Yaadon ke ujale - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

यादों के उजाले - 2

यादों के उजाले

लाजपत राय गर्ग

(2)

पीरियड समाप्त हुआ और वह क्लास से बाहर निकल गया। प्रह्लाद और विमल अभिन्न मित्र थे। दोनों में किसी प्रकार का दुराव-छिपाव नहीं था। एक जब तक अपने मन की बात दूसरे को बतला नहीं लेता था, उसको खाना हज़म नहीं होता था। वे इकट्ठे कॉलेज आते-जाते थे। दोनों के सब्जेक्ट भी एक-से थे। ऐसा कभी नहीं हुआ था कि एक कॉलेज में हो और दूसरा न हो। इसलिये जब प्रह्लाद विमल को बिना बताये क्लास से बाहर निकला तो विमल भी उसके पीछे-पीछे हो लिया। टीचिंग ब्लॉक पार करते ही उसने अपने से पचास-एक कदम आगे जा रहे प्रह्लाद को आवाज़ दी। प्रह्लाद ने पीछे मुड़कर देखा और विमल को अपने पीछे आते देखा तो वहीं रुक गया।

प्रह्लाद को खोया-खोया सा देखकर विमल ने पूछा - ‘अरे, क्या हुआ, कहाँ खोये हुए हो? और पत्र किसका आया है?’ विमल ने उसके पास पहुँचकर एक ही साँस में कई प्रश्न पूछ डाले।

‘रवि का पत्र है’, प्रह्लाद ने सिर्फ़ एक प्रश्न का ही उत्तर दिया।

‘यह रवि कौन है और इसका पत्र आने से तू किन विचारों में खोया है?’

‘कैंटीन में चलकर बताता हूँ।’

कैंटीन में आकर प्रह्लाद ने कोने के एक टेबल के पास दो कुर्सियाँ खींचीं और दोनों आमने-सामने बैठ गये।

‘कौन है यह रवि?’ विमल ने अपनी उत्सुकता शान्त करने के लिये प्रश्न पुनः उछाला।

प्रह्लाद ने विमल के प्रश्न का उत्तर देने की बजाय जेब से लिफ़ाफ़ा निकाला। खोलकर पत्र निकाला। विमल ने अपनी कुर्सी प्रह्लाद के बग़ल में खींच ली और पत्र पर निगाहें गड़ा दीं। रवि ने लिखा था :

‘डियर प्रह्लाद,

स्वीट रिमेम्बरेंस!

यह पत्र तुम्हारे कॉलेज के एड्रेस पर भेज रही हूँ, क्योंकि और कोई तुम्हारा एड्रेस तो मेरे पास है नहीं तथा रजिस्ट्री इसलिये करवाऊँगी ताकि यह सीधा तुम्हें मिले, किसी अन्य के हाथ न लगे।

कल तुम्हारे से जुदा होने के बाद से जाग्रत-अवस्था का मेरा एक पल भी ऐसा नहीं गुजरा, जब तुम्हारी तस्वीर मन की आँखों से ओझल हुई हो और तुम्हारी दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाली आवाज़ कानों में न गूँजती रही हो! रात को जितनी भी नींद आई, उसमें भी तुम्हारे ही सपनों से स्पन्दित रही।

प्रतियोगिता के बाद जब अन्य विद्यार्थी तथा टीचर चाय और स्नैक्स खा-पी रहे थे, तब तुमने मेरे आग्रह को स्वीकार करते हुए कुछ पल मेरे साथ गुज़ारे थे। अपने मनोभाव प्रकट करते समय मुझे समय का ध्यान ही नहीं रहा था कि तुम्हारा साथी तुम्हें ढूँढता हुआ वहीं आ पहुँचा था जहाँ हम बातों में मशगूल थे। तब तक तुम केवल मुझे सुनते रहे थे, लेकिन तुम्हें अपने बारे में बताने का अवसर नहीं मिल पाया था। एक बात कहूँ, तुम ‘फनटैस्टिक लिस्नर’ हो।

मैं बेताब हूँ तुम्हारे बारे में जानने को। अत: आशा करती हूँ कि तुम लौटती डाक से पत्र लिख कर मेरी जिज्ञासा की पूर्ति करोगे।

शेष नेक्सट टाइम।

तुम्हारी प्रशंसिका,

रविकान्ता’

पत्र दोनों ने साथ-साथ पढ़ा। पत्र पढ़ने के बाद विमल बोला - ‘तो यह बात है! इतने दिन

तक यह बात मुझ से छिपाये रखी, तुम्हें खाना कैसे हज़म होता रहा?’

‘नहीं यार। ऐसी कोई बात नहीं। डेकेलेमेशन की समाप्ति पर जब नाश्ता कर रहे थे तो रवि ने मुझे प्रतियोगिता में प्रथम आने पर बधाई दी और साथ ही कहा, दो मिनट मेरे साथ आना। मैं उसके साथ हो लिया। अकेले में वह अपनी बातें ही कहती रही जैसा कि तूने पत्र में पढ़ा है। बार-बार यही कहती रही - प्रह्लाद, तुम्हारी आवाज़ में जादू है। विमल, मुझे क़तई उम्मीद नहीं थी कि छोटी-सी मुलाक़ात यूँ भी आगे बढ़ सकती है, न ही रवि ने ऐसा कोई हिंट दिया था।इसीलिये भाई, मैंने तुझसे कोई ज़िक्र नहीं किया।’

‘चलो, तुम्हारी इस गुस्ताखी के लिये माफ़ किया, लेकिन बच्चू, आगे से ऐसी गलती मत करना वरना अपनी कुट्टी हो जायेगी। ..... रवि ने ठीक ही लिखा है, आवाज़ के तो तुम जादूगर हो ही! हाँ, उसकी पहचानने की क्षमता की अवश्य दाद देनी होगी। तुम्हारे हाव-भाव देखकर तो लगता है कि बच्चू, जादूगर पर जादूगरनी का जादू चल गया है!’

‘विमल सच-सच कहना, कहीं तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं होने लगी है?’

‘नहीं मेरे भाई, मुझे ईर्ष्या नहीं बल्कि ख़ुशी हो रही है। हो सकता है, रवि की यह पहल कल उसे मेरी भाभी बना दे। अब तू जब पत्र लिखे तो लिख देना कि यदि उसे एतराज़ न हो तो मैं अपने दोस्त के साथ कुछ देर के लिये मिलने आना चाहता हूँ।’

‘विमल, पहले ही पत्र में ऐसा लिखना अच्छा नहीं लगता। एक-आध पत्र के बाद मिलने की बात कर लूँगा। हाँ, इतना विश्वास रख कि मैं रवि से अकेला नहीं मिलूँगा।’

‘ठीक है भाई, जैसी तेरी मर्ज़ी।’

और जब लगभग एक महीने बाद रवि से मिलने का कार्यक्रम तय हुआ, प्रह्लाद ने विमल को चलने के लिये कहा तो उसने साथ जाने से साफ़ मना करते हुए कहा था - ‘यारा, मैं कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहता। हो सके तो रवि की फ़ोटो ले आना। यार तो उसी से तसल्ली कर लेंगे।’

रवि ने ‘बया’ टूरिस्ट काम्पलैक्स में मिलने के लिये लिखा था। जब प्रह्लाद वहाँ पहुँचा तो वह रिसेप्शन हॉल में सोफ़े पर बैठी प्रतीक्षा करती मिली। उसे देखते ही रवि का मुख-मंडल आरक्त हो उठा। उसने ‘हैलो’ की और साथ ही हाथ बढ़ा दिया। प्रह्लाद ने भी हाथ बढ़ाकर ‘शेकहैंड’ किया और कहा - ‘सॉरी रवि, तुम्हें इंतज़ार करना पड़ा। एक बस ‘मिस’ हो गयी, इसलिये आधा घंटा लेट पहुँचा हूँ।’

‘डजंट मैटर। देर आये दुरुस्त आये। ऐसी इंतज़ार का कोई शिकवा नहीं जिसके बाद तुम्हारे दर्शन हुए।’

‘सारी बातें यहीं करनी हैं क्या? चलो रेस्तराँ में बैठते हैं।’

‘अरे नहीं। मैंने रूम बुक करवाया हुआ है।’

‘तो ठीक है, वहीं चलो।’

रवि ने रूम लेते ही एसी ऑन कर दिया था। दसेक मिनट ठंडी हवा का आनन्द लेने के उपरान्त बिना एसी बन्द किये रूम बन्द करके वह रिसेप्शन हॉल में आकर बैठ गयी थी। इसीलिये जब वे रूम में पहुँचे तो रूम पूरा ठंडा था। प्रह्लाद ने पूछा - ‘रवि, जब तुमने रूम बुक करवाया तो होटल वालों ने एतराज़ नहीं किया?’

‘वे एतराज़ क्यों कर करते? मेरे आईडी कार्ड में मेरी डेट ऑफ बर्थ दी हुई है। मैं अडल्ट हूँ। दूसरे, मैं अपने साथ बुक्स लेकर आई हूँ। शाम तक के लिये घरवालों से परमिशन ली हुई है।’

‘यू आर अ गुड प्लैनर! .... रूम तो बड़ा ठंडा हो रहा है।.... वैसे रवि, मुझसे मिलने के लिये रूम की क्या ज़रूरत थी, रेस्तराँ में बैठकर भी घंटा-दो घंटे बतिया सकते थे; फ़िज़ूल में दो-चार घंटे के लिये दिन-रात का रूम-रेंट देना पड़ा होगा!’

‘हाँ, रेंट तो होटल वाले दोपहर बारह बजे से अगले दिन के बारह बजे तक का ही चार्ज करते हैं, फिर चाहे तुम दो घंटे रुको या पूरा टाइम। लेकिन प्रह्लाद, जीवन में अपने ‘प्यार’ से पहली बार मिल रही हूँ। रेस्तराँ में बैठे और बातें करते देख कोई-न-कोई हमें घूर सकता था। क्या इस तरह किसी का घूरना तुम्हें अच्छा लगता? मैं तो ऐसा क़तई सहन नहीं कर सकती। इसलिये रूम बुक करवाया है कि जितना समय भी हम इकट्ठे बितायें, कोई डिस्टर्व न करे। .....डियर, यदि मैं तुम्हें ‘पप्पी’ बुलाऊँ तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?’

प्रह्लाद अभिभूत होकर रवि को सुन रहा था। चाहे रवि अपने पत्रों में प्रह्लाद के प्रति अपने मनोभावों का स्पष्ट उल्लेख कर चुकी थी, फिर भी सोफ़े पर बग़ल में बैठी रवि के मुख से प्यार भरी बातें सुनने का अलग ही आनन्द था। अतः उसने उत्तर दिया - ‘रवि, इस थोड़े-से समय में ही ऐसा लगने लगा है जैसे न जाने कब से हम एक-दूसरे को चाहते हैं! जब हम किसी को दिल से चाहने लगते हैं तो उसकी हर बात, हर अंदाज प्यारा लगने लगता है। इसलिये तुम जिस भी तरह मुझे बुलाना चाहो, बुला सकती हो। मुझे अच्छा ही लगेगा।’

रवि ने बातचीत को हास-परिहास में बदलते हुए कहा - ‘पप्पी, पूरे घुटे हुए प्रेमी जैसी बातें कर रहे हो!’

‘घुटा हुआ प्रेमी किसने बनाया है, तुमने ही तो?’

‘तुम्हारे बोलने के लहजे ने ही तो मुझे तुम्हारी ओर खींचा है। इसलिये किसी एक पर पहल का दोष नहीं मढ़ा जा सकता। ..... अच्छा, बातों के लिये तो अपने पास बहुत समय है। यह बताओ, खाने-पीने के लिये क्या मँगवाऊँ?’

‘जब यहाँ तक चलकर आ गया हूँ तो जिसके लिये आया हूँ, उसी की पसन्द-नापसन्द चलनी चाहिए।’

रवि ने मज़ाक़ में कहा - ‘जनाब, चलकर तो नहीं आये, आये तो बस में हो। खैर, चॉयस बता देते तो अच्छा लगता।’

‘चॉयस तो बस एक तुम ही हो, और किसी बात में कोई चॉयस नहीं।’

प्रह्लाद के इस कथन ने रवि को भीतर तक भिगो दिया। इससे उपजी प्रसन्नता को सँजोने में रवि कहीं खो गयी। एकाएक दोनों के बीच सन्नाटा-सा छा गया। कुछ क्षण की प्रतीक्षा के पश्चात् प्रह्लाद ने ही बात का सूत्र सँभाला और पूछा - ‘कहाँ खो गयी हो?’

‘बात ही तुमने ऐसी कही है कि लगता है सब कुछ कह दिया। अब और कुछ कहने-सुनने को रहा ही नहीं।’

अब प्रह्लाद ने ठिठोली करते हुए कहा - ‘मेम साहब, तुम्हारा पेट तो बातों से भर गया, लेकिन इस ग़रीब के लिये तो कुछ खाने के लिये मँगवा लो।’

‘ओह, ऑय एम सॉरी डियर।’ और रवि ने इंटरकॉम पर लंच का ऑर्डर कर दिया।

खाना खाने के बाद रवि ने कहा - ‘पप्पी, तुम कुछ देर के लिये रेस्ट करना चाहो तो लेट लो।’

‘ऐसे हसीन पलों को कौन कम्बख़्त सोकर गँवाना चाहेगा! रवि, जी चाहता है बस तुम्हें देखता रहूँ और आँखों के रास्ते तुम्हें दिल में उतार लूँ।’

‘पप्पी, शायराना बातें बहुत हो लीं। अब तक जो पत्र हमने एक-दूसरे को लिखें हैं, उनमें हमने अपनी भावनाओं को ही एक-दूसरे के साथ साझा किया है। पारिवारिक बैकग्राउंड और परिवार के बारे में कुछ नहीं लिखा। अब यह सब जानने और समझने की कोशिश करें, क्योंकि इसके लिये ही मैंने तुम्हें बुलाया है और तुम आये हो।’

‘चलो, मेरा एक भ्रम तो दूर हुआ। मैं तो समझता था कि उम्र के बहाव में तुम अपने सम्बन्ध को प्यार-व्यार तक ही रखना चाहती हो।..... रवि, हमारा एक साधारण परिवार है। सही कहूँ तो मेरा कोई परिवार ही नहीं है। मेरे माता-पिता की मुझे कोई बहुत याद नहीं। बचपन में ही उनका साया मेरे सिर पर से उठ गया था। तब से मैं अपनी बहिन और जीजा के साथ ही रहता हूँ। उन्हीं की छोटी-सी नौकरी से हमारा गुज़ारा होता है। बहिन भी सिलाई-कढ़ाई करके कुछ कमा लेती है। एक बार तो मैट्रिक के बाद मैं पढ़ाई छोड़कर काम-धंधे की तलाश करने लगा था, किन्तु हमारे स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित ही नहीं किया बल्कि मेरी कॉलेज की फ़ीस का बीड़ा भी उठाया हुआ है।....’

इतना कहकर प्रह्लाद चुप हो गया। रवि कुछ मिनटों तक सोचती रही। प्रह्लाद की पारिवारिक स्थिति के विषय में सुनकर गम्भीरता उसके हाव-भाव में स्पष्ट दिखायी देने लगी। अन्ततः उसने बोलना आरम्भ किया - ‘पप्पी, तुम्हारे स्ट्रगल भरे जीवन के सफ़र के बारे में जानकार मैं तुम्हें और गहराई से चाहने लगी हूँ। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे जीवन को ख़ुशियों से भर दूँ। .... जहाँ तक हमारे परिवार का सम्बन्ध है तो गाँव में हमारी अच्छी-खासी ज़मीन है। मेरे दादा जी के टाइम का बहुत बड़ा घर है। पापा स्वयं तो बहुत पढ़-लिख नहीं पाये थे, किन्तु उनकी तमन्ना है कि मैं डॉक्टर बनूँ। इसलिये पिछले पाँच साल से हम शहर में रह रहे हैं। लास्ट ईयर मैंने पीएमटी क्लीयर कर लिया था, किन्तु रैंकिंग नीचे रहने से किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला, सो मैंने बीएससी (मेडिकल) ज्वाइन कर ली।’ थोड़ा रुक कर हँसकर कहा - ‘बीएससी (मेडिकल) ज्वाइन न करती तो तुम्हें कैसे पाती?’

उसके ही लहजे में प्रह्लाद ने कहा - ‘हाँ, यह भी सही है। और इस बार पीएमटी में तुम बढ़िया रैंक लेकर मनचाहे कॉलेज में एडमिशन ले पाओगी, क्योंकि अंकल जी की ख्वाहिश तथा आशीर्वाद के साथ मेरी दुआ भी तुम्हारे साथ होगी।’

‘पप्पी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस बार तुम्हारी दुआओं के सदके मैं अपने मिशन में अवश्य कामयाब होऊँगी। .... पप्पी, मैं तुम्हारे लिये छोटी-सी गिफ़्ट लायी हूँ। आशा है, तुम्हें पसन्द आयेगी!’

इतना कहते ही उसने अपने पर्स से एक घड़ी निकाली और प्रह्लाद को थमा दी। प्रह्लाद ने देखा, घड़ी काफ़ी क़ीमती लगती थी। उसने कहा - ‘रवि, इस अनुपम गिफ़्ट को पाकर मैं तो धन्य हो गया, किन्तु मेरी एक प्रार्थना तुम्हें माननी पड़ेगी....’

प्रह्लाद अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि बीच में ही रवि ने पूछ लिया - ‘क्या?’

‘रवि, शिष्टाचार की माँग है कि गिफ़्ट देने वाले को रिटर्न गिफ़्ट दी जाए। लेकिन, जब तक मैं स्वयं कमाने लायक़ नहीं हो जाता, तब तक मेरे लिये रिटर्न गिफ़्ट या गिफ़्ट देना सम्भव नहीं होगा। इसलिये मेरी प्रार्थना तुम्हें माननी पड़ेगी कि हम आगे से गिफ़्ट देने-लेने की फॉर्मेलिटी नहीं करेंगे।’

‘पप्पी, मैंने यह वॉच फॉर्मेलिटी के तौर पर गिफ़्ट नहीं की है बल्कि मेरी दिली ख्वाहिश थी कि तुम्हें कुछ ऐसा दूँ जो हर समय तुम्हारे साथ रहे। वॉच गिफ़्ट करने का विचार आने पर मेरे मन में तुमसे रिटर्न में कोई गिफ़्ट पाने का रत्ती भर भी ख़्याल नहीं था। जहाँ तक भविष्य की बात है, मैं तुमसे तभी कुछ ऑक्सेप्ट करूँगी जब तुम ख़ुद की कमाई में से मेरे लिये कुछ लाओगे। लेकिन, तुम मुझे मेरे मन की करने से नहीं रोकोगे, मेरे प्यार की ख़ातिर इतना तुम्हें मानना पड़ेगा।’

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