सम्पादक राजेश ओझा द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नीलेश अपने प्रथम लघुकथा संग्रह के कवर पेज को लेकर द्वन्द में था..तीन चार स्केच सामने विखरे पड़े थे..एक से बढ़कर एक..इसी में से एक फाइनल करना था..उहापोह की स्थिति थी तभी पोस्ट मैन ने आवाज दी..

"बाबूजी आपकी डाक "

लिफाफा #हिमांशु_प्रकाशन से था..उत्कंठित होकर खोला और मुस्करा पड़ा..व्यंग्य भरी मुस्कान..कम से कम दो दर्जन लघुकथायें हिमांशु प्रकाशन से अस्वीकृत होकर वापस आ चुकीं थीं ऐसी स्थिति में इस स्वीकृति से व्यंग्यात्मक मुस्कान आनी ही थी..तुरंत हिमांशु प्रकाशन को फोन लगाया..फोन के पार की आवाज
ने आश्वस्त किया..उधर सम्पादक महोदय ही थे..

"यस हिमांशु प्रकाशन "

"जी मैं नीलेश बोल रहा हूँ "

"कौन नीलेश..?"

"वही जो आपकी पत्रिका के लिये अक्सर लघुकथा भेजते हैं "

"और सदैव आपकी लघुकथायें अस्वीकृत होती हैं, वही न..? "

"जी जी.."

"बतायें..! फोन क्यों किया..?"

"आपके यहाँ लघुकथा छपने का मानक क्या है..?"

"निःसंदेह स्तरीय लघुकथायें..पर आप इतना विचलित क्यों हैं.. पहले कायदे से लिखना सीख लीजिए , आपकी भी लघुकथायें छपेगीं भाई "

"सर लिखता तो मैं ठीक ही हूँ..आपके यहाँ बिना पढ़े ही वापस कर दी जाती हैं "

सम्पादक महोदय आक्षेप पर बिल-बिला से गये..और सबक सिखाने पर उतर आये..आवेश में बोले..

"ठीक लिखते हो..? लघुकथा क्या है.. जानते हो..?"

"जी बिल्कुल..! लघुकथा उपन्यास का लघु संस्करण है..सारे तत्व वही होते हैं..पात्र, समायोजन, कथानक,द्वन्द और समाधान..लघुकथा का आवश्यक तत्व है कि न तो वह अपनी लघुता छोड़े न कथा..दोनों का उत्कृष्ट प्रयोग ही अच्छी लघुकथा का मानक है "

"आप अपने पाठक को कैसे प्रभावित करते हैं..?"

"जब हम अपने अगल-बगल की ऐसी घटनाओं को आधार बनाते हैं जो अक्सर लोगों से रूबरू होती हैं.. ऐसा होने से पाठक को अपने साथ हुयी घटना तुरंत याद आती है और वह कुतूहल से पढ़ने लगता है..

उसने अगला प्रश्न दगा..

"लघुकथा लिखने से पहले क्या करते हैं..?"

"प्रारुप बनाते हैं.."

"लघुकथा में विचार का कितना महत्व है..?"

" विचार उपन्यास में दिये जाते हैं.. विचार से कथा को विस्तार मिलता है जो लघुकथा का प्रतिरोधी तत्व है "

"लघुकथा का सर्वाधिक आवश्यक तत्व क्या है..?"

"द्वन्द और समाधान का उत्कृष्ट संछिप्त प्रभावी प्रयोग तथा एक ऐसा शीर्षक जो पूरी कहानी का प्रतिनिधित्व करता हो "

नीलेश शांत रुप से सम्पादक महोदय के प्रश्नों का चतुराई से उत्तर दे रहा था..सम्पादक झुंझला गया..बोला..

"ठीक है..कोई अच्छी लघुकथा भेजिये..इस बार विचार करेंगे "

नीलेश मुस्करा पड़े..व्यंग्य से बोले..

"विचार तो आपने कर लिया है और स्वीकृति भी आ गयी है "

"मतलब..?"

"मतलब यह कि जो लघुकथा " आधुनिकायें" पिछली दफे आपने अस्वीकृत करके वापस कर दी थी उसी कहानी का शीर्षक बदल कर "छिनालें" किया और अपनी पत्नी का फोटो लगाकर उसी के नाम से आपको पुनः भेज दी थी और उसी की स्वीकृति आपके यहाँ से मुझे अभी डाकिया दे गया है "

फोन के पार सन्नाटा छा गया..नीलेश आगे बोला..

"और मिस्टर सम्पादक अब उसे मत छापना..वह लघुकथा इसी महीने मेरे ही नाम से एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छप चुकी है.."

फोन उधर से कट चुका था..नीलेश को अफसोस था..वह सम्पादक का खिसियाया चेहरा नही देख पाया..

राजेश ओझा