राम रचि राखा - 6 - 10 - अंतिम भाग Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 6 - 10 - अंतिम भाग

राम रचि राखा

(10)

मुन्नर को खिलाने के बाद रात का खाना खाकर भोला घर चला गया था। बिजली शाम को ही कट गयी थी। आजकल दिन की पारी चल रही है।

मुन्नर ने लालटेन जलायी और ओसार में आ गए। उनके हाथ में एक खुरपी थी। एक कोने से दरी को हटाया और लालटेन जमीन पर रखकर वहाँ खोदना शुरू किया। दस-पंद्रह मिनट में घड़े का मुँह आ गया, जिसे मुन्नर ने दबा रखा था। हाथ डालकर जो भी रूपया पैसा था, सब बाहर निकाल लिए और घड़े का मुँह बंद कर पुनः उसे मिट्टी से ढँक कर ऊपर की मिट्टी दबा दी और उस पर दरी बिछा दिए।

गाँव के लोग जितना आटा, चावल, दाल इत्यादि लाते थे, वो सब मुन्नर और भोला के खाने से कहीं बहुत अधिक होता था। गाँव का बनिया बाकी का सामान ले जाता और जरुरत की चीजों जैसे साबुन, तेल, प्रसाद , चन्दन, केरोसिन, खाने के अन्य सामान इत्यादि देने के बाद जो पैसा बचता उसे मुन्नर को दे देता। लोग इस बात को जानते भी थे और इतना समझते भी थे कि कुटी का एक खर्च है जिसके लिए कुछ पैसों की जरुरत पड़ती है। लेकिन बाबा ने कितना पैसा जमा कर रखा है यह किसी को नहीं पता था। कभी कुछ लोग प्रसाद के साथ नकद रुपये भी चढ़ाते थे। कुल मिलकर एक अच्छी-खासी रकम थी। मुन्नर सोच रहे थे- इन पैसों से दो-तीन भैसें तो खरीदी ही जा सकती हैं।

फिर बिस्तर पर लेटे। लेकिन रात भर नीद नहीं आयी। आज जल्दी सवेरा भी नहीं हो रहा है। बार-बार उठकर दीवार पर लगी घड़ी देखते। सुबह के तीन बजे थे।

नदी के साथ की पगडंडियों पर मुन्नर लम्बे लम्बे डग भरते हुए चले जा रहे थे। काँधे पर एक बड़ा सा झोला लटक रहा था। जिसमें तुलसी रामायण का एक गुटका, कुछ अंतर्वस्त्र और गेरुआ धोतियाँ और चार-पाँच साल में जमा की हुयी नकदी थी।

एक दिन इन्ही पगडंडियों पर चलकर आये थे इस गाँव में। तब मन कष्ट के भरा था। विछोह का दुःख था। मन पर अनिश्चितता के बादल छाये हुए थे। कोई मंजिल न थी। कुछ था तो, अनजान रास्ता था, पीड़ा थी। आज अपने घर लौट रहे थे।

"जैसा भी है अपना घर है। माई है, मुनिया और छुटकी हैं। बाबू तो अब पाँच-छः साल का हो गया होगा। जब घर से निकला था तो छः-सात महीने का था। इन सबके अलावा कोई और भी आएगा जिसे मैं नितांत अपना कह सकूँगा।"

"समाप्त"