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रिश्ते बेमानी

रिश्ते बेमानी

कामिनी अपने पति विकास और बच्चे के साथ महाकौशल एक्सप्रेस में झाँसी से जबलपुर की यात्रा पर थी। ट्रेन अपने पूरे वेग से दौड़ रही थी।

वे लोग अपनी बर्थ पर फैल-फूट कर बैठे थे, इसके अलावा भी खाली बच गई जगह पर उन्होंने पानी की बोतल और अपने हैण्डबैग बगैरह रख दिये थे, जिससे लोग खाली जगह देख जबरन न बैठ जावें। शयनयान वाला डिब्बा होने के बाद भी हर स्टेशन पर लोग जनरल बोगियों की तरह घुसे चले आते थे। गनीमत थी कि कामिनी के आस-पास ज्यादा भीड़ न थी, सामने की वर्थ पर एक व्यक्ति लम्बी तान कर सो रहा था। वर्थ के नीचे बची जगह पर भी ज्यादा लोग न थे, बस पढ़ी-लिखी सी दिखती एक युवती अपने साथ एक बड़ा सा बैग संभाले ज़मीन पर अधेड़ वय की महिला से सटकर बैठी थी। महिला ऊंघ सी रही थी जबकि युवती खूब चैतन्य थी। उन दोनों के साथ पुलिस का एक सिपाही भी था जो वर्थ पर सो रहे यात्री के पायताने बैठा था।

अचानक ट्रेन खूब चहल-पहल वाले किसी स्टेशन पर आकर रूकी और डिब्बे का सन्नाटा ’चाय-गरम’ समोसे गरम की आवाजों से भंग हो गया। सबका ध्यान खिड़की के बाहर के दृश्यों पर जाने लगा था।

युवती ने अपने बैग मेें से छोटा सा पर्स निकाला और बीस रूपये का एक नोट सिपाही की तरफ बढ़ा कर बोली ’’भाई साब, कुछ खाने को ला दो।’’

पुलिस वाला उठा और बीस का नोट लेकर डिब्बे से नीचे उतर गया। उस युवती ने अपनी साथ वाली महिला पर नजरें गड़ा दी जो सहसा ही कोलाहल से जाग उठी थी और बड़ी बैचेनी से इधर-उधर ताकने लगी थी।

कामिनी ने अपने पति के कोहनी मारी- ’लगता है, वो पुलिस वाला इन दोनों को किसी जेल में ले जा रहा है।

विकास ने इन्कार में सिर हिलाया - ’नहीं’ ,जेल ले जा रहा होता तो इस तरह इन दोनों को आजाद छोड़कर गाड़ी से न उतरता, और फिर इन दोनों के हाथ में हथकड़ी भी तो नहीं दिख रही?

विकास का प्रश्न अपने तर्क के साथ उपस्थित था, फिर भी कामिनी का मन पूरी तरह से उन स्त्रियों के बारे में ही सोच रहा था। उसने पुनः कहा-’’तो फिर कहाँ ले जा रहा हैं? हो सकता है पुलिस वाले ने विश्वास करके हथकड़ी हटा दी हो। लड़की जवान है उसे लग रहा होगा कि ट्रेन में सभी की निगाहें उस पर टिकी रहेेंगी सो कहाँ जा सकेेगी , और इसलिये उसे मुक्त कर दिया होगा। विकास इन सब फालतू के पचड़ों से परे रहना चाहते थे। इसलिये अन्यमनस्क भाव से बोेले - शायद यही होगा।

तब तक पुलिसवाला, स्टेशन से दोे दोनों में समौसा, कचौड़ी तथा अन्य चीजें लेे आया। उसने लड़की को दोनें पकड़ा दिये। वह बैठ पाता तब तक लड़की फिर से बोल उठी - पानी भी ले आते, ट्रेन चल पड़ेगी।

पुलिस वाला इस बार पानी की बोतल लेकर उतर गया। कामिनी उस युवती की आँखों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। वहाँ एक याचना दिखी। उसे एक प्रश्न फिर उसे परेशान करने लगा कि ये दोनों कौन है? ये महिला, ये लड़की, या फिर दोनों कैदी नहीं है, तो ये दोनों आखिर हैं कौन?

वह स्त्री लगभग अधेड़ावस्था की थी। उसकी आँखों में एक अजीब सा सूनापन था। होठों पर पपड़ी जमी हुई थी। झुर्रियों वाला चेहरा सफेद सा हो रहा था बाल बेतरतीबी से इधर-उधर उड़ रहे थे। हवा के झोंके के साथ ही वे बार-बार चेहरे को ढंकने की कोशिश कर रहे थे। वह जड़वत् बनी उन बालों को चेहरे पर बिखरने दे रही थी। शरीर पर सादी सी साड़ी या यों कहें धोती ही थी। हाथ खाली थे और नाक-कान बिना आभूषण के थे। वह बार-बार नजरें उठाकर लड़की की ओर देख लेती थी। जब वह लड़की की ओर देखती थी तो उसकी आँखो का सूनापन कुछ कम हो जाता था। एक अजीब सी चमक उसकी आँखो में कौंध जाती थी। फिर वह खिड़की के बाहर दूर तक फैले मैदान और आसमान को निर्विकार भाव से देखने लग जाती, जैसे कहीं कुछ ढूँढ रही हो। मन में कोई चाहना शेष थी जिसकी खोज वह सूने आसमान और विस्तृत धरती में कर रही थी।

अचानक लड़की ने उसके कंधे को हल्के से छूकर कहा - ’’अम्माँ ले खाले भूख लग रही होगी’’

तो वह यकायक चौंक गई। ऐसा लग रहा था कि ’’अम्माँ’’ सम्बोधन ही उसे ऊपर से नीचे तक सिहरा गया था। उसने पलटकर लड़की के चेहरे को देखा फिर हाथ में लिये हुये सामान को देखा और सिर हिलाकर बोली ’’नहीं मैं नहीं खा रही मुझे भूख नहीं’’।

उसकी दृष्टि फिर से बाहर की ओर स्थिर हो गयी। लड़की अब और अधिक अपनेपन तथा अधिकार से बोल पड़ी - ’’देख अम्माँ तू नहीं खायेगी तो मैं भी नहीं खाऊँगी। तूने तो कल वहाँ खा लिया होगा मैं तो कल से भूखी हूँ।’’

उस स्त्री ने पलटकर लड़की की ओर देखा। स्त्री की आँखे अब तरल थीं। उसने हाथ बढ़ाकर बस एक समौसा लिया और विरक्त भाव से खाने लगी। पुलिसवाला पानी लेकर आ गया। युवती ने पुलिसवाले को भी खाने को दिया और खुद भी खाने लगी।

कामिनी महिला के बनते-बिगड़ते भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसके अंदर की हलचल को जान पाना किनारे पर खड़े होकर सागर की गहराई नापने के समान असम्भव कार्य था। ट्रेन अपनी मस्त चाल से अपने गन्तव्य की ओर चल रही थी।

लड़की अब ज़मीन पर पालथी मारकर बैठ गई। उसने एक नजर डिब्बे में दौड़ाई। उसने कामिनी को अपनी ओर देखते पाया.....वह थोड़ी सकुचाई पर जल्दी ही पूर्ववत् हो गयी। लड़की सादा कपड़े का सलवार कुर्ता पहने थी। दुपट्टा अस्त-व्यस्त सा फैला हुआ........कानों में छोटे-छोटे टॉप्स.......हाथ में एक-एक कड़ा......।

गाड़ी तीव्रगति से चल रही थी। कामिनी ने डिब्बे का निरीक्षण किया तो पाया कि डिब्बे में प्रायः सभी लोग झपकी ले रहे हैं। तभी विकास ने कहा - ’’कामिनी मैं सो रहा हूँ तुम तो जाग रही हो न?’’

कामिनी ने हाँ में सिर हिला दिया।

खाना पेट में पड़ने से पुलिसवाला भी ऊँघने लगा था। महिला ने भी आँखे बन्द कर लीं थीं। बस वह लड़की जाग रही थी और निर्निमेष भाव से स्त्री की ओर देखे जा रही थी। कामिनी के मन में कई सवाल एक साथ घुमड़ रहे थे। वह लड़की से उसके बारे में सब कुछ जानना चाहती थी , लेकिन बातों का सिलसिला नहीं बन पा रहा था। विकास को ऊँघते देख उसने मौका पाया और नीचे की तरफ खिसक आई फिर उस लड़की को सम्बोधित हो बोली,-’कहाँ तक जा रही हो’

लड़की चौंक उठी, उसने घूरकर कामिनी को देखा फिर रूखेपन से बोली-बस यहीं सतना तक।

युवती बात करने के मूड में न थी यह भांप कर भी कामिनी बात का सिलसिला बनाये रखना चाहती थी अतः रूखेपन पर ध्यान न देकर वह महिला की तरफ इशारा करके पूछा - ’’ये तुम्हारी माँ है’’

उसने सिर हिलाकर उŸार दिया - ’’हाँ’’।

कामिनी ने फिर कहा - ’’कहाँ से आ रही हों?’’

इस प्रश्न पर वह दुबारा चौंक गई, कुछ देर तक वह चुप रही। कामिनी उसकी ओर निरन्तर देखे जा रही थी। उस लड़की ने खुद को सम्हाला फिर हिम्मत करके बोली- ’’पागलखाने से’’।

सुनकर कामिनी भी सकते में आ गई। उसने स्वयं को सम्हाल लिया और आँखों के इशारे से पूछ लिया - ’’वहां कौंन थीं, ये?

वह बोली - ’’हाँ मेरी माँ। फिर स्वयं ही बोल पड़ी -’’ कुछ दिन पहले ही पागलखाने से टेलीग्राम पहुंचा था कि शांतिदेवी ठीक हो गई हैं, इन्हें घर ले जाइये। इसलिये मैं इन्हें लेने आ गई’’।

. ....मन भी कितना अजीब है, जितना जान लेता है उतनी ही उसकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है। कामिनी के मन में फिर से सवाल उठने लगे, उसने पूछा - ’’घर में कोई और नहीं था क्या? पिताजी या भाई, जो इन्हें लेने आते। ........मेरा मतलब है...... तुम लड़की होते हुये भी अकेले इन्हें लेने आई।’’

लगता था कामिनी की इस बात ने उसके दिल पर गहरी चोट कर दी। वह विफर कर बोली- ’’आँटीजी सब कहते हैं कि लड़की-लड़का बराबर होते है, लेकिन ऐसा मानते क्यों नहीं हैं? मेरे अकेले आने पर आपको इतनी हैरानी क्यों हो रही है? यदि मेरा भाई अकेला आया होता तो शायद आप ये प्रश्न नहीं करतीं?’’

कामिनी बोली - ’’फिर भी’’

वह असंयत होकर बोली -’’फिर भी ? हम ही तो लड़की को कमजोर बनाते है, पुरूषों की बैसाखी के बिना क्या औरत चल नही सकती। लड़का साथ में रहेगा, जिंदगीभर ख्याल रखेगा ये सोचकर उसे ख्ूाब खिला-खिलाकर सांड बना देते है। लड़की को तो पराये घर जाना है इसलिये न तो उसके खाने का ध्यान रखा जाता है और न ही उसकी चिंता की जाती है।’’ उसके अंदर का नफरत का सोता फूटा पड़ा था। लग रहा था अंदर बहुत कुछ है जो बाहर निकलने को बेचैन है।

कामिनी ने अपनी आवाज़ में नरमी लाकर कहा ’’बुरा क्यो मानती हो?’’ युवती चुप हो गई। कामिनी अपनी सीट पर सिकुड़ती हुई बोली ऊपर बैठ जाओ वह लड़की थोड़ी सकुचाई फिर बैठ गई

कुछ देर तक कामिनी भी मौन रही। उसने देखा कि अब लड़की नॉर्मल हो गई तो अब वह फिर से बोली- ’’कब से भर्ती थी’’

’’दो साल पहले’’

’’कैसे पड़ा था दौरा’’

लड़की अब तक कामिनी से ख्ुाल गई थी। उसने पहले अपनी माँ की तरफ देखा और आश्वस्त हो गई कि वह सो रही हैं तो वह अपनी आपबीती सुनाने लगी-

ये मेरी माँ शान्ति देवी हैं। घर में पिताजी, अम्माँ, भैया और मैं चार प्राणी........सब सुखी। पिताजी एक कंपनी में काम करते थे। ये मेरा व मेरे भाई का खूब ख्याल रखती। अचानक पिताजी को दिल का दौरा पड़ा।वे शांत हो गये। पिताजी के अच्छे काम व व्यवहार को देखकर कंपनी वाले परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने को तैयार थे। नौकरी का फॉर्म भरते समय विचार-विमर्श चला। मैं नौकरी करना चाहती थी। लेकिन अम्माँ, रिश्तेदार और अन्य लोगों का तर्क था कि बेटी शादी के बाद ससुराल चली जायेगी फिर उसकी तनख्बाह पर हक नहीं रह जायेगा। बेटा साथ में रहेगा इसलिए उसको ही नौकरी करने दी जाए। पिताजी की नौकरी भाई को मिल गई और कुछ पैसा भी.....। घर का बहुत बड़ा मकान था, जिसमें आगे दुकान थी। दुकान के किराए व पिताजी के पेंशन से जिंदगी फिर से अच्छी तरह चलने लगी। बड़े भाई की शादी के बाद वे अम्माँ की तरफ से विमुख होते चले जा रहे थे और अपनी ही गृहस्थी में व्यस्त। अम्माँ उनसे मेरे लिये लड़का देखने के लिये कहतीं तो वे अनसुना कर देतेे। अम्माँ मेरी शादी करके निश्चिन्त होना चाहती थी लेकिन भैया के होते हुये खुद आगे बढ़कर वे लड़का देखने नहीं जा पाती। वे अपना मन मसोसकर रह जाती।

एक दिन अम्माँ ने कहा- ’’बेटा तेरे मौसाजी बनारस में एक अच्छा लड़का बता रहे थे तू देख आ तो मैं भी संतुष्ट हो जाऊंगी। बात बन जाये तो इस साल रेखा को निपटा देंगे।’’

उन्होेंने तुरन्त ही अपना पुराना उŸार दोहरा दिया था- ’’हाँ समय मिलते ही, चला जाऊंगा’’।

ये बात तो तय थी कि न उनके पास समय होगा और न वे जायेंगे । समय तो निकालने से निकलता न। इसी बीच वे छुट्टी लेकर भाभी के साथ उनके मायके व उनके रिश्तेदारों के यहाँ चले गए। अम्माँ को इससे कहीं विरोध नहीं था। वे तो बस इतना चाहती थीं कि मेरी शादी जल्दी कर दे।

कुछ दिनों बाद भाभी को बेटा पैदा हुआ। भैया के लिए परिवार के मायने बदल गए परिवार मतलब वो, भाभी और उनका बेटा।

एक दिन भैया का अच्छा मूड देखकर अम्माँ ने फिर से प्रयास करते हुये कहा- ’’बेटा दिन यों ही निकलते जा रहे हैं.........’’

अभी वे अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थीं कि भैया ने क्रोध में उŸार देते हुये कहा- ’’तुम्हें तो बस एक ही काम रहता है मैं तो तंग आ गया हूँ तुमसे और तुम्हारी लड़की से।’’

अम्माँ भी आवेश में बोल उठीं थीं- ’’क्यों मेरी लड़की ने क्या किया है जो उस पर तोहमत लगा रहा है।’’

भैया भी कहाँ चुप रहने वाले थे वे बोले- ’’लड़की नहीं होती तो मैं कम से कम चैन से जी तो लेता। पैदा कर के छोड़ दिया है मेरे लिये।’’

अम्माँ सबकुछ तो सहन कर रहीं थी लेकिन ये व्यंग्यवाण वे सहन नहीं कर पाईं। उस रात अम्माँ पिताजी की फोटो के सामने बिलख-बिलख कर रोयी थीं। उस रात मुझे भी अपना जीवन बोझ लगा था। मुझे लग रहा था कि मैं क्यों खामख्वाह इन लोगों के झगड़े का कारण बनी हुई हूँ। मन में आता कि आत्महत्या कर लूँ या किसी के साथ भाग जाऊँ, लेकिन संस्कार इसके लिये पैर जकड़ लेते थे। उस दिन से भैया और अम्माँ में अनबोला हो गया था। अम्माँ ने अब रिश्तेदारों से मेरे रिश्ते के बारे में कहना शुरू कर दिया था और घर की लड़ाई दहलीज के पार हो गई थी। घर में एक अजीब सी चुप्पी चल रही थी। लगता था नीरवता पैर पसाकर बैठ चुकी है। भैया भाभी अपना खाना अलग बनाने लगे थे। हम माँ बेटी अलगा..........। भैया केवल उन तीन दिनों में हमारे यहाँ से खाना ले जाते जब भाभी को बनाना नहीं होता था।

धीरे-धीरे अम्माँ ने मुझे शादी समारोह में ले जाना बन्द कर दिया। समाज को घरवालों से अधिक चिन्ता रहती है। एक तरह से बाहर वाले ही परिवार वालों को बताते हैं कि लड़की सयानी हो गई है। मैं साथ होती थी तो सभी का एक ही प्रश्न होता,- ’’और सुनाओ बिटिया की बात कहीं पक्की हुई? इस साल शादी है क्या?’’

एक रात मैं अचानक बाथरूम के लिये उठी तो देखा अम्माँ जाग रहीं है। आहट पाते ही उन्होंने आँखें बंद कर ली थीं। उस दिन मुझे लग रहा था कि जवान बेटी की शादी की चिन्ता माँ की आँखों की नींद उड़ा देती है। उस दिन मुझे अपने आप पर गुस्सा आया था। समाज के नियमों पर गुस्सा आया कि बेटा अधिक दिन तक कुंवारा रहे तो समाज इतनी बातें नहीं बनाता, लड़की अधिक दिनों तक कुवांरी रह जाये तो नासूर बन जाती है। लड़के की शादी खुशी-खुशी की जाती है कि बहू आयेगी, बेलि बढ़ायेगी। लड़की को बोझ समझकर विदा किया जाता है कि लड़की के हाथ पीले हो जायें तो गंगा नहा आयें।

मुझे अच्छी तरह याद है कि बचपन से ही अम्माँ ने भैया को मुझसे अधिक प्यार किया है। भैया को बड़े गिलास में दूध मिलता था ओर मुझे छोटे गिलास में। भैया की सब इच्छायें झटपट पूरी हो जातीं थीं, मुझे अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये इंतजार करना पड़ता था। भैया का बादाम का हलुवा कटोरा भरकर मिलता था और मुझे छोटी कटोरी में। मुझे छोटी उम्र में ही अहसास हो गया था कि एक माँ की जान उसके बेटे में होती है।

रात को गेट खुलने की आवाज आयी तो अम्माँ हड़बड़ाकर उठ बैठीं उन्हें लगा कोई घर में दबे कदमों आया है उन्होंने भैया को आवाज लगायी सुरेन्द्र......... सुरेन्द्र......... देख कोई है.............देख चोर तो नहीं आ गया।

भैया हड़बड़ाये से आये बोले कहाँ.......कोई नहीं हैं - फिर आवाज में तल्खी लाकर बोले - सो जाओ चुपचाप, मोहल्ले भर को जगाओगी, रात में भी चैन नहीं है....।’

भैया चले गये तो माँ बुदबुदाने लगी- मैंने एक आदमी को सुरेन्द्र के कमरे की तरफ जाते देखा था। हो सकता है मेरा वहम हो।

यह घटना कुछ दिनों बाद फिर से रिपीट हुई। अम्माँ कहतीं कोई भैया के कमरे में रात को दिखाई देता है। भैया कहने लगे - अम्माँ को पागलपन के दौरेे पड़ने लगे हैं डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा।

कुछ दिनों बाद फिर उन्हें लगा कि कोई चोर आया है। मैं गहरी नींद में सो रही थी। कुछ तपन महसूस हुई तो देखा कमरे में आग लगी है। माँ सामने बैठी है गुमसुम....। मैं चीखती हुई भैया के कमरे की तरफ दौड़ी केवल एक ढेरनुमा सामान जल रहा था इसलिए अधिक मशक्कत नहीं उठाना पड़ी आग बुझाने में। सुबह मैंने ढेर में से सामान उठाकर देखना चाहा.........उसमें भैया की फोटो,.........भैया का रेडियो..........भैया की पुरानी कॉपी किताबें.............उनका पुराना कोट, शर्ट-पेंट और उनकी मार्कशीट्स जो थोड़ी दूर पर पड़ी थीं इसलिए आग में जलने से बच गई बच गयी। जिन्हें बाद में भैया ले गये।

मैं आश्चर्य में थी कि जलने वाला सारा सामान भेया का ही था।

मैं सोच रही थी माँ भैया से नाराज है इसलिए उन्होंने गुस्से में उनके सामान को आग लगा दी। अब मैं भयभीत रहती थी अपनी ही माँ के साथ सोने में...........।रात में कई बार उठकर उनको व उनकी मनःस्थिति समझने का प्रयास करती। कभी-कभी वे बर्तन उठाकर फेंक देतीं। कभी-कभी बड़बड़ाने लगतीं।

अब तो माह में एक आध बार दौरा पड़ता उनकी आँखें बाहर को निकल आतीं.......... लगता अभी खा जायेंगी........अपने बाल नोचने लगतीं..........अनर्गल बकतीं, गालियाँ देती। उनके पास जाने की हिम्मत किसी की न होती। पन्द्रह बीस मिनट का यह दौरा हमें हिलाकर रख देता। वे बेसुध हो जातीं। आठ दस घण्टे बाद उठतीं तो नॉर्मल रहतीं, उन्हें कुछ याद न रहता उन्होंने क्या किया है।? धीरे-धीरे पड़ने वाले दौरे का अंतराल कम होता जा रहा था और अवधि ज्यादा।

एसे में वे बस बही बड़बड़ाती..............सुरेन्द्र तू ने ये गलत किया। हम सब यही सोचते भैया अलग रह रहे हैं यह माँ सहन नहीं कर पा रहीं।

थोड़े दिनों बाद भैया का प्रमोशन हो गया। वे मिठाई लेकर माँ के पास आए। वे पैर छूने झुके........ माँ कई कदम पीछे हट गईं। मिठाई का डिब्बा कौने में फेंक दिया..............उन्हें फिर से दौरा पड़ गया।

इस बार मैंने डॉक्टर को दिखाने के लिए भैया से मिन्नतें कीं........वे उन्हें डॉक्टर के पास ले गये। डॉक्टर ने बताया दिमाग पर स्ट्रेस होने के कारण, नींद पूरी नहीं होती, दिमाग पर गर्मी बढ़ जाती है और उन्हें दौरे पड़ने लगते हैं।

उनका छह माह इलाज चला अब बे ठीक होती जा रही थीं। दिसंबर में अचानक उन्हें मौसी के यहाँ पास के गाँव जाना पड़ा। मौंसीजी का देहांत हो गया था। वे भैया से कुछ कहती ना थीं , मुझे कई तरह की हिदायत देकर चली गयीं कि उन्हें लौटने में सुबह हो सकती है।

भैया शाम को मेरे पास आये कि भाभी को खाना नहीं बनाना है। उनके बड़े साहब भोजन पर आ रहे है,ं तू चलकर खाना बना दे। मैं भी सोचकर झल्ला उठी थीं- मुझे खाना बनाना पड़ेगा। मेरे लिये पहला अवसर था। भैया और उनके साहब ने वहीं शराब पी फिर भोजन किया। भैया के साहब मुझे घूर रहे थे। साहब की नजरें मुझे अच्छी नहीं लग रहीं थी..........इसलिए मैं किचिन में ही खड़ी हो जाती .......। भैया जैसे ही आंगन में गए मैंने उन्हें साहब के घूरने वाली बात बतायी तो उन्होंने उल्टा मुझे ही डांट दिया-’’घूर ही तो रहा था कौन सी तू घिस गई।

मैं अपने कमरे मे आ गई। रात के दस बज रहे थे नीचे किराए पर जो दुकानें चलती थीं अब तक बंद हो गई थीं। थोड़ी देर बाद सुना आंगन में .............भैया भाभी की बहस चल रही है-

मुद्दा क्या था मुझे मालूम न पड़ा। भाभीजी की आवाज सुनाई दे रही थी...तुम्हारी बहन है तो सही, भैया नशे में थे........उनकी लड़खड़ाती अस्पस्ट आवाज आ रही थी।

मैं टी.वी. ऑन करके देखने लगी। थोड़ी देर बाद भाभी आईं बोली- दीदी मम्मीजी की नींद बाली गोली देे दो आज मेरे सर में बेहद दर्द है।

मैंने ढूँढ़कर उन्हें गोली दे दी और निश्चिंत हो टी. वी. देखने लगीं। इस बार माँ की बात याद आ गई कि गेट बंद करके सोना। मैैंने कुंदी चढ़ा दी।

थोड़ी देर बाद गेट पर आबाज हुई। मैंने गेट खोला.....। भाभी कोल्ड ड्रिंक्स का गिलास लिये खड़ी थीं। बोलीं-’’आपने खाना नहीं खाया, कोल्ड ड्रिंग्स तो ले लो। आग्रह पूर्वक उन्होंने मुझै कोल्ड ड्रिंक्स पिला दी और पहली बार मेरे पास बैठी रहीं। मेरी पलकें भारी होने लगीं मुझे नींद आ रही थी। मैं सोच रही थी ये चलीं जायें तो मैं अम्माँ के कहे मुताबिक गेट लगा लूँ.............पर वो पहली बार यूँ पास में बैठीं; उनका आत्मीयतापूर्ण बैठना मुझे अच्छा लग रहा था अम्माँ पर गुस्सा भी आ रहा था। वो नाहक भाभी से नाराज रहती हैं। मैं नींद के आगोश में चली गयी सुबह नींद खुली तो सिर भारी था। मैं चौंक गई कि मैंने कुर्ता उल्टा पहन रखा है , मेरे निचले हिस्सें में बेतहाशा दर्द की लकीरें सी खिंच रही हैं जैसे किसी ने देह चीर दी हो मेरेी । यह देखकर और भी चौंकी कि पास में ही अम्माँ बेसुध पड़ी हैं उन्हें फिर से दौरा पड़ गया था।

इस बार दौरा खत्म नहीं हुआ चार दिन, छह दिन जब पन्द्रह दिन हो गए तो हार कर उन्हें पागलखाने ले जाया गया।

कभी-कभी सूना घर काटने को दौड़ता। अब कई बार भैया-भाभी रात को कहीं जाते और देर रात लौटते। मैंने जानना चाहा तो भाभी ने बताया इनके दोस्त की पत्नी अस्पताल में भर्ती है उसके पास जाना पड़ता है।

दो माह ही निकले थे कि भैया का प्रमोशन फिर से हो गया कम्पनी की ओर से कोठी व गाड़ी भी मिल गई थी।

माँ के जाने के बादे मैं अकेली पड़ गई थी घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा था। अम्माँ को मिलने वाली पेंशन अम्माँ की अनुपस्थिति मेे नहीं मिल पा रही थी। भैया ने भी सहारा देना बंद कर दिया था। वो तो मकान अम्माँ के नाम था नहीं तो भैया ने मुझे कब का बेघर कर दिया होता। मेरे नाम बैंक में पैसे तो थे लेकिन कब तक निकालकर खाती। कुँआ भी आखिर एक दिन खाली हो ही जाता है।

पापा के रूपयों की माँ ने एफ.डी. करवा दी थी। दुकानों का किराया आ रहा था लेकिन सतना से ग्वालियर आने जाने में भी खर्च होने लगा। बैंक में थोड़े रूपये थे जो अब कम होते जा रहे थे मैं भी खाली रहती तो मन न लगता। सहेली ने सलाह दी तू मैंचिंग सेंटर खोल ले। फिर अम्माँ का कुछ भरोसा भी नहीं था कि कब तक ठीक हो। मैं उनसे मिलने दो-तीन महीने में जाती रहती थी। मैंने बैंक से कुछ रूपये निकालकर मैचिंग सेंटर खोल लिया। अम्माँ से मिलने आती तो सामान खरीदकर ले जाती थी। भगवान की दया से सेंटर ठीकठाक चलने लगा।

मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ भैया जिन कमरों में रहते थे वे अपनी सहेली के परिवार को किराए पर दे दिया।

कुछ दिन पहले जब मैं अम्माँ से मिलने गई तो उनकी हालत में सुधार था। मैंने सब हाल कह सुनाया भैया चले गये हैं..........मैंने मैंचिंग सेंटर खोल लिया...........आदि...........।

अम्माँ बुदबुदायी थीं- नीच कमीने ने मेरी कोख लजा दी। कीड़े पड़ेंगे उसमें। खुद में कुब्वत नहीं थी आगे बढ़ने की........।

पहली बार तब अम्माँ ने बताया कि चोर की बात वो कहती थीं वह गलत नहीं थी। भैया रात में अपने बॉस को घर बुलाते थे, जो भाभी के साथ......। अम्माँ पूरा नहीं बोल पाईं। शब्द नहीं फूट रहे थे।

वे याद करके बताने लगीं जब अम्माँ ने कमरे में सामान जलाया था उस दिन अम्माँ आहट सुनकर नीचे आई थीं। भैया भाभी से आइपिल गोली खाने की जिद कर रहे थे। भाभी ने कहा- मैं कितनी बार गोलियाँ खाऊँ इसके साइड-इफैक्ट होने लगे हैं। तुम क्यों नहीं अपने साहब को मजबूर करते कि वे ’’कवर’’ इस्तेमाल करें।

भैया ने कहा यह सब मेरे कैरियर का सबाल है। माँ तो सिर्फ मेरे ही बच्चे की बनोगी वो भी तब जब मैं तरक्की पा लूँगा।

यह सब सुनकर अम्माँ ने क्रोध में आकर भैया का सब सामान जलाया था। उनके सीने में आग जो धधक रही थी।

माँ ने ही बताया कि सबसे बड़ा दौरा उन्हें उस रात क्यों पड़ा। वे खो गयीं पुराने दिनों में-वे मौंसीजी के यहाँ से रात में आ गयीं। उन्होंने मुख्य द्वार खटखटाया तो भाभी ने दरवाजा खोला, भैया बेसुध पड़े थे।...बाद की बात ने तो मुझे ही उठा कर जमीन पर दे मारा था, मैं लाज से जमीन में गड़ी जा रही थी और लग रहा था कि तुरंत बेहोश हो जाउंगी।

मेरे कमरे का गेट उड़का हुआ था। माँ यह पूछते हुए रेखा कहाँ है? कमरे में आ गयीं...........जो दृश्य उन्होंने देखा उसे देखकर अपना आपा खो बैठीं। मेरे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। भैया के बॉस भी लगभग ऐसी ही स्थिति में थे........ मेरे ऊपर झुके हुए। वे कुछ कहती उससे पहले भाभी अन्दर आ गयीं थीं।

उन्हें देखते ही बॉस का नशा हिरन हो गया। वे वहाँ से भाग गये।

भाभी ने अम्माँ से कहा- ’’जोर से मत बोलना दीवारों के भी कान होते हैं’’ फिर तुम्हारी लड़की से कोई ब्याह नहीं करेगा।

अम्माँ ने कहा -’’तूने अपनी जिन्दगी तो खराब कर ही ली। मेरी बैटी की जिन्दगी खराब क्यों कर रही है। भाभी ने हाथ मटकाकर कहा अपने बेटे से कहो - उसे ही तरक्की का नशा चढ़ा है। मैंने भी ये सब अपनी मर्जी से नहीं किया। तुम्हारे बेटे ने जबरदस्ती नरक में धकेला है।..........कहकर भाभी मुझे कपड़े पहनाने लगीं। अम्माँ बेसुध हो गयी थीं।

...मुझे याद आया शायद कोल्ड ड्रिंक्स में नींद की गोली थी जिससे मुझे नींद आ गयी थी। बाद में भाभी ने मुझे कपड़े पहनाये होंगे जग हँसाई के डर से। तभी जल्दी मे कुर्ता उल्टा पहना दिया था। अम्माँ ने दृढ शब्दों में यह भी निर्णय कर डाला कि अब में मकान तेरे नाम कर दूँगी मुझे उससे कोई लेना-देना नहीं है।

भैया कैसे हैं? कामिनी के प्रश्न में जिज्ञासा थी।

पता नहीं.......लेकिन पता चला है भाभी की बच्चेदानी में खराबी आ गई है, अब वो कभी माँ नहीं बन पायेंगी। भैया स्वस्थ्य हैं, गाड़ी.....बंगला, रूतबा, ओहदा...सब मिल गया।

कुछ दिन पहले ही अम्माँ को वापस ले जाने के लिए अस्पताल से तार मिला। भैया को पता चला तो वे खुश होने के बजाय चिंता में पड़ गये। वे तो लेने क्या आते, मैं ही आई हूँ। घर तक ये अच्छी तरह से पहुँच जायें इसलिये अस्पताल वालों ने गार्ड की व्यवस्था कर दी है। अम्माँ की सूनी निगाहें अब भी भैया को ही ढूँढ रही हैं। मैं इन्हें कैसे समझाऊ कि वेे अब हमारे नहीं हैं जिनकी बजह से अम्माँ की ये हालत हुई वो ही आज अम्माँ पास नहीं है। कहकर वो रोने लगी।

अब तक कामिनी भी करूणा में डूब चुकी थी। आँखों की कोरों पर आये आँसू को पौंछते हुये वो बोली-’’धीरज रखो सब ठीक हो जायेगा।’’

कुछ समय बाद उन लोगों का स्टेशन आ गया वे लोग उतर गये। कामिनी के मन में कई तार झनझना उठे थे। मन में विषाद फैल गया था। मुँह कसैला हो गया। एक सच्चाई बार-बार मस्तिष्क पर प्रहार कर रही थी- ’’कैरियर के आगे क्या रिश्ते भी टूट जाते हैं...........क्या रिश्ते बेमानी हो जाते हैं......।

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