' हाँ, इतनी तगड़ी मार थी कि दो जून की रोटी भी मुश्किल में पड़ गई । दोनों जून चूल्हा जल सके इसके लिए जरूरी था कि चिकन का धंधा चलता रहे। इस लिए मुझे कदम निकालने पड़े ।

शुरू में बड़ी दिक्कत आई लेकिन मैं गाड़ी को पटरी पर ले ही आई। अब मेरे जिम्मे किराएदार, काम, खाना-पीना सब आ गया। सांस लेने को भी फुर्सत नहीं मिलती थी। अब्बू के जाने के बाद एकदम बाहर का कमरा ठीक-ठाक कराया। उसमें रोजमर्रा की चीजों की दुकान खोल दी। एक छोटा तखत डाल दिया। जिस पर आराम से बैठकर अम्मी दुकान संभालने लगीं । मुझे बड़ी कोफ़्त होती, बड़ा दुख होता, जब याद आता कि पैसे की गंभीर तंगी के चलते अब्बू का ठीक से इलाज नहीं हो सका। मैं ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठा करने का अब कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती थी। क्योंकि मुझे हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी थी।

बड़ी बहनों ने तो हालचाल लेना ही बंद कर दिया था। अब्बू के इंतकाल की सूचना पर दोनों ने फोन पर ही रो-धो कर मातमपुर्सी कर ली थी। कभी-कभार तीसरी वाली ही खैर-सल्लाह ले लिया करती थी। मगर बदकिस्मती यहां भी साथ-साथ बनी रही। उसके एक बेटा हुआ था। दोनों मां-बेटे स्वस्थ थे। मगर कुछ महिनों बाद अप्पी चिकनगुनिया बुखार में चल बसीं। तब बेटा बमुश्किल छः महीने का था। उनका शौहर चाहता था कि अब मैं उससे निकाह कर लूं। लेकिन अम्मी से पहले ही मैंने मना कर दिया। उन्होंने लाख कोशिशें कीं लेकिन मैं नहीं मानी। असल में अप्पी ने कई बार रो-रो कर उनकी एक घिनौनी हरकत के बारे में बताया था । वह बिस्तर पर अपनी अननेचुरल हरकतों से उन्हें बहुत सताते थे। बहुत तक़लीफ़ देते थे, इससे मुझे उनके नाम से ही नफ़रत होती थी। उसके बच्चे को जब अप्पी थीं, तब मैंने दो बार गोद में लिया था।

इसलिए उसकी बार-बार याद आती कि पता नहीं मासूम किस हाल में होगा । भूलती तो किराएदार का सात-आठ महीने का बच्चा जब रोता या उसकी किलकारी सुनाई देती तो फिर उसकी याद आ जाती। असल में किराएदार की एक और बात भी मेरा ध्यान खींचती थी कि इन सबके बीच मैं खुद कहा हूं। जब मियां-बीवी रात को एकांत में खुशमिजाज होकर बातें करते तो मुझे सब सुनाई देता था। धीरे से करते थे तब भी। अम्मी का ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया था कि, यह दरवाजे का पर्दा है, दूसरी तरफ एक जवान मियां-बीवी हैं तो उनकी बातें, आवाज़ें यह कहां रोक पायेगा ।

अम्मी दिनभर की थकी-मांदी सो जाती थीं। उनके कमरे के बाद आंगन फिर मेरा कमरा था। चिकनकारी के लिए एक छोटी सी लाइट थी, जिसे पुराना टेबल लैंप कह सकते थे। उसी से काम चलाती थी। उससे लाइट सीधे वहीं पर पड़ती थी जहां मुझे चाहिए होती थी। मेरा ध्यान हमेशा इस पर रहता था कि ज्यादा लाइट के चक्कर में बिजली का बिल न बढे ।

मैं यह बात खुल कर कहती हूं कि यह दरवाजा मुझे बड़ी हीअजीब स्थितियों में ले जाने, कुछ मामलों में मेरी सोच को बदलने का कारण बना। और आपको सच बताऊं कि आखिरी सांस तक यह दरवाजा मेरे ज़ेहन से निकलेगा नहीं।'

'क्यों, ऐसा क्या था उस दरवाजे में जो वह आपके पूरे जीवन में साथ बना रहेगा।आखिर एक दरवाजा....।'

मैं बहुत तल्लीनता के साथ बड़ी देर से बेनज़ीर को सुन रहा था। दरवाजे का ऐसा ज़िक्र सुनकर मैं अचानक ही बोल पड़ा। तब वह कुछ देर शांत रहीं। फिर गौर से मुझे देखकर बोलीं, ' समझ नहीं पा रही हूं कि बोलूं कि नहीं।'

' जब बात जुबां पर आ ही गई है तो बता ही दीजिए, क्योंकि यह जब इतनी इंपोर्टेंट है कि आपके जीवन भर साथ रहेगी तो इसे कैसे छोड़ सकते हैं।'

' सही कह रहे हैं। असल में एक रात मैं काम में जुटी हुई थी, कि तभी कुछ अजीब सी आवाज़ें, दबी-दबी हंसी सुनाई दी, जो बड़ी उत्तेजक थीं। मैं बार-बार सुन रही थी दरवाजे के उस तरफ की आवाज़ें । आखिर मैं दबे पांव दरवाजे से लगे रखे बक्से पर बैठ गई। और जो लैंप था उसे एकदम जमीन की तरफ कर दिया। दरवाजे पर मोटा सा जो पर्दा डाला गया था कि, लाइट इधर-उधर ना आए-जाए उसे हल्का सा हटाकर दरवाजे की झिरी से उधर देखा तो देखती ही रह गई।'

' क्यों ?ऐसा क्या था उस तरफ।'

' मैं पूरे दावे के साथ कह रही हूं कि, उस तरफ जो था, उस पर नजर पड़ने के बाद कोई देखे बिना हट ही नहीं सकता था।'

'आप यह भी कहिए कि, इतना सुनने के बाद कोई पूछे-जाने बिना रह भी नहीं सकता। तो बताइए क्या था उस तरफ। '