चन्देरी, झांसी-ओरछा और ग्वालियर की सैर 2
यात्रा वृत्तांत
कौशक महल प्रसंग
लेखक
राजनारायण बोहरे
कुछ आगे जाकर चौराहा मिला और वहॉं लगे साईन बोर्ड को पढकर सब बच्चे खूब हॅंसे बोर्ड पर एक दिशा में जाने वाले रास्त का नाम लिखा था- ढाकोनी।
मैंने बच्चो को समझाया ढाकोनी तो बिगड़ा हुआ नाम है इस जगह का सही नाम है ढाकवनी, यानि छेवला ,पलाश के पेड़ों का वन । यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि पुराने समय में यहॉं ढाक का खूब बड़ा जंगल था। पर अब वहॉं कुछ थोड़े़ पेड़ बचे हैं । चंदेरी यहॉ से 30 किलोमीटर दूर है । ढाकोनी से आगे चलते ही हमने पाया कि अब रोड के दोनो और खूब सारे पेड़ मिलना शुरू हो गये है।कुछ दूर चलने पर तो खूब घना जंगल दिखने लगा।
हमने देखा कि चारो और खुब ऊंचे ऊंचे पहाड है । और पहाड़ों कि चोटी से लेकर नीचे तक अनगिनती पेड़ ही पेड़ लगे है । पहाड़ों के बीच वाली पतली सड़क घूमती चली जा रही थी। पहाड़ों से टूटी चट्टानों के टुकडे़ भी यहॉं वहॉं ढेर के ढेर पड़े थे ।
प्रियंका का मन हरी हरी जगह पर खूब लगता है ।वह उत्साहित होकर बाहर ताक रही थी।एक जगह तो उसे इतनी अच्छी लगी की उसने जीप रूकवा ली सब लोग बाहर निकले और चारो और का सुंदर दृश्य देखने लगे ।
अंशू ने सबका ध्यान दूर दिख रहे एक पहाड की ओर खींचा । पहाड़ पर एक झरना झरता हुआ दिख रहा था, जिसका पानी एक छोटी सी नदी के रूप में बहता हुआ दूर तक चला गया था ।
मैंने घड़ी देखी। सुबह के साड़े दस बज रहे थे । मैंने बच्चों को जीप में बैठने का संकेत किया और खुद भी ड्रायवर के पास वाली अपनी जगह पर जा बैठा। हमारे पीछे बनी एक लंबी सीट पर सब बंधे बैठ गये तो हम लोगों ने आगे बढ़ाई ।
जंगल में तरह तरह के पक्षी दिखाई देने लगे थे । एक जगह काले मुंह वाले लंगूरों का एक झुंड हमें सड़क के बीचोंबीच मिला तेा बच्चे खुश होकर किलकारी भरने लगे। जीप पहले रूकी और जब हॅार्न बजा तो लंगूर इधर उधर खिसक गये । उनके बीच से निकलती हमारी जीप को वे टुकर टुकर देखने लगे थे ओर बच्चे उन्हे मुंह के दोनों ओर हाथ लगाकर चिढ़ा रहे थे।
चंदेरी से दस किलो मीटर पहले बायीं ओर एक रोड़ जाती दिखी तो बच्चों ने पूंछा कि यह रास्ता कहां के लिए जाता है, तो मैंने वहॉ लगे सूचना-पत्र को पढ कर बच्चों बताया कि यह सड़क थूबोनजी के लिए गई है। थूबोन जी जैन धर्म का एक बड़ा तीर्थ है । वहॉ चट्टान खोद कर बनाई गई बड़ी जैन तीर्थकरों की मूर्तियॉं देखने योग्य है। ऊंचें पहाड़ और यहॉ वहॉ झरते झरनों के कारण यह स्थान बड़ा मनोरम और हरा भरा लगता है ।
चंदेरी की दिशा में आगे बढते हुए हमने देखा कि चारों और ऊंची ऊंची पहाड़ियां है और हर पहाड़ी पर छोटी-छोटी गुंबदो की छतरियॉं बनी है। मैंने अनुमान लगाया कि इन छतरियों में पुराने समय में सैनिक लोग बैठकर चारो ओर नजर फेंकते रहते होंगें और दुश्मनों की सेना की चौकसी करते होंगे मेंरे कहने पर बच्चो ने झांक कर चारों और देखा और कौतुहल से पहाड़ों पर बनी वे छतरियां जैसी बनी सैनिक चौकियां देखने लगे।
चंदेरी से चार किलोमीटर पहले ही सड़क के पास एक खण्डहरनुमा पुराना महल दिखा जो दूर से इण्डिया गेट की तरह का दिखता था, जिसमें कि इण्डिया गेट की तरह बने महल के बीचोबीच मेहराब व एक रास्ता दिख रहा था, तो हमने जीप रोक दी और हम लोग पैदल पैदल उस महल की ओर बढ चले। महल के पास पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा थां, जिस पर लिखा था कि यह इमारत कौशक महल है। कौशक महल के चारो और फूलों का सुदंर बगीचा लगा था। फूलों पत्तियों की हरियाली के बीच होते हुए हम महल के पास पहॅंचे। हमने देखा कि कौशक महल में भूरे रंग के चिकने पत्थरों से बनी इमारत की तीन मंजिल बनी हुई है। चौथी अभी अधूरी सी लगती है ऐसा लगता है कि महल बनतेबनते रूक गया होगा।
हम ने देखा कि दिल्ली के इण्डिया गेट की तरह एक बड़े दरवाजे की तरह बने इस महल के बीचोबीच पन्द्रह फिट चौड़ा एक रास्ता निकला है , उसी रास्ते से भीतर गये और बींच में जाकर खडे़ होगये तो हम महल बनाने वाले कारीगर की कला पर मुग्ध होगये।
महल में चारों दिशाओं में पन्द्रह-प्रन्द्रह फिट के रास्ते आते थे और बीच में आकर एक छोटा सा चौराहा बनाते थे। वहां पर एक बोर्ड लगा था। मैंने आगे बढकर उसे पढा तो पता चला कि इस महल का निर्माण सन् 1445 ईसवी में िदल्ली के सुल्तान महमूद खिलजी ने कराया था। सुल्तान की इच्छा थी कि इसे सात मजिल ऊंचा बनाया जाए। लेकिन वह इसे केवल चार मजिल ही बनवा सके । इस महल में दूसरे महलों की तरह एक मुख्य दरवाजा नही हैं, बल्कि चार रास्ते चारों दिशाओं में महल के भीतर जाते हैं । इन चारों रास्तों से ही यात्री महल के भीतर जा सकते है । ये रास्ते महल केा चार बराबर भागों मे बॉट देते है ।
मैं तो सिढियॉं चढकर महल के दाहिने बरामदे मे जाकर बैठ गया और सुस्ताने लगा , पर बच्चे कहॉं मानने वाले थे । अभिशेक उर्फ छोटु की उम्र तेरह वर्श होने से वह बच्चों का लीडर था, उसके साथ चिखते चिल्लाते बच्चे सीढियॉं चढ़कर महल की उपरी मंजिल पर चढ गये और एक कमरे में से दूसरे कमरे की तरफ दौड़ लगाने लगे। हन्नी की उम्र केवल सात वर्श थी। जबकी सन्नी नौ वर्श का था।,इसलिए ये दोनों बच्चे जल्दी ही थक गये और नीचे आकर मेरे पास बैठ गये । कुछ देर बाद बाकी सब लोग भी थक गये तो नीचे उतर आये। मैंने घड़ी देखी ग्यारह बजकर पैंतालीस मिनिट हो रहे थे। सबको भूख लग आयी होगी , यह सोचकर मैंने ड्रायवर बूटाराम से कहा कि वह जीप में से खाना और पानी की बोटल निकाल लाये, सब लोग खाना खांऐगें।
सबने हाथ धोये और कागज की प्लेट में पूडियां रखकर आम के अचार और नमकीन के साथ खूब स्वाद लेकर खाना शुरू किया ।
भोजन के बाद मैंने अपना कचरा बटोरा और एक बडे़ लिफाफे में रखते हुए बच्चों को कहा कि पर्यटन स्थल पर कचरा नही फैलाना चाहिए।
कचरे की थेली हाथ मे लिए मैं जीप की और बढ चल पडा तो बच्चों ने कोशक महल के चौकीदार और माली से बाय बाय की, और मेरे पीछे-पीछे जीप की और लपके।
जीप स्टार्ट हुई और एक झटके से चंदेरी की और दौडने लगी । ठंडी हवा आ रही थी। दोपहर का समय था और पेट में खूब सारी पूड़ी पॅहुच गयी थी, इस वजह से सबको आलस्य आ रहा था। लगता था सब सो ही जाएंगे।
चंदेरी में प्रवेश करते समय हमने देख कि सड़क के दोनों तरफ पुराने जमाने के मकानों के खंडहर और मकबरे बने हुए है। मकबरा वह जगह होती है , जिसमे मृतक व्यक्ति को दफनाया जाता है । उस स्थान पर यादगार के लिए कोई मकान या कमरा बना दिया जाता है। कुछ मकबरे समय की मार से गिर गये थे तो उनके काले पत्थरों से बने लम्बे-लम्बे चौकोर खम्भें भी दूसरे मकबरों मे लिटाकर जमा दिये गये थे, जो अब मकबरों के खंडहरों में यहां वहॉं से झांक रहे थे , या फिसलकर दूर जा गिरे थे।
चन्देरी की लोकेशन-सडक मार्ग से अशोकनगर से 66 किलोमीटर/ललितपुर से 30 कि0मी0/शिवपुरी से 140 कि0मी0
चन्देरी तक पहुंचने के साधन-अशोकनगर, ललितपुर और शिवपुरी तीनों स्थान से बस चलती है या निजी किराये के टैक्सी वाहन
ठहरने के लिए स्थान- चंदेरी में म0प्र0 पर्यटन विकास निगम का होटल ताना बाना, म0प्र0 लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह और 2 निजी होटल