क्या ठीक है? Abha Yadav द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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क्या ठीक है?


एक ही इंसान से एक ही समय में प्यार और नफरत करना कितना हास्यास्पद है!लेकिन, ऐसा होता है-एक ही समय में एक ही इंसान से प्यार और नफरत. सच ही तो है-जब बाबू गलतफहमियों में घिरे हुए मां पर झूठे आरोप लगाते है, थब कितने विकृति और लिजलिजे मालूम देते हैं. और नफरत का एक सैलाब उनकी ओर मुँह फाड़े अजगर सा बढने लगता है. इसके बाद बाबू कितने पराये और अजनबी हो जाते हैं. उनके और परिवार के सदस्यों के बीच एक न पटने वाली खाई सी बन जाती है. उस खाई के बीच होती है नफरत और न टूटने वाली खामोशी, गहन कुढ़न लिए हुए.
लेकिन, जब यही बाबू खर्च के भार से दबे, अभावों के एहसास से चूर-चूर ,जीने का ढ़ोग करने हैं, तब कितने निरीह लगते हैं. एकदम दया के पात्र जैसे. और तब सहानुभूति और स्नेह की एक बौछार सफेद रूई जैसी बर्फ सी उनके ऊपर झर उठती है. सच!कितने अपने और आत्मीय लगते हैं ,बाबू तब!
क्या, बाबू कि यह दुरंगा चेहरा, प्यार और नफरत के यह रंग ठीक हैं?शायद, हां!यह दुनिया एक रंगमंच ही तो है.जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अभिनय करता है.अभिनय भी कितने तरीकें के-प्यार और नफरत, स्वार्थ और बेईमानी, इंसानियत और पशुता के.ऐसे ही न जाने कितने जिनसे होकर आदमी हर पल गुजरता है.किन्तु यह सब होते हुए भी बाबू का यूं गिरगिट की तरह रंग बदलना कुछ अच्छा नहीं लगता.
लेकिन, मां भी तो क्या चीज हैं?जैसे क्षमाऔर सहनशक्ति उनके अंदर ठूंस-ठूंस कर भरी हो.सहने की भी हद होती है. बाबू कभी उनसे सीधे मुँह बात ही नहीं करते, उलटे लताड़ते रहते हैं. कहेंगे-"मेरा घर संभाल नहीं सकती. मेरे बच्चों को बिगाड़ रही हो. मेरी जान ही लेकर रहोगी."कहते हुए कितनी ऊँची आवाज हो जाती है, बाबू की.
और मां इसे खामोशी से सह जाती है,जबकि उन पर इसमें से कुछ भी लागू नहीं होता. बाबू ने मुझे या यति को कभी गलत शिक्षा नहीं दी.बुरी बातों से हमेशा दूर ही रखा. साथ ही बाबू का घर कितनी कम आमदनी में अच्छे से संभाल रखा है-यह बाबू भी जानते हैं. उस बाबू की जान लेने का आरोप तो सिरे से तभी खारिज हो गया. जब बाबू क्षय रोग से पीड़ित सरकारी हस्पताल में मृत्यु की ओर बढ़ रहे थे. मां ने अपनी मां का दिया सारा जेबर बेचकर पूरे विश्वास के साथ प्राईवेट हस्पताल में बाबू का इलाज कराया. मां का विश्वास काम आया. बाबू जल्दी ही ठीक होकर घर आ गए.
क्या, यह बात बाबू नहीं जानते?सब जानते हैं. लेकिन, फिर मां को उलहाने क्यूँ?शायद, इसलिए, जब व्यक्ति असहनीय गलती कर बैठता है और एहसास होने पर पीछे पलटकर देखता है, तब उसे अपने घर झुंझलाहट होती है और इसकी भड़ास वह दूसरों पर दोषारोपण कर निकालता है.
बाबू भी ऐसी ही गलती कर बैठे हैं. भविष्य की परवाह न करके उन्होंने पैसे की कीमत न जानी.कमाना और खर्च करना. वह यह भी भूल गए मां ने जो बेचा उसे फिर से बना सकते हैं. मां की आँखों में कभी विरोध के भाव उभरने की नाकाम कोशिश करते तो प्रतिक्रिया में बाबू के भींचे हुए होठों पर यही लफ्ज़ होते-"औरत की जिम्मेदारी खाना पकाने और बच्चे संभालने की होती है. पैसों का हिसाब रखने की नहीं."बातावरण की नमी को सोख जाते.मां भी इसका विरोध नहीं कर पाती. शायद उन्हें कलह पंसद नहीं थी.या फिर दकियानूसी होने के कारण पति की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानती.
किंतु, अब बाबू की दुकान में आग लगने से जो घाटा आया उससे बाबू झल्ला उठे.कभी मां को दोषी बताते तो कभी किसी और को.दूसरों को दोष देते देते खुद को ही दोषी समझने लगते. तभी तो बीच -बीच में टूटकर बिखरने लगते हैं. लेकिन इस ऊपरी शोर से क्या फायदा?शायद आर्थिक परेशानियों और जिम्मेदारी को पूरा न कर पाने का शोर उनके अंदर बढ़ जाता है, तभी अपने को भुलावे में डालने के लिए यह बाहरी शोर खड़ा कर देते हैं.
लेकिन, उनके इस शोर से क्या फायदा?मां कर भी क्या सकती है.मां के हाथ पर बाबू ने सिर्फ घर खर्च का ही पैसा रखा.वह बचत भी कहा से करती. कहां से वह बाबू को सहारा दे.मां के अलावा मुझसे भी तो आर्थिक सहायता की इच्छा रखते हैं. आखिर हाईस्कूल पास को कहां नौकरी मिल जायेगी?कोई प्राईवेट ही कर लूँ. लेकिन, इस बर्ष बाबू ने कितनी मुश्किल से स्कूल फीस भरी है. वह परीक्षा न देने पर बेकार हो जायेगी. फिर मां भी तो चाहती है कि पढ़लिख कर सरकारी नौकरी कर लूँ.ताकि बाबू का सहारा बन संकू.
लेकिन, दुकान में आग लगने से बाबू कितना बदल गए हैं. कभी किताब के लिए पैसा मांगों तो पहले से ही बरस पड़ते हैं"हर समय पैसा चाहिए. पेड़ लगा है,क्या?कहीं नौकरी क्यूँ नहीं कर लेते हो?"लेकिन, इसके साथ ही उनका चेहरा अपराधी भाव से झुक जाता. बडे निरीह लगते बाबू.
लेकिन, बाबू के यह शब्द सारे निश्चय और विश्वास को हिला जाते हैं. कभी बाबू की गैरजिम्मेदारी पर क्रोध आता है तो कभी बाबू का निरीह चेहरा देखकर मन पसीजने लगता है. क्या करू?पढाई छोडकर तब तक के लिए कहीं नौकरी ही कर लूँ, जब तक बाबू की आर्थिक स्थिति संभल नहीं जाती. इसके बाद फिर पढ़ाई शुरू कर दूंगा. क्या है?कितने लोग उम्र ढ़लने तकपढ़ते हैं. फिर पढाई की कोई उम्र तो निश्चित नहीं होती जो ढ़ल जायेगी. अगले बर्ष प्राईवेट फार्म ही भर दूंगा.
लेकिन, नौकरी मिलेगी कैसे?हां इसके लिए अखबार देखने पड़ेंगे. स्टड़ी रुम में चलकर देखता हूँ. सभी अखबार वहीं तो हैं.


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Abha Yadav

7088729321