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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 11

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 11


11 कुरुक्षेत्र में एकलव्य

पानीपत की जैमनी साहित्य अकादमी से मेरे रत्नावली उपन्यास पर सम्मान का आमंत्रण मिला। किसी भी रचनाकार की कृति को सम्मानित किया जाना उसके लिये सुखद अनुभूति है।

लम्वे समय से चित्त में एकलव्य पर कलम चलाने का विचार चल रहा था। किसी विषय पर कलम चलाने से पहले उस पर होमवर्क करना आवश्यक मानता रहा हूँ। मैंने प्रत्येक लेखन के पूर्व होमवर्क किया है। इससे लेखन में विश्वसनीयता का सहज बास हो जाता है।

कुरुक्षेत्र का नाता महाभारत कालीन इतिहास से रहा है। मेरा एकलव्य पात्र भी महाभारत कालीन है, इसीलिये पानीपत जाने का आमत्रंण पाकर मन कुलाचे भरने लगा। कुरुक्षेत्र यात्रा का विचार नहीं होता तो सम्भव है, सम्मान पाने पानीपत जाने का विचार चित्त में न आता।

कुरुक्षेत्र पर घर बैठे जितना होम वर्क कर लिया। वहाँ साथ चलने के लिये साथी की तलाश करने लगा। कोई भी चलने को तैयार नहीं हुआ। मैंने पत्नी राम श्री तिवारी के समक्ष कुरुक्षेत्र यात्रा का प्रस्ताव रखा। वे यात्रा की बहुत शौकीन हैं वे चलने को तुरन्त तैयार हो गईं। कुरुक्षेत्र जाने के लिये पानीपत पहुँचने की तिथि के अनुसार ट्रेन से रिजर्वेशन करा लिया। रात ग्यारह बजे हम दोनों ट्रेन से रवाना हो गये दूसरे दिन आठ बजे के करीव हम कुरुक्षेत्र स्टेशन पर उतरे।

स्टेशन के वाहर निकलकर ऐसे रिक्शा वाले की तलाश करने लगा जो हमें गाइड के साथ सम्पूर्ण कुरुक्षेत्र के दर्शन करा दे। एक रिक्शे वाला बोला-‘ इसके लिये तो पण्डित रिक्शेवाला ठीक रहेगा। वह वहीं पास में खड़ा था। बातें सुनकर वह हमारे पास आ गया। वह बोला मैं आपको यहाँ के सभी प्रमुख -प्रमुख स्थलों के दर्शन करा दूंगा। हम विष्वास करके उसके मुँह मांगी दर पर उसके रिक्शे में बैठ गये। उसने सबसे पहले हमें वहाँ के प्रसिद्ध कुण्ड में स्नान कराये। वाहर से आने वाले सभी यात्री उसमें स्नान कर रहे थे। स्नान के वाद वहाँ के नियम अनुसार पित्रों के लिये उस कुण्ड में तर्पण किया। निवृत होकर रिक्शे में आकर बैठ गये। वह रिक्शे वाला पंडित बोला-‘ सबसे पहले आप यहाँ के प्रसिद्ध गुरुद्वारे के दर्शन करें। मैंने सिर पर टाविल लपेटली पत्नी ने साड़ी के पल्लू से सिर ढक लिया। भक्ति-भाव से गुरुद्वारे के दर्शन किये।

हम रिक्शे में जाकर बैठे कि पण्डित जी से बोले-‘ अब मैं आप लोगों को लेकर यहाँ के प्रसिद्ध देवी मन्दिर में लेकर चलता हूँ। करीव वास पच्चाीस मिनिट में उसमें हमें वहाँ पहुँचा दिया। मन्दिर के आस पास प्रसाद की दुकाने सजी थी। एक दुकान से प्रसाद लिया और देवी माँ कें दर्शन किये।

इसके वाद वह रिक्शेवाला हमें गाइड करता हुआ उस जगह ले गया जहाँ एक कुण्ड के किनारे भीष्मपितामाह बाणों की सैया पर लेटे थे। उस दृष्य को देखकर बड़ी देर तक वहाँ बैठा मैं जाने क्या- क्या सोचता रहा। इस स्थिति में भीष्मपितामाह से मिलने सभी आये थे। निश्चय ही एकलव्य भी इनसे मिलने आया ही होगा। उसने भी अपने तरह के उनसे प्रश्न किये ही होंगे। कुरूक्षेत्रे मैदान के दृष्य एकलव्य से जुड़ते चले गये। वहाँ के हर दृष्य में एकलव्य को खड़ा पाने लगा।

इसके वाद उसने वहाँ से जुड़े अनेक स्थल दिखाये। एक होटल पर हमने उसके साथ ही भोजन किया। अन्त में वह सीधे रास्ते से लाकर उसने हमें कुरूक्षेत्र के प्रसिद्ध म्यूजियम पर लाकर छोड़ दिया। हम दोनों टिकिट लेकर उसमें प्रवेश कर गये । मैं हर दृष्य से एकलव्य को जोड़कर देखता रहा। करीव दो घन्टे वाद उसमें से निेकल पाये। साँझ होने को थी। उस रिक्शेवाले ने हमें रात्री विज्ञाम के लिये ब्राह्मण समाज की धर्मशाला पा छोड़ दिया। वह धर्मशाला उसी प्रसिद्ध कुझड के किनारे पर ही थी। उसमें हमें कमरा मिल गया। रात्री के भोजन के वाद हम उस कुण्ड के किनारे पर पड़ी बैन्च पर बड़ी देर तक बैठे रहे। रात कमरे मैं जाकर लेट गये।

मैंने सोने से पहले आवाहन किया-‘ मैं जहाँ लेटा हूँ निश्चय ही इतने बड़े महायुद्ध में किसी न किसी की यहाँ मृत्य अवष्य ही हुई होगी। वह आत्मा मुझ से रू-ब-रू हो। इस तरह पता नहीं कैसे तीन वार मेरे मुंह से ये शब्द निकल गये। दिनभर की थकान थी। ये शब्द कहते- कहते मैं वहाँ सो गया। रात जाने कैसे- कैसे सपने आते रहे। सुबह उठकर उन स्वप्न के दृष्यों से एकलव्य को जोड़कर देखता रहा।

हमें पानापत समय से पहुँचना था। इसलिये निवृत होकर स्टेशन पहँच गये। यहाँ से दो- तीन घन्टे की दूरी पर ही पानीपत था। इसीलिये पूर्व से रिजर्वेशन नहीं कराया था। सामान्य टिकिट लेकर ट्रेन में बैठ गये। पानीपत बस्त्रों के लिये बहुत प्रसिद्ध है। पत्नी कुछ बस्त्र खरीदने के लिये जिद करने लगीं। हमने बाजार में जाकर कुछ बस्त्र क्रय कर लिये।

अब हम उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ कार्यक्रम होना था। वहाँ पहुँचते ही मुम्बई से पधारे बराबर पत्रिका के सम्पादक अमनप्रिय अकेला जी से मुलाकात हो गई। चर्चा में उन्हें ज्ञात हो गया, मुझे यहाँ रत्नावली उपन्यास के कारण आमन्त्रित किया गया है। वे उसे पढ़ने की इच्दा व्यक्त करने लगे। उसकी प्रति मेरे पास थी ही। मैने उन्हें वह प्रति भेंट करदी। वे समय नष्ट किये बिना उसे पढ़ने बैठ गये। मैं बार- बार आइने की तरह उनके चेहरे से भाव पढ़ने का प्रयास करने लगा।

देश भर से विद्धानों के आने का तांता लग गया। दिन ढल गया। इतने समय में उन्होंने उसे पूरा उलट-पुलट डाला। वे बोले- भावुक जी, मैं चाहता हूँ इसे घारावाहिक उपन्यास के रूप में अपनी बराबर पत्रिका में प्रकाषित करूँ। इस कुति को पाकर मेरा यहाँ आना सार्थक हो गया। मैने भी उन्हें प्रकाषि करनें की तत्काल अनुमति प्रदान करदी। उसके बाद तो पूरे समय हम दोनों एक मित्र की तरह आसपास ही बने रहे। रात सम्मान का कार्यक्रम था। पता नहीं क्यों उससे भी हमें लेना देना न रहा। उदास मन से कार्यक्रम अटेन्ड करते रहे। वेमन सम्मान भी ग्रहण किया और रात कवि सम्मेलन में भाग भी लिया। रात खा पीकर वहीं विश्राम किया। सुवह हम दोनों भारी मन से उनसे विदा हुये।


दूसरे दिन लौटने का रिजर्वेशन था। स्टेशन आ गये। ट्रेन समय पर ही थी। हम उसमें आराम से बैठ गये। मेरा सिर कुरुक्षेत्र में निवास की रात से ही भारी था। कार्यक्रम की व्यस्तता के कारण कुछ पता नहीं चला। उच्चाटन तो उसी रात से चित्त में सवार था। मेरी चढ़ी हुई भेांहे देखकर देखकर ने घवड़ा गई। कुछ ही समय में हम डबरा स्टेशन पर थे। संसार से उच्चाटन की बातें मुँह से निकल रहीं थी। उस रात मैं घर में ठीक से सो नहीं सका। पत्नी जो आता उससे कह देतीं-‘ कुरुक्षेत्र की रात से इनकी ऐसी हालत है। हमें क्या पता था? नहीं हम कुरुक्षेत्र कभी न जाते। चार पाँचव दिन तक मेरी हालत ठीक नहीं रही। उठते-बैठते, सोते- जागते, खाते- पीते दिनरात एकलव्य के चिन्तन में डूवा रहा। उसके बाद एकलव्य पर कलम चल पड़ी और जब तक रचना पूरी नहीं हो गई अनवरत रूप से चलती रही।

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