गवाक्ष
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प्रो. श्रेष्ठी ने अपनी पुस्तक का आरंभ किया था ;
सत्य एवं असत्य, ’हाँ’ या ‘न’ के मध्य वृत्ताकार में अनगिनत वर्षों से घूमता-टकराता मन आज भी अनदेखी, अनजानी दहलीज़ पर मस्तिष्क रगड़ता दृष्टिगोचर होता है।
भौतिक व आध्यात्मिक देह के परे शून्य में कहीं अदृष्टिगोचर संवेदनाओं- असंवेदनाओं, कोमल-कठोर भावनाओं के बीहड़ बनों से गुज़रते हुए ठिठककर विश्राम करने के लिए लालायित पाँच तत्वों से बने शरीर का वास्तव में मोल क्या है, उसे स्वयं भी ज्ञात नहीं ---व्यक्ति कहाँ से आता है ?कहाँ जाता है --? कुछ अता -पता नहीं चलता वह केवल एक इकाई भर है जो अंत में नहीं होगा । वह केवल यह समझने को बाध्य है कि बिभिन्न नामों से परिचित करवाती इस यात्रा में न जाने उसको कितने नाम दिए गए, न जाने कितने संबोधनों से पुकारा गया, कितने आदर्श समेटे गए, खखोला गया, घोला गया, निचोड़ा गया, लादा गया, पटका गया परन्तु कहाँ कुछ हाथ लग सका? युगों से चलती इस यात्रा का कहाँ कोई स्पष्टीकरण है? यह तो एक यात्रा भर है ---अनवरत यात्रा !!आज भी मानव अनेकों अनुत्तरित पश्नों के बंडलों के बोझ तले दबा न जाने कौन-कौनसे और कितने माध्यमों से अपनी इस खोज में संघर्षरत है कि 'वह कौन है?'मानव भटक रहा है, खीज रहा है, दौड़ रहा है, थक रहा है, त्रस्त हो रहा है, पस्त हो रहा है---और अंतत:वहीं आकर अपनी जिज्ञासा पर पट्टी बांधकर कुछ समय के लिए शांत होने की चेष्टा करता है जहाँ से उसकी यात्रा प्रारंभ हुई थी ----और कुछ न सूझने पर वह टकटकी लगाए शून्य को घूरने लगता है, संभवत: उसी गर्भ को जिससे वह जन्मा था और जहाँ से उसकी यात्रा का प्रारंभ हुआ होगा ।
'अस्तित्व'
शीर्षक के प्रथम अध्याय में प्रो.श्रेष्ठी ने मनुष्य -जीवनके लगभग सभी पहलुओं पर प्रकाश डालने की चेष्टा की थी। दुनिया के व्यवहार व चाल-ढ़ाल देखकर उन्हें बारम्बार पीड़ा हुई है। इस पीड़ा ने उनके मन में अनेकों प्रश्नों को जन्म दिया ।
जिज्ञासापूर्ण मन का केवल यही ठिकाना -- अनेकों अनुत्तरित प्रश्नों से घिरा मनुष्य थक हारकर बस एक ही बात कह पाता है, सोच पाता है, संदेश दे पाता है ----
'जीवन एक सत्य---मृत्यु एक सत्य! सत्य है केवल आवागमन, सत्य है केवल पल, सत्य है केवल खोज में अनवरत जुड़े रहना और सत्य है प्रतीक्षा ---केवल प्रतीक्षा ---एक अनवरत प्रतीक्षा !'आना और जाना और बहते जाना ---कहते जाना ----सहते जाना ----रमते जोगी सा मन किसी भी किनारे पर जाकर अटकने लगता है, भटकने लगता है !
जन्म लेते ही मनुष्य अपने साथ जाने का बहाना लेकर आता है फिर भी जीव प्रत्येक वस्तु, क्षण, बदलाव की परिधि में चक्कर काटते हुए किसी न किसी स्थान पर अटक जाता है, ठिठक जाता है। धरती पर जन्म लेने से ही इस चक्कर का प्रारंभ है और अंत? क्या दैहिक मृत्यु ही पूर्णरूपेण अंत है?यह सारी स्थिति सत्य से प्रारंभ होकर सत्य पर ही समाप्त होती है। इस सृष्टि के जन्म से हम सूत्रधार से मिलने, उसे जानने -पहचानने के लिए केवल अटकलों पर गोल-गोल घूम रहे हैं --'सूत्रधार कौन?'और सूत्रधार है कि कभी नज़र ही नहीं आया, पकड़ा ही नहीं गया । वह तो अपना काम करके ऐसे जा छिपता है जैसे सूरज ऊर्जा तथा रोशनी देकर जा छिपता है । काम वह पूरी मुस्तैदी से करता है लेकिन मुट्ठी, में किसी की कैद नहीं होता। प्रतिदिन अपनी दिनचर्या में बिना किसी व्यवधान के संलग्न रहता है, उसके साथ अन्य सभी प्राकृतिक स्थितियाँ अपने हिस्से के कर्तव्य पूरे करती हैं और चलती रहती है यात्रा ! यह यात्रा अनवरत है ----क्या कोई कह सकता है कि वह इस यात्रा व सूत्रधार से परिचित है, अथवा उसके कार्य-कलापों में बदलाव ला सका है?
कॉस्मॉस प्रो.को लेखन में निमग्न देख रहा था, कक्ष के बाहर खड़ा न जाने किन अनर्गल विषयों पर अपने मस्तिष्क को उलझा रहा था । अवचेतन मस्तिष्क में मंत्री जी की चेतावनी का भी प्रभाव था किन्तु वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सका ।
चिंतक की कलम से शब्द निर्झरा बन झर रहे थे ;
हमारा शरीर एक शहर है, भरा-पूरा शहर!जिसमें असंख्य कीटाणु, हज़ारों नाड़ियाँ राजमार्ग (highways)हैं । ये कीटाणु कहीं शत्रु हैं तो कहीं मित्र भी । हमारी आँतड़ियों में हज़ारों जीवाणु रहते हैं जो हमारे शरीर के लिए अत्यंत उपयोगी हैं, इन सबके सहयोग से शरीर जीवित रहता है ।
मनुष्य-जीवन में जीवित रहते हुए साँसें तो प्रत्येक प्राणी लेता है किन्तु जीवन जीना विरले ही जानते हैं । अपने पास जो वस्तु होती है उससे सुख पाने के स्थान पर हम किसी वस्तु के न होने पर अधिक दुखी होते हैं । इस प्रकार जो वस्तु अपने पास होती है उसके सुख से भी हम वंचित रह जाते हैं। 'उद्यमो भैरव:' अपने उद्यम की ओर ध्यान न देकर हम ईर्ष्या के ताल में गोते खाने लगते हैं। भूल जाते हैं कि उद्यमी का भाग्य उदित होता है, ईर्ष्यालु का नहीं !
अचानक प्रो. निष्प्रभ रह गए, उनके सामने मेज़ पर थप्पी लगे हुए उनकी पुस्तक के लिखित पृष्ठ जैसे किसी आँधी के झौंके से उड़ने लगे, केवल वे ही रह गए जो उनके हाथ के नीचे दबे हुए थे, क्या माज़रा था ? कक्ष के सभी द्वार व खिड़कियाँ बंद थीं । बिम्मो नाश्ता रखकर गई थी जो सामने खिड़की के नीचे की बड़ी सी मेज़ पर यूँ ही ढका रखा था । लेखन-प्रवाह में निमग्न प्रोफेसर की प्रतीक्षा में ठंडा हो गया था । क्या उनसे कोई त्रुटि हो रही थी अथवा उनके भीतर का झंझावात बाह्य रूप में उन्हें विचलित करने प्रत्यक्ष हो गया था? वे भीतर भी उतने ही शांत थे जितने बाहर से ।
कुछ बातें मनुष्य की समझ से बाहर होती हैं, संभवत: ऐसा ही कुछ प्रोफेसर के साथ हो रहा था । उन्हें दिग्भर्मित करने का प्रयास !उनके इस पुस्तक-लेखन से काफ़ी लोग असहमत थे, यह स्वाभाविक भी था। इस दुनिया में जब कोई कुछ अच्छा कार्य करने लगता है तब कुछ लोग उसके पक्ष में होते हैं तो अधिकांश उसके विपक्ष में ! मनुष्य के मन की ये स्वाभाविक प्रक्रिया होती है -----उन्होंने सोचा क्या प्रकृति भी नहीं चाहती कि वे समाज के लिए कुछ ऐसे कार्य कर जाएं जिनसे प्राणी मात्र का लाभ हो सके। अपने विचार से अपने आप ही उनके मुख पर मुस्कराहट आ गई ।
क्रमश..