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शम्बूक - 21

उपन्यास : शम्बूक 21

रामगोपाल भावुक

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13. शम्बूक के आश्रम में- भाग 3

इस समस्या को लेकर शम्बूक ने अपने आश्रम में एक सभा का आयोजन किया। उन्होंने आश्रम बासियों के समक्ष अपनी यह बात रखी-‘ मैं चाहता हूँ जंगल की जड़ी-बूटियों पर गहन चर्चा हो जिससे योजना को क्रियान्वित किया जा सके। घन्वन्तरि जी के आधार पर इलाज करने वाले एक ग्रामीण वरुण बैद्य ने अपनी बात रखी-‘ हमारे गाँव- गाँव में प्रत्येक बीमारी के बैद्य उपचार करके लोगों की सेवा कर रहे हैं। समस्या यह है कि एक गाँव में एक या दो लोग ही इस विषय के जानकर मिल पाते हैं। किसी को सर्प ने डस लिया तो लोग दौड़ भागकर उस मरीज को उस गाँव तक ले जा पहुँचते हैं, तभी उसके प्राण बच पाते हैं। इसी तरह किसी के फोड़े- फुंसी हो रहे हैं तो उसके जानकर के पास ही उस मरीज को पहुँचना पड़ता है। किसी को ज्वर चढ़ा है तो इस के जानकर के यहाँ ही पहुँचना पड़ेगा चाहे वह कितनी ही दूर किसी गाँव में रह रहा हो। लोगों ने ये दवायें अपने पुरखों के अनुभव से अथवा किसी गुरु की कृपा से सीख पाई हैं। समस्या यह है जिसने जिस जड़ी-बूटी का उपयोग जान लिया है ,वह किसी दूसरे को सहजता से उसे बतलाना नहीं चाहता। दवा बतलाने में उसका अपना महत्व कम होने का भय, उसके मन में समाया होता है। इससे उस आदमी की मृत्य के साथ ही वह जानकारी भी विलुप्त हो जाती है। हमारे शम्बूक ऋषि का ध्यान इस बात पर गया है कि आदमी के संजोय इस अनुभव को कैसे सुरक्षित रखा जाये। कैसे जानकारों से उसके हृदय के कोने में छिपी जानकारी लोक हितार्थ में जानी जाये। इसी उदेश्य को लेकर उन्होंने अपने आश्रम में ऐसे लोगों को आमंत्रित किया जो इस विषय के जानकार थे। गाँव- गाँव से ऐसे जानकार लोगों को लोक हितार्थ की बात समझा- बुझाकर एकत्रित किया गया। कुछ लोगं उनकी इस बात से सहमत हो गये। उनसे इस विषय पर गहन मंत्रंणा की है। जिससे एक ही स्थान पर सभी बीमारियें का इलाज किया जा सके। यही सोचकर शम्बूक ऋषि ने अपने आश्रम में जड़ी-बूटियों के वरुण बैद्य जैसे जानकारों कांे खोजकर अपने आश्रम में ससम्मान स्थान दे दिया।

सम्पूर्ण अबध क्षेत्र के लोगों को शम्बूक की इस योजना का पता चला गया। वे सीखने अथवा अपना इलाज कराने की र्दृिष्ट से आश्रम में पहुँचने लगे।

इस समस्या के निदान के लिये आश्रम के उत्तर पूर्व के कोने में देशी दवाओं के निर्माण की प्रक्रिया शुरू की गई। इसमें जिन्हें जड़ी- बूटियों की जानकारी में रुचि थी, वे ही इस कार्य में सलग्न हो सके। आसपास के क्षेत्र में जड़ी-बूटियों के जानकारों की खोज की गई। इस विषय के जानकार शूद्र वर्ग में ही अधिक मिले। एक वयेवृद्ध कुवेर काका को इस कार्य के लिये बुला लिया गया। वे नये-नये युवाओं को सिखाने लग। वे बोले- ‘जितने तरह की बीमारी हैं उतने तरह की दवाइयाँ पहले से ही इस घरती पर उपलब्ध हैं। अभी तक बैद्य लोग अपने अपने अनुभव से जड़ी बूटियों से इलाज करते रहे हैं। जिसने अनुभव प्राप्त कर लिया वह अपने अनुभव को छिपा कर रखने की परम्परा विकसित होकर, नष्ट हो रही थी। हमारे शम्बूक ऋषि ने इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है।’

इस तरह शनैः-शनैः इस योजना का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया। दैनिक जीवन में काम आने वालीं दवाइयाँ जन- जीवन में समाहित होने लगी। जिससे सामान्य जन जीवन लाभान्वित होने लगा। एक ही स्थान पर सभी बीमारियों के इलाज की परम्परा विकसित हो सकी।

सुमत योगी ने इस विषय में जानकारी एकत्रित की- इस विषय में हमारे ग्रंथों में मृत-संजीवनी-बूटी मृत और मूर्च्छित व्यक्ति में नए सिरे से प्राण डालने वाली जड़ी-बूटी है। प्राचीन काल से उपचार से संबंधित कुछ वनस्पतियाँ प्रचलन में थीं। मृत-संजीवनी अर्थात मरे हुए व्यक्ति को जिलाने वाली बूटी है ,इसकी गंध-मात्र से ही मृत व्यक्ति जी उठता था। विशाल्यकरणी अर्थात् शरीर से बाण निकालने वाली बूटी। इस बूटी के प्रयोग से शरीर में प्रविष्ठ बाण निकाले जाते थे। व्रणरोपणी के लेप से घाव सूख जाते थे। सवर्ण्यकरणी अर्थात् संरोहिणी जो त्वचा पर आए घाव के निशान मिटाने वाली वनस्पति थी। प्राचीन काल से ही ऐसे पौधे थे, जिनमें जीवनदायी गुण अंतर्निहित थे और उनकी पहचान करली गई है।

कुछ ऐसी औषधियों की भी पहचान करली गई है जो मानव बनावट में शरीर के जिस अंग के समान हो, वह उससे संबंधित रोग का उपचार कर सकती है। प्रकृति ने शरीर के अंगों के प्रकार की वनस्पतियाँ व फल बनाए हैं। यदि सिर को मजबूत बनाए रखना चाहते हैं तो इस हेतु जटाधारी नारियल उपयुक्त फल है। इसी तरह आँखों के लिए वादाम, कानों के लिए अखरोट, रक्त संवर्धन के लिए गाजर, चुकन्दर और अनार, शीत से मुक्ति पाने के लिए केशर, हृदय रोग के लिए अंगूर एवं अशोक की छाल उवाल कर पीने से, पाचन के लिए संतरा, गुर्दों के लिए खरबूजा, तिल्ली के लिए अंजीर, जिगर के लिए गाजर, अण्डकोशों के लिए नींबू, अंतड़ियों के लिए बेल, हड्डियों के लिए हड़जुड़ी और कब्ज के लिए पपीता, नेत्र दृष्टि के लिये सौंफ तथा काया कल्प के लिये आँवला जैसी औषधि प्रकृति में मौजूद है। इससे साफ है, प्रकृति और मानव का परस्पर गहरा संबंध है। इसी तरह हिमालय में नारी-लता नामक पौधा पाया जाता है, इस फूल का सेवन स्त्री के लिए स्वास्थ्य व सौंदर्यवर्धक है।

उसे सामने दिख रहे थे कुछ विशाल आकार के वृक्ष- अर्जुनः, आम्रवृक्षा,अम्लिकाः खर्जू, निम्बः, पीपला,च बरगदः। उसे याद हो आई किंकरात की ,जो भोर ही दन्तमन्जन के समय वह उसका उपयोग करता रहा है। ये सभी वृक्ष दवाओं के काम में आते हैं।

जिनका इस कार्य पर स्वामित्व है वे शम्बूक के इस कार्य की निंदा करने लगे हैं। अभी तक पारिवारिक प्रशिक्षण की परम्परा का निर्वाह हो रहा था। अब शम्बूक ने उस परम्परा में सेंध लगा दी। श्री राम के काल में लोगों के निरोग रहने का यही राज है। गाँव-गाँव में रोगों के उपचार करने वाले मिल जाते हैं।

इसी कारण इन दिनों एक कहावत प्रचलित हो गई है कि श्रीराम के काल में कोई दीन- दुःखी नहीं है। किसी की अल्पमृत्यु भी नहीं होती है। सभी लोग निरोगी है। इन सभी बातों का श्रेय ये आश्रम वासी ले रहे हैं। वे मुफ्त में ही इस बात का श्रेय लूट रहे हें लेकिन अन्दर ही अन्दर झूठ के पाँव डगमगा रहे हैं । उससे बचने के लिये ये शम्बूक को अपने रास्ते से हटाना चाहते हैं। पुरानी परम्पराओं के टूटने से शम्बूक से मन ही मन द्वेष-भाव रखने लगे हैं।

इस तरह हर चौराहे पर शम्बूक के विरोध में स्वर उठने लगे। कुछ लोग उसके इस कार्य पर रोक लगाने की सोचने लगे। वे अपनी वेदना ऋषि- मुनियों से जाकर कहने लगे। ऋषि- मुनियों की पहुँच श्री राम के दरवार तक थी। इस तरह शम्बूक के विरोंध में बातें श्री राम के कानों तक पहुँचने लगीं।

इधर एक दिन शम्बूक ने आश्रम वासियें को एकत्रित कर कहा-‘आप लोगों में से जो पाण्डित्य एवं क्षत्री कर्म में प्रवीण हो गये हैं। जिन्होंने वैश्यों के कार्य में प्रवीणता प्राप्त की है वे सभी समाज में जाकर अपने अपने वर्ग में सम्मिलित हो जाये। विश्वामित्र जैसे तपस्वी ऋषि को ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित होने के लिये कठोर परीक्षायें देनी पड़ीं हैं। अनेक वार वे असफल भी रहे हैं किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। मैं समझ रहा हूँ आप लोग उनके मध्य पहुँचेगे तो वे आपको सहज में ही स्वीकार करने वाले नहीं है। वे आपकी कठिन परीक्ष लेगे। मैं उनके द्वारा ली जाने वाली कठिन परीक्षा का ही विरोध कर रहा हूँ। मैं उनके द्वारा निर्धारित माप दण्डों को बदलवाना चाहता हूँ। मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं शूद्र हूँ। मुझे विश्वामित्र से भी अधिक कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ेगा। मैंने अपने आपको इसके लिये तपा लिया है किन्तु कोई मेरी परीक्षा ही ल्रेने को तैयार नहीं है। वे डर रहे हैं कि कहीं मैं उनके द्वारा ली जाने वाली परीक्षा में उर्तीण हो गया तो उनके द्वारा निर्धारित माप दण्ड थोथे पड़ जायेंगे। विश्वामित्र को उसके स्वभाव के कारण परीक्षा में अनुतीर्ण कर दिया गया। उन्हें ब्रह्म ऋषि कह तो दिया किन्तु वे भिक्षा क्ष्त्रियों से ही माँग सकते थे, यह प्रतिबन्ध जारी रखा गया इसीलिये उन्हें राम और लक्षमण को यज्ञ की रक्षा के लिये माँगने राजा दशरथ के यहाँ ही जाना पड़ा। मैं समझ गया हूँ जो कर्मणा के कारण बटे थे, जन्मना के कठोर बन्धन में फस गये। वे यदि जन्मना से निकलकर कर्मणा के माध्यम से पुनः वहीं लौटना चाहें तो इस पर परीक्षा की दीवार खड़ी कर दी गई है। विश्वामित्र का उदाहरण बारम्बार उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है। इतना वड़ा तपस्वी होने पर भी वे उनकी बनाई लकीर के आस पास ही भटकते रहे। आज भी वे वहीं के वहीं खड़े है। विश्वामित्र नन्दनी गाय के लिये तपस्वी बने। मुझे तो व्यवस्था में बदलाव के लिये तप करना पड़ा है फिर भी मैं अपने काम में सफल नहीं हो पा रहा हूँ।

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