गवाक्ष - 32 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गवाक्ष - 32

गवाक्ष

32==

अक्षरा शनै:शनै: सामान्य होने का प्रयत्न कर रही थी किन्तु आसान कहाँ होता है इस प्रकार की दुर्घटना के पश्चात सामान्य होना। वह दर्शन की छात्रा थी इसीलिए इतनी गंभीर थी, स्थिति को समझने का प्रयत्न कर रही थी। एक दिन उसने भाई-भाभी से कहा ;

"मुझे सामान्य होने में समय लगेगा। आप लोग कब तक अपना काम छोड़कर यहाँ बैठे रहेंगे ?"

" तुमको अकेले छोड़कर चले जाएँ ?'सत्यविद्य भड़क उठा ।

" जब विवाह की बात कर रहा था, कितने अच्छे रिश्ते आ रहे थे तब दोनों मेरे विरुद्ध हो गईं। अब विवाह भी समस्या बन जाएगी। अगर कोई हाथ पकड़ेगा भी तो दया दिखाकर ---अब पढ़ती रहना "

सत्यविद्य के भीतर भड़ास भरी हुई थी, न जाने वह कैसे इतने दिनों तक चुप बना रहा था ?वह भड़ास निकलकर इस प्रकार सामने आएगी, दोनों स्त्रियों में से किसी ने नहीं सोचा था। क्षण भर के लिए दोनों को जैसे काठ मार गया ।

"आप इस समय भी इस प्रकार सोच सकते हैं जब उसे हमारे साथ व सहानुभूति की ज़रुरत है ?" एकांत में स्वरा ने पति को पकड़ लिया ।

" तो और क्या सोचूंगा ? " वह क्रोध व उद्विग्नता से उफना पड़ रहा था । स्वरा ने उस समय शांत रहना ही उचित समझा । कौन सा भाई ऐसा हो सकता है जो अपनी बहन के साथ बीते हुए ऐसे क्षणों को आसानी से पचा सके ?

एक दिन पश्चात स्वरा ने पति व अक्षरा को समझाया और निर्णय लिया कि अक्षरा कुछ दिनों तक शुभ्रा के पास रह आएगी । अपने विवाह के पश्चात शुभ्रा उसे बहुत बार अपने पास रहने का निमंत्रण दे चुकी थी ।

‘बहुत सी बातें ऎसी होती हैं जो केवल मित्रों से साथ ही साँझा की जा सकती हैं। ‘ स्वरा ने सोचा, शुभ्रा के पास कुछ दिन रहने से अक्षरा शीघ्र संभलेगी ।

" बहन के साथ खड़े रहना, उसका साया बने रहना, साथ और सहानुभूति अलग बात है और समाज की व्यवस्था में रहने की विवशता एक ओर है । मैं भी निर्दयी नहीं हूँ" दुर्घटना के पश्चात सत्यविद्य पहली बार सिसककर रो पड़ा । अक्षरा ने भाई को इस प्रकार फूटकर रोते देखा और वह जितनी संभली थी, उससे कहीं अधिक बिखरने लगी।

ये बहुत कठिन क्षण थे, मनुष्य अपने कठिन पल को संभाल लेता है तो भविष्य में भी स्थिरता आ जाती है । सभी इस सच्चाई को समझ रहे थे किन्तु सहज रह पाना कठिन हो रहा था ।

" भाभी, एक समय तो मनुष्य का साया भी साथ छोड़ देता है, भाई और आप तो मेरे साए से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं मेरे लिए । भाई को इस प्रकार टूटता हुआ देखना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मुझे पता है सब ठीक हो जाएगा पर कुछ समय तो लगेगा ही । " अक्षरा अपनी वर्तमान स्थिति को समझने व संभालने की स्थिति में आ चुकीथी परन्तु इस प्रकार की अमानवीय घटनाएं मनुष्य को ताउम्र पीड़ा देकर कच्चे फोड़े सी चीसती रहती हैं । पकने पर चीरा लगाकर मवाद निकाल दिया जाता है, निशान जीवन भर सालता रहता है।

एक दिन पश्चात स्वरा ने पति व अक्षरा को समझाया और निर्णय लिया कि अक्षरा कुछ दिनों तक शुभ्रा के पास रह आएगी। अपने विवाह के पश्चात शुभ्रा उसे बहुत बार अपने पास रहने का निमंत्रण दे चुकी थी। यह अवसर की बात है कि शुभ्रा के पति विदेह को सप्ताह भर बाद ही लगभग एक वर्ष के लिए कंपनी की ओर से विदेश जाना था। दोनों सखियों को साथ समय व्यतीत करने का स्वर्ण अवसर मिल रहा था । इस निर्णय के पश्चात स्वरा अक्षरा को शुभ्रा के पास छोड़कर आ गई। विदेह भी निश्चिन्त हो गए, शुभ्रा की सखी उसके पास थी अत:उसे एकाकीपन भी नहीं महसूस नहीं होगा ।

शुभ्रा सखी के साथ हुई दुर्घटना से परिचित थी, उसने एक सच्ची दोस्त का कर्तव्य निबाहने में कोई कसर न छोड़ी । लेकिन भाग्य मनुष्य के आगे चलता है, इसी बीच एक और झटका लगा । अक्षरा गर्भवती हो चुकी थी, पीड़ित थी किन्तु चैतन्य थी ।

“ कैसी स्थिति आ गई है अक्षरा ?जहां मनुष्य ने इतनी उन्नति की है वहाँ नैतिक मूल्यों का कितना ह्रास किया है। " शुभ्रा सखी की इस परिस्थिति से पीड़ित, परेशान एवं बैचैन थी ।

"आज हम भारतीय मूल्यों को ताक पर रखकर विदेशी सभ्यता की ओर झुक रहे हैं लेकिन नहीं समझ रहे कि जाने-अनजाने अपनी सभ्यता को गर्त में धकेलते जा रहे हैं । कोई भी सभ्यता खराब या अच्छी नहीं है । सबमें अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुसार गुण भी हैं और कमियाँ भी । लेकिन शराब आदि का सेवन करके जिस प्रकार हम पशु बन जाते हैं, उसके परिणाम के बारे में सोचते तक नहीं है । क्षण भर का मज़ा लूटने के लिए अथवा क्षण भर की झूठी शक्ति दिखाने के लिए हम कुछ भी कर देते हैं । " कुछ सोचते हुए उसने कहा ;

"मुझे लगता है कहीं न कहीं इन दुर्घटनाओं का उत्तरदायित्व माता-पिता पर भी जाता है । " यह कहते हुए अक्षरा दुखी हो उठी थी ।

" माता-पिता कभी नहीं चाहते कि उनके बच्चे गलत काम करें, बाहर का वातावरण उन्हें कई चीज़ें सिखाता है । " शुभ्रा भी इस आतंक से मुक्त नहीं हो पा रही थी ।

" नहीं, कोई माँ अपने बेटे को गलत काम नहीं सिखाती किन्तु जब परिवार में बच्चे बालपन से ही लड़के व लड़की में भेद देखते हैं तब बिना कुछ कहे, बिनाकुछ सिखाए- पढाए ही लड़के स्वयं को स्त्री से अधिक शक्तिशाली समझने ही लगते हैं । इसका प्रभाव कई प्रकार से उसके व्यक्तित्व व चरित्र पर पड़ता है। जब केवल घर के पुरुष -वर्ग को ही सम्मान प्राप्त हो तथा नारी सदा उसके नीचे के पायदान पर ही 'बेचारी' बनकर रह जाए तब जो वातावरण तैयार होता है, उसमें जन्म लेने वाले बच्चों की मानसिकता कैसी हो सकती है ? यह प्रश्न, मुझे लगता है बहुत ही महत्वपूर्ण तथा विचारणीय है। "

अक्षरा अपने जन्म की कथा से भली-भाँति परिचित थी, किस प्रकार से भाई के समान स्नेह व प्रेम प्राप्त करने पर उन्हीं के समाज के लोग अधिकांशत:स्त्रियां उसके विरुद्ध बनी रही थीं, माँ ने उसे सब बताया था। माँ स्पष्ट रूप से कहती थीं ;

" दुःख तो इस बात का होता है कि 'नारी न मोहे नारी के रूपा'वाली कहावत समाज में चरितार्थ है। कितने ही स्थानों पर देखने में आता है आता है कि स्त्री अपना भोगा हुआ अपनी आने वाली पीढ़ी को भी भोगने के लिए बाध्य करती है और उसे भोगते हुए देखकर प्रसन्न होती है । कितनी शर्म की बात है यदि एक स्त्री की बेइज़्ज़ती किसी भी कारण से क्यों न हुई हो, वह उसका समाधान तलाशने के स्थान पर अपनी भावी पीढ़ी को कम से कम अपनी जितनी पीड़ा में अथवा उससे अधिक पीड़ा में देखकर अथवा अधिक पीड़ा में ही देखकर प्रसन्न होती है । यदि परिवार में नारी व पुरुष को समान आदर-सत्कार प्राप्त हो तो बहुत हद तक समाज में समन्वयता होगी और स्नेह फले-फूलेगा । "

क्रमश..