चन्देरी, झांसी-ओरछा और ग्वालियर की सैर
यात्रा वृत्तांत
आंनदपुर प्रसंग
लेखक
राजनारायण बोहरे
1
दशहरे की छुटिटयों मे बच्चे एकदम फुरसत में थे, और कई दिनों से मुझसे कह रहे थे कि मैं एक जीप किराये पर लेकर उन सबको चन्ंदेरी, झांसी, ओरछा, दतिया,ग्वालियर और शिवपुरी की यात्रा करा दूं।
मैं लगातार इन्कार कर रहा था, क्योंकि छोटे छोटे बच्चों के साथ यात्रा करने में बहुत सारी परेशानियां आती हैं, यह बात में भलीभांति जानता था। लेकिन जब बड़े भैया तेज नारायण और सीता बहनजी ने भी बच्चों की बात का समर्थन किया तो मैं चलने के लिए हां कर बैठा। दो दिन तैयारी में लगे। भाड़े की ऐसी जीप तय कर ली जिसका ड्रायवर तेज रफ्तार से गाड़ी नही चलाता है ।
आज सुबह हम लोग आठ बजे उठकर अशोकनगर से चले थे और लगभग चालीस किलोमीटर का सफर करके नौ बजे आनदंपुर आ पहॅुचे थे। हमने देखा कि पूरा आंनदपुर नगर एक ऊंची चहार दिवारी से घिरा हुआ है । जिसमे दो खूब बड़े दरवाजे बने हैं । जिनमें जालीदार बडे़ फाटक लगे हैं ।
प्रवेश द्वार पर बने अतिथि गृह में हम लोग को आश्रम की ओर से बिस्कुट और चाय दी गई फिर मुझसे अपना नाम पता पूछकर एक रजिस्टर में लिख लिया गया । अतिथि गृह की तरफ से नगर घुमाने के लिए गेरवा वस़्त्र धारी एक महात्मा हमारे साथ कर दिये गये थे।
हमारी जीप आंनदपुर की चिकनी सड़क पर फिसलती हुई सी आगे बढ़ रही थी । मैंने ध्यान से देखा तो समझ आया कि यह सड़क सीमेन्ट और रेत से बनाई गई है । चिकनी सड़क देखकर हमारे ड्रायवर के हाथ जीप की रफ्तार बढ़ाने को व्याकुल हो उठे। जीप डाªयवर बूटाराम ने रफ्तार बढ़ाई ही थी कि उसके बगल में बैठे आनदंपुर आश्रम के गेरवा वस्त्रधारी महात्मा ने उसे टोंक दिया -गाडी धीमे चलाओ ।
जीप धीमी हुई तो मैंने बच्चों को आसपास का नजारा देखने की सलाह दी।
सड़क के दोनों और पैदल चलने के लिए पत्थर का बड़ा साफ सुथरा फुटपाथ बना हुआ था। फुटपाथ के बाद खुद बड़े बड़े मकान बने हुए थे। सैकड़ो फिट लंबे दो मंजिले मकानों की कतारें दूर तक लगी थी। सारे के सारे मकान एकदम सूने थे। बच्चों को बड़ा आश्चर्य हुआ । सन्नी ने पूछा- महात्मा जी ये मकान सूने क्यों है ।
महात्मा जी ने मकानों की और देखते हुए कहा- ये सब धर्मशालाऐं हैं । भगत लोग जब भी आनदंपुर आते हैं, इन्ही में ठहरते हैं । साल में दो बार यहां मेला लगता है- दीपावली और गुरू पूर्णिमा पर । इन दिनों कोई मेला न होने से ये इमारतें सूनी है।
सन्नी ने फिर पूछा - सैकड़ो धर्मशालाऐं दिख रहीं चाचा यहां तो। जे पूरा का पूरा शहर धर्मशालाओे का बना है क्या?
महात्मा जी मुस्कुराए और बोले - बताओं बेटा, जब भगत लोग लाखों की संख्या में आयेंगें तो धर्मशाला भी तो उतनी ही ज्यादा चाहिए न। दीवाली और गुरूपूर्णिमा पर लाखों भगत लोग आते हैं न , उनको ठहरने के वास्ते बनाई गयी हैं ये धर्मशालायें।
हम लोग सूनी और साफ सड़क पर गुजरते हुए पांच मिनिट में मंदिर पर जा पहॅुचे थे ।
महात्मा जी ने भी हमको उतरने का इशारा किया तो हम सब उतर गये । चा रों ओर बहुत पवित्र शांति छायी हुई थी। गिने चुने लोग सामने बने मंदिरों की सफाई में व्यस्त थे । मेरे साथ आये सब बच्चे एकदम चुपचाप होगये और उत्सुक होकर चारों और देखने लगे ।
सामने दो खूब बड़े सीमेंट के बने सात आठ फिट ऊंचे चिकने चबूतरों पर दो बड़े अच्छे चमकदार सफेद भवन दूर से ही दिख रहे थे। वे ही मंदिर थे जिनमें हमको अंदर जाना था।
हमने देखा कि संगमरमर का बना पहला सफेद मंन्दिर एकदम चमकदार और बहुत ऊंचा दिखाई दे रहा है। सुदर नक्कासी और ऊंचे ऊंचे कंगूरों के कारण मंदिर को देखने के लिए गरदन पीछे घुमाना पड़ती थी। हम देर तक मंदिर को बाहर से देखते रहे फिर महात्मा जी का इंशरा पाकर हम मंदिर की ओर बढ़े। सच में आज महसूस हुआ कि गुना जिले की अषोकनगर तहसील में ईसागड़ के पास सूने सपाट मैदानों के बीच में बनाया गया यह मंदिर कितना भव्य है। पाकिस्तान के निर्माण के समय वहां से चले गुरू जी ने इतना लम्बा रास्ता पार करते हुए यहां आकर मदिर बनाने की जगह चुनी और कितनी मेहनत व लगन से उनके अनुगामियों ने मंदिर बनाया था। सीड़ियों पर चढ़ते हुए मैं सोच रहा था कि बच्चों ने जिद करके अपनी यात्रा का पहला पढ़ाव आनंदपुर रखा था तो मैंने सोचा कि घर से चालीस किलोमीटर दूर की जगह को लम्बी यात्रा के बीच एक क्यों चुना जाये, यहां तो बाद भी कभी आ जायंगे, सो मैं नाराज हो रहा था और कहने लगा था कि ठीक है तुम सबको जहां जाना हो जाओ, मुझे नही जाना।
मेरी गुस्से में भरी बात सुन कर सब बच्चे निराश हो गये और मुझे मनाने लगे थे कि बस कुछ मेरी मर्जी से ही होगा, बस केवल आनंद पुर की जिद मान लें। हम लोग इतने पास रहते हैं लेकिन अब तक हम लोगों ने आनंदपुर का भव्य नगर और मंदिर नहीं देखे। मैंने देखा कि सभी बच्चे यानि कि मेरी भान्जी अंषू, भतीजी हन्नी और प्रियंका तथा भान्जा अभिषेक, भतीजा सौरभ और सन्नी बड़ी उत्सुकता से मेरी ओर ताक रहे थे।
बच्चों का मन रखने के लिए मैंने हामी भर दी थी तो बच्चे उछल पड़े थे। अब मुझे लग रहा था कि आनंदपुर नही आते तो हमारी इस लम्बी यात्रा में से इतनी खूबसूरत जगह देखने से छूट जाती जो कि कायदे से मैंने भी ठीक से नही देखी।
महात्मा हमारे साथ मंदिर के अंदर गये। बच्चे बडे़ चकित होकर उस खूब लंबे चौड़े हॉल को देख रहे थे जिसमें आंनदपुर में आरंभ से अब तक के गुरूजी की मूर्तियां रखीथी । मंदिर में एकदम शंति थी। अनेक झाड़ फानूसों से लबांई गई मंदिर की खूब ऊंची छत में कई पंखे लटके थे , और तेज गति से चलने के कारण हमको खूब हवा भी लग रही थी
इस मंदिर के बाद हमने दूसरा वह भवन देख जो संतसंग के काम आता है । यानि कि बाहर से आये भगत लोग उस बडे़ हाल में बैठकर गुरूजी के प्रवचन सुनते थे।
मदिंरों के पास एक खूब बड़ा तालाब बना था। तालाब के किनारे से भीतर झांका तेा हम सब चकित रह गये। पूरा तालाब सीमेंट का बना हुआ था -मतलब दीवारें, तालाब का निचला तल और उसके बहुत से दरवाजे भी सीमेंट से बनाये गये थे। इसलिए तालाब का पानी एक दम नीला दिख रहा था क्योंकि इसे समय समय पर साफ किया जाता होगा। हन्नी तो अपनी छोटी-छोटी ऑखं फैलाये फुसफुसाते हुए पूछ ही बैठी- चाचा इत्ता बड़ा ताबाल किसने बनाया होगा?
मुस्कुराते हुए मैंने जवाब दिया - आदमी ने ! आदमी अगर सोच ले तो क्या नही कर सकता ।
हम लोगों ने कहा कि हमें आनंदपुर के भीतर के मकान देखने हैं और यहां के निवासियों से भी मिलना है । तो महात्मा जी ने समझाते हुए बताया कि बाहर के लोगों को बस इतने हिस्से में ही घूमने की अनुमति है, इससे ज्यादा स्थानांे पर कोई नही जा सकता। उन्होंने बताया कि इस नगर में तीन हजार से ज्यादा भगत निवास करते हैं । उनके रहने के कारण मकान रसोई घर,भण्डार वगैरह मंदिर के पीछे की तरफ बनाये गये है। आंनदपुर का सारा काम काज यहां के लोगों की एक समिति देखती है उसी समिति द्वारा यहां से दो किलोमीटर दूर लगे गॉंव सुखपुर में एक बड़ा अस्पताल भी बनाया गया है। जिसमें बड़े बड़े डॉक्टर रखे गये हैं और वहां आस पास के गांवो के लोग अपना इलाज करा सकते हैं। आंनंदपुर स्कूल में भी आसपास के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।
आंनदपुर से चलते समय महात्मा जी ने मुझे एक पुस्तक भेंट की जिसमे आंनदपुर आश्रम के बारे में बताया गया था। चलते -चलते मैंनं पुस्तक से कुछ पन्ने पढ़ डाले तो मुझे पता चला कि आंनदपुर आश्रम की स्थापना इस जगह पर सन् 1940 में हुई थी । पंरमहंस अदृवेत मत के मानने वालों का यह एक खूब बड़ा तीर्थ है।इस मत को मानने वाले लोग भारत ही नही पाकिस्तान तक में रहते हैं । यहॉ का सारा खर्चा दान में मिले रूपयों से चलता है।
अब हमारी जीप कदवाहा की दिशा में दौड् चली थी। आनंद पुर से 8 किलोमीटर दूइ ईसागड् है जहां उन्नीसवी सदी का तालाब, बडा प्रवेशद्वार, फूंक बावडी और प्राचीन किला व चर्च हैा यहां से 15 किलोमीटर दूर है कदवाहा । जो एक जमाने में राजनीति और धर्म साधना का बडा केंद्र हुआ करता था।
कदवाहा आठवीं सदी में बनाए गए उन मठों और समाधियों के लिए जाना जाता है जो कि काल और लाल पत्थरों पर बनायी गयी मूर्तियों और दीवारों में लगायी गयी पत्थर की जालियों के कारण उस युग के शिल्प की एक झांकी प्रस्तुत करता है।
कदवाहा के मठ और गडी की प्रतिमायें और एक्सरा जैसा दिखा देने वाली पत्थर की जाली देख कर हम लोग बाहर आये।
अब हमारी जीप चंदेरी की दिशा में दौड़ चली थी ।
पर्यटकों के लिए जानकारी
आनंदपुर - अशोकनगर से 35 किलोमीटर दूर हैा
साधन-आनंद पुर पहुंचने के लिए दिल्ली मुम्बई के झांसी वाले रेल मार्ग पर बीना जंक्शन उतर कर यहां से रेल द्वारा अशोकनगर और वहां से बस द्वारा आनंदपुर पहुंचा जा सकता हैा आनंद पुर से 22 किलोमीटर दूर है कदवाहा जहां पहुंचने के लिए बस या निजी साधन ही उपलब्ध होते हैा
देखने योग्य स्थान- आनंदपुर में संगमर मर के बने दो विशाल आधुनिक भवन नुमा मंदिर और सीमेंट से बनाया गया एकदम पक्का बडा तालाब देखने योग्य हैा