ak panv rail me-yatra vrittant - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 6

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 6

6 रत्नावली और द्वारिका पुरी


तुलसी दास की धर्मपत्नी मातेश्वरी रत्नीवली ने यात्रा कराई द्वारिका पुरी की । आपको यह बात कुछ अजीब सी लगेगी। बात यह हुई गुजरात हिन्दी विद्यापीठ की पत्रिका रैन बसेरा अक्सर मेरे पढ़ने में आती रहती थी। मैं उसका नियमित ग्राहक भी बन गया था। उसमें गुजरात हिन्दी विद्यापीठ की साहित्यकार पुरस्कार योजना का विज्ञापन प्रकाशित हुआ। जिसमें देश भर के साहित्यकारों से उनकी वर्ष 1998ई0 में प्रकाशित पुस्तकें माँगीं गईं थी। मेरी उपन्यास रत्नावली उसी वर्ष प्रकाशित हुई थी। विज्ञापन देखकर मैंने अपनी कृति रत्नावली उस पुरस्कार योजना में प्रेषित करदी।

गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद में यह सम्मान समारोह 5 जनवरी वर्ष2000 ई0 को किये जाने का निश्चय किया गया था। उनके अनुसार जो पुस्तकें पुरस्कृत की जावेंगीं उन साहित्यकारों को सम्पूर्ण गुजरात दर्शन कराने की योजना थी। यह योजना साहित्य संबर्धन योजना की तरह सहित्यकारों के सामने रखी गई। मैं रत्नावली उपन्यास को पुरस्कार योजना में भेजकर भूल गया। कुछ दिनों बाद गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद से पत्र मिला कि आपकी कृति रत्नावली पुरस्कृत की गई है। हर लेखक की तरह मुझे भी यह अच्छा लगा।

उस योजना को देश के प्रसिद्ध साहित्य कार एवं गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद के कुलपति डॉ0जयसिंह व्यथित संचालित कर रहे थे। वे रैन बसेरा पत्रिका को लम्बे समय से प्रकाशित भी करते आ रहे थे। इस तरह अहिन्दी भाषी प्रदेश में हिन्दी के प्रचार- प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। इसी कारण उन्होंने देश के साहित्यकारों को सम्पूर्ण गुजरात के दर्शन कराने की योजना बना डाली। विभिन्न पुरस्कारों एवं सम्मानों के माध्यम से साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया था। डबरा नगर के प्रसिद्ध गीतकार घीरेन्द्र धीर गुजरात हिन्दी विद्यापीठ की पत्रिका रैन बसेरा से बहुत दिनों से जुड़े थे। उन्हें भी उन्होंने सम्मान के लिये आमंत्रित किया था। मैं और घीरेन्द्र धीर दोनों ही पंजाव मेल से चलकर भोपाल पहुँच गये। वहाँ से शाम को रातकोट एक्सप्रेस चलती थी। उससे हमने पहले ही रिजर्वेशन करवा लिया था। भूल यह हुई कि मैं पत्नी राम श्री तिबारी को साथ नहीं ले जा पाया। लगा था क्यों दूसरे के सिर पर भार बना कर उन्हें ले जाऊँ। इस तरह हम दोनों ही वहाँ जाने के पात्र थे। हम दोनों समय से भोपाल पहुँच गये। वहाँ से राजकोट एक्स प्रेस पकड़कर सुवह ही अहमदावाद के स्टेशन पर उतर गये और वहाँ से ओटो पकड़कर गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद के पते पर पहुँच गये। पहुँचते ही उन्होंने ससम्मान एक कक्ष में ठहरा दिया। हम उस विद्यापीठ के कुलपति जयसिंह व्यथित जी से मिले। सहज सरल व्यक्तित्व से सहज ही आकर्षित हो गये। वहाँ के व्यवस्थापक डॉ0 कृष्ण कुमार सिंह ठाकुर से मुलाकात ने हमें बहुत ही आकर्षित किया। अब तो वहाँ देश के अन्य हिस्सों से साहित्यकारों का आगमन शुरू हो गया था। वे सभी के ठहराने की व्यवस्था करते जा रहे थे। खाने-पीने की व्यवस्था सभी की सामूहिक थी। व्यवस्था करने वाली टीम अपना-अपना दाइत्व निर्वाह करने में लगी थी। सुवह चाय के साथ नास्ता, दोपहर भोजन, दिन ढ़ले फिर चाय -नास्ता और रात को भी दिन भर की तरह चर्चाओं के साथ सामूहिक भोजन। उसके बाद अपने-दपने कक्ष में शयन । इस तरह दिन भर की व्यवस्था के साथ साहित्यिक कार्यक्रम चलने लगे।

दूसरे दिन यह साहित्य समारोह अहमदावाद के प्रसिद्ध हाल सेठ मंगलदास गिरधर दास मेमोरियल टाउनहाल अहमदावाद में समारोह रखा गया था। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में गुजरात के राज्यपाल महामहिम सुन्दर सिंह भण्डारी उपस्थित हो रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयम् गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद के कुलपति डॉ0जयसिंह व्यथित कर रहे थे। इस अखिल भारतीय कार्यक्रम की चर्चा गुजरात प्रान्त के सभी अखबारों में की गई थी। देश की सुनाम धन्य साहित्यकार इस कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। माननीय हरीश पाठक जी,रक्षा राज्यमंत्री भारत सरकार,श्रीमती आनन्दी बेन पटेल शिक्षामंत्री गुजरात सरकार श्री अमर सिंह चौधरी नेता-विपक्ष मान्यवर माता प्रसाद जी पूर्व राज्यपाल अरुणाचल प्रदेश एवं देश भर के प्रसिद्ध साहित्यकार की उपस्थिति ने देश भर के साहित्यकारों में यह कार्यक्रम चर्चा का विषय बन गया था।

मुझे गर्व है मातेश्वरी रत्नावली उपन्यास के कारण राज्यपाल महोदय के कर कमलों से मुझे अंगवस्त्र, सम्मन राशी एवं शान्ति साधना सम्मान से सम्मानित कर उपक्रत किया था। विचित्र बात तो यह रही जब व्यथित जी मंच पर जाने लगे उसके पहले इतने साहित्यकारों के मध्य मेरे पास आकर कुर्सी पर विराजमान हुये मेरे हाल चाल पूछे और सीधे वहीं से मंच पर चले गये थे। यह बात मैं आज तक भूल नहीं पा रहा हूँ। यह सब मैं मातेश्वरी रत्नीवली की कृपा मानता हूँ। उस दिन रात्री का भोजन सभी मेहमानों के साथ उसी परिसर में हुआ था।

दूसरे दिन 6.1.2000 को सुवह से ही गुजरात दर्शन की तैयारियाँ चलतीं रहीं। शाम छह बजे आधुनिक सुविधायुक्त दो बसों से सभी साहित्यकार रवाना हो गये ।हम 7.1 2000 को सुवह छह बजे द्वारका धाम पहुँच गये। एक होटल में सारी व्यवस्थायें थी। हम अपना बैग वहाँ रखकर सुवह सात बजे द्वारकाधीस की आरती में सम्मलित हो गये। भीड़ बहुत अधिक थी। इसलिये मैं दूर हटकर द्वारकाधीस के सामने थोड़ा ऊँचे एक सीढ़ी पर जाकर खड़ा हो गया था। जहाँ से द्वारकाधीस के मनमोहक दर्शन हो रहे थे। लग रहा था मैं उनके सामने ही खड़ा हूँ। जब मैं पत्नी और अन्य साथियों के साथ दुबारा द्वारका पुरी गया था, उस समय बैसी झाँकी के दर्शन पाने तरसता रहा। उस दिन के दर्शन की झाँकी मन में आज तक समाई हुई है। इसके लिये मैं डॉ0जयसिंह व्यथित एवं उनके परिबार का आज भी आभार मानता हूँ कि वह भव्य झाँकी सामने से हटती नहीं है।

उसके बाद गोमती नदी में स्नान किया तथा यहाँ से पच्चीस किलोमीटर दूर स्थित भेंट द्वारका के लिये सुवह ही 10.30 बजे प्रस्थान कर गये। बारह बजे नौका से समुद्र में यात्रा का आनन्द लेते हुये भेंट द्वारका के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। 1.30 बजे तक हम द्वारका पुरी लौट आये। भोजनोपरान्त पुनः चार बजे द्वादस ज्योर्तिलिंग नागेश्वर के दर्शन के लिये निकल पड़े। सभी ने भक्ति भाव से दर्शन किये। वहाँ से चलकर 8.45 पर पोर बन्दर पहुँच गये। यहाँ सुदामा जी के मन्दिर तथा महात्मा गाँन्धी निवास का अवलोकन भी किया। उसें बाद ही बस ने हमें 1.30 बजे 8.1.2000को डॉ0जयसिंह व्यथित जी के विद्यालय के शिक्षक की ससुराल बाले गँँाव तलाला में विश्राम किया। सुवह ही निवृत होंकर सोमनाथ के लिये प्रस्थान किया। दोपहर की आरती के समय हम लोग वहाँ पहुँच गये थे। आरती के बाद समुद्र के किनारे टहलने का आनन्द लिया।

सोमनाथ से दस किलोमीटर दूर भालका तीर्थ स्थल पर पहुँच गये जहाँ जरा नामक व्याध ने श्रीकृष्ण जी के पैर के पंजे में बाण मारा था जिसके कारण उनका अबसान हुआ। मैं उन दिनों एक लव्य उपन्यास पर काम कर रहा था , यहाँ आकर तो मुझे उसके समापन विन्दु का आभाष हो गया। काश यह यात्रा न की जाती तो मैंने जिस विन्दु पर इसका समापन किया है वहाँ न होकर कहीं और होता। यों यह यात्रा मेरे लिये तो साहित्य संम्भ्वधर््ान में सहायक सिद्ध हुई है।

यहाँ से चलकर हम पुनः तलाला आ गये। हमारे यहीं भोजन की व्यव्स्था थी। भोजनोपरान्त सात्ताधार के लिये प्रस्थान किया। गिर के घनधोर जंगलों में प्रवेश किया। कहते हैं यहाँ बहुत से शेर निवास करते हैं। बस में से ही निहार कर उन्हें खोजते रहे। एक दो जगह तो उनकी उपस्थिति के सन्देह में बस खड़ी कर दी गई। ढेर सारे जंगली हिरण चौकड़ी मारते दिखे। उनका स्वच्छंद विचरण मन को भा गया। प्रकृति में अठखेलिया करते उनके बच्चे आज भी याद आजाते हैं। सारण में परम संतो की समाधि स्थल है। यहाँ चौबीस घन्टे भेाजन तथा चाय की निशुल्क व्यवस्था चलती रहती है। हमने वही भण्डारे में भोजन किया और रात्री विश्राम भी उसी के परिसर में किया।

दिनांक 9.1.20000 को सत्ताधार से 7.30 बजे जूनागढ़ के लिये प्रस्थान किया। यह स्थल सत्ताधार से 49 किलोमीटर दूर है। यहाँ अखिल भारतीय संतों का निवास है। इस स्थल पर नरसिंह मेहता के बड़े भाई के शासन काल का क्षेत्र है। पास में यहाँ दामोदर कुण्ड है। इसमें नरसिंह मेहता की अस्थियों का बिर्सजन इसी कुण्ड में किया गया था। कहते हैं इसमें स्नान करने से व्यक्ति रोग मुक्त हो जाता है। यहाँ हम आगे बढ़े और सोनपुरी पहुँच गये। यहाँ 273ई.पू. अशोक, 150ई. पू. रुद्रदामन,एवं 456 ई.पू.स्कन्दगुप्त के शिलालेख देखने को मिले। उसके बाद हम जूनागढ़ के किले में प्रवेश कर गये। यह किला कंस के पिता उग्रसेन ने बनवाया था। यह बहुत प्राचीन किला है। बड़ी देर तक उस किले में सभी कुछ न कुछ खोजने का प्रयास करते रहे। इसके बाद बारह बजे हम नरसिंह मेहता के मन्दिर में थे। यही से भोजन करके हम जलाराम केलिये प्रस्थान किया। यह धामिक स्थल वीरपुर गाँव नामक क्षेत्र में है। यह मन्दिर बन्द मिला । बाहर से ही प्रणाम किया। यहाँ ठहरने एवे भोजन की उत्तम व्यवस्था रही रात्री 8.35इ पर अहमदाबाद के लिये प्रस्थान किया। सुवह 4.30 बजे हम गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदाबाद लौट आये। दूसरे दिन हमारा लौटने का रिजर्वेशन था। मैं और घीर यात्रा की स्मृतियों में में डूबे घर लौट आये।

तीर्थ में पत्नी के साथ जाने की परम्परा रही है। मैं गुजरात दर्शन कर आया किन्तु पत्नी श्रीमती रामश्री तिबारी को साथ नहीं ले जा पाया। सम्पूण यात्रा में उनकी याद करता रहा कि उन्हें साथ और ले आता तो यह यात्रा पूरी हो जाती। अतः द्वारका पुरी के वे स्थल हमें अपनी ओर पुनः पुनः टेरने लगे। जिसके परिणाम स्वरूप मैं द्वारकापुरी जाने की तैयारी में जुट गया। मैंने वही पुराने यात्राओं के साथी रामबली सिंह चन्देल के साथ विचार विमर्श किया। वे यात्रा पर चलने को तैयार हो गये । हम पाँच का ग्रुप हो गया। मैं ,पत्नी राम श्री तिवारी , उनकी बड़ी बहन राम देई पटसारिया, रामबली सिंह चन्देल एवं उनकी पत्नी उर्मिला सिंह के नाम से द्वारकापुरी के समस्त स्थलों का सर्किल टिकिट बनबा लिया तथा साथ ही आवश्यक स्थलों के रिजर्वेशन भी करा लिये।

निष्चित दिनांक को घर से निकले तो राजेन्द्र ने देख लिया उसकी माँ बिना चप्पल पहने यात्रा पर जा रहीं हैं। यह देखकर बोला-‘माँद नंगे पैर यात्रा?’


वे बोली-‘ पैरों में छाले पड़ गये हैं। पापा ने बहुत इलाज कराया , कोई फायदा नहीं हुआ। पैरो से खून रिसने लगता है।’

वह बोला-‘ आप ने मुझे नहीं बतलाया किसी अच्छे डाक्टर को दिखा देता। खैर , आप यात्रा से लौट आये, उस समय किसी अच्छे डाक्टर को दिखा दूँगा।’

यह कहते हुये उसने हमें डबरा स्टेशन से पंजाब मेल में बैठा दिया।। हम पहली यात्रा की तरह भोपाल पाँच बजे पहुँच गये। हमें भोपाल से राजकोट एक्सप्रेस पकड़ना थी। ठीक शाम सात बजे हम उसमें बैठ हो गये। उसने हमें राजकोट पर दिन के बारह बजे उतारा। वहाँ से हमें द्वारकापुरी के लिये ट्रेन पकडना थी। करीब दो बजे हमें वहाँ के लिये ट्रेन मिली, जिसने हमें शाम छह बजे द्वारकापुरी पहुँचाया। पहले हमने ठहरने के लिये एक होटल बुक कर लिया। उसके बाद हम द्वारकाधीस की शाम की आरती में सम्मिलित होने मन्दिर पहुँच गये। पहले जब में यहाँ आया था, उस समय द्वारकाधीस की जिस छवि के दर्शन हुये थे ,उस छवि के दर्शन पाने के लिये इस कोने से उस कोने में चक्कर काटने लगा किन्तु वह छवि जाने कहाँ विलोपित हो, आज तक उस छवि के दर्शन पाने के लिये तरस रहा हूँ।

रात लाइट के प्रकाश में समुद्र के किनारे टहलते रहे। एक होटल में खाना खाया और उसके बाद रात भर आराम से सोते रहे। सुवह ही उठकर पहले समुद्र में स्नान किया। उसके बाद द्वारकाधीस के दर्शन किये और तत्काल चल पड़े भेंट द्वारका, नागेश्वर एवं रुकमणी मन्दिर के दर्शन के लिये रूट पर चलने वाली बस से निकल पड़े। उस बस ने हमें उसके रुट में पड़ने वाले सभी स्थालों, रुकमणी मन्दिर, भेट द्वारका,गोपीताल, तथा नागेश्वर आदि के दर्शन कराये और उसके बाद एक बजे के समय पर हमें यही लाकर छोड़ दिया। उसके बाद हमने रात वाले उसी होटल में भोजन किया । होटल से अपना सामान उठाया और ढ़ाई बजे की बस से सेामनाथ के लिये निकल पड़े। हमें रुट में पड़ने वाले स्थलों के दर्शन कराते हुये पोरबन्दर के सुदाम मन्दिर के भी दर्शन करायंे। उस बस ने हमें रात नौं बजे सोमनाथ पहुँचाया। हमने एक रिक्सा वाले से ठहरने के लिये स्थान पर पहुँचाने का अनुबन्ध किया। उसने एक दो होटल दिखाये। वहाँ जगह नहीं मिली। उसके बाद उसने एक गली में ठहरने की जगह दिला दी। यों रात ग्यारह बजे हम उसमें व्यवस्थित हो पाये।

सुवह ही निवुत होकर पहले सोमनाथ के दर्शन के लिये निकले। ऐसे स्थानों पर भीड़ होना स्वाभाविक है फिर भी आराम से दर्शन हो गये। पास ही अहिल्यावाई का शिव मन्दिर था, उसमें जाकर विधि विधान से एक पण्डित जी से शंकर जी का अभिषेक कराया। उसके बाद समुद्र के किनारे भ्रमण करते रहे। जब मन भर गया तो ओटो करके सभी प्रभास क्षेत्र के दर्शन करने के लिये निकल पड़े। मैं इन स्थालों के पहले गुजरात हिन्दी विदयापीठ की साहित्य संवर्धन यात्रा में दर्शन कर चुका था, इसीलिये इन स्थालों पर जाकर उनके बारे में साथियों को समझाता रहा।जहाँ भगवान श्री कृषण जी को बहेलिया ने पंजे में बाण मारा था, उस स्थल पर सभी भाव विभोर होगये। मैं बीच-बीच में पहली यात्रा के संस्मरण भी मित्र चन्देल साहब को सुनाता रहा। करीब तीन बजे के करीव हम सोमनाथ लौट आये। उसके बाद सामान उठाकर बस स्टेन्ड से बस पकड़ली। करीव पाँच बजे तक हम जूना गढ़ पहुँच गये। मैं पहली यात्रा में किला देखकर आया था किन्तु अबकी बार इतना समय नहीं था। हमने बस से उतरकर हम नरसिंह मेहता के मन्दिर में थे। यहाँ के दर्शन करके हम राजकोट पहुँचने के लिये पंनः उसी रूट पर चलने वाली बस में आकर बैठ गये। करीव दो घन्टे में उसने हमें राजकोट पहुँचा दिया।वहाँ से ट्रेन पकड़कर रात रयारह बजे अहमदाबाद पहुँच गये।


रात अहमदाबाद की बेटिंग में ही व्यतीत की, सुवह वहीं निवृत होकर लाकर में सामान रखा और निकल पड़े अक्षरधाम और सावरमति आश्रम के दर्शन करने। अक्षरधाम के दर्शन करने में तीन घन्टे लग गये। उसके बाद हम लोग वहीं से सावरमति आश्रम में दर्शन करने पहुँच गये। महात्मा गाँन्धी की कार्य विधि का अवलोकन करके उसे आत्मसात करने का प्रयास करते रहे। उसके बाद अहमदाबाद का प्रसिद्ध काली मन्दिर देखने गये। अब तक माउन्ट आवू जाने वाली ट्रेन का समय हो रहा था। इसलिये सीघे स्टेशन लौट आये। ट्रेन पकड़कर आवू स्टेशन पर पहुँच ने में शाम हो गई। वहाँ से बस पकड़कर हम अम्बाजी पहुँच गये। रात एक होटल में रुक गये।रात्री का भोजन भी वहीं लिया। सुवह ही निवृत होकर पहले अम्बा जी के मन्दिर में माँ अम्अ के दर्शन किये उसके बाद पहाड़ी के ऊपर जहाँ मैया की ज्योति जल रही है वहाँ के लिये निकल पड़े। ओटो ने जीचे ही छोड़ दिया। ऊपर टाप पर पहुँचने के लिये पैदल ही चड़ाई थी। धीरे-धीरे एक घन्टे भर में बहुत ही मुष्किल से ऊपर पहुँच पाये। वहाँ प्रज्वलित ज्योति के दर्शन करके आनन्दि हो गये। उससे सारी थकान तिरोहित होगई।उसके बाद धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे। वहाँ बीच बीच में तात्रिंको ने लोगों को ठगने के अडडे बना लिये थे। किसी ने हमें ऊपर से ही इनसे बचने की हिदायत देदी थी। हमें उन्होंने ठगने के लिये बहुत रोका किन्तु हम कहीं रुके नहीं। नीचे आकर सहेट ली। ओटो पकड़कर होटल से समान उठाया और बस पकडकर चल दिये माउन्ट आबू।

करीब तीन बजे के समय पर हम माउन्ट आबू पहुँच गये। एक होटल बुक कर लिया। हम अलग-अलग कमरों में सिफट हो गये।उसके बाद वहाँ का प्रसिद्ध झील के अर्शन करने निकल पड़े। बहुत से सैलानी उसेा आनन्द ले रहे थे। वहाँ अधिक तर नये नये व्याता जोड़े ही अधिक दिखाई पड़ रहे थे। कुछ बूढ़े लोगों में हम ही दिखाई दे रहे थे। प्रकृति ने प्रकृतिक सुन्दरता यहाँ भरपूर उड़ेली है। शाम ढले तक उसक झील का आनन्द लेते रहे। नये नये जोड़ों को अठखेलियाँ करते देखकर अपने जमाने की यादों में खोये रहे। रात होटल में आराम से सोये। सुवह निवृत होकर घूमने के लिये एक मिनी बस पकड़ली। उसने हमें वहाँ के टाप तक पहुँचाया उसके बाद वहाँ के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों की सुन्दरता सहेते रहे। माउन्ट आबू में ब्रह्म कुमारी आश्रम भी देखने गये। हजारों लोगों को एक साथ बैठने का इतना बड़ा हाल देखकर आष्चर्य चकित रह गये।

हमारी यह यात्रा गुजराम हिन्दी पीठ से हटकर बनाई थी। जिससे स्थलों का रिपेटेशन कम ही हो। इसी कारण राजस्थान यात्रा को इसमें जोड़ लिया गया। दोपहर तक यहाँ से निवृत होकर बापस लौट पड़े। ठीक उसी समय एक जीप मिल गई। उस जीप बाले को पता था कि ज वह पहुँचेगा जयपुर के लिये ट्रेन आने वाली होगी। उसने उसी हिसाव से तेज गति से हमें आबू स्टेशन पर पहुँचा दिया। ठीक उसी समय ट्रेन आकर खड़ी हो गई। हमने दौड़कर वह ट्रेन पकड़ पाई। अच्छा यह रहा हम पर सर्किल टिकिट था इसलिये टिकिट लेने की समस्या नहीं रही। यदि यह ट्रेन छूट जाती तो आठ घन्टे तक हमें वहीं स्टेशन पर पड़ा रहना पड़ता। इस स्थिति में मन की प्रसन्नता दुगुणित हो गई थी। हम तीन बजे अजमेर पहुँच गये। स्टेशन से ओटो करके दरगाह के दर्शन करने पहुँच गये। मेरी मान्यता यह रही है धार्मिक स्थल चाहे किसी धर्म के हो दर्शन अनिवार्य हैं तभी हमारे मन के अनुसार यात्रा पूरी होगी। मैंने इसी भावना से देश के सभी हिस्सों की यात्रा कीं हैं। हिन्दू,मुष्लिम, सिक्ख, इसाई सभी के स्थलों पर माथा टेका है। मुझे यह सोच सच्चे हिन्दू होने का अपने पिता श्री से विरासत में मिला है। दरगाह पर चादर चढ़ाना, वहाँ के अन्न क्षेत्र में भी हमने यथोचित रसीद कटाई है। उसके बाद स्टेशन लौटने पर हमें उसी समय जयपुर के लिये ट्रेन मिल गई। लगभग रात के ग्यारह बजे हम जयपुर पहुँच गये। स्टेशन के बाहर जाकर मैंने होटल तलाशा , रात में उनके रेट बहुत अधिक थे। हम स्टेशन के बेटिंग रूम में ही ठहर गये। इस स्ैशन पवर जयपुर के स्तर से ही पलंग पड़े थे।उस समय संयाग से तीन पलंग खाली पड़े थे। हम उन्हीं पर आराम करने लगे। सुवह निवृत होकर , सामान क्लोक रूम में रखा और निकल पड़े जयपुर घूमने के लिये। सबसे पहले गल्ता जी पहुँच गये। वही स्नान किया। वहाँ गीलिव ऋषि के मन्दिर ने बहुत आकर्षित किया। नीचे उतर कर मन्दिरों के दर्शन किये। उसके बाद चले आये वहाँ के एतिहासिक संग्रहलय को देखा उसके बाद मदन मोहन जी के मन्दिर के दर्शन किये और पहुँच गये देश का प्रसिद्ध म्यूजियम देखने गये। उसके बाद बस पकड़कर चल पडे़ मेहदी पुर बालाजी के लिये। दिन अस्त होने से पहले मेहदीपुर आगये। यहाँ आकर एक होअल में रुक गये। बालाजी की रात की आरती में सम्मिलित होने निकल पड़े। यहाँ अक्सर आरती के समय बहुत भीड़ रहती है। दर्शन करने मन्दिर के बाहर से ही दर्शन किये।

इस समय की एक घटना उल्लेखनीय है। पत्नी रामश्री के पैर के अगले पंजे में लम्बे समय से फफोले पड़ रहे थे। वे चप्पल भी नहीं पहन पातीं थीं। मैंने उनका बहुत इलाज कराया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। इस यात्रा में वे इसी कारण नंगे पैर ही यात्रा कर रहीं थीं। मेहदीपुर में बालाजी के मन्दिर के सामने की घूल उन्होंने इस भावना से चुपचाप लगा ली कि पैर ठीक हो जाये। हम आरती के बाद होटल लौट आये। रात आराम से सोये। सुवह ही उठकर पत्नी ने मुझ से कहा मेरा पैर जो ठीक होगया। मैंने कहा क्या पागल होगई। वे बालीं-‘ मैं आरती के समय बालाजी के नाम की घूल मन्दिर के बाहर सामने सड़क से लगा ली थी। देखो मेरा पैर पूरी तरह काला पड़ गया है। मेरी इस पैर की पायल भी काली पड़ गई है। हम सब आष्चर्य से इस घटना को देख रहे थे, बालाजी की इस कृपा का आनन्द आज तक लेते रहते हैं।

दूसरे दिन मेहदीपुर के निकट रेल्वे स्टेशन बाँदी कुई से ट्रेन पकड़कर बालाजी की कृपा के गुणगान करते हुये घर लौट आये। जो हो उस बीमारी से हमेशा हमेशा के लिये छुटकारा मिल गया हैसाथ ही बालाजी हमारे मन-मस्तिष्क में बस गये हैं।

0000000

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED