गवाक्ष - 33 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गवाक्ष - 33

गवाक्ष

33==

अक्षरा काफी संभल चुकी थी किन्तु यह कोई भुला देने वाली घटना नहीं थी । उसके साथ जो दुर्घटना हो चुकी थी, अब उसमें बदलाव नहीं हो सकता था लेकिन इसके आगे कोई तो ऐसा अंकुश हो जो अन्य किसीके साथ भविष्य में ऎसी स्थिति न हो । इसीलिए उसने भाभी की बात स्वीकार की थी और वह बिना भयभीत हुए पुलिस-स्टेशन गई थी । रह रहकर उसके समक्ष समाज में फैले हुए ये घिनौने व्यभिचार गर्म तेज़ लू के रूप में उसके मनोमस्तिष्क को भूनने लगते ।

" अक्षरा इस अनचाहे गर्भ से छुटकारा पा लो, यहाँ किसीको कुछ पता भी नहीं चलेगा और तुम्हें जीवन भर की समस्या से छुटकारा भी प्राप्त हो जाएगा । " शुभ्रा ने सखी को समझाने की चेष्टा की ।

अक्षरा पशोपेश में थी, एक ओर इस स्थिति से छुटकारा पा लेने का मन, दूसरी ओर भूण -हत्या यानि दुनिया में प्रवेश करने को तत्पर एक प्राण की हिंसा !उसके कोमल मन में बारंबार उद्विगना पसरने लगती । वैसे उसका बिखरा हुआ विश्वास फिर से लौटने लगा था और उसने परिस्थिति का सामना करने की ठान ली थी ।

"शुभ्रा!अनचाहा गर्भ अवश्य है किन्तु मेरे भीतर है न!इसको किस प्रकार मार डालूँ ? भ्रूण हत्या कैसे कर दूँ ? यह प्रेम की निशानी नहीं है परन्तु एक अदद आत्मा तो इसमें भी है न !"वह कमज़ोर पड़ने लगी और फफककर रो पड़ी ।

" इस शिशु को मेरे रक्त से पलना है सो -----। "यह निर्णय अक्षरा के लिए आसान नहीं था, न जाने कौनसी शक्ति ने उसे इस निर्णय के लिए बाध्य कर दिया था।

शुभ्रा ने स्वरा को सूचित किया, उसने भी आकर अक्षरा को समझाने का प्रयास किया परन्तु वह अपने निर्णय अटल रही।

"आत्मा तो इसके भीतर भी होगी न ?कैसे उसका हनन कर दूँ? वह भी उसी परमात्मा का अंश होगा जिसके हम सब हैं। इस प्रकार दुर्घटनाओं से अहसास बदल जाते हैं, यही बच्चा यदि तुम्हारा और विदेह का होता तो इसका अहसास कितना सुखद होता ----" अक्षरा के आँसू थम ही नहीं रहे थे पर वह दृढ़ थी। अक्षरा की मनोदशा देखते हुए शुभ्रा तथा भाभी स्वरा ने उसका साथ देने का निश्चय कर लिया, वह अपने गर्भ के पूरे समय शुभ्रा के पास रही।

भाभी ने उसे समझाया था –

"अक्षरा !मनुष्य का जीवन केवल एक बार मिलता है, रेत की मानिंद पल-पल फिसलता है, पल-पल ढलता है । किसीके पास भी इतना समय नहीं होता कि व्यर्थ किया जा सके, स्थितियां हमें उसी प्रकार जीना सीखा देती हैं जैसा समय होता है। रोने से कोई स्थिति नहीं बनती अत:जो भी पल है उसका मुस्कुराकर ही सामना किया जा सकता है । "और---वास्तव में अक्षरा प्रत्येक परिस्थिति का सामना इतनी दृढ़ता से कर रही थी कि उसके अपने भाई को भी आश्चर्य होता था ।

बच्चे के जन्म लेने के समय स्वरा से विचार-विमर्श करने के पश्चात वह गर्भवती अक्षरा को यहाँ अस्पताल में ले आई थी और भाभी को सूचित कर दिया था। अब तक सत्यनिष्ठ भी बहन के प्रति नम गया था। अक्षरा की सोच अब यह बन चुकी थी ---

‘भय को समीप न आने देना चाहिए, भय से भागना यानि ---कायरता !अत: जो भी स्थिति है उससे बचने के स्थान पर उसका सामना करना श्रेयस्कर है। ‘ भाभी स्वरा की सोच का उस पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा था और कुछ ही दिनों में वह स्वयं को निर्दोष व निष्कलंक महसूस करने लगी थी जिससे उसका आत्मविश्वास और भी दृढ़ हो गया था ।

दुर्घटना के बारे में जानने के बाद प्रोफेसर भक्ति को लेकर जल्दी ही वापिस आ गए किन्तु उन्हें अक्षरा का घर बंद मिला। पुस्तकालय में अब वह आती नहीं थी। मंत्री जी ने दुर्घटना के समय उन सबको बहुत सांत्वना दी थी तथा बदमाशों को तलाश करवाने में पुलिस को काफी कठोर आदेश दिए थे किन्तु जैसा अधिकांशत: होता है, वही हुआ, कुछ भी पता नहीं चल सका। स्वरा पति को समझा-बुझाकर अक्षरा को पहाड़ पर लेकर चली गई थी । इसीलिए प्रोफेसर जब जर्मनी से लौटे तब उन्हें अक्षरा का घर बंद मिला । भक्ति का कार्य शेष था, कुछ दिनों तक सखी की खोज करवाने के पश्चात जब अभी उसके मिलने के कोई आसार नज़र नहीं आए तब वह बेमन से अपना कार्य पूर्ण करने वापिस जर्मनी चली गई थी । प्रोफेसर यहीं रुक गए और उन्होंने अपनी पुस्तक लेखन के साथ अक्षरा की प्रतीक्षा भी करनी शुरू कर दी । उन्हें विश्वास था कि उनकी छात्रा का आत्मबल बहुत दृढ़ था और वह अपनी मन:स्थितिको पुन: केंद्रित कर सकेगी ।

अपनी पुस्तक पर कार्य करते हुए प्रोफ़ेसर कभी भी अक्षरा के आत्मविश्वास, उसकी अध्ययन के प्रति लगन एवं कर्मठता के बारे में सोचते हुए बीते दिनों में खो जाते। बड़ा विभाग था जिसमें से कई प्रोफ़ेसर थे । डॉ.श्रेष्ठी से विषय पर चर्चा करने लगभग सभी प्रोफ़ेसर तथा विभाग के छात्र उनके पास आते थे । प्रोफेसर को यह देखकर हर्ष तथा गर्व होता कि कभी किसी विषय पर अचानक चर्चा छिड़ जाने पर जब अक्षरा की बारी आती, वह कहती ;

"सर!क्षमा करिए किसी की आलोचना करने से समस्या का हल नहीं हो पाता, स्वयं में झाँककर ही समस्या का समाधान हो सकता है। "

ऎसी आत्मविश्वास से भरी लड़की के साथ हुई दुर्घटना के बारे में वे जितना सोचते, उतने ही उद्विग्न हो जाते । वे उसे किसी प्रकार देखना, उससे मिलना चाहते थे । वे जानते थे कि यदि वह उन्हें मिल जाएगी तब अवश्य ही वे उसका शोध प्रबंध प्रस्तुत करवाकर, उसे अन्य किसी कार्य में व्यस्त करवा देंगे । उन्होंने उसकी तलाश जारी रखी और अपनी पुस्तक के कार्य में व्यस्त रहने की चेष्टा करते रहे।

क्रमश..