राम रचि राखा - 6 - 9 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 6 - 9

राम रचि राखा

(9)

समय पंख लगाकर उड़ जाता है। पाँच साल से ज्यादा हो चुके हैं मुन्नर को इस गाँव मे आये हुए। लेकिन आज भी जब वह दिन याद आता है तो आँखों के सामने सारे दृश्य सजीव उठते हैं। अपने गाँव में बीता अंतिम दिन, जेल की यातनाएँ और इस गाँव में, लू के थपेडों के बीच खुले आसमान के नीचे बिताये गए शुरूआती दिन। एक गहरी उच्छ्वास लेते मुन्नर - "जिंदगी भी क्या-क्या करवट बदलती है।"

सुबह-शाम तो कुटी पर लोगों की आवाजाही रहती है, परन्तु दोपहर में प्रायः एकांत होता है। बस ललिता पंडित का बड़ा लड़का भोला, जो शरीर और दिमाग दोनों से ही थोड़ा कमजोर था, रहता है। वह मुन्नर के शिष्य जैसा हो गया है। सुबह आँख खुलते ही कुटी पर आ जाता, शाम को खाना खाने के बाद घर जाता। मुन्नर के सारे काम, खाना बनाना, कपडे धोना इत्यादि सब वही करता है।

दोपहर को जब मुन्नर खाना खाने के बाद आराम करते, तो कई बार न चाहते हुए भी मन उड़कर अपने गाँव पहुँच जाता। माई का चेहरा आँखों के सामने आ जाता। भैया, मुन्नी, छुटकी सभी की याद आती। यह भी विचार उठता कि मेरे आने के बाद क्या हुआ होगा। कैसा चल रहा होगा सब कुछ घर पर। घर का आँगन, द्वार का नीम का पेड़, कुआँ, सब कुछ ही चित्र सा आँखों के सामने आ खड़ा होता।

लगभग पच्चीस साल के हो चुके थे मुन्नर। यौवन का गुबार कभी-कभी जून की दोपहर की तपती लू की तरह उठता और तन-मन दोनों को झुलसा देता। जाड़े की सर्द रातों में बिस्तर में अकेले करवट बदलते हुए एकाकीपन का अहसास अपनी चरम पर पहुँच जाता।

उस दिन जब लक्ष्मी, जो ससुराल से पहली बार वापस मायके आई थी, सहेलियों के साथ बाबा के दर्शन करने आई। जब उनके अभिवादन के लिए पैरों को स्पर्श किया, उसकी कोमल उँगलियों की छुवन से पूरे शरीर में एक बिजली सी कौंध गयी थी। कलाई में सजी लाल और हरी चूडियों की चमक उनकी आँखों से मन में उतर गयी। सामान्य शक्ल सूरत वाली लक्ष्मी उन्हें गुलाबी साड़ी में कितनी मोहक लगी थी। बहुत देर तक उसे देखते रहे। मन में दबी एक चिनगारी कुलबुला उठी थी।

कभी चाँदनी रात में मंदिर के चबूतरे पर बैठकर कनेर के पत्तों से जमीन पर छनती चाँदनी को एकटक देखते और सोचते कि काश कोई होती जिसकी उँगलियों को पकड़कर पारिजात के पेड़ के पास ले जाते और तने से पीठ टिकाकर उसकी आँखों में अपने सपनों को उतरते हुए देखते…कोई होती जो इस समय उनके बगल में आकर बैठ जाती और उनका हाथ अपने हाथों में ले लेती। उनके दिल की धड़कने उसे छूने लगतीं। कितने ही सपने, कितनी ही चाहतें आँखों में अचानक तैर जातीं। जिनके कभी पूरा हो पाने की संभावना दू- दूर तक नज़र नही आ रही थी।

"वैसे तो कितने लोग आस पास हैं, पर मेरा कौन है! मैं तो इतना विवश हूँ कि किसी से मन की बात भी नहीं कह सकता। न तो कोई बात करने वाला और न ही सुख‌‌-दुःख बाँटने वाला। कल यदि मुझे कुछ हो गया तो मेरी लाश को यहीं उठाकर नदी में प्रवाहित कर देंगे। न तो कोई संस्कार होगा, न ही कोई अंत्येष्टि " ऐसे कई विचार मुन्नर के मन में प्रायः उभर आते और मन अनमना हो जाता।

दिन के चार बजने वाले थे। मुन्नर अपने साधना कक्ष में तैयार हो रहे थे। भोला ने चन्दन घिस कर रख दिया था। इक्का- दुक्का लोग कुटी पर आने आगे थे। एक-दो घंटे में पूरा जमघट लग जाएगा और कीर्तन शुरू हो जाएगा। उसके पहले बाबा लोगों से मिलने के लिए ओसार में बैठते थे।

शुरुआत में जहाँ एक झोपड़ी डाली गयी थी, वहाँ अब छप्पर का एक बड़ा सा ओसार बन गया था। वहीं बाबा तख्त पर बैठकर माला फेरते रहते और जो लोग आते बाबा का चरण स्पर्श करके सामने बिछी हुयी दरी पर बैठ जाते। जिसको जितनी देर तक बैठना होता, बैठता। फिर उठकर चला जाता।

चन्दन लगाते हुए मुन्नर ने देखा दाढ़ी बढ़कर सीने तक आने लगी थी। माथे तक उगे घने बालों में पीछे की ओर कई लटें बन चुकी थीं। चन्दन लगाकर गेरुआ गमछा काँधे पर डाल लिया जिसका दोनों सिरा कमर तक लटक रहा था। एक हाथ में माला की थैली ली, खड़ाऊँ पहना और ओसार की ओर चल दिए। ओसार में सात आठ लोग पहले से ही थे। बाबा को देखकर खड़े हो गए। बारी-बारी से पाँव छूने लगे। अभी वे तख्त पर बैठे ही थे कि एक व्यक्ति आकर पैरों में गिर पड़ा।

"बाबा, बहुत दूर से आया हूँ, मन में एक मुराद लेकर..." कुछ रुक-रुक कर वह बोले जा रहा था, “करीब पाँच-छह साल पहले मेरा छोटा भाई कहीं चला गया…” कहते-कहते उसकी आँखें भर आयीं और गला रुँधने लगा।

ओसार में बाहर की अपेक्षा कम प्रकाश था। इसलिए अन्दर आने पर मुन्नर एकदम से पहचान न सके थे। भैया भी पाँच साल में कुछ बूढ़े से लगने लगे थे। सिर के बाल खिचड़ी हो चले थे।

भैया का मन पहले से ही शोक-संतप्त था। सोच में डूबे हुए थे इसलिए मुन्नर के चेहरे की ओर ध्यान से देख नहीं पाए थे।

बहुत अजीब सा धर्मसंकट खड़ा हो गया था, गाँव के कुछ लोग भी बैठे थे, बड़ा भाई चरणों में पड़ा था।

"आप धीरज रखिये..." मुन्नर तख्त से उठे। भैया का कंधा पकड़कर उन्हें उठाया और दरी पर बिठा दिया।

भैया को आवाज कुछ जानी पहचानी लगी। दरी पर बैठकर वह मुन्नर की ओर देखने लगे। पाँच साल में कुछ तो परिवर्तन आ ही जाता है। ऊपर से लम्बी दाढी- मूँछ और बालों का लट, माथे पर त्रिपुंड। मुन्नर ने देखा भैया की आँखे उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही हैं। कुछ देर तक समझ में न आया कि क्या करें। सब लोग खामोश बैठे हुए थे।

"आप मेरे साथ आईये" मुन्नर उठ कर खड़े हो गए और भैया की ओर इशारा करके बोले।

भैया मुन्नर के पीछे-पीछे उनके साधना कक्ष में आ गए। ओसार में बैठे लोग विस्मित थे।

"क्या बात हुयी, आज तक तो बाबा ने कभी ऐसा नहीं किया था।" किसी ने चिंता प्रकट की।

"कोई बहुत ही गहन समस्या होगी, बाबा देखते ही कष्ट जान लिए। इसलिए तो साधना के कमरे में ले गए" दूसरे ने प्रश्न का समाधान किया।

कमरे में पहुँचते ही मुन्नर ने भैया का पैर छुआ। और बोल उठे ' भैया…!"

"मुन्नर…!" भैया की आँखें विस्मय और ख़ुशी से चमक उठीं। आँखों में आँसू छलछला आए। छोटे भाई को गले से लगा लिया। यह मुन्नर के लिए नया अनुभव था। भैया ने आज तक उन्हें कभी गले नहीं लगाया था।

दोनों भाई अन्दर तख्त पर बैठ गए।

“माई की आँखों में आँसू आज तक नहीं सूख पाए हैं, हर रोज सोचती है कि आज तुम वापस लौट आओगे...।" कहते-कहते भैया का गला भर आया। मुन्नर को भैया के चेहरे पर माई के मन की पीड़ा दीख रही थी।

"मुन्नर! घर वापस चले चलो, यहाँ परदेश में कौन है तुम्हारा..." भैया समझाने लगे, "…और अभी तुम्हारी उमर ही क्या है...चलकर अपनी घर-गृहस्थी बसाओ...यह उमर सन्यासी बनने की तो नहीं है।“

“हूँ…" मुन्नर ने सिर हिलाया। अभी तक मुन्नर को रोज घर-गाँव की याद सताती थी और मन में कई बार उठा था कि वापस लौट जायें। पर आज जब भैया ने वापस चलने को कहा तो मन में एक हिचकिचाहट सी उभर आयी। शायद इस कुटी के प्रति मोह उमड़ आया था। यहाँ का सुख और सम्मान दोनों ही मन को बाँधने लगे थे। कुछ निर्णय न कर पा रहे थे।

"तुम्हारे आने के बाद तो बहुत ही मुश्किल समय आ पड़ा था..." मुन्नर को खामोश देखकर भैया ने बात आगे बढ़ाई, " एक तरफ घर का राशन ख़त्म होता जा रहा था और दूसरी ओर माई तुम्हारे गम में बीमार रहने लगीं। कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करुँ...।" मुन्नर की आँखें भैया के चहरे पर गड़ी हुयी थीं। बहुत उत्सुक थे जानने के लिए।

"वो तो बृजमोहन उस समय अवतार बन कर आ गए।..." भैया आगे कहना शुरू किये। बृजमोहन, उनकी बहन रमला के पति हैं। अच्छा खासा संपन्न परिवार है उनका। "…उस साल के लिए पूरा राशन भिजवा दिए।" भैया की आँखों में कृतज्ञता उभर आयी थी। मुन्नर ने राहत की साँस ली।

"सब भगवान की लीला है। वही दुःख के भँवर में धकेलता है और निकलने का रास्ता भी वही बनाता है।" भैया थोड़ा रुक कर बोले। "बृज मोहन की बहुत जान पहचान है। दो साल पहले, खेत पर बैंक से कर्ज दिलाकर एक ट्रक्टर निकलवा दिए। उससे बहुत राहत हो गयी। दो साल में मुनिया की शादी के लिए पैसे का जुगाड़ हो गया।"

"...हाँ तुम्हें यह तो बताये ही नहीं की मुनियाँ की शादी तय कर दी है। इसी साल गर्मी में करेंगे...तारीख अभी पक्की नहीं हुयी है।

"मुनियाँ इतनी बड़ी हो गयी?" मुन्नर की आँखों में थोड़ा आश्चर्य सा उभर आया। फिर स्वयं ही बोले, "हाँ तभी ग्यारह बारह साल की थी। पाँच छह साल तो बीत गए हैं।

"भाई, पिछली सारी बातों को बिसार दो और घर वापस चले चलो। अपने गाँव में भी दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो ही जाएगा।" भैया की आवाज बहुत ही सर्द थी।एक अजीब सा दर्द था, "तुम्हीं तो मेरे अपने हो, अपना खून हो और भगवान न करे अगर मुझे कल कुछ हो जाता है तो तुम्हारे सिवाय कौन देखने वाला है। सब अनाथ हो जायेंगे।" कहते-कहते भैया की आँखे नम हो गयीं। वह नमी मुन्नर की आँखों में भी उतर आयी। भैया का यह रूप पहली बार देख रहे थे।

"हाँ बात तो आपकी ठीक है..." भैया की बातों से मुन्नर का मन द्रवित हो उठा था और वापस जाने के लिए सोचने लगे। "…पर ऐसे अचानक तो यहाँ से नहीं जा सकते।"

"विचार कर लो किस तरह से निकलना है...।"

काफी देर तक विचार विमर्श चलता रहा। अंततः यह तय हुआ कि मंगलवार को, आज से चार दिन बाद, भैया पास वाले स्टेशन पर टिकट लेकर इंतजार करेंगे। मुन्नर वहाँ भोर में ही पहुँच जायेंगे और पाँच बजे वाली पैसेंजर से दोनों लोग वापस गाँव चले जायेंगे।

क्रमश..