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गवाक्ष - 34

गवाक्ष

34==

सत्याक्षरा को पीड़ा में छोड़कर कॉस्मॉस न जाने किस दिशा की ओर चलने लगा । उसके मन में अक्षरा की पीड़ा से अवसाद घिरने लगा था, एक गर्भवती स्त्री को कितना सताकर आया था वह ! उसके पैर जिधर मुड़ गए, वह उधर चल पड़ा। अपने अदृश्य रूप में वह प्रो.सत्यविद्य श्रेष्ठी के बंगले के समक्ष पहुँच गया था। भीतर जाऊँ अथवा न जाऊँ के पशोपेश में वह बहुत समय तक बाहर से गतिविधियों का निरीक्षण करता रहा । कुछेक क्षणों के पश्चात ही उसने स्वयं को तत्पर कर लिया कि उसे प्रो.तक जाना होगा। कैसा काँच की पारदर्शी दीवार सा होता जा रहा था वह!अपने से ही भयभीत होने लगा था वह! न जाने कब वह किसी नई संवेदना की चपेट में आ जाए। किन्तु स्वयं पर वश कहाँ होता है । जिन घटनाओं को होना होता है वे होती ही हैं ।

सत्यविद्य, यही नाम बताया था मंत्री जी ने ! सत्य और विद्या का मिश्रित रूप यानि पूज्य गुरुदेव डॉ सत्यविद्य श्रेष्ठी! जो विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे एवं अपनी यौवनावस्था से अपने सपने को लेकर जी रहे थे। ऐसा स्वप्न जिसमें वे नींद में भी संवाद करते रहे थे। दर्शन विषय का अध्ययन व अध्यापन करते हुए वे जीवन को समझने के लिए जूझते रहे थे। दर्शन में उनकी इतनी रूचि थी कि वे सदा चिंतन में मग्न रहते, पुस्तकों में उलझे रहते। वे समाज की रूढ़ियों व अंधविश्वासों को देखकर बैचैन हो उठते, उन्हें लगता जो भी मनुष्य पृथ्वी पर अवतरित हुआ है, समाज के प्रति उसका कुछ न कुछ उत्तरदायित्व बनता है।

लगभग तीस वर्ष के अध्यापन-काल में प्रो.श्रेष्ठी ने दर्शन-शास्त्र पर गहन शोध की, अनेकों शोध-परख लेख लिखे, उनके अनेकों लेख देश-विदेशों में प्रकाशित व प्रसारित हुए । दर्शन के क्षेत्र में देश-विदेश के बहुत से विद्यार्थी उनके साथ शोध करने के लिए तत्पर होने लगे । अपने अध्यापन काल में वे सदा चिंतन-मग्न रहे थे, मुस्कुराते व्यक्तित्व के स्वामी प्रोफेसर का जीवन के बारे में कुछ विशेष दृष्टिकोण बन चुका था।

प्रो. श्रेष्ठी के अनेकों शोध-व्याख्यान प्रकाशित हो चुके थे। उनके पास विश्व के उन विश्विविद्यालयों में व्याख्यान देने के निमंत्रण आते, जिनमें भारतीय दर्शन की ओर झुकाव था। समयाभाव के कारण न चाहते हुए भी उन्हें निमंत्रण अस्वीकार करने पड़ते । उनके अपने विश्वविद्यालय में उनके साथ काम करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, कितने छात्र-छात्राएँ उनके साथ शोध-कार्य करना चाहते थे किन्तु वे नए छात्रों को शोध के लिए नहीं ले पाते थे ।

कार्य की अधिकता के कारण उन्हें अपनी पुस्तक-लेखन का स्वप्न धूलि-धूसरित होता दृष्टिगत होने लगा । उन्होंने इस पुस्तक के लिए बहुत शोध किया था। बहुत सोच-विचार व विभाग में विचार-विमर्श के पश्चात प्रो.सत्यविद्य ने विश्वविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया जिससे वे पुस्तक-लेखन कर सकें तथा व्याख्यानों के लिए जा सकें। उन्होंने विश्विद्यालय से प्रतिज्ञा की थी कि उनकी आवश्यकता पड़ने पर वे सदा सहयोग करेंगे ।

यह अध्ययन-कक्ष प्रो.के लिए जीवन का महत्वपूर्ण स्थान था, पिता के बनाए हुए इसी बंगले में उन्होंने माँ-पापा की उंगली पकड़कर नन्हे-नन्हे पाँवों से डग भरना सीखा था|यहीं माँ की ममतामयी गोदी में बैठकर उन्होंने जीवन की, परिवार की, देश के सपूतों, संतों, वीरांगनाओं की कहानियां सुनी थीं। यह कक्ष उनका साधना-गृह था जिसमें वे घंटों चिंतन-मनन करते। इस कक्ष में मानो कोई उन्हें चेतना की छुअन दे जाता, वे उससे भीग उठते। यहीं उनके मन की क्यारी में जीवन की क्षण-भृंगुरता के बारे में कुछ ऐसे प्रश्न उगे थे जिन्होंने उन्हें दर्शन की ओर उन्मुख किया था । यह उनका महत्वपूर्ण समय था, वे सचेत थे अपने समय के प्रति । एक भी पल जाने के पश्चात लौटकर नहीं आता, वे प्रत्येक पल में जीवित रहना चाहते थे, अपनी पुस्तकों के साथ, अपने चिंतन के साथ, अपने लेखन के साथ !

प्रोफ़ेसर के घर का समस्त कार्य-भार संभालने वाली बिम्मो उनके लिए चिंतित रहती । पहले वह उनके घर के पास ही रहती थी और समयानुसार उनकी व घर की देखभाल करती रहती थी किन्तु जबसे उन्होंने विश्विद्यालय से त्याग-पत्र देकर पुस्तक-लेखन का कार्य प्रारंभ किया था, वह अपने परिवार सहित बँगले में बने 'सर्वेंट क्वार्टर' में रहने आ गई थी । उसका पति रिक्शा चलाता था, बच्चे बड़े हो रहे थे ।

प्रोफ़ेसर के करुणापूर्ण मृदुल व्यवहार के कारण सब उनका ध्यान रखते । वे मग्न थे अपने लेखन में !दीन-दुनिया से बेखबर ! स्वयं में डूबे हुए किन्तु अब भी उन्हें वर्ष में कई बार व्याख्यान देने विदेश जाना पड़ता जिससे उनके लेखन की तारतम्यता में व्यवधान पड़ जाता था । इसी कारण उनकी पुस्तक में अधिक समय लग रहा था । जब वे कहीं बाहर से लौटकर आते, बहुत से नवीन विचारों को अपने साथ लेकर आते, उन पर चिंतन करते और पुन:एक नवीन विचार से समृद्ध हो जाते ।

बिम्मो देखती प्रतिदिन न जाने कितने पृष्ठ प्रोफ़ेसर के समक्ष रखी थप्पी में और जुड़ जाते! वह अशिक्षित स्त्री और तो कुछ न समझ पाती केवल उनकी कार्य के प्रति लगन देखकर नतमस्तक होती !उसका जीवन केवल उसके चारों ओर था, अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण ! वह प्रो. की चिंता अपने बच्चों की भाँति करती । उससे पूर्व उसकी माँ इस घर के कामकाज संभालती रही थी ।

संबंध केवल रक्त के नहीं होते, संबंध संवेदनाओं से जुड़े होते हैं । वे केवल शरीर के नहीं होते प्रोफ़ेसर की आत्मा के साथ जिन लोगों की मित्रता थी अथवा संबंध थे वे उनके ज्ञान के कारण थे । उनकी सहृदयता, उनकी करुणा के कारण थे अत: वे स्थिर बने रहते, उनमें ढीलापन न आता । यदि मनुष्य के जीवन में सकारात्मक होता है प्रसन्नता होती है, आनंद होता है तो कुछ लोग नकारात्मक ईर्ष्या करने वाले भी जीवन में आ ही जाते हैं ।

स्वाभाविक था, उनके जीवन में भी थे किन्तु उन्होंने कभी उनकी चिंता नहीं की थी । वास्तव में उनके पास सोचने का समय ही नहीं था, न ही आवश्यकता !

जो पुस्तक वे लिख रहे थे उसका शीर्षक उन्होंने रखा था; 'अनवरत' जीवन अनवरत है, मृत्यु अनवरत, आना और जाना अनवरत ! इसीलिए उन्हें अपनी पुस्तक के लिए 'अनवरत' शीर्षक जँच रहा था लेकिन आवश्यक नहीं था कि अंत तक यही शीर्षक रहेगा, उन्होंने सोचा पुस्तक की समाप्ति पर इसका अंतिम निर्णय लिया जा सकता था | मुख्य कार्य तो था मन में उगे हुए प्रश्नों का चिंतन -मनन, प्रश्नों के उत्तर तलाशने का अनवरत प्रयास !

इस पुस्तक के उन्होंने कई अध्याय तैयार कर लिए थे, उनके चिंतनशील मन में जब कोई नवीन विचार आता, वे उसका समाधान तलाशने का प्रयत्न करते, वे इस तथ्य से भी परिचित थे कि जब इन प्रश्नों के उत्तर ऋषि, मुनियों को प्राप्त न हो सके तब उनको ---?? फिर भी वे निरंतर प्रश्नों के वृत्त में घूम रहे थे ।

‘जब जन्म हुआ है तब साँसों के चलने तक जीना होगा लेकिन जीवन विवश क्यों हो? लेकिन होता है, विवशता की बेड़ियों में कैद जीवन त्रस्त क्यों?उहापोह में रहकर मनुष्य दिग्भर्मित व असहज रहता है। वह सामान्य जीवन नहीं जी पाता, या तो महान बनने के प्रयास में झंझावातों में घिरने लगता है अथवा बेचारगी व शोषण का शिकार होने लगता है। ' दर्शन से, आध्यात्म से जुड़े लोग उनकी सोच में एक विस्तार पाते ।

अधिकांशत:सभी के मन में क्यों?कहाँ ?कब?जैसे प्रश्नवाचक शब्दों का जैसे एक कारखाना खुल जाता है जिसमें एक प्रश्न के पश्चात दूसरा प्रश्न बनता चला जाता है । एक का उत्तर प्राप्त होता है तो दूसरा आ उपस्थित होता है। जैसे उम्र भर किसी प्रश्नों की पगडंडी पर चलता रहता है मनुष्य ! पगडंडी जीवन के अंतिम छोर तक समाप्त नहीं होती। उसी पगडंडी पर चलते-चलते मनुष्य जाने कौनसी दुनिया में चला जाता है ?उसके बंधु-बांधव हाथ मलते रह जाते हैं। एक समय ऐसा भीआता है कि मनुष्य की जूझने की शक्ति क्षीण हो जाती है और वह स्वयं को एक मकड़ी के जाल में फँसा पाता है, बेबस और लाचार !

क्रमश..

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