चार बीघा खेत राजेश ओझा द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चार बीघा खेत



दल थम्हन शुकुल ने जैसे ही जलेबी को दही में लपेटा था कि मोबाइल बज उठी..अनमने होकर जलेबी को दोने में रखा और मोबाइल निकाला..अन्दाजा सही निकला..फोन बड़े बेटे का ही था..आज सभी बेटों ने फोन किया था

"हलो..!" दल थम्हन की आवाज से आज चाश्नी गायब थी

" ये का किये बप्पा..? खेतों के एक एक कोन और मेढ़ को जहां आप दुलराते नही अघाते थे उसी को बेंच दिया..?"

दल थम्हन शुकुल के खेतों की मेढ़ तीर माफिक बिल्कुल सीधी रहती थी और कोन भी बड़े सलीके से वे गोड़ते थे..
खेतों के प्रति उनका प्रेम अगाध था..बच्चों के पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई,शादी-विवाह के वक्त कई बार उनको आर्थिक संकट हुआ..चूंकि वे केवल किसान ही थे..आय का अन्य कोई श्रोत नही था तो कभी-कभी जब फसलों को प्राकृतिक रुप से नुकसान हो जाता तो वे निश्चित परेशान होते फिर भी धैर्य से लगे रहते और धीरे-स्थिति अनुकूल हो जाती..कई बार भाई-बन्धुओं ने परेशानी के वक्त कुछ जमीन बेंच देने की सलाह देते तो वे भड़क जाते..

"यह मेरे पुरुखों की नाक है..आप सबका क्या मतलब है ,उनकी नाक कटवा दूं..?"

लोग चुप हो चले जाते..वे धैर्य से लगे रहे..'जीवन में सुख-दुख आते रहते हैं.. ईश्वर हमारी परीक्षा लेता है,घबड़ाना नही चाहिए ' वे अक्सर बच्चों को यही सलाह देते..

शादी विवाह के बाद सभी बच्चे अपनी अपनी रोजी तलाशी और घर से दूर दूसरे शहरों में अपने परिवार के साथ बस गये..गाँव में दल थम्हन भी पत्नी संग अपनी खेती संजोये रहे और मस्त थे कि अचानक पत्नी को ज्वर हुआ.. और ऐसा ज्वर कि ईश्वर को प्यारी हो गयीं..बच्चे आये..क्रिया-कर्म किया और रोजी का हवाला देकर धीरे धीरे सभी बाप को सूखी तसल्ली देकर चले गये..

बच्चे जब पहले गये थे तो तकलीफ तो तब भी हुयी थी पर चूंकि पत्नी का संग था तो हास-परिहास में जीवन कट रहा था पर इस बार बच्चों के चले जाने पर घर काटने दौड़ता था..किसी भी काम में मन नही लगता..संज्ञा शून्य हो पड़े रहते..धीरे-धीरे गाय बैल सब विक गये..खेती में ध्यान न देने से अब फसल भी कुछ नही होती..स्थिति यह आयी कि दल थम्हन को दोनों वक्त के भोजन के लाले पड़ गये..अड़ोस-पड़ोस के लोग दया दिखाकर कुछ देने का मन करते तो दल थम्हन का खुद्दार मन उसे भीख समझता और मना कर देते..धीरे-धीरे लोगों का आना-जाना भी कम हो गया..बिल्कुल अज्ञात वास की स्थिति में जी रहे दल थम्हन जब असहाय हो गये तो उन्होंने बेटों को फोन किया कि या तो वे उन्हें साथ ले जायें या फिर कुछ पैसे ही भेज दें.. पर नही.. न तो कोई बेटा उन्हें साथ ही ले गया न ही पैसा ही भेजा..किसी ने पत्नी के इलाज का बहाना बनाकर देने से मना कर दिया तो किसी ने बच्चों की पढ़ाई में अधिक खर्च हो जाने का हवाला देकर पैसा देने से मना कर दिया..फिर दल थम्हन की चेतना वापस आयी और सारी मोह-माया त्याग कर बगल के पड़ोसी को चार बीघे खेत की रजिस्ट्री कर दी..प्रति फल की रकम स्वयं पर दिल खोलकर खर्च करने लगे..सुबह उठकर नहाते -धोते फिर गाँव के बाहर पक्की सड़क की बगल में मण्डप माता मन्दिर पर आते..मण्डप माता को प्रणाम करते.. वहीं रमेसर तिवारी के मड़हे में छन रही जलेबी का पहला नाश्ता करते.. फिर वहीं से चाय वाय पीकर कभी किसी मन्दिर चले जाते कभी किसी मन्दिर.. सांय किसी होटल से खाना पैक कराते और घर आ जाते..बहुत सुकून से फक्कड़ हो जीवन जीने लगे..अड़ोस-पड़ोस में दल थम्हन के दही-जलेबी की चर्चा होने लगी..दल थम्हन के चचेरे भाई कैलाश शुकुल की छोटी बहू दल थम्हन के छोटे बेटे की चचेरी साली थी..उसने फोन किया बहनोई को..

"जीजा..! दादा आजकल रोज सुबह दही-जलेबी काट रहे हैं "

"मतलब..?"

"मतलब खेत विकने प्रारंभ हो गये..आप लोग कान में तेल डाल कर पड़े रहो..अभी चार बीघे के दाम खतम भी नही हुये हैं फिर भी राम दुलारे तिवारी आजकल बड़ी सेवा कर रहे हैं दादा की..पता चला है आज उन्हें गोयड़ वाला खेत लिखने जा रहे हैं"

पूरी बात जानते ही वह सन्न हो गया..तुरंत सभी भाइयों को फोन किया..जो बेटे भूल कर भी दल थम्हन का कभी हाल नही लेते थे वे आज बारी-बारी से फोन कर रहे थे..

अभी तक केवल बड़े बेटे का फोन नही आया था और वे उसी की प्रतीक्षा में थे..घर के सभी निर्णय बड़े बेटे के परामर्श से आज तक होता आया था पर यह चार बीघा बेचने के लिये उन्होंने बड़े बेटे से भी नही पूछा था.. उसी बेटे के फोन की प्रतीक्षा में थे..फट पड़े..

"तुम सबको किसी तरह पाल-पोस कर बड़ा किया..पढ़ाया-लिखाया..शादी-विविवाह किया..तब नही बेचा था पर अब बुढ़ापे में तुम सबको खेत देने के लिये भूखो नही मर पाऊंगा "

"बप्पा बस आज कहीं मत जाना..कुछ मत करना..हम सभी सुबह आ रहे हैं..जैसा कहोगे वैसा होगा..जितना पैसा कहोगे हम सब देंगे आपको..हमसे गलती हो गयी बप्पा.. अब भविष्य में ऐसा नही होगा" बेटा गिड़गिड़ाया

दल थम्हन ने लंच पैकेट पैक करा लिया है और अब मुस्कुराते हुये घर वापस जा रहे हैं

राजेश ओझा