एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 9
9. मल्लिकार्जुन की पहाड़ियाँ
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यात्रायें आदमी को आन्तरिक शक्ति का बोध करातीं है। जब जब यात्राओं का प्रोग्राम बनाते है, मन कुलाचें भरने लगता है। मेरा और रामवली सिंह चन्देल का मल्लिकार्जुन के दर्शन करने का प्रोग्राम बन गया। डबरा से कोई ट्रेन हैदराबाद के लिये नहीं थी। इसलिये झाँसी से हेदराबाद का रिजर्वेशन कराना पड़ा। यह ट्रेन रात के समय थी इसलिये हमें डबरा से बुन्देलखझड एक्सप्रेस से चलकर झाँसी स्टेशन पर पड़ाव डाल लिया। रात एक बजे वहाँ से ट्रेन पकड़ली। यात्रा लम्बी थी। दूसरे दिन सुवह पाँच बजे हैदराबाद से एक स्टेशन पहले सिकन्दराबाद स्टेशन पर उतर गये। यहाँ के बस स्टेन्ड से बसे सीधी मल्लिकार्जुन के लिये जाती है, उन्हीं में सबार हो गये। पहले बस हैदराबाद होते हुये चौरस मैंदान में चली । बाद में पहाड़ी क्षेत्र में चलती रही। मैं घुमावदार पहाड़ी रास्ते का आनन्द लेता रहा। इस तरह बस ने हमें एक बजे के समय पर मल्लिकार्जुन पहुँचाया।
बस से उतर कर ठहरने के लिये घर्मशाला तलाश ने लगे। ब्राह्मणों की धर्मशाला में ठहरने की जगह मिल गई। उस समय भोजन चल रहा था किन्तु उनके नियम के अनुसार ही भोजन कर सकेंगे। शर्ट उतार कर जनेउ धारण करके ब्राह्मणों की परम्परा के अनुसार ही उनके भोजन में सम्मिलित हो सके। चन्देल साहब को अलग पन्ति में भोजन करने बैठना पड़ा। उसके बाद वहीं कुछ देर आराम किया। उसके बाद मल्लिकार्जुन के दर्शन करने के लिये निकल पड़े। लाइन लम्बी लगी थी किन्तु दो घन्टे में दर्शन हो पाये। यहाँ की प्रतिमा ने मन मोह लिया। बड़ी देर तक निहारता रहा। आज तक उसकी सुन्दरता चित्त हटी नहीं है।
उसके बाद हम सभी टहलते हुये बाँध की झील के दर्शन ऊपर से ही कर आये सोचा सुवह ही स्नान करने आयेंगे तभी झील को जल को स्पर्श कर सकेंगे। सुवह ही निवृत होकर झील में स्नान करने के लिये पहुँच गये। जो पैदल नहीं जा पायें उनके लिये लिफ्ट लगी थी किन्तु संयोग से उस दिन वह बन्द पड़ी थी। बड़ी देर तक झील के जल में स्नान करते रहे। उसके बाद वहाँ से लौटकर पुनः मल्लिकार्जुन के दर्शन करने लाइन में लग गये। घन्टे भर में ही दर्शन हो गये। वहाँ बट रहे प्रसाद का आनन्द लिया। उसी समय मुझे दस्त लगने लगा तो मैं धर्मशाला में लौट आया। कुछ देर बाद वे सभी आ गये। सामान पैक किया और बस स्टेन्ड पहुँच गये। करीव बारह बजे बस ने चलना शुरू किया। बीच-बीच में जहाँ बस रुकती में फ्रेस होने के लिये पहाडों की तलहटी मैं भागता। बस फिर चलना शुरू कर देती। इस तरह परेशान होते हुये बस ने पाँच बजे हैदराबाद उतरा। अब तक दस्तों में भी आराम मिल गया था। आटो से रेल्वे स्टेशन पहँुच गये। शाम सात बजे हमारी ट्रेन वहीं से चलना थी। यहाँ से हमारा परभणी के लिये रिजर्वेशन था। ठीक एक बजे परभणी स्टेशन पर उतरे। वेटिंग में विस्तर डाल लिये। थके थे इसलिये नींद भी आ रही थी। एक आदमी हमारे विस्तर के पास आकर बैंच पर बैठ गया। उसने हमारे बैग टटोल डाले। खर-खर की आवाज से मेंरी नींद उचटी । देखा एक लड़का बैंच पर बैठा है। मैंने उसे टोका-‘ तुम्हें यहाँ बैठने जगह मिली है, हटो यहाँ से। वह लगड़ाता हुआ वहाँ से बाहर चला गया। सभी जाग गये। सामान देखा, विखरा पड़ा था। वाल-वाल बच गये।वहीं से सुवह परली बैजनाथ धाम के लिये ट्रेन थी। हम लोग करीव दो घन्टे में परली बैजनाथ पहुँच गये। इस समय हमें विहार के बैजनाथ धाम की याद आती रही। एक होटल बुक कर लिया। स्नान करके बैजनाथ बाबा के दर्शन किये। यहाँ विहार के बैजनाथ धाम की तरह भीड़ नहीं थी। आराम से बड़ी देर तक ज्योतिर्लिंग के पास बैठकर अर्चना करते रहे। उस दिन भी पुनः दस्त लगने लगे। एक डाक्टर के यहाँ जाकर दवा ले आया। जिससे तुरन्त आराम मिल गया। उस दिन वहीं का आनन्द लेते रहे। दूसरे दिन सुवह ट्रेन से परभणी के लिये बापस रवाना हो गये। दस बजे तक हम परभणी आ गये। वहाँ से बस पकड़ कर ओढ़ा नागनाथ के लिये चल पड़े। एक-डेढ़ घन्टे में ओढ़ा नागनाथ पहुँच गये। यह भी एक द्वादस जोतिर्लिंग में गिना जाता है, यही सोचकर हमें दर्शन करना अनिवार्य हो गया था। भीड़ बहुत अधिक थी। अतः पहले चन्देल साहव और उनकी धर्मपत्नी को दर्शन के लिये भेज दिया सामान की रखवाली बस स्टेन्ड पर बैठ कर हम करते रहे। वे एक घन्टेभर में दर्शन कर आये। उसके बाद हम दोनों दर्शन करने के लिये जाकर लाइन में लग गये। एक घन्टे भर में मन्दिर के अन्दर तल घर में पहुँच पाये। प्रतिमा को चाँदी के कवर से ढक रखा था। दक्षिणा लेकर ही पण्डा जी ने उस आवरण को हटाया। इस तरह दर्शन करके बाहर आ गये। उसके बाद सभी ने कुछ खाया -पिया और बस पकड़कर नादेड़ के लिये चल पड़े।
पाँच बजे के करीव हम नादेड़ पहुँचे। ओटो करके मुख्य गुरुद्वारे साहब पहुँच गये। उन दिनों वहाँ मित्र कलबन्त सिंह रंधावा का पुत्र राम सिंह वहीं सेवा के लिये गया था। उसे फोन लगाया, नहीं लगा तो हमने वहीं गुरुद्वारे के रेस्ट हाउस में जाकर कमरा बुक कर लिया। रात में आकर नादेड़ साहब गुरुद्वारे के दर्शन किये और परिक्रमा की। जो साथ लिये थे वही खाया पिया। रात उसी में आराम किया। सुवह ही राम सिंह से फोन पर सम्पर्क हो गया। वह मुझे लेने आ गया। मैं अकेला जाकर उस दूसरे गुरुद्वारे के दर्शन कर आया । साथ ही रामसिंह ने वहाँ के लंगर में से पराठे बाँध दिये। लौटकर टेक्सी से स्टेशन पहुँच गये । हमारी अगली यात्रा का पड़ाव पूना था। पूना के लिये कोई उस दिन सीधी ट्रेन नहीं थी, इसीलिये मनमाड़ से ट्रेन बदलना अनिवार्य थी। सच खण्ड एक्सप्रेस से नादेड़ के लिये रवाना हो गये। तीन-चार बजे के अन्दाज से मनमाड़ उतर गये। वहाँ से शाम सात बजे पूना के लिये ट्रेन थी। हमारे पास रिजर्वेशन टिकिट तो था किन्तु कन्फर्म टिकिट नहीं था। इसलिये टीसी से मिलकर सीटें कन्फर्म कराने का प्रयास करता रहा। मुष्किल से दो सीटें ही मिल पाईं , उन्हीं पर एडजेस्ट करके पूना तक यात्रा की। रात एक बजे पूना उतर गये। अब वहाँ रात ठहरने की व्यवस्था करने की सोच ने लगा किन्तु इतने बड़े महानगर में रात्री में यह सम्भव नहीं था। अतः स्टेशन पर ही रात काटने की सोची। वेटिंग रूम में पहुँच गये। वहीं जगह देखकर विस्तर डाल लिये। चन्देल साहब अपना डन्डा लेकर हमारी रखवाली करने बैठ गये। उस रात यदि चन्देल साहब इतने अलर्ट न होते तो हमारा सामान ही गायव हो जाता। उस समय अनेक यात्रियों का सामान वहीं हमारी बगल से गायव हो गया। चोरों का ऐसा आतंक मैंने और कहीं नहीं देखा जितना पूना स्टेशन पर देखने को मिला।
सुवह ही वहाँ से भागने की पड़ी। ओटो करके एक धर्मशाला में पहुँच गये। वहाँ कमरा मिल गया। स्नान इत्यादि से निवृत होकर बस स्टेन्ड पहुँच गये। वहाँ से दो घन्टे में आलंदी संत ज्ञानेष्वर की समाधि पर पहुँच गये। समाधिस्थल की भव्यता दर्शनीय रही। समाधि के दर्शन के साथ परिक्रमा भी की। संत ज्ञानेष्वर का चरित्र सभी भारतीयों के लिये पथ प्रर्दशक है।
वहाँ से बाहर आकर एक होटल में भोजन किया। उसके बाद जीप में सबार हो कर एक घन्टे भर में संत तुकाराम की समाधि देहुरोड़ पहुँच गये। यह समाधि इन्द्रण नदी के किनारे पर स्थित है। बड़ी देर तक वहाँ की प्रकृति का आनन्द लेते रहे।
इससे निवृत होकर हम संत मोरिया गोस्वामी की समाधि चिन्चवड़ पहुँचने के लिये एक टेक्सी में सबार होगये। उस टेक्सी ने हमें मुख्य रूट के बस स्टेन्ट तक पहुँचाया। वहाँ से बस ने चलकर हमें चिन्चवड़ के बस स्टेन्ड पर उतार दिया। पाँच- सात मिनिट में हम मोरिया गोस्वामी की समाधि स्थल पर पहुँच गये। बड़ी देर तक उस स्थल का घूम फिर कर अवलोकन करते रहे। उसके बाद वहीं से बस पकड़कर पूना लौट आये। दूसरी रात्री भी पूना की उसी धर्मशाला में व्यतीत की।
सुवह ही भीमाशंकर पहुँचने के लिये ओटो से बस स्टेन्ड के लिये निकल पड़े। संयोग से भीमाशंकर जाने वाली बस तैयार खड़ी थी। टिकिट लेकर हम उसमें बैठ गये। दो घन्टे तक तो बस मुख्य मार्ग पर चलती रही। उसके बाद पहाडों के घुमाव दार घाटियों को पार करते हुये आगे बढ़ती रही। दोपहर एक बजे उसने हमें भीमाशंकर के बस स्टेन्ड पर उतार दिया। उस समय बहुत तेज पानी वर्ष रहा था। हम कैसे भी सामान के साथ एक होटल में पहुँच गये। होटल वाले ने हमारी मजबूरी का लाभ लेकर अपने रेट बढ़ा चढ़ा कर बतलाये। हमारे पास भी कोई चारा नहीं था, इसलिये उसी होटल में कमरे बुक कर लिये। थोड़ी देर आराम करके दर्शन करने के लिये निकल पड़े। उस समय तक पानी वरसना रुक चुका था। हम लोग आराम से मन्दिर में पहुँच गये। वहाँ स्थित कुण्ड में स्नान किया। अभिषेक कराने की बात एक पण्डित जी से करली। उन्होंने विधि विधान से भीमाशंकर महादेव का अभिषेक सम्पन्न कराया। उसके बाद वहीं थोड़ी सी सीढ़ियाँ चढ़कर संत गोरख नाथ की परम्परा की समाधि के समक्ष ध्यान करते रहे। इस कार्यक्रम से निवृत होकर एक होटल में जाकर भोजन किया। अब तक दिन ढल चुका था। वहीं की प्रकृति का भरपूर आनन्द लेते रहे। थके थे इसलिये रात नींद अच्छी आई। सुवह भी पानी वरसने लगा था। सुवह नहा- धोकर नास्ता करके वहाँ से पहली बस चलने के पहले ही बस स्टेन्ड़ आकर बस में सबार गये।
बस अपने ठीक समय पर ही चली। घुमावदार पहाड़ी सड़क का आनन्द लेते हुये पहाड़ों से नीचे उतर आये। उसके बाद बस मुख्य मार्ग पर चलती रही। मंचर के बस स्टेन्ड से हमें त्रियम्बकेशर के लिये बस चेन्ज करना थी। इस बस के परिचालक से हमने कह कर रखा था। त्रयम्बकेशर जाने वाली बस इस बस का ही इन्तजार कर रही थी। जैसे हमारी बस स्टेन्ड पर खड़ी हुई, परिचालक ने हमें उस बस में बैठा दिया। कुछ ही क्षणों में वह बस भी चल पड़ी। अब हम पूना न जाकर सीधे त्रयम्बकेशर जा रहे थे। करीव तीन बजे हम त्रयम्बकेशर पहुँच गये । हम वहाँ के नगर निगम के रेस्ट हाउस में ठहर गये। उसके बाद दर्शन करने निकले। उस समय दो घन्टे में दर्शन होगये। उसके बाद हम लोग गोदावरी के उदगम के दर्शन करने निकले। पहाड़ पर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँच गये। वहाँ गोदावरी उदगम के दर्शन कर के लौट आये। दूसरे दिन नासिक पहुँच गये। बस स्टेन्ड से बस पकड़कर सप्त श्रंगी देवी के दर्शन करने निकल पड़े। चार घन्टे में पहाड़ी रास्तों से वहाँ पहुँच पाये। सप्त श्रंगी देवी का मन्दिर पहाड के ऊपर है। नीचे दुकान दार के पास सामान रखकर सीढ़ियों के सहारे एक घन्टे भर में ऊपर पहुँच गये। माँ सप्त श्रंगी देवी के भक्ति भाव से दर्शन किये और उतरने में हमें वहाँ से आधा धन्टे लग गया। दुकान दार के यहाँ से सामान उठाया और लौटती बस से नासिक लौट आये।
बस स्टेन्ड से सिरणी की बस पकड़कर साईं बाबा के दर्शन के लिये निकल पड़े। चार घन्टे बाद हम सिरणी के बस स्टेन्ड़ पर उतर गये। सबसे पहले हर जगह की तरह ठहरने के लिये होटल की तलाश में मैं और चन्देल साहब निकले। दलाल हमारी खोज में पहले से ही चक्कर लगा रहे थे। एक दलाल एक होटल में हमें लेकर पहुँच गया। हमने होटल बुक कर लिया। अपना सामान सिफ्ट किया और निकल पड़े दर्शन की अभिलाषा से, पहले इधर-उधर घूमते फिरते रहे। सारी जानकारियाँ लेते रहे और उसके बाद दर्शन की लाइन में लग गये। दो घन्टे में दर्शन मिल पाये। साई दरगाह के भी दर्शन किये।
उसके बाद बाहर निकले और भोजन के कूपन लेने लाइन में लग गये। वहाँ भी बड़ी रस्सा कसी के बाद भीड़ के कारण भोजन के कूपन की जगह नास्ते के कूपन ही मिल पाये। नास्ता भी पर्याप्त मिल गया कि रात को भोजन की आवश्यक नहीं पड़ी।
दूसरे दिन सुवह ही एक टेक्सी करली और सनी सिंगमापुर में शनी देव के दर्शन करने के लिये निकल पड़े। कहते हैं ग्वालियार के शनीचरा के पहाड पर शनी ग्रह की चटटान गिरी थी। वही से शनी सिंगमापुर में शनी देव की प्रतिमा लाई गई थी। इस के प्रभाव से इस गाँव में कोई अपने घरों में ताले नहीं लगाता। किवाड़ भी कुत्ते विल्ली की सुरक्षा की दृष्टि से लगे है। इस गाँव में कभी चोरी नहीं होती । यह विश्व के इतिहास में पहला ही गाँव होगा जहाँ कभी चोरी न हुई हो। इस का उल्लेख विश्व की गिनी बुक में होना ही चाहिये। शनि महाराज की मूर्ति का तेल से अभिषेक, भक्त लाल धोती पहन करते हैं। पुरुष वर्ग ही उनका अभिषेक करते हैं। नारियाँ तो दूर से ही उनके दर्शन कर सकतीं हैं। हम लोग भक्तिभाव से दर्शन कर बापस लौट पड़े। रास्ते में एक शक्ति पीठ के दर्शन भी उस टेक्सी वाले ने कराये तथा अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों के दर्शन कराता हुआ उसने हमें बारह बजे तक सिरणी लाकर छोड़ दिया। यहाँ से होटल में खा-पीकर मनमाड़ रेल्वे स्टेशन के लिये निकल पड़े। यहाँ से हमारा रिजर्वेशन पंजाव मेल से था, रात उसी ट्रेन से डबरा के लिये यात्रा के आनन्द की स्मृतियों में डूबे हुये लौट पड़े।
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