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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 3

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 3


3 अमरनाथ का अस्तित्व


अमरनाथ की पौराणिक कथायें जगत प्रसिद्ध हैं। उनके प्रति प्रत्येक भारतीय का आर्कषण सहज ही हो जाता है। जब कोई किसी यात्रा पर रोक लगा दे, तो यह आर्कषण और अधिक बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त कश्मीर की बादियों की मन मोहक मुस्कान उस ओर अधिक खीचती है। मेरा चित्त भी उन वादियों की सैर करने लालायित हो उठा। दिन-रात कश्मीर यात्रा की धुन सबार हो गई। साथ यात्रा पर चलने वाले लोगों की तलाश करने लगा। मित्र राम बली सिंह चन्देल और मैंने डॉक्टर के सर्टिफिकेट के साथ आवेदन अमर नाथ बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। कुछ दिनों बाद चन्देल साहब की अनुमति तो मिल गई किन्तु मेरी नहीं। मैं समझ गया मेरे विकलांग होने से मेरी अनुमति नहीं आई। इन्हीं दिनों चन्देल जी के पैरों में सूजन आ गई। उन्हें यात्रा निरस्त करना पड़ी।

मैं विचार करने लगा अब यात्रा कैसे की जाये? जब हम कोई राह खोजने निकलते हैं तो राह मिल ही जाती है। एक दिन गायत्री परिवार के सजग कार्यकर्ता मित्र चिन्तामणि गुप्ती जी से बात चल पड़ी। बे बोले मेरा भान्जा रामेश्वर गुप्ता सेना में इन्जीनियर है। इस समय उसकी डयूटी जम्मू में ही है। मैंने अपने चलने की बात भी उनसे कही। उन्होंने सात लोगों की अनुमति उनके द्वारा ले ली। अनुमति के अनुसार हमने अपने रिजर्वेशन करा लिये और समय पर झेलम एक्सप्रेस से जौलाई-98 के अन्तिम दिनोंमें जम्मू के लिये रवाना हो गये । चिन्तामणि गुप्ती जी, उनकी धर्मपत्नी रामकली देवी, मैं और पत्नी रामश्री तिवारी, जमुनादास मोदी , उनकी पत्नी लीला मोदी तथा उनका पुत्र महेश । इस तरह हम सात लोग हो गये। दूसरे दिन जम्मू दिन अस्त होने से पहले स्टेशन पर उतरे। वहीं गुप्ता जी के भान्जे स्टेशन पर हमें लेने आ गये। उनकी गाड़ी में हम सेना की छावनी में उनके घर ठहरने के लिये पहुँच गये। उसी समय सेना का एक आदमी उनके घर हमारी यात्रा की अनुमति का पत्र लेकर आ गया। हम समझ गये अब हमारी यात्रा हो कर ही रहेगी। हमें बालटाल के रास्ते से अनुमति मिली थी। इसलिये हम सुवह ही श्रीनगर के लिये रवाना हो गये। दिन भर की यात्रा के बाद शाम छह बजे हम श्रीनगर पहुँच पाये। वहाँ पहुँच कर हमने ठहरने के लिये होटल तलासे किन्तु सभी का कहना था अमरनाथ यात्रियों के लिये तो झेलम नदी के किनारे हनुमान मन्दिर में ठहरने की व्यवस्था है। हम लोग रिक्शा करके हनुमान मन्दिर पहुँच गये। सुरक्षा की द्रष्टि से वहाँ ठहरना ही उचित रहा। अमरनाथ यात्रियों के लिये ठहरने की वहीं व्यवस्था थी। इसी मन्दिर से यात्रा प्ररम्भ करने की छड़ी उठती है। यहाँ हनुमान जी की आदम कद प्रतिमा आकर्षण का केन्द्र रही। पुजारी जी की सेवा भावना देखते ही बनती थी। वे सभी के ठहराने की व्यवस्था में लगे थे।

दूसरे दिन सुवह ही एक गाइड आकर मुझ से मिला, उसने हमें श्री नगर घुमाने का बादा किया। मैं लम्बे समय से महाकवि भवभूति पर काम कर रहा था। कल्हण कृत राजतरंगनी में मुझे ये संकेत मिले कि महाकवि भवभूति जीवन के अखिर दिनों में कश्मीर नरेश महाराजा ललितादित्य के साथ, कन्नोज विजय के बाद कश्मीर आये थे। महाकवि भवभूति कष्यप गौत्रिय हैं। मैंने ज्ञात कर लिया था कि श्रीनगर के मध्य स्थित शंकराचार्य पहाड़ी ही कश्यप ऋषि की तपोस्थली रही है। इसी कारण उसके दर्शन करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सका। मैंने गाइड से कहा डलझील तो हम देखेंगे ही साथ ही हमें शंकराचार्य पहाड़ी के दर्शन भी करना पड़ेंगे। हम हनुमान मन्दिर में ही भोजन ग्रहण करके भ्रमण के लिये निकल पड़े। उसने हमें श्रीनगर के सभी प्रमुख जगहों के दर्शन कराये । डलझील में सिकरा का आनन्द लिया, उसमें बैठकर फोटो खिचवाये। मुगल गार्डन का अनन्द लिया, वहीं बैठकर नाका खाये। उसके बाद वह हमें शंकराचार्य पहाड़ी पर ले गया। टेक्सी नीचे ही छोड़ना पड़ी। पैदल ही ऊपर पहीड़ी पर पहुँच गये। मुझे लगता रहा मैं संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति के साथ यात्रा कर रहा हूँ। शंकराचार्य पहाड़ी के ऊपर से सम्पूर्ण श्रीनगर के एक दृष्टि में दर्शन किये। वहाँ स्थित शिवलिंग के दर्शन किये। कष्यप ऋषि की तपोभूमि पर ही जब आदि शंकराचार्य यहाँ आये तो उसी समय से इस पहाड़ी का नाम शंकराचार्य पहाड़ी नाम पड़ गया है।

इस तरह मैं अपनी इस सम्पूर्ण यात्रा में हर जगह महाकवि भवभूति कर तलास करता रहा। भवभूति अपने आदि ऋषि कष्यप की खोज में यहाँ अवष्य ही आये होंगे। इन्हीं सभी तथ्यों की खोज में मेरी अमर नाथ यात्रा भी चलती रही।

हमें बालटाल के रास्ते से जाने की अनुमति मिली थी। मित्रों को यह शंका हो गई कि इस रास्ते से जाना कठिन है तो सभी का प्रोग्राम बदला कि हम सब पहलगाँव के रास्ते से अमर नाथ की यात्रा करें। तीसरे दिन सुवह ही बस स्टेन्ड पहुँच कर बस से पहलगाँव के लिये रवाना हो गये। दोपहर बाद तक पहल गाँव पहुँच गये। वहाँ पहँच कर हमने इस रास्ते से यात्रा करने का रजिस्ट्रेशन कराया । उसके बाद मिनी बस से चन्दन बाड़ी के लिये चल दिये। वहाँ यात्रियों को ठहरने के लिये शासन ने व्यवस्था कर दी थी। रात उसी स्थान में रुके। अपना बजनदार सामान वहीं बुक किया और अगले सुवह आगे की यात्रा शुरू कर दी। घुड़ सबार पिस्सूटाप पर चढ़ पाने का डर दिखाकर घोडे़ बुक कराना चाहते थे किन्तु हम में से मोदी परिवार के तीन लोग उनकी बातों में आ गये। मैं और श्रीमती तिवारी तथा चिन्तामणि गुप्ता जी तथा उनकी धर्मपत्नी रामकली देवी पैदल ही चल पड़े। पहले उत्साह में चढ़ते चले गये। बाद में साँस फूलने लगी। गति बहुत धीमी पड़ गई किन्तु मन्द-मन्द गति से आगे बढ़ते रहे। और एक घन्टे भर के परिश्रम से हम ऊपर पहुँच गये। एक जगह बैठकर जल पिया। सारी थकान तिरोहित हो गई। यहाँ से आराम अराम से आगे बढ़ते रहे। घोड़ों से यात्रा करने वाले हमारे कुछ साथी शेषनाग तरणी पहुँच कर हमारी प्रतिक्षा कर रहे थे। करीव चार बजे के समय तक हम कहाँ पहुँच पाये। हमने ठहरने के लिये टेन्ट तलाशना शुरू किये। शासन ने भी यात्रियों को ठहरने के लिये टेन्ट लगवा दिये थे। उनकी दरें भी निर्धारित कर रखीं थीं। हमें एक कष्मीरी मुस्लिम का टेन्ट पसन्द आ गया। हम सभी उसी में ठहर गये। वह टेन्ट शेषनाग झील के किनारे पर ही था। कहते हैं यहाँ पाँच फनों वाला मणीधारी शेषनाग इसी झील में निवास करता है। हमें लगा हम जागकर उसके दर्शन करेंगे। मैं और चिन्तामणि गुप्त जी रात्री भर उस झील के किनारे शेषनाग के दर्शन करने बैठे रहे किन्तु दर्शन नहीं हुये। रात भर सोचते रहे यहाँ स्थित वर्फ से ढके पाँच पहाड़ ही स्वच्छ चादनी में उनकी झील में झाँकती प्रतिछाया पाँच फन बाले शेषनाग के प्रतीक होगें। वैज्ञानिक धरातल पर जो सोच सकते थे हम दोनों सोचते रहे। इस तरह जाने क्या क्या सोचते हुये वहीं पडे़ रहे। सुवह ही पंचतरणी की यात्रा शुरू हो गई। यह यात्रा हम सब ने पैदल ही पूर्ण की। पंचतरणी दोपहर तक आराम से पहुँच गये। वहाँ भी हर जगह की तरह भण्डारे चल रहे थे किन्तु आक्सीजन की कमी से कुछ भी खाने-पीने की इच्छा नहीं हो रही थी। शुद्ध घी की चीजें भी भा नहीं रहीं थी। कुछ खा पीकर हम सब यात्रा का अन्तिम पड़ाव अमरनाथ गुफा की ओर प्रस्थान कर गये। यहाँ से गुफा पाँच किलोमीटर की दूरी पर थी। फिसलन भरा पहाड़ी रास्ता एक-एक पग चलना दूभर हो रहा था। धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। मिलट्री द्वारा बनाये हिम नद के बर्फ के रास्ते पर बढ़ना और भी कठिन लगता रहा। दिन ढलने से पहले अमार नाथ गुफा पर पहुँच गये। रात ठहरने के लिये टेन्ट ले लिया। मैं और पत्नी जाकर अमर गंगा के सीतल जल में स्नान कर आये। हमारे अन्य सभी साथियों ने वही कहीं से गर्म पानी करवा कर स्नान किया।

स्नान घ्यान के बाद सभी दर्शन करने के लिये दिनांक 5.8.98 को अमरनाथ की गुफा में पहुँच गये। बफानी बाबा मिट चुके थे केवल उनके स्थान पर बर्फ की परत मात्र शेष रह गई थी। हमने उसी के दर्शन कर सन्तोष किया। बहुत देर तक वहीं बैठे रहे। पता नहीं क्यों वहाँ पहुँच कर मुझे रोना आता रहा। मैं वहाँ बैठकर खूब रोया। सम्भव है आक्सीजन की कमी से रोना आया हो। पुनः दर्शन करके नीचे आकर भण्डारों में कुछ खा- पीकर टेन्ट में आकर आराम करने लगे।

संयोग देखिये कि जैसे ही टेन्ट में आये कि पानी वरसने लगा। टेन्ट वाला जहाँ से पीना रिसता वहीं लकड़ी लगाकर उस की दिशा बदल देता। यों रात भर वह मुसलमान हमारी सेवा करता रहा। हमने सुवह उसका इस बात के लिये धन्यवाद किया तो वह बोला’-इस सेवा के बदले ही अल्लाह हम पर कृपा करता रहे, बस यही दुआ हमारे लिये आप सब कीजिये।

जैसे ही सुवह हम निवृत हुये, लाउड स्पीकर के शब्द हमारे कानों में गूँजने लगे। सभी यात्रियों से निवेदन है कि मौसम बहुत खराव हो गया है। आप लोग शीध््रा ही यहाँ से निकलने की कृपा करें। उनके शब्द सुनकर हम सब वहाँ से निकल पड़े । हम देख रहे थे हमारे ऊपर हमारी चौकसी करता हेलीकाप्टर मड़राते हुये हमारी गति से ही हमारे ऊपर-ऊपर चलता जा रहा था। शासन की इस व्यवस्था को हम आज तक नहीं भूल पाये हैं।

पैदल ही फिसलन भरा रास्ता पार करते हुये नों बजे तक पंचतरणी आ गये। सभी ने तय किया यहाँ से घोडे़ कर लिये जावे। हम सब घोडों पर सबार होकर बारह बजे तक शेषनाग तरणी आ गये। यहाँ आकर घोड़े बदलने पड़े। इस व्यवस्था में मैं और चिन्तामणी गुप्ता जी ही पीछे रह गये। हमारे सभी साथी शेषनाग झील के किनारे पर आकर चिल्ला चिल्लाकर हमें आवाज देने लगे। जल्दी आयें शेषनाग जी के दर्शन हो रहे हैं। जब हम दोनो वहाँ पहुँचे वे अलोप हो चुके थे। मैं समझ गया, हम दोनों शेषनाग जी को काल्पनिक बतलाकर आलोचना करते रहे हैं। इसलिये उन्होंने हम दोनों को छोड़कर सभी को दर्शन दे दिये हैं। अच्छा ही है हमारी आलोचना से वे हमें अपनी उपस्थिति का बोध तो करा गये। लगता है आज भी अमर नाथ यात्रा का अस्तित्व यथावत बना हुआ है।यही सोचते हुये हम चन्दन वाड़ी लौट आये। वहाँ भी भण्डारे चल ही रहे थे। हमने उसमें प्रसाद ग्रहण किया और ऊपर भण्डारों में जितना कम चढ़ा पाये, मन ने जितनी स्वीकृति दी उतने की यहाँ रसीद कटाने में सभी ने संकोच नहीं किया।

इसी समय वहाँ लगे एक दर्पण के सामने जाने का मौका लग गया। चहेरा देखा जो सम्पूर्ण चेहरा ठन्ड़ के कारण बुरी तरह फट गया था। उस पर कुछ लेप लगाया। बुकिंग आफिस से अपना सामान उठाया और पहलगाँव के लिये मिनी बस में जाकर बैठ गये। घन्टे भर में हम पहलगाँव आ गये। समय अधिक हो रहा था इसलिये एक होटल में जाकर रुक गये। यात्रा की थकान मिटाने अनुभव करते रहे। दूसरे दिन सुवह ही बस स्टेन्ड़ पहुँच गये। जम्मू जाने वाली बस सामने खड़ी थी। उसमें बैठकर हम राहत की स्वाँस महसूस कर रहे थे। बस सीधी जम्मू के लिये रवाना हो गई। उसने हमें दिन अस्त होने से पहले जम्मू के बस स्टेन्ड पर उतार दिया। सभी का मन बना कटरा चल कर आराम करेंगे। इस तरह हम सब कटरा पहुँचकर एक वस्त्रों के दुकान दार के होटल में जाकर ठहर गये। होटल में खा-पीकर आराम से सोते रहे।

अगले दिन वैष्णव देवी घाटी की चढ़ाई शुरू कर दी। यात्रा के हारे थके थे इसलिये घोड़े कर लिये। पहले अर्धक्वारी के दर्शन किये। उस समय अर्धक्वारी के दर्शन में इतनी भीड़ नहीं थी। दो बजे के करीव वहाँ से उन्हीं घोड़ों से आगे के लिये रवाना हो गये। चार बजे तक ऊपर पहुँच गये। मैया के दर्शन करने में भी देर नहीं लगी। सम्भव है हमारे भाग्य से दोनों ही जगह भीड़ नहीं मिली। भैरव घाटी के दर्शन करने के बाद केवल मैने और पत्नी ने घोड़े छोड़ दिये । हम पैदल उतरने का मन बना लिया। लगभग रात्री के नांे बजे तक हम उसी होटल में आ गये। हमारे अन्य साथी तो पहले ही आ चुके थे। रात्री वही व्यतीत की।

सुवह ही जम्मू के लिये चल पड़े। स्टेशन आकर टिकिट लेने लाइन में लग गये। संयोग देखिये मैं सबसे आगे लगा था इसलिये मुझे टिकिट मिल गया। जो लोग मेरे पीछे लगे थे, उनका टिकिट न लेने का इरादा हो गया। वे एक दिन और वहीं रुकना चाहते थे। मुझे लगा ये लोग मुझे छोड़कर रुकना चाहते हैं इसलिये मैने अपने चलने का मन बना लिया। एक घन्टे बाद ही ट्रेन थी। वे सभी जम्मू रुक गये और मैं ओैर पत्नी राम श्री ट्रेन पकड़कर डवरा चले आये। घर आते आते बुखार आ गया। स्टेशन से घर आना कठिन हो गया। प्रभू जो करता है अच्छा ही करता है शायद इसीलिये मैं टिकिट लेने आगे लग गया था और स्वास्थ्य खराब होते ही घर आ गया।

अगले दिन से ही संस्कृत साहित्य के गौरव ‘भवभूति’ और ‘महाकवि भवभूति’ उपन्यासों का लेखन शुरू हो गया।

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