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बेहया के फूल




'सुनिए, आप जहां भी हैं, वहां से जल्दी आ जाइए!' फोन पर पत्नी वैदेही की अकुलाहट भरी आवाज़ सुनकर मनोहर चौंक गए। पूछने पर पता चला कि मंजू का आकस्मिक निधन हो गया है। मंजू, यानी अल्हड़ कैशोर्य की करीबी दोस्त। मनोहर ने झटपट कहा, 'बहुत व्यस्तता है। आज नहीं आ सकता।' वैदेही ने महसूस किया कि मनोहर की आवाज़ में बनावटी रूखापन तो है, लेकिन हकीकत में उनकी ज़ुबान लरज रही है। भरी आंखों और रुंधे गले के साथ मनोहर से कुछ बोला ना गया। उन्होंने फोन काट दिया और गुजरे दिनों में खो गए।

मनोहर चौबे के घर के दक्षिण में ही खालेक पुरवा था, जहां मुख्यतः श्रमिक और कारीगर रहते थे। तथाकथित उच्च जाति के लोग पुरवे के लोगों पर कामकाज के लिए आश्रित तो थे, लेकिन कोई सामाजिक संबंध रखने में हेठी महसूस करते। कहते हैं, बचपन में ऊंच-नीच का भेद नहीं होता और किशोरावस्था में एक ज़िद भी जाग जाती है, जो ठीक ही है- ईश्वर ने सबको एक जैसा बनाया है। हम किसी से दूरी बनाने वाले कौन हैं! पंद्रह साल के मनोहर का स्वभाव भी ऐसा ही था। जब-तब खालेक पुरवा चले जाते। दोस्त चंपक के संग जमकर गपशप करते।

ऐसे ही एक दिन मनोहर जब पुरवे में पहुंचे तो देखा कि उत्सव का माहौल है। लोग ग्रामदेवता की पूजा करने में जुटे हैं, वहीं बूढ़े-बुजुर्ग युवाओं को लाठी के करतब दिखाकर उकसा रहे हैं - 'ऐसी युवावस्था पर धिक्कार है कि तुम्हें लाठी तक चलानी नहीं आती।'

अपनी ही धुन में खोए मनोहर जुलूस के बगल से गुजर रहे थे। मन में तो ललक समाई थी कि जल्दी से दोस्त चंपक के पास पहुंच जाएं, तभी अपनी बहादुरी दिखा रहे एक युवक की लाठी उनके दाएं घुटने पर जा लगी।

मनोहर चिल्लाए। एक क्षण के लिए जुलूस में शामिल कुछ लोगों ने उधर नज़र फेरी भी, लेकिन उत्साह के सैलाब के आगे किसी को भी रुकने की फुर्सत कहां थी। मनोहर दर्द से कराह रहे थे, तभी दो बांहों ने उन्हें अपने घेरे में लेकर सड़क किनारे बने घर के अंदर खींच सा लिया। ये थी मनोहर और मंजू की पहली मुलाकात।


...

मंजू की दादी सुनीता गांव की प्रसूताओं की मालिश करने में माहिर मानी जाती थीं। किसी के हाथ-पैर की हड्डी खिसक जाती तो भी मालिश कर सही कर देतीं। मंजू ने भी दादी के गुण सीख लिए थे, जो उस दिन मनोहर का दर्द दूर करने के काम आए। भगवान का शुक्र कि चोट गहरी नहीं थी और थोड़ी देर की मालिश से ही मनोहर चलने-फिरने के काबिल हो गए। इस घटना के बाद मनोहर के पास खालेक पुरवा जाने की दो वजहें पैदा हो गईं। पहला - दोस्त चंपक और दूसरी - मंजू। हालांकि अक्सर वे मंजू के घर जाने का बहाना ना तलाश पाते, लेकिन भैंसें चराने के लिए कछार में जाते वक्त दोनों की मुलाकात हो ही जाती।

एक बार जहां मनोहर की भैंसे चर रही थीं, वहीं पास में मंजू भी बकरियां लेकर आई थीं। मनोहर दूर पेड़ की छांव में बैठे थे। तभी मंजू ने जोर से आवाज़ लगाई - 'मनोहर, जल्दी इधर आओ।' पता चला कि बकरी का एक बच्चा नदी में गिर गया था। मनोहर तुरंत नदी में कूद गए और बच्चे को निकालकर मंजू की गोद में डाल दिया। इस बीच मनोहर को नदी किनारे उगे सुंदर जंगली फूल दिखे। वे फूल तोड़कर लाए और बगैर कुछ कहे मंजू की चोटी में टांक दिए। मंजू चिहुंकीं और फिर हंस दीं, 'ये क्या है बुद्धूराम?' मनोहर सकपका गए। इतना ही कह सके, 'बेहया के फूल हैं। इन्हें सदाबहार भी कहते हैं...।' मंजू फिर हंस दीं। दोनों ख़ुश थे, लेकिन जान नहीं सके कि कब मंजू के पड़ोसी जोखन ने उनकी हंसी पर नज़र लगा दी है। बकरियों के साथ मंजू तो देर शाम घर लौटीं, लेकिन उनके और मनोहर के संग-साथ की ख़बरें नमक-मिर्च लगाकर जोखन मंजू के पिता तक पहुंचा चुका था। इस चक्कर में वो अपनी भैंसों को खाली पेट लौटा लाया था। उसकी चुगली का वही असर हुआ, जो आमतौर पर होता है। संक्षेप में समझें तो दो महीने के अंदर ही मंजू के पिता ने पड़ोसी गांव के एक बूढ़े, विधुर किसान के साथ बेटी की पहले सगाई और फिर शादी करा दी। कुछ यूं, जैसे कोई लालची-स्वार्थी किसान अपनी अशक्त, बीमार गाय को कसाई के हवाले कर दे।

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मनोहर कभी मंजू की झटपट शादी की गुत्थी को हल ना कर सके। उन्हें कष्ट हुआ तो इस बात का कि सबसे प्रिय दोस्त मंजू के साथ ढेर सारी बातें करने का मौका अब नहीं मिलता था। उनके पवित्र रिश्ते के बीच किस तरह संदेह की खाई पैदा कर दी गई थी- इसकी जानकारी तो बरसों बाद मिली, जब उनकी भी शादी हो गई। पहली रात ही पत्नी वैदेही ने पूछ लिया, 'सुनते हैं जी। ये मंजू कौन हैं?' एकबारगी मनोहर चौंक गए। उनकी समझ में ना आया कि पत्नी मंजू का नाम क्यों ले रही हैं। बाद में पता चला कि गांव की मुंहबोली ननदों ने वैदेही को मनोहर और मंजू के बीच कथित प्रेम की कहानी सुना दी थी। हाय रे प्रेम, जो सदाबहार के जंगली फूलों के गुच्छे से आगे कभी ना बढ़ा था। मनोहर ने वैदेही की शंकाओं को हंसी में उड़ा दिया। उनकी चुटीली बातों के आगे वैदेही मुस्कराने भी लगीं, लेकिन मन को संतोष ना मिला। आखिरकार, एक स्त्री सबकुछ सह लेती है पर पति का बंटा हुआ प्यार नहीं।

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मंजू ससुराल से मायके कई बार आईं पर अड़ोस-पड़ोस की कानाफूसी शायद उन्होंने भी सुन ली थी, इसलिए कभी मनोहर से मिलने उनके घर नहीं गईं। एक तरह से ठीक ही था- उनकी मित्रता पर किसी कलंक की परछाईं ना पड़ी। इसी बीच मनोहर एक बेटे के पिता बन गए। नियति का ही कमाल... एक दिन नल पर बर्तन साफ करते हुए वैदेही के पैर फिसल गए और उनके हाथ की हड्डी खिसक गई। मनोहर की मां को याद आया कि मंजू की दादी तो स्वर्ग सिधार गई हैं, लेकिन मंजू के पास ये गुण विरासत में पहुंचा है। उन्होंने मंजू को बुलवा भेजा। मंजू लंबे समय से काफी बीमार थीं, लेकिन ना-नुकुर किए बगैर आ गईं। पहले दिन उन्होंने बिना कुछ कहे वैदेही की मालिश की और जब दर्द कुछ कम हुआ तो मनोहर की मां को प्रणाम कहकर चल दीं। मनोहर की मां ने धीरे से कहा, 'कितनी गुणवान, लेकिन कैसी अभागी है बेचारी। दूसरी बीवी बन बैठी है और लगातार बीमार रहती है।'

... जब दूसरे दिन भी मंजू चुपचाप जाने लगीं, तब वैदेही ने उन्हें रोका, 'चाय पीकर जाइएगा दीदी। वे भी आ रहे होंगे।'

मंजू को लगा कि वैदेही व्यंग्य कर रही हैं। उन्होंने कातर भाव से कहा, 'मन में कोई पाप ना लाना बहू! मनोहर गांव के सब लड़कों से अलग थे तो उनसे थोड़ा बोल-बतिया लेती थी। बाकी कुछ और नहीं।' वैदेही की आंखें भी छलक आईं। दोनों के मन का मैल जैसे बह गया।

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और आज का दिन। मंजू की आकस्मिक मृत्यु की ख़बर से मनोहर स्तब्ध रह गए। वैदेही ने उनके आगे प्रायश्चित्त की मुद्रा में स्वीकार कर लिया था कि मंजू को लेकर उनके मन में कोई कलुष नहीं बचा है, लेकिन बार-बार होने वाली छींटाकशी से वे बेतरह आहत हो गए थे। उन्होंने झटके में कह भले दिया कि उनके पास अंतिम संस्कार में जाने की फुर्सत नहीं है, लेकिन उस मन का क्या करते, जो बार-बार धिक्कार रहा था, 'मंजू को श्रद्धांजलि देने तक का समय तक तुम्हारे पास नहीं है स्वार्थी मित्र?'

देर शाम मनोहर जहां काम करते थे, वहां से साइकिल चलाकर मंजू की ससुराल के गांव पहुंचे। श्मशान घाट पर सिर्फ एक चिता जल रही थी। मनोहर ने अपनी जेब से सदाबहार के फूलों का गुच्छा निकाला और चिता के पास ज़मीन पर रखकर चुपचाप मुड़ गए।

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