उजाले की ओर - 9 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 9

उजाले की ओर--9

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स्नेही मित्रो

भाषण देना जितना सरल है उसका निर्वाह करना उतना ही कठिन ! ज़िन्दगी हिचकोलों में डूबती-उतरती हुई हमें अपनी ही सोच पर चिंतन करने के लिए बाध्य करती है | वास्तव में ज़िंदगी है क्या? चार दिन की चाँदनी ? सत्य है न ?लेकिन इसी चाँदनी को पीना पड़ता है,इसीमें नहाना पड़ता है ,इसीके साथ जीना पड़ता है |फिर चाँदनी सूर्य के तेज़ में परिवर्तित हो जाती है इसमें भी मनुष्य को रहना पड़ता है,जीना पड़ता है |तात्पर्य है कि कोई भी परिस्थिति क्यों न हो ,दिन हो अथवा रात हो ,मनुष्य अपने परिवेश में रहने के लिए विवश है |

कई बार हम सोचते हैं हम जानबूझकर कोई गलती न करें,सचेत रहने का प्रयास भी करते हैं किन्तु अनजाने में कोई न कोई त्रुटि तो कर ही बैठते हैं| फलस्वरूप उसका परिणाम भुगतने के लिए बाध्य होते हैं,यह स्वाभाविक भी है |जो किया है ,उसका भुगतान तो करना ही है |वास्तव में त्रुटि करना कोई असंभावित बात नहीं है |मनुष्य है ही त्रुटियों का पुतला !वह गलतियाँ करके सीखता है और पुन: जीवन में आगे बढ़ता है |इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि वह गलती कर चुका है तो पुन: स्वयं को सुधार ही नहीं सकता |

मनुष्य के संस्कार शरीर के माध्यम से कर्म में परिवर्तित होते हैं ,ये संस्कार उसे परिवार से प्राप्त होते हैं |कुछ संस्कार वह बाहर से भी ओढ़ता है किन्तु अंत में उसके बालपन के संस्कार ही उसे वापिस लेकर आते हैं|ऐसा प्रतीत होता है कुछ संस्कार इस जन्म के होते हैं तो कुछ संस्कारों को वह पिछले जन्म से लेकर भी आता है क्योंकि कभी –कभी कुछ ऎसी परिस्थिति उत्पन्न होती है कि मनुष्य को लगता है कि उसने ऐसा तो कुछ भी नहीं किया था जिसका आज ऐसा परिणाम उसके सम्मुख आया है |यद्यपि हम नहीं जानते कि कौनसा पिछले जन्म तो कौन सा अगला ?हमारे पास तो बस --जो भी है बस यही इक पल है !

अहसास होता है कि कुछ न कुछ तो ऐसा है जिससे मनुष्य अनभिज्ञ है | वह अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में झाँकता है,प्रयास करता है अपनी त्रुटि ढूँढने की किन्तु हार जाता है ,खो जाता है अपनी ही मन की गलियों में ! वहाँ उसे कुछ तो ऎसी संकरी गलियाँ मिलती हैं जिन्हें वह याद करता है कि वह कभी फँसा था और उन त्रुटियों का उपचार करने की चेष्टा करता है लेकिन कुछ ऎसी स्थिति भी समक्ष आती है जिनके बारे में वह कुछ कह अथवा सोच नहीं पाता |तब उसका मन आत्मकेंद्रित होता है और वह सोचता है कि अवश्य ही उससे अनजाने में कोई ऎसी त्रुटि अथवा भूल हुई है जिसका परिणाम आज उसके समक्ष है |

यह बहुत सहज सी बात है कि किसी भी मनुष्य का जीवन समतल मार्ग पर नहीं चलता, उसके जीवन में स्वाभाविक रूप से ऊँचे-नीचे मार्ग आते हैं |कभी वह उन्हें सुगमता से झेल भी लेता है तो कभी ये मार्ग उसके समक्ष ऊँचे विकराल पर्वत बनकर खड़े हो जाते हैं जिनसे वह भयभीत हो जाता है |लेकिन इन्हें पार करना भी तो उतना ही आवश्यक है जितना चाँदनी रात में शीतलता से भीगना ! रात है तो दिन भी है ,चन्द्रमा की शीतलता है तो सूर्य की प्रखर किरणें भी हैं|मनुष्य का जीवन इन्हीं में डोलता रहता है और जीवन में निरंतर चलता रहता है |

कभी मनुष्य अपनी वर्तमान परिस्थिति से इतना उलझ जाता है कि स्वयं में झाँककर देखना भी भूल जाता है |यदि प्रत्येक परिस्थिति में हम स्वयं में झाँककर देख सकें तो हमारी राहें ही खुल जाएंगीं |पिछले जन्म का न भी पता चले ,इस जन्म की त्रुटियों का ध्यान आ जाएगा औए कम से कम भविष्य में उन त्रुटियों से बचा जा सकेगा |

आ ज़रा झाँक लें मन में ,बीहड़ सा कुछ लगता है

कभी समझ न पाते हैं ,ऐसा क्यों कुछ लगता है

अपनी-अपनी दीवारें हैं ,अपने–अपने बंधन भी

जीवन की आपाधापी में बस नीरव सा लगता है ||

डॉ.प्रणव भारती