छोटी मछली padma sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • इश्क दा मारा - 26

    MLA साहब की बाते सुन कर गीतिका के घर वालों को बहुत ही गुस्सा...

  • दरिंदा - भाग - 13

    अल्पा अपने भाई मौलिक को बुलाने का सुनकर डर रही थी। तब विनोद...

  • आखेट महल - 8

    आठ घण्टा भर बीतते-बीतते फिर गौरांबर की जेब में पच्चीस रुपये...

  • द्वारावती - 75

    75                                    “मैं मेरी पुस्तकें अभी...

  • Devil I Hate You - 8

    अंश जानवी को देखने के लिए,,,,, अपने बिस्तर से उठ जानवी की तर...

श्रेणी
शेयर करे

छोटी मछली

छोटी मछली


होटल से निकल कर मनेन्द्र ने दूर तक जाती सड़क का जायजा लिया । सड़क के एक ओर दुकानों की लंबी कतार थी।

दुकानों के ऊपर ऊँचाइयों तक चमकते - दमकते होटल बने हुए थे। सड़क के दूसरी ओर सिर्फ झिलमिलाता ताल था। चौड़ी सड़क को डिवाइडर से विभाजित किया गया था । शाम होते ही निश्चित समय के लिए वाहनों की आवाजाही बन्द हो जाती थी, तब हर वर्ग और हर उम्र के लोग मदमाती चाल से टहलने के लिए निकल पड़ते थे। ये मन की उमंगें पूरी करने का शहर था। शरीर से थुलथुल और बुढ़ाती महिलाऐं भी वे पोशाकें पहने घूम रही थीं जिन्हें वे अपने घरों और शहरों में नहीं पहन पाती थी।

कुछ नये जोड़े भी दिखाई दे रहे थें। उन लोगों के चेहरे की चमक, हया और शरारत देखकर ऐसा लगता था कि वे यहाँ हनीमून मनाने आये है। वे हाथों में हाथ डाले एक दूसरे से सटकर चल रहे थे। वहाँ इतना अधिक सौन्दर्य बिखरा था कि आँखें पलक भी नहीं झपक पाती थी लगता था कि कहीं कोई सौंन्दर्य अनदेखा न रह जाये ।

ताल के किनारे एक छोटा सा बगीचा था जिसमें पत्थर की बैैैैैैैैेंचे थीं। आसपास पेड़ थे, जिनके नीचे चबूतरेनुमा बैठने के स्थान बने थे। सड़क के किनारें मुॅडेर बनी हुई थी, जिन पर बैठकर कई व्यक्ति घण्टों गुजार देते थे। यहाँ भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति का संगम था। पुरातत्व और नवीन सभ्यता का फ्यूजन था, जिन्हें देखकर लोग खूब नयनमुख लेते थे। होटलों की रोशनी अठखेलियाँ करती लहरों पर पड़ती थी ,तो ऐसा लगता था मानों रोशनी लहरों के साथ लुका-छिपी का खेल खेल रही है। चंद्रमा की चाँदनी जल में निमग्न होकर रजत सौंदर्य का आभास देती थी दिन में ताल का पानी झिलमिलाता हुआ अपना सौदर्य बिखेरता था। सूरज की किरणें पानी पर पड़ती थी, तो उठती गिरती लहरें और भी अधिक सुन्दर लगती थीं।

बस स्टेड के पास भुट्टे भूनने वाले बैठे थे। बिना मौसम में भुट्टे लोगों को स्वादिश्ट लग रहे थे। पेड़ के नीचे अखरोट, काजू व पिस्ता की ढेरी लगी थी। ताल के दूसरे सिरे पर नेपालियों की दुकाने थी जहाँ गर्म टोप, गर्म शॉल , ऊनी कपड़े तथा अन्य परिधान मिल रहे थे। तरह - तरह के पर्स तथा मोम की विभिन्न आकृति वाली मूर्तियाँ भी करीने से रखी हुई थी।

मनेन्द्र पहली बार इस जगह आया था। उसका दोस्त पुश्पक अपने परिवार के साथ यहाँ आ रहा था, तो भीशण गर्मी से तंग आकर मनेन्द्र ने भी उनके साथ हिल स्टेशन आने का मन बना लिया। पुश्पक और मनेन्द्र एक ही ऑफिस में नौकरी करते है। मनेन्द्र की अभी शादी नहीं हुई । पुश्पक तो हर बार माह के अंत में यही रोना रोता था - ‘‘ यार एक तारीख महीने में दो बार क्यों नहीं आती, इतनी तनख्वाह में गुजारा ही नहीं होता । ’’ पुश्पक तो घूमने आता ही नही । वो तो इस बार बीबी - बच्चे पीछे पड़ गये कि घूमने जाना है नहीं तो वह पाँच - दस हजार रूपयों पर पानी नहीं फेरता । जबकि मनेन्द्र मानता था कि सुबह से शाम तक रूपये के फेर में मशीन की तरह लगे रहो मात्र इतनी ही जिन्दगी नहीं है। व्यस्त जिन्दगी और जीवन की भागमभाग से दूर व्यक्ति को ऐसे स्थानों पर कितना सुकून और आनंद महसूस होता है। साल में एक बार बाहर घूम आने के बाद उसी की याद में पूरी साल आराम से कट जाती है और जिन्दगी भी रोजमर्रा के ढर्रे से अलग रूहानी खुशी महसूस करती है।

वे सभी एक होटल में आ गये होटल वाले ने ही बताया था कि बारिश के मौसम मे सड़को पर पानी भर आता है ,तब यहाँ के लोग घरों से नहीं निकल पाते । सर्दियो में भीशण सर्दी पड़ती है, वर्फीली हवायें चलती है, और वर्फ गिरने लगती है, जिससे जन जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। मार्च से जून तक केवल चार माह जिन्दगीं अच्छी लगती है। मार्च से सैलानी आने लगते हैं और जून तो पीक टाइम रहता है। लाखों सैलानी इस तालों वाले शहर में समा जाते हैं।

दूसरे दिन सभी लोग घूमने निकले। सुबह से ही सर्द हवायें चल रही थी । दुकान वाले व अन्य मजदूर स्वेटर पहने हुए थे। धूप में भी वे गर्म कपड़े पहने हुए थे। लोगों ने बताया कि यहाँ मौसम का मिजाज कब बिगड़ जाये कह नही सकते इसलिए गर्म कपड़े हमेशा साथ रखना पड़ते है। पुश्पक आइसक्रीम लेने एक दुकान पर रुक गया। उसने आकर बताया कि दस रुपये वाली आइसक्रीम पन्द्रह रुपये में मिल रही है। मनेन्द्र ने कहा -‘‘ हर पहाड़ी शहर में मंहगाई है। ये लोग जान बूझकर मंहगी चीजें बेचते हैं। ये लोग सोचते हैं, कि बच्चे साथ हैं तो झक मारकर चीजें खरीदेंगे ही। ’’ थोड़ी देर रूककर वह फिर से बोला - ‘‘ ये लोग जानबूझ कर दुकानों के आगे चीजें सजा - सजाकर रख लेते है जिससे बच्चे देखें और लेने की जिद करें।’’

पुश्पक इस तर्क को बेबुनियाद मानकर दुकान वालों का पक्ष ले रहा था। उसने कहा -‘‘ ठीक ही तो है, साल भर में सिर्फ चार महीनें ही तो उनका सीजन है। इन्हीं दिनों में पूरे वर्श भर के लिए कमाई करके रखते है। इसमें कौन सी बुराई है ?’’

अब तक वे लोग ताल के किनारे पहुँच गये थे । ताल के एक ओर बस स्टैंड था, और दूसरी ओर नैनी देवी का मंदिर। सामने की ओर कुछ मकान दिखाई दे रहेे थे। ताल में दूर - दूर तक पानी दिखाई दे रहा था। कुछ कश्तियां बस स्टैंड की ओर से आ रहीं थीं तो कुछ मंदिर की ओर से आ रहीं थीं। सब वोटिंेग करने के लिए सहमत हो गए ।

पुश्पक ने एक नाव वाले से पूछा -‘‘नैनी मंदिर तक जाने का क्या लोगे ?‘‘

नाव वाले ने उन सबको टटोलती निगाहों से देखा फिर बोला -‘‘साठ रूपये ’’।

सुनते ही पुश्पक भड़क गया - ‘‘अरे लूटते क्यौं हो ? सही - सही बताओ । बाहर का समझ कर कुछ भी दाम बताओगे। ’’

नाव वाला विनम्र था, वह बोला -‘‘ बाबूजी इतनी दूर तक चप्पू चलायेंगे । लहरों के विपरीत दिशा में नाव ले जाना बड़ा कठिन काम है । साठ रूपये कोई ज्यादा थोडे़़ ही हैं। ये देखो हाथ कड़क हो जाते हैं,’’ कहकर वह अपने हाथ दिखाने लगा । उसके हाथ भीगे चमडे़ की तरह दिखते थे ।

मनेन्द्र ने झुककर देखा उसके हाथों की नीलीं नसें उभर रहीं थीं। पुश्पक ने उसकी व्यथा को अनदेखा करते हुए कहा -‘‘वो तो ठीक हैै पचास रूपये में चलो तो अच्छा है’’ मनेन्द्र ने पानी के अथाह और उल्टी चलती हवाओं पर नजर डाली। उसे लग रहा था, कि नाव वाला ठीक ही कह रहा है। हवा का बहाव जब प्रतिकूल होता है, तो अकेले ही नाव चलाना मुश्किल होता है, वह एक साथ इतने लोगो को कैसे ले जाएगा? लहरें जब उफान पर होतीं हैं, तो सब कुछ ध्वस्त कर देती है । उसे सुनामी लहरेंा की याद आ गयी, उसके शरीर में सिहरन सी दौड़ गयीं ।

पुश्पक पचास रूपये पर अड़ा था और नाव वाला तरह - तरह के तर्क देकर अपने रेट को सही ठहरा रहा था। नाव वाला कभी पुश्पक को तो कभी मनेन्द्र को बेधती निगाहों से देख रहा था कि इन लोंगों के मन में क्या चल रहा है मनेन्द्र मन ही मन सोच रहा था कि बेचारा इतनी मेहनत करेगा उस हिसाब में साठ रूपये ठीक ही तो हैं ।वह चाहतंे हुए भी पुश्पक को समझा नहीं पा रहा था । उसे मालूम था कि बाद में पुश्पक उसी से उलझ जाएगा और कहेगा कि तूने रेट बिगड़वा दिया ।

पुश्पक दूसरे नाव वाले की ओर मुखातिब होने लगा तो नाव वाला विशाद से भरकर बोला -‘‘ बाबूजी यहांँँँँ सब ऐसा क्यों करते है।महंगे होटलों में ठहरेगे, एक रूपये की चीज पाँँँच में खरीदलेंगे, खाने की चीजें रेट से दुगुने रेट में खाते है। कहीं भी मोल भाव नहीं करते। सिर्फ हमीं मजदूर मिलते है। हम तो खूब तन तोड़कर मेहनत करते है, और हमीं को पूरा मेेहनताना नहीं मिलता। मैने पहले से ही सही रेट बताई थी। अगर मैं 75 रूपये बताता और फिर 60 रूपये में तैयार होता तो आप बेहद खुश होते।‘‘ मनेन्द्र उसके तर्क से हतप्रभ रह गया उसनें कितनी सटीक बात कहीं थी । थोड़ी देर पहले ही तो पुश्पक 5 आईस्क्रीमों में 25 रूपये अधिक देकर आया है। उस पर तुक्का ये कि उन दुकानदारों का पक्ष भी ले रहा था ।

मनेन्द्र आगे बढ़ा उसने दो-तीन नाव वालेां से बात की । सभी उससे बढ़कर रेट बता रहे थे।

मनेन्द्र ने ऑॅॅॅॅॅंखो ही अॅाखो मे पुश्पक को इशारा किया। धीरे-धीरे सभी लोग पहली नाव मे सवार हो गये। ताल के बीच मे नाव हिली और चल पड़ी। ताल के बीच मे स्तब्धता छायीं थी। केवल पानी पर चप्पू पड़ने का स्वर ही उठता था और फिर गायब हो जाता था । मनेन्द्र ने देख कि वह फटी सी जैकिट पहने हुआ था। पेंट भी जगह - जगह से अपने रोशनदान बनाये हुये थी ।हाथ में काला धागा बंधा था और गले में ताबीज पहने हुए था।

पुश्पक भुनभुनाया बैैैैठा था। वह नाव वाले को गुस्से से देख रहा था और सोच रहा था कि इन लोगों के भी भाव आसमान को छूनें लगें है। गर्मियों में अधिकांश पर्यटक यहाँ आते है जिससे ये लोग सोचते है कि मनमाना रूपया बसूल कर लिया जाये ।

सफर बिना तनाव से कटे इसलिए मनेन्द्र ने नाव वाले से बात करना शुरू कर दी -‘‘ इस ताल का क्या नाम है?‘‘

चप्पू चलाने की वजह से नाव वाले की सांस फूल रही थी । वह हाँफते हुए बोला - .........‘‘साहब पहले एक ही ताल था ।.......... दोनों तरफ के लोग झगड़े तो इसे दो भागों में .........बॉट दिया । जहाँ से आप बैठे थे ............वही से उसका बँटवारा हो गया है। उधर का............ ताल मल्ली ताल कहलाता है। इधर का तल्ली । कोई भी नाविक इधर से उधर नहीं जा सकता दोनों के अपने नाविक है और अपनी कश्तियाँ ...................‘‘

मनेन्द्र के मन में अजीब सा द्वन्द्व छिड़ गया । इस देश में बटवारा ही होता रहता है। कभी हिन्दुस्तान - पाकिस्तान, कभी बंगलादेश, कभी मध्यप्रदेश - छत्तीसगढ़ तो कभी उत्तरांचल । और अब ताल का भी बटबारा हो गया। कुछ देर तक की नीरवता छायी रही ।

ताल का सौदर्य मन को मोह रहा था। उठती -गिरती लहरे तेज बेग से आगे बढ रही थी। ऐसा लग रहा था इन्हें कही पहँुचने की जल्दी है। पानी स्वच्छ था। लहरें नाव से टकराकर विपरीत दिशा में लौटती और फिर से अपनी

राह पकड़ लेती थी । ऐसा लग रहा था कि उनकी राह में जो भी आयेगा उसे वो अपनी ही दिशा में बहाकर ले जायेगी।

मनेन्द्र लहरों की अठखेलियो को अपनी हथेलियों में समा लेना चाहता था। पानी में हाथ डालने से पहले उसने पूछा -‘‘इसमें घडियाल हैं क्या? नाव वाला कुछ रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोला ¬- ‘‘नहीं इसमें तो नहीं हैं ।‘‘ उसने ‘‘तो‘‘ शब्द पर इस तरह जोर डाला कि मनेन्द्र निश्कर्श नहीं निकाल पाया कि वह क्या कहना चाह रहा था। उसने चारों ओर निगाह दौड़ाई । कई जोड़े नाव में घूम रहे थे। कुछ अति उत्साही जोड़े यां यूं कहें कि नवविवाहित जोड़े पैडल वाली वोट चला रहे थे। जिन्हें वे हौंस में तेजी से ले तो जाते थे किन्तु ताल के बीच में पहुँचते ही उनकी हालत पस्त हो जाती थी । कभी - कभी तोेे ताल के बीचों - बीच फसीं वोट को वोट मालिक अपने नौकरों को वापस लाने के लिए पहुँचाता था ।

मंदिर पास में आता जा रहा था।मनेन्द्र ने पूछा- ‘‘ जब सैलानी नहीं आते तब क्या करते हो?’’

उसने लंबी सांस खीचकर उत्तर दिया । -‘‘ गाँव में खेती है वही करते हैं। ’’

‘‘कितनी जमीन है तुम्हारे पास ?‘‘

‘‘ बस बाबूजी थेाड़ी सी ‘‘

‘‘ फिर तो घर भी होगा ? ’’

‘‘गाँव में कच्चा घर है बाबूजी । हर साल बरफ के कारण ढह जाता है । बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। ’’

‘‘ घर में कौन - कौन है ? ’’

‘‘........... मां - बाप हैं .........बीबी हैं , और दो बच्चे है। ’’

‘‘ इतने लोगों का खर्च कैसे उठा पाते होगे ? ’’

‘‘खर्च कहाँ चलता है बाबूजी, बस खीच तान होती रहती है। जब छोटी चादर होती है बाबूजी तब सिर ढको तो पैर उघड़ जाता है। पैर ढको तो सिर उघड़ जाता है। बस यही चलता रहता है। ’’

मनेन्द्र ने देखा उसे नाव आगे खेकर ले जाने में बहुत मेहनत करना पड़ रही थी । पुश्पक भी उन लोंगों की बातें सुन रहा था। उसके चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे। लेकिन वह व्यक्त यही कर रहा था कि उन लोगों की बातों से उसे कोई मतलब नहीं है। वह भी सोच रहा था कि पंद्रह तारीख आते - आते उसकी जेब खाली होने लगती है।

मनेन्द्र ने बात का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहा - ‘‘ घर में तुम ही अकेले कमाते हो ? ’’

नहीं बाबूजी , मेरी बीबी भी अन्य लोगों के खेतों में काम करने जाती है। माँ - बाप बीमार रहते है। बाबूजी तो इस कदर खांसते है कि लगता है दम ही निकला जा रहा हो। हर बार जाते समय लगता है कि घर पहुँचकर कहीं उनके मरने की खबर ना मिले।

और बच्चे कितने है ?

एक तीन साल का लड़का है और पाँच बरस की लड़की है।

बाबूजी का इलाज नहीं कराया ?


नाव वाले ने यकायक घूरकर मनेन्द्र को देखा जैसे वह उसके इस बेतुके प्रश्न पर ही चोंक गया हो कि यह भी कैसा प्रश्न है । गरीबों का यदि इलाज होने लगे तो फिर बात ही अलग है। लेकिन वह बड़े ही संयत किन्तु तल्ख स्वर में बोला - ‘‘ आप भी बाबूजी हँसी की बात करते है। यहाँ तो पैसा पेट भरने को ही नहीं है और आप कहते है कि इलाज नहीं करवाया । वह कुछ देर रूका फिर लंबी सांस छोड़ी ।फिर दुखी व आर्द्र स्वर में बोला - मेरा एक और बेटा तो इसीलिए खतम हो गया कयोकि उसका इलाज समय पर नहीं हो पाया था । उसे दिमागी बुखार था । डॉक्टर ने महँगी - महँगी दवाईयाँ लिख दी थी । मैं इतने रूपये कहाँ से लाता। वह उग्र होता जा रहा था । वह कह रहा था कि रूपये ही यदि होते तो घरवाली चिथड़ों में न घूमती ,पिताजी बीड़ी को नहीं तरसते और बच्चे तरकारी को नहीं मचलते।

पुश्पक को भी नाव वाले से हमदर्दी होने लगी थी । लेकिन वह यह दिखाना नहीं चाहता था कि मनेन्द्र सही है। वैसे तो नाव वाले के लिए 60 रूपये बहुत कम हैं। वह सोच रहा था कि हमारा घर ही जब 6-7 हजार रूपये में नहीं चल पाता तो इसका घर कैसे चलता होगा ?

मनेन्द्र ने बात बदलते हुए कहा - ‘‘ फिर नाव का क्या करते हो ?‘‘

‘‘ वह मालिक के पास रहती है।’’

मनेन्द्र की जिज्ञासा बढ़ गई उसने पूछा -‘‘ तो ये नाव तुम्हारी नहीं है?’’

-‘‘ नहीं साहब ’’

‘‘ तो किसकी है ?’’

‘‘नाव के ठेकेदार की‘‘

‘‘ तो तुम्हें क्या मिलता है?

‘‘आधा पैसा ’’

‘‘ तो तुम अपनी नाव क्यों नहीं चलाते ।‘‘

अब तक लहरें अनुकूल दिशा में बहने लगी थी। चप्पू चलाने में उसे अधिक मशक्कत नहीं करना पड़ रही थी। वह आराम से बोला - ‘‘नाव बड़ी कीमती होती है फिर उसका रजिस्ट्रेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेªेेेेेेेेशन भी कराना होता है। अठारह सौ से दो हजार तक लगते है। हमारे पास कहाँ इतना रूपिया।‘‘

‘‘तो सभी मछुआरे किराये की नाव चलाते है?‘‘

‘‘हाँ साहब!‘‘

‘‘फिर तो बड़ा मुश्किल होता होगा ? तुम लोगों का तो खून पी रहे है ठेकेदार। ‘‘ उसके माथे पर चिन्ता की रेखायें उभर आयी वह बोला -‘‘ साहब क्या करें चल रहीं है रोजी रोटी किसी तरह । मर जायेगें साहब यही सब करते -करते एक दिन ।

पुश्पक ने कहा - उन्हें तो मालूम नही पड़ता होगा कि कितनी बार सवारी लेकर गये हो। तुम पैसा बचा भी तो सकते हो ।

वह व्यंग्य से मुस्कराया और बोला - ‘‘ साहब हर पैसे वाले के पास तेज दिमाग होता है। यहाँ किनारे पर एजेंट बैठा है । वही ट्रिप नोट करता रहता है फिर रात को हिसाब करता है।

मनेन्द्र का दिमाग घूमने लगा ठेकेदार ,एजेंट , ग्राहक सब की मार बेचारे मजदूर पर है।

अब तक पुश्पेन्द्र भी सोचने लगा था कि वाकयी कितने कम जीविका के साधन इन लोंगो के पास है। ये लोग कैसे जी पाते होगें । कभी -कभी तो भूखें भी रहते होगें। उसके दिल में उस नाविक के प्रतिे दया का भाव उमड़ने लगा लेकिन उसने जल्द ही अपने भावों पर काबू कर लिया और ताल के सौदर्य में खो गया।

अब तक मंदिर का घाट आ गया था। वे लोग नाव से उतरने लगे । मनेन्द्र ने अथाह पानी पर नजर दौड़ाई फिर घाट के किनारे को देखा। उसे लग रहा था पानी में तो नहीं किनारों पर जरूर बड़े - बड़े घड़ियाल हैं ,जो छोटी -छोटी मछलियों को निगल रहें है।

000