यादों के उजाले - 5 - अंतिम भाग Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

यादों के उजाले - 5 - अंतिम भाग

यादों के उजाले

लाजपत राय गर्ग

(5)

प्रह्लाद नौकरी पाने में सफल रहा। नौकरी लगने के पश्चात् उसके विवाह के लिये रिश्ते आने लगे। वह टालमटोल करता रहा। एक रविवार के दिन विमल प्रह्लाद से मिलने उसके घर आया हुआ था। मंजरी ने मौक़ा देखकर बात चलायी - ‘विमल, अब तुम दोनों विवाह कर लो। बहुओं के आने से घरों में रौनक़ आ जायेगी।’

‘दीदी, मैं तो तैयार हूँ। किसी अच्छी लड़की का रिश्ता आने की बाट जोह रहा हूँ। लेकिन, प्रह्लाद के लिये तो अभी आपको डेढ़-दो साल इंतज़ार करना पड़ेगा।’

प्रह्लाद ने विमल की तरफ़ आँखें तरेरीं, किन्तु विमल अपनी रौ में ही बोलता चला गया।

मंजरी को विमल की बात में कुछ रहस्य की भनक लगी, सो उसने पूछा - ‘वो क्यूँ?’

‘इसने जो लड़की पसन्द कर रखी है, वह एमबीबीएस कर रही है।’

मंजरी - ‘प्रह्लाद, तूने तो कभी ज़िक्र नहीं किया?’

प्रह्लाद संकोच में चुप रहा। विमल ने ही बात आगे बढ़ायी - ‘दीदी, पिछले दिनों जो हम जयपुर गये थे तो उसी के निमन्त्रण पर गये थे। .... दीदी, लड़की क्या है, गुणों की खान है।’

‘लेकिन, प्रह्लाद उससे मिला कैसे?’

तब विमल ने सारा क़िस्सा कह सुनाया। सारी बातें सुनने के पश्चात् मंजरी ने अपनी शंका निवारण हेतु प्रश्न किया - ‘विमल, तुझे लगता है कि रवि के पैरेंट्स इस रिश्ते को परवान चढ़ने देंगे?’

‘दीदी, रवि इकलौती सन्तान है। वह अपनी बात मनवा भी सकती है। वह प्रह्लाद के प्रति पूर्णतया समर्पित है। .... उसके एमबीबीएस करने तक तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा।’

.......

एमबीबीएस की फ़ाइनल परीक्षा देकर जब रवि घर आई तो उसके माँ और पापा ने उसके विवाह की बात की। पहले तो रवि ने कहा कि अभी उसे पीजी करना है तो उसके पापा चौधरी हरलाल ने कहा - ‘रवि बेटा, पीजी तो तू विवाह के बाद भी कर सकती है।’

‘पापा, एक बार पीजी में एडमिशन मिल जाये, उसके बाद विवाह की सोचूँगी।’

चौधरी हरलाल भी समझता था कि पीजी के एडमिशन से पहले विवाह ठीक नहीं, अत: उसने विवाह का प्रसंग पुनः नहीं उठाया।

एक दिन जब चौधरी हरलाल कहीं गया हुआ था और घर पर माँ-बेटी के अलावा अन्य कोई नहीं था तो रवि ने माँ के समक्ष अपने मन की बात कह दी और जता दिया कि विवाह करूँगी तो प्रह्लाद के साथ ही, वरना नहीं करूँगी। प्रह्लाद की पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि के विषय में जानकर तथा रवि का दृढ़ निश्चय सुनकर माँ दुश्चिंता में पड़ गयी।

सोते समय रवि की माँ ने चौधरी हरलाल के साथ अपनी दुश्चिंता साझा की। वह आवेश में आकर कोई निर्णय नहीं लेता था। उसने अपनी पत्नी को कहा - ‘इस समस्या पर विचार करने का यह उचित समय नहीं है। सुबह मैं रवि को समझाऊँगा। मुझे पूरा यक़ीन है कि वह मेरी बात को नहीं टालेगी।’

इतना कहकर वह करवट बदलकर सोने की कोशिश करने लगा। चाहे उसने पत्नी को आराम से सोने की सलाह दी थी, किन्तु स्वयं उसका मन शान्त नहीं हो पाया।

सुबह नाश्ता करने के बाद हरलाल ने ‘बैठक’ की ओर जाते हुए कहा - ‘रवि बेटे, नाश्ता करने के बाद थोड़ी देर के लिये ‘बैठक’ में आना।’

जब रवि आयी तो पीछे-पीछे माँ भी चली आयी और एक तरफ़ बैठ गयी। हरलाल ने बड़ी सहजता से बात चलायी - ‘रवि, तेरी माँ कह रही थी कि तू किसी लड़के को चाहती है। क्या करता है वो लड़का और तेरा उसके साथ क्या सम्बन्ध है?’

अपनी पत्नी के मुख से सारा क़िस्सा सुना होने के बावजूद हरलाल ने रवि के सामने सवाल रखा। रवि समझती थी कि पापा सब बातें जानते हैं, फिर भी उसने प्रह्लाद के साथ अपने सम्बन्धों तथा प्रह्लाद के विषय में सब कुछ दोहरा दिया। उसे सुनने के पश्चात् हरलाल कुछ देर मौन रहे। जैसे मन-ही-मन तौल रहे हों कि उसकी बातें कहाँ तक असर करेंगी! फिर कहा - ‘रवि, विवाह का निर्णय केवल भावुकता के वश होकर नहीं लिया जाता। विवाह एक ऐसा बँधन है जो दो व्यक्तियों के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि दो परिवारों तथा आगामी पीढ़ियों के जीवन पर भी असर डालता है। जैसा तुमने बताया, प्रह्लाद अपनी बिरादरी का नहीं है। दूसरे, वह एक क्लर्क मात्र है जबकि तुम एक डॉक्टर हो। व्यावहारिक स्तर पर यह सम्बन्ध किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। पहली बात तो यह है कि हम गाँव में रहते हैं, यहीं हमें सारी उम्र रहना है। औरों की तो छोड़ो, तेरे चाचा-ताऊ ही हमसे सम्बन्ध तोड़ लेंगे। दूसरी बात यह है कि प्रह्लाद एक क्लर्क है, उसकी पैतृक सम्पत्ति शून्य है। वह सदा तुम्हारा मोहताज रहेगा। इससे सम्बन्धों की मिठास कड़वाहट में बदलते देर नहीं लगती।’

‘पापा, समय बहुत बदल गया है। बिरादरी की इच्छा नहीं, विवाह के लिये विवाह करने वाले दो व्यक्तियों की इच्छा अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि उनके मन मिल गये तो अन्य व्यवधान अपने आप दूर हो जाते हैं। जहाँ तक प्रह्लाद और मेरी आर्थिक स्थिति का सवाल है तो जब एक पति अपनी पत्नी को हर तरह से सपोर्ट कर सकता है तो एक पत्नी अपने पति को यदि सपोर्ट करती है तो इसमें बुराई कहाँ है? .... प्रह्लाद बहुत इंटेलीजेंट है। घर के हालात की वजह से वह आगे पढ़ नहीं पाया। मेरा साथ मिलने के बाद वह आगे पढ़ेगा भी और अच्छी नौकरी भी उसे मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।’

‘बेटे, जो ये बातें तुम कर रही हो, कहने-सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं, किन्तु जब ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों से सामना होता है तो ऐसे आदर्श चकनाचूर होते देर नहीं लगती।’

‘पापा, मैं प्रह्लाद को अपना चुकी हूँ। मन एक बार ही किसी का होता है। मैं विवाह करूँगी तो केवल प्रह्लाद से, नहीं मैं कँवारी ही रहूँगी।’

हरलाल रवि से बेहद प्यार करता है। इतनी निर्णायक बात सुनकर अन्दर तक विचलित हो उठा। फिर भी उसने कहा - ‘रवि बेटे, मैं चाहता हूँ कि तुम ठंडे दिमाग़ से मेरी सारी बातों पर गौर करना। उम्मीद है, तुम सही निर्णय ले पाओगी!’

.......

वह रात रवि ने अन्तर्द्वन्द्व में ही गुज़ारी। एक तरफ़ माँ-बाप का लाड़-प्यार था तो दूसरी तरफ़ प्रह्लाद का नि:स्वार्थ व पवित्र प्रेम। रात करवटें बदलते गुजरी थी, अत: ताज़ा हवा में साँस लेने के इरादे से मुँह-अँधेरे आँगन में निकली। भोर का तारा अभी भी आकाश में गुजरती रात की पहरेदारी कर रहा था जबकि अन्य तारे अपना अस्तित्व छिपा चुके थे। रवि ने मन में निर्णय लिया कि आज प्रह्लाद से मिलकर उसे वास्तविकता से अवगत करवाना है।

ऑफिस खुलने से कुछ समय पूर्व रवि ने प्रह्लाद के मोबाइल पर कॉल किया। हैलो-हॉय के पश्चात् रवि ने पूछा - ‘पप्पी, आज की छुट्टी ले सकते हो?’

‘हाँ, लेकिन क्यों?’

‘मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ।’

‘कहाँ?’

‘मैं आ रहीं हूँ तुम्हारे पास।’

‘कब तक पहुँच रही हो?’

‘दो-एक घंटे में। कहाँ मिलोगे?’

‘सीधे घर ही आ जाना। मंजरी दीदी भी तुमसे मिलना चाहती हैं।’

फ़ोन काटकर जब प्रह्लाद ने मंजरी को रवि के आने के बारे में बताया तो उसने फटाफट दोपहर के खाने का प्रबन्ध कर लिया तथा चाय के साथ रखने के लिये मिठाई आदि लाने के लिये प्रह्लाद को कहा।

दो घंटे हुआ ही चाहते थे कि घर के बाहर कार का हॉर्न बजा। प्रह्लाद लपककर बाहर आया। रवि के चेहरे पर गम्भीरता के चिन्ह लक्ष्य कर प्रह्लाद ने पूछा - ‘रवि, ख़ैरियत तो है?’

‘अन्दर चलो, बताती हूँ।’

दो कमरों वाले घर में रवि को प्रह्लाद और बच्चों वाले कमरे में ही बिठाया गया। मंजरी के आते ही नमस्ते का आदान-प्रदान हुआ। जब मंजरी चाय बना रही थी तो रवि ने बिना कोई खुलासा किये कहा - ‘पप्पी, मैं तुमसे क्षमा माँगने आयी हूँ।’

‘क्षमा! मगर किस बात की?’

तब रवि ने सारी बातें प्रह्लाद के समक्ष रखी। बोलते-बोलते उसका गला ही नहीं रुँधने लगा, उसकी आँखें भी भर आयीं। प्रह्लाद ने अपनी हथेली से उसकी आँखें साफ़ कीं। जब वह ऐसा कर रहा था, तभी मंजरी ने चाय के साथ प्रवेश किया। उसने स्थिति का अंदाज़ा लगाकर बिना कुछ पूछे चाय का एक कप रवि की ओर बढ़ा दिया। रवि ने कप पकड़ कर टेबल पर रखा और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी। मंजरी ने मिठाई और नमकीन की तश्तरी उसके सामने की, लेकिन उसने थोड़े-से नमकीन के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया।

ख़ाली कप टेबल पर रखने के पश्चात् मंजरी ने प्रह्लाद की ओर सवालिया नज़रों से देखा। रवि ने जो कुछ बताया था, प्रह्लाद ने उसे संक्षिप्त में मंजरी को बताया। जब प्रह्लाद बोल रहा था, रवि सिर नीचा किये रही। प्रह्लाद ने जब बोलना बन्द किया तो मंजरी के मुख से निकला - ‘ओह!’

रवि - ‘दीदी, मैं चाहती हूँ कि आप प्रह्लाद की किसी अच्छी लड़की से शादी कर दें। इनका जीवन ख़ुशियों से भरपूर हो, उसी से मुझे ख़ुशी मिलेगी।...... अच्छा, अब मैं चलती हूँ।’

‘ऐसे कैसे? मैंने खाना बना रखा है।’ मंजरी ने आग्रह किया।

‘दीदी, खाने के लिये क्षमा करें। लंच तक न पहुँची तो मम्मी परेशान होंगी, क्योंकि मैं बिना बताये आयी हूँ।’

फिर मंजरी ने कुछ नहीं कहा। प्रह्लाद रवि को बाहर तक छोड़ने आया। उसने उसका हाथ दबाते हुए कहा - ‘रवि, मैं तुम्हें कभी भुला नहीं पाऊँगा।’

‘पप्पी, तुम आम युवाओं से बिल्कुल अलग हो। तुमने मेरी देह से प्रेम नहीं किया, बल्कि मेरी आत्मा में अपनी पैठ बनायी है। इसलिये तुम्हारी यादें ही अब मेरे जीवन का अवलम्बन रहेंगी।’

........

सुबह से शाम हो गयी, किन्तु रेणुका की स्थिति जस की तस रही। मंजरी और प्रह्लाद चिंतित तो थे, लेकिन वे सिवा प्रतीक्षा के कुछ नहीं कर सकते थे। हाँ, डॉ. रवि के कारण वे आश्वस्त भी थे। जैसे ही शाम का राउंड लेने के बाद डॉ. रवि अपने केबिन में पहुँची, उसने अटेंडेंट को प्रह्लाद को बुलाने के लिये भेजा। प्रह्लाद के आने पर उसे समझाया - ‘पप्पी, रेणुका को लेकर तुम्हारी एंग्जाइटी को मैं समझती हूँ। पेन्स बीच-बीच में बिल्कुल मंद पड़ जाते हैं। पेन्स इंडूस करने वाले इंजेक्शन का भी कोई असर नहीं हुआ। कहो तो रात भर इंतज़ार कर सकते हैं। वैसे मेरी राय में बिना देरी के सीजेरियन ऑपरेशन करना माँ और बेबी के लिये एडवाइजेबल है।’

‘रवि, पहली डिलीवरी है, रेणुका की जान को तो कोई रिस्क नहीं ना?’

प्रह्लाद की चिंता देखकर डॉ. रवि का मन भी क्षणभर के लिये भावुक हो उठा, किन्तु उसने मनोभावों को अपने तात्कालिक कर्त्तव्य पर हावी नहीं होने दिया और प्रह्लाद को आश्वस्त करते हुए कहा - ‘पप्पी, तुम्हें अपनी रवि पर विश्वास है या तुम्हारे सामने मैं सिर्फ़ एक डॉक्टर हूँ?’

‘रवि, यह कैसी बात कह दी तुमने! किसी वक़्त मैं ख़ुद पर अविश्वास कर सकता हूँ, लेकिन तुम पर कभी नहीं।...... रवि, ऑपरेशन में ब्लड की ज़रूरत भी पड़ सकती है?’

‘हाँ, पड़ सकती है, लेकिन तुम्हें उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। मैं हूँ ना!’

इसके साथ ही उसने लेबर रूम में ड्यूटी दे रही नर्स को बुलाया और ऑपरेशन के लिये उसे आवश्यक हिदायतें दीं।

आम व्यक्ति के लिये ऑपरेशन का नाम ही बहुत बड़ा होता है। डॉ. रवि द्वारा आश्वस्त करवाने के बावजूद प्रह्लाद के हृदय की धड़कन तेज हो गयी। उसकी यह स्थिति तब तक बनी रही जब डॉ. रवि ने आकर उसे तथा मंजरी को बधाई दी और कहा कि वह एक परी जैसी बिटिया का पापा बन गया है। प्रह्लाद ने हृदय से धन्यवाद करते हुए पूछा - ‘डॉक्टर, रेणुका कैसी है?’

‘सकुशल है। अभी एक घंटे बाद तुम माँ और बेटी से मिल सकोगे,’ कहकर डॉ. रवि कमरे से बाहर चली गयी।

मंजरी - ‘प्रह्लाद, तुम तो यहाँ हो ही, मैं घर से रेणुका के खाने के लिये भी कुछ बना लाती हूँ।’

डॉ. रवि अपने केबिन में आयी। उसने कॉफ़ी मँगवाई और कॉफी पीते हुए सोचने लगी - जब नर्स से पकड़कर बिटिया को मैंने अपने सीने से लगाया तो मेरे सीने की धड़कन अचानक तेज हो गयी थी। काश कि सामाजिक भेदभाव और आर्थिक खाई को दर-किनार करके मैंने पप्पी को अपना बना लिया होता तो यह बिटिया मेरी कोख से भी जन्म ले सकती थी! तत्क्षण मन ने कहा - रवि, जब तुमने अपने प्यार के लिये इतना बड़ा त्याग किया है तो इस तरह सोचना भी बेमानी है। हाँ, तुम इतना अवश्य कर सकती हो कि इस बिटिया के जीवन की दिशा को अपने मन-मुताबिक़ निर्धारित कर सकती हो।

डॉ. रवि अपनी टेबल पर सिर टिकाये उपरोक्त विचारमग्न थी कि प्रह्लाद ने दरवाजा खोलकर प्रवेश किया।

‘रवि, काफ़ी थकी हुई लग रही हो?’

‘नहीं पप्पी, ऐसी कोई बात नहीं।’

‘कुछ सोच रही थी?’

‘हाँ। मैं सोच रही थी कि इस बिटिया को तो मैं जन्म नहीं दे सकी, किन्तु क्या तुम मुझे इसके जीवन की दिशा निर्धारित करने का अधिकार दे सकते हो?’

‘रवि, बिटिया तुम्हारी ही है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कहूँगा।’

॰॰॰॰॰

लाजपत राय गर्ग

150, सेक्टर 15, पंचकूला - 134113

मो. 92164-46527