हड़ताल भी जरूरी थी padma sharma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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हड़ताल भी जरूरी थी

हड़ताल भी जरूरी थी

सुबह अपने पैर पसारती जा रही थी। गैंदा बाई तेज कदमों से कॉलोनी की तरफ जा रही थी। समय का तो उसे ज्ञान नहीं था लेकिन सूरज के बढ़ते रूप और फैलती धूप को देखकर उसे लग रहा था कि आज फिर उसे देर हो गयी है।

बिखरी हुई चमकीली धूप में उसे यकायक मालकिन का चेहरा दिखाई देने लगा, जिनकी त्योंरियाँ चढ़ी हुई थी। गैंदा को लगा सचमुच मालकिन की आँखें उसे फिर घूर रही हैं तो वह घबड़ा गयी और सोचने लगी कि वे आज फिर गुस्से में आ जायेंगी। कहीं उन्होंने ही दरवाजा खोला तो अंदर तो बाद में आने देंगी बीच में ही रोककर देर से आने का हिसाब-किताब मांग ही लेंगी। गुस्से में तिरछी भवों के नीचे सिकुड़ी हुई आँखों से घूरते हुये वे टोक दंेगी- क्यों आज फिर से देर हो गयी ? तुझसे कहा है कि जल्दी आया कर लेकिन नहीं आयेगी। अब सूरज सिर पर चढ़ जायेगा तब झाडू पौछा करेगी तो बरकत कैसे होगी। ....और भी एक लम्बा-चौड़ा भाषण, ...और सब कुछ उसे चुपचाप सुनना होगा दासों को तरह...........। वह सोच रहीं थी कि मैं क्या करूँ कितना भी जल्दी उठूँ झाडू-बुहारू करने तथा कलेउ बनाने में टैम तो लग ही जाता है।

शहर से दूर एक पॉश कॉलोनी में वह घरों में काम करती है जहाँ संभ्रांत घर के लोग रहते हैं। ऊँची-ऊँची विशाल इमारतें उनकी सम्पन्नता को प्रकट करने में सक्षम थीं। गेंदा बाई ने एक दृश्टि इन इमारतों पर डाली और एक लम्बी आह भरकर सीने में उफनते लावे को समेटने लगी। उसे याद आया कि मैं इन्हीं घरों में जब काम मांगने आयी तो उसे बड़ी परेशानियांे का सामना करना पड़ा। जब अकेले ही वह काम मांगने कुछ घरों में गयी तो उन लोगों ने उसे नहीं रखा हर जगह उŸार मिला जरूरत नहीं हैं। पहले वह चकित हुइ्र कि जिन घरों में जरूरत थी उनके यहंा से भी मनाही क्यों हो गई फिर उसने अपनी एक परिचित बाई से बात की तो उसने बताया कि मेरे साथ चलना ।...और जबवह उन मालिकिनों की परिचित बाई के साथ गयी तो उसे कुछ सफलता मिली थी। मालकिन ने साथ वाली बाई से खूब ठोक बजाकर पूछ ही लिया कि नई बाई ईमानदार है कि नही, तब गैंदा को समझ में आया कि अन्य घरों में उसे क्यों नहीं रखा गया था। वह अपने साथ अपनी जमानतदार जो नहीं ले गयी थी।

मालकिन ने जमानतदार बाई के जाते ही उसका इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया- ’’बाई कहाँ-कहाँ काम करती हो?’’

गेंदा सकुचाते हुए बोल उठी- ’’बैनजी अबै तो कहूँ करौ नइयै।’’

’’तो इस बार क्या जरूरत पड़ गई’’ त्यौरियां चढ़ाते हुये मालकिन पूछ ही बैठी। वह बोली-’’आसौ (इस वर्ष) सूखौ पड़ गऔ। फसलऊ नई भई, नईं तौ खेत काटवे

चले जाते।’’

मालकिन के चेहरे पर मुस्कान थिरक आयी थी, जिसे गैंदा ने देख तो लिया था लेकिन समझ नहीं पाई थी। मालकिन को लग रहा था कि यह जरूरत की मारी है और इसे रेट भी नहीं मालूम है कम में पट जायेगी। मुख्य मुद्दे पर आने से पहले उसने पूँछ लिया- ’’तुम कौन बिरादरी हो’’ वह सिकुड़ कर आधी हो गई उसे लगा कि किसी बिच्छू ने उसे डंक मार दिया। उसके रोम खड़े हो गये, उसे याद आया कि खेत में नंगे पैर काम करते-करते कभी घास का तिनका पैर में चुभ जाता हैं, जिससे शरीर के रोंगटे ऐस ही खड़े हो जाते हैं। धरती पर निगाह जमाते हुए बोल पड़ी- ’’आदिवासी’’।

हालांकि साथ वाली बाई से वे कल ही पूछ चुकी थीं। लेकिन फिर भी बुरा सा मुँह बनाते हुए बोली- ’’अरे अब मैं तुझसे क्या काम करवाऊँगी?’’

ऐसा व्यक्त करके संभवतः वे सोच रही थीं कि ये और कम पैंसो में पट जायेगी। गैंदा शांत गठरी बनी जड़वत् बैठी रही। उसने सूनी याचक आँखो से मालकिन की ओर देखा और कहा- ’’बैनजी कोयऊ काम पै रख लेऊ, मैं भौत परेशानी में हों।’’

मालकिन ने कुछ दया दिखाई और दो सौ रूपयें माहवार में उसे झाडू-पौछा पर रख लिया।

गैंदा अलस्सुबह घर से निकलती थी। कॉलोनी थोड़ी दूर थी। वहां तक अपनी चाल से पहुंचते-पहुंचते उसे बीस मिनिट लग ही जाते थे। फिर छः-सात कमरों का झाडू-पौछा लगाते-लगाते उसे डेढ़ दो घंटे हो जाते। वह थककर चकनाचूर हो जाती। वह सोच-सोच कर परेशान थी कि दो सौ रूपयों से होगा भी क्या? उसे और घरों के काम करना पड़ेगा। तब काम चलेगा। काम पर निकलने से पहले वह बच्चों के लिए खाना बनाती। बड़ी बेटी जो दस वर्ष की थी, उसी के भरोसे अपने दो बच्चों को छोड़ आती। कभी-कभी मालकिन की मेहरबानी होती तो उसे चाय मिल जाती.........जिसे पीकर उसे अहसास हो जाता कि यह चाय नही चाय के पानी में अलग से पानी और शक्कर मिला दी गयी है। कभी-कभी बासी भोजन मिल जाता वो भी बड़े अहसान के साथ कि मैं तो कपड़े वाली बाई कोे दे रही थी सोचा तुझे ही दे दूँ। वह जल कर रह जाती। ऐसे ही दिन कट रहे थे।

गैंदा रोज सोचती कि मालकिन सेे कह दूँ कि इतने पैसों में काम नहीं चल पाता। वे कुछ पैसे बढ़ा दें तो गुजर-बसर हो जायेगी।

एक दिन गैंदा को मालकिन की पुरानी बाई मिली जो उनके यहाँ पहले काम करती थी। उससे बातचीत हुई पता चला की वो उसे चार सौ रूपये माहवार देती थी और चाय नाश्ता अलग से । उसे बाई ने बताया कि मालकिन पैंसे नहीं बढ़ा रही थी। काम अधिक करवातीं थीं इसलिए उसने काम छोड़ दिया। वह सोच रही थी कि मुझे इतने कम पैसों पर क्यों रखा है।

उसने दूसरे दिन मालकिन को संकेत दिया कि बैनजी आपकी पुरानी बाई मिली हती। सुनते ही मालकिन को लगा कि जरूर इन लोगों की बात हुई होगी। पुरानी वाली बाई ने इसे भड़का दिया होंगा सोचते ही उनकी आँखों में क्रोध उभर आया। उन्होंने प्रकट नहीं होने दिया कि पहले वाली बाई कम पैसांे के कारण काम छोड़ कर गयी है। वे पुरानी वाली बाई पर इल्जाम लगाते हुए बोली-हाँ उसने हाथ की सफाई दिखा दी थी इसलिए मैंने ही हटा दिया। सुनकर गैंदा स्तब्ध रह गयी। वह सोचने लगी ऊ बाई तो सबरी कॉलोनी में ईमानदारी के लाने परसिद्ध है यह मालकिन ऐसा काहै कह रही है। उसे सोचते देखते मालकिन बोल पड़ी देख तू पैसे बढ़ाने की बात मत करना। अभी तुझे एक साल थी नहीं हुआ है कहकर वे पैर पटकती चली गई। वे बडवड़ातीं जा रही थी- इन लोगों के लिए कितना भी करो कितना भी दो कोई फरक नहीं पड़ता।

गैंदा मन ही मन सोच रही थी कि शुरू में ही मालकिन ने कही थी कि दो तीन महिना काम कर लो फिर पैसे बढ़ा देंगे। लेकिन अब तो काम करते-करते छः महीने हो गये पर पैसे बढ़ाने का कहीं कोई जिकर नहीं है। उसने तो इसी भरोसे काम किया था कि अच्छा काम करेगी तो मालकिन जल्दी ही पैसे बड़ा देगी।

...........इधर उसका पति भागल भी परेशान था, पहले खदानों में काम करता था। लेकिन आज कल खदानों में काम बंद था। वह अब हम्माल का काम करता। वह सुबह से दुकानों पर पहुंच जाता.......... अपनी पीठ पर भारी-भारी बोरियांे को लादकर ट्रक पर लदवाता......... ट्रक पर आये माल को पीठ पर रखकर गोदामों में पहुंचाता। खदान में छेनी हथोडे़ का इस्तेमाल करते-करते उसकी उंगलियों में गड्ढे पड़ गये थे। अब अधिक बजन उठाने से उसकी मांसपेशियाँ बाहर को निकलती सी लग रही थी। हरी-हरी नसें उसकी पिंडली से झाँकती दिखाई दे रहीं थीं कोई भी देखकर कह सकता था कि अमुक नस कहाँ से कहाँ तक जा रही है। आजकल गैंदा को भागल के हाथ खुरदुरे की जगह कठोर लग रहे थे।

सर्दियों के दिन शुरू हो गये थे। अचानक मालकिन की कपड़े वाली बाई काम छोड़कर चली गई। कॉलोनी दूर होने के कारण कोई भी बाई वहाँ जाने को तैयार नहीं थीं। मालकिन ने कपड़े धोने की जिम्मेदारी भी गैंदा पर डाल दी और बदले में एक टाइम खाना देने की बात तय कर ली। खाने की बात सुनकर गैंदा खुश हो गई कि चलो अच्छा खाना मिलेगा। उसी में बचाकर अपने बच्चों के लिए भी लेे जाया कंरूगी।

एक चपटी सी प्लेट और किनोर चटकी कटोरी गैंदा को सौंप दी गयी। यह निश्चित बर्तन थे, जिनमें उसे खाना दिया जाता था।एक दो दिन तो अच्छा खाना खाना मिला। जब कभी दो सब्जी दी जाती, वह पहले वाली सब्जी खाकर कटोरी खाली कर लेती फिर दूसरी सब्जी उसी कटोरी में डाल दी जाती । पानी का कोई बर्तन नहीं था। जब वह खाना खा चुकती तो हौदी में पड़े टूटे जग में पानी भरकर उसे ओक से पानी पिला दिया जाता। खाना खाने बैठती तो आँखों के आगे बच्चों का चेहरा डोल जाता और हाथ का निवाला हाथ में रह जाता। बच्चे भूखे हैं तो माँ का उदर कैसे भर सकता है? वह अपने लिए भोजन में से बच्चों को बचाकर ले जाने लगी। जब मालकिन ने देखा कि ये खाना घर ले जाने लगी तो उन्होंने खाने की मात्रा कम कर दी। धीरे-धीरे खाना और पानी मिली सब्जी उसका नसीब बन गया। खाना देखकर उसकी आँखें भर जाती। लेकिन मजबूरी में वह अपने आपको संभाले हुई थी।

जहाँ-जहाँ वह काम मांगने जाती उसकी बिरादरी पहले पूँछी जाती। बिरादरी के कारण तो वह अन्य बाईयों की तुलना में कम पैसों में ज्यादा काम कर रही थी। हर कार्य के लिए जाति विभाजन आज भी बना है पास की कॉलोनियों में। बरतन मांजने का काम ढीमर लोगों का है, कपड़े धोने का काम रजक लोगों का है। खाना बनाने का काम कोई भी कर सकती हैं। ये तो खाने वाले की श्रद्धा पर निर्भर है कि उसके जातिगत दृश्टिकोण क्या हैं।

यह कॉलोनी दूर थी इसलिए उसके बरतन मांजने या अन्य कामों के करने पर किसी जाति ने कोई विरोध दर्ज नहीं कराया। अब तो वह कपड़े भी धो रही थी। मालकिन को दया नहीं आती थी।

सर्दियों के दिन थे, हाथों को हाथ नहीं सूझ रहा था। विगत रात्रि को बारिश ने मौसम में सब कुछ ठण्ड से जमा हुआ प्रतीत हो रहा था। आग के सामने से उठने का मन नहीं कर रहा था। लेकिन पेट की आग ज्वाला बनकर सताने लगी तो गैंदा अपने काम पर निकल आयी। आज तो कपड़े धोते-धोते उसके हाथ लाल पड़ गए और पैर ठिठुर गये। उसका मन कर रहा था कि एक कप चाय मिल जाए तो शरीर में थोड़ी गर्मी आ जाय। लेकिन उसकी सुननेे वाला, उस पर रहम करने वाला वहाँ कौन था? जैसे-तैसे वह घर पहंुची तो बिस्तर पकड़ लिया। उसे लस्त-पस्त देखकर घवराया हुआ भागल उसे लेकर सरकारी अस्पताल पहुँचा। वहाँ पता चला कि हड़ताल चल रही है। डॅाक्टरों की कुछ मांगे थीं जिनकी पूर्ति के लिए वे अपना काम-काज ठप्प किये बैठे थे। गेंदा मन ही मन डॉक्टरों को कोसने लगी कि डॉक्टर जैसे लोग हड़ताल कर रहे हैं।

अब मरीजांे की कौन सुनेगा। ईश्वर करे कि डॉक्टरों के घर इन्हीं दिनों अनहोनी हो जाये।

भागल बता रहा था कि आजकल हड़ताल करना तो शगल बन गया है। अपनी मांगों की पूर्ति के लिए लोग धरने पर बैठ जाते हैं। बहुत वहले देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए हमारे नेताओं ने तरह-तरह की तरतीबें की थीं। असहयोग आंदोलन चलाया था, भारत छोड़ो आंदोलन और न जाने क्या-क्या? गांधीजी तो देश के लिए अनशन तक पर बैठे थे वो सब देश की भलाई के लिए था। आज अपनी झोली भरने के लिए ये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। देश की फिक्र करता कौन है? दूध वालों की हड़ताल, बस की, ट्रक की, बैंकों की, शिक्षकों की............पिसता बेचारा गरीब है। रोज कमाना, रोज खाना यह हिसाब है उसका। आए दिन की हड़तालों से भूखे मरने की नौबत तक आ जाती है। पेट कभी हड़ताल पर नहीं जाता न................।

भागल के पास इतने रूपये नहीं थे वह उसे प्राइवेट डॉक्टर को दिखा सके। वह घर वापस ले आया। गेंदा को लग रहा था कि वह सर्दी खा गयी है। उसने अदरक तुलसी और काली मिर्ची का काढ़ा बनाकर पी लिया तो उसे कुछ आराम पड़ता दिखाई दिया। उसका शरीर निढाल हो गया। दो तीन दिन तक वह काम पर न जा सकी।

मालकिन उसका इंतजार करती रही।भरी सर्दी में जब मालकिन को स्वयं झाडू-पौछा बर्तन करना पड़ा तथा कपड़े धोेने पड़े और उनके हाथ पानी में भीग कर लकड़ी से सुन्न हो गये तो मालकिन को महसूस हुआ कि गेंदा पर इस सर्दी में क्या बीतती होगी। चार-पांच तारीख हो गयी थी। गेंदा पैसे लेने भी नहीं आयी तो उन्हें लगने लगा कि या तो वह काम छोड़ गयी है, या फिर हड़ताल कर बैठी है।

उन्होने सोचा सचमुच वह तो कभी नागा नहीं करती। जब कुछ विशेष काम होता तो एक दिन पहले कह जाती है। पर इस बार तो उसने कोई खबर ही नहीं पहुंचायी । उनके मन में द्वन्द्व छिड़ गया कि कम पैसे देने की वजह से गैंदा काम छोड कर चली गई, या हड़ताल पर है। वे अन्य बाईयों से कहतीं पता नहीं गैंदा को क्या हो गया वह एक तारीख से नहीं आयी। चार-पाँच दिन हो गये मुझे तो चिंता हैं कि उसे कुछ हो ना गया हो। उनके इस वाक्य में गेंदा की ंिचंता कम घर के काम की चिंता ज्यादा लग रही थी। एक तारीख से न आने का मतलब यही है कि अपना महीना पूरा करके उसने काम छोड़ दिया। मालकिन को अपनी आशंका सही होते लग रही थी। वे और भी बेचैन हो गयीं उन्होंने कहा-लेकिन पिछले महीने के पैसें तो लेने आती। बाई समाधान करते हुये कहतीं - ’’दो चार दिन मंे ले लगी। पैसे थोड़े ही भाग जायेंगे। अब नया काम संभाला होगा तो फुर्सत कहाँ मिल पाती होगी।’’

पांच दिन आराम करने के बाद गेंदा आज बहुत ही धीमे कदमों से कॉलोनी की ओर चल पड़ी। वह जब तक मालकिन के यहाँ पहुंची, झाडू-पौछा हो चुका था। उसे देख्कर मालकिन को लगा कि यह महीने के पैसे लेने आयी है। उन्होंने बड़ा प्यार जताते हुये नम्र शब्दों में कहा- ’’अरे गेंदा, तू कहाँ चली गयी थी। देख मैं कितना परेशान हो रही थी।’’ उन्होंने स्नेह जताते हुये कहा- ’’मुझे तेरी बहुत फिक्र्र हो रही थी। मैं सोच रही थी कि कल किसी को तेरे घर पहुंचाऊँ।’’

इधर थकान के कारण गेंदा के हृदय की धड़कन बढ़ी हुयी थी कमजोरी की बजह से उसके मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी। हांफी के कारण उसका बुरा हाल था। सीना धौंकनी के समान फट-फट कर रहा था। मालकिन को लगा कि वह गुस्से में है। उन्होंने शब्दों में बड़ी मिठास लाते हुए कहा- ’’देख मैं इस महीने से तेरे पैसे बढ़ा दूंगी, चार सौ रूपये ले लेना, अब तो ठीक है।’’

सहसा गेंदा के थके हुए चेहरे पर एक मुस्कान थिरक गई। मजदूरी बढ़ने की अप्रत्याशित खबर सुनकर उसके मन में नयी आशाऐं फूट पड़ीं। उसका मन हिसाब में ही व्यस्त हो गया कि किस-किस चीज में कितने खर्च करना है। उसे शांत देखकर मालकिन को लगा यह अभी भी तैयार नहीं है। उन्होंने उसे समझाते हुए कहा- ’’अच्छा ठीक है साथ में खाना भी ले लेना।’’

खाने की बात आते ही गेंदा का मुँह कसैला हो गया। उसने कहा मुझे खना-बाना नहीं चाहिए।

मालकिन ने तुरंत नया पेंतरा बदला और कहा ठीक है पाँच सौ रूपए में तो तैयार है।

घर लौटते समय गेंदा सोच रही थीं कि हड़तालेें भी आवश्यक होती हैं। उसे उन डॉक्टरों से हमदर्दी होने लगी जिनकी हड़ताल की बजह से चार दिन घर पर पडी रही सो मालकिन को खुद काम में जुटना पड़ा। काम के दुःख दर्द उन्हें समझ आ गये तभी मजबूरन खुद ही तनखा बढ़ा दी। उसने मन ही मन माफी मांगते हुए अपने वे शब्द वापिस लिए जिसमें उसने डॉक्टरों को बद्दुआएं दी थीं। वह सोच रही थी हर काम के लिए प्रजातंत्र में सचमुच हड़ताल जरूरी होती है क्योंकि बिना रोए तो माँ भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती है।

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