बात बस इतनी सी थी - 14 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 14

बात बस इतनी सी थी

14.

सुबह उठकर मैंने अपनी दिनचर्या का पालन वैसे ही किया, जैसे पिछले एक सप्ताह से करता आ रहा था । मैं सुबह जल्दी उठा, नहा-धोकर मंजरी के साथ पूजा-अनुष्ठान संपन्न किया और बिना कुछ खाए पिए ही ऑफिस के लिए निकल गया । दोपहर के लगभग दो बजे मेरी माता जी ने मुझे कॉल करके बताया -

"हैलो ! चंदन बेटा ! सुबह तुम्हारे जाने के तुरंत बाद ही मंजरी अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ जाने के लिए कहकर घर से निकल गई थी । वह अभी तक लौटकर नहीं आई है और उसके मोबाइल पर कॉल भी नहीं लग रही है !"

"मैं जानता था, मंजरी के कई रिश्तेदार इस शहर की अलग-अलग कॉलोनियों में रहते हैं । सामान्य परिस्थिति में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उसका जाना हमारे लिए किसी तरह की चिंता का विषय नहीं बनता, लेकिन हमारे परिवार में चल रहे तनाव की स्थिति को देखते हुए मंजरी का आज सुबह-सुबह घर से अकेले निकलना और दोपहर दो बजे तक घर वापस न लौटना, हम माँ-बेटे दोनों को ही परेशान करने के लिए काफी था ।

माता जी के यह बताने के बावजूद कि मंजरी के मोबाइल पर कॉल नहीं लग रही है, मैंने खुद भी उसके मोबाइल पर कॉल करने की कोशिश की । अब उसके मोबाइल पर बराबर घंटी बज रही थी, लेकिन उसने कॉल रिसीव नहीं की । लगभग आधे घंटे तक रुक-रुक कर मैं उसके मोबाइल पर कॉल करके उससे बातें करने की कोशिश करता रहा, लेकिन उसने एक बार भी मेरी कॉल रिसीव नहीं की ।

मंजरी के मोबाइल पर कॉल रिसीव नहीं होने पर मैं थोड़ी देर तक परेशान होकर पटना में रहने वाले मंजरी के सभी रिश्तेदारों के बारे में सोचता रहा और यह अनुमान लगाने की कोशिश करता रहा कि वह अपने किस रिश्तेदार के घर जा सकती है ?

सोचते-सोचते मुझे याद आया कि दूर के रिश्ते की उसकी एक मौसी से उसकी काफी नजदीकी रहती है । मैंने कई बार मंजरी को उनसे फोन पर भी बातें करते देखा-सुना था । शादी के बाद जब वह दो सप्ताह तक यहाँ रही थी, तब पूरा एक दिन उसने अपनी मौसी के घर में रहकर बिताया था । उस समय तो मैंने भी पूरा दिन उसके साथ उसकी मौसी के घर में रहकर बिताया था । उस दिन उसकी मौसी के बेटे अंकुर के साथ मेरी भी अच्छी पहचान बन गई थी ।

मेरा अनुमान था कि मंजरी जरूर अपनी उसी मौसी के घर गई होगी ! लेकिन सिर्फ अनुमान करके मैं निश्चिन्त नहीं बैठ सकता था । यह पता लगाना जरूरी था कि वास्तव में मंजरी वहाँ है ? या कहीं और गई है ? अंकुर का मोबाइल नंबर मेरे मोबाइल में पहले से ही था । मैंने तुरंत अंकुर का नंबर मिलाया । अंकुर का नंबर तुरंत ही मिल भी गया और उसने रिसीव भी कर लिया था । उधर से अंकुर की जानी-पहचानी मधुर आवाज आयी-

"हैलो ! हाँ जी, जीजा जी ! नमस्ते ! कैसे हैं आप ?"

"नमस्ते अंकुर ! मैं ठीक हूँ ! तुम कैसे हो ? तुम्हारे बीवी-बच्चे और मौसी जी-मौसा जी कैसे हैं ?"

"आपकी दुआ से यहाँ सब कुशल मंगल हैं, जीजा जी ! बहुत दिन हो गए हैं, घर आइए ना कभी !"

"हाँ-हाँ जरूर आऊँगा ! अभी ऑफिस में बहुत व्यस्तता है ! यह बताओ मंजरी वहाँ है ?"

"नहीं, जीजा जी ! यहाँ तो नहीं है !"

अंकुर से 'नहीं' सुनते ही मेरी घबराहट बढ़ गई । उसी घबराहट में बिना सोचे-समझे मेरे मुँह से निकल पड़ा -

"यहाँ नहीं है ? सुबह वह घर से मम्मी से कहकर निकली थी कि ... !"

"अरे तो, जीजा जी ! मैंने यह कब कहा कि दीदी यहाँ नहीं आई थी ? मैंने कहा है कि वह अब यहाँ घर पर नहीं है ! दीदी अभी मम्मी के साथ बाजार गई हैं ! वे लौटकर आएँगी, तो आपकी बात करा दूँगा !"

यह जानकर कि मंजरी अपनी मौसी के घर है, मेरे मन को बड़ी तसल्ली महसूस हुई । मैंने उसी समय मैंने माता जी को भी कॉल करके बता दिया कि मंजरी अपनी मौसी के साथ बाजार गयी है, शाम तक लौट आएगी । मैंने उनसे कहा -

"माता जी ! मंजरी की मौसी को बाजार से कुछ सामान खरीदना था, इसलिए उन्होंने अपनी सहायता करने के मंजरी को बुला लिया था । आप चिन्ता न करें ! वह शाम तक लौट घर आएगी !"

"वह सब तो ठीक है, पर बेटा मंजरी को घर में किसी से बताकर तो जाना चाहिए था ! मुझसे नहीं बताना चाहती थी, तो तुम्हें फोन करके बता देती !"

माता जी ने जो कहा, वह सब कुछ सही कहा था, लेकिन मंजरी की समझ को बदलना मेरे वश की बात नहीं थी और मैं यह माता जी को बताकर उनको तनाव नही देना चाहता था । इसलिए मैंने उनको बताया -

"आप पूजा कर रही थी, इसलिए उसने आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा था और मेरा मोबाइल सुबह से डिस्चार्ज पड़ा था । आज सुबह से ही ऑफिस का काम था कि मोबाइल को चार्ज नहीं कर पाया था । अभी-अभी चार्ज किया था, जब आपकी कॉल आयी थी !" पता नहीं माता जी मेरे जवाब से संतुष्ट हुई थी ? या नहीं ? लेकिन उन्होंने पलटकर कुछ नहीं कहा ।

शाम के लगभग छः बजे माता जी ने मुझे कॉल करके बताया कि मंजरी घर लौट आई है । मंजरी के घर लौट आने पर मेरी चिंता कम हुई और मेरे मन को भी थोड़ी-सी शांति मिली ।

माता जी ने एक दिन षहले ही मुझे ऑफिस से घर जल्दी लौट आने को कह दिया था, इसलिए उस दिन मैं हमेशा की अपेक्षा ऑफिस से घर जल्दी लौट आया था । मेरे घर लौटते ही माता जी ने मुझे आदेश दिया -

"परसों दीपावली है । कल बाजार में बहुत भीड़ रहेगी, इसलिए मंजरी और तू दोनों साथ जाकर आज ही बाजार से कुछ गिफ्ट और त्यौहार की जरूरत का घर का कुछ सामान खरीद लाओ !"

हालांकि मैं ऑफिस से थका-हारा घर लौटा था, इसलिए मेरा आराम करने का मन था । पर बाजार से सामान लाने के माता जी के आदेश का पालन करना मेरे आराम से ज्यादा जरूरी था । यूँ माता जी के किसी भी आदेश का पालन करने में मुझे कभी कष्ट महसूस नहीं होता, लेकिन मेरा मंजरी को मेरे साथ चलने के लिए कहना और मेरे कहते ही उसका मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो जाना, ये दोनों ही काम मुझे मुश्किल लग रहे थे ।

दोनों ही समस्याओं से बचने के लिए मैंने मंजरी को मेरे साथ चलने का ऑफर किये बिना ही माता जी से उन सभी सामानों की सूची माँग ली, जो सामान बाजार से लाने थे । माता जी ने सामानों की सूची के साथ मित्रों और रिश्तेदारों के नाम बताते हुए उनको देने के लिए गिफ्ट की रेट रेंज और टाइप बतायी । गिफ्ट की क्वालिटी देखने का काम उन्होंने मंजरी पर छोड़ते हुए कहा -

"मंजरी को साथ लेकर जाना है, वह सभी सामान अच्छे से देख-परखकर ले आएगी !"

मंजरी को साथ ले जाने का दोबारा निर्देश देने के साथ ही माताजी ने मेरे हाथ में एक गुलाबी रंग की पर्ची थमाते हुए धीरे से कहा -

"मंजरी के लिए मैंने एक गिफ्ट आर्डर किया था, यह उसकी पर्ची है । मुन्ना ज्वेलर्स शॉप से इसे भी उठाते लाना !"

माता जी की ओर इस आशय से मुस्कुराते हुए कि दिन-रात मंजरी के आरोपों को झेलते हुए भी उसके लिए गिफ्ट की इतनी चिंता है कि समय से पहले ही ऑर्डर बुक कर आई, मैंने पर्ची ले ली । लेकिन मंजरी को अपने साथ बाजार लेकर जाने के माता जी के आदेश का पालन करना मुझे जरूरी नही लगा ।

मैं मंजरी को मेरे साथ चलने के लिए कहे बिना ही बाजार से सामान लेने के लिए घर से अकेला निकल गया। मैं जानता था कि मेरे इस कदम से मेरी माता जी और मंजरी दोनों ही नाराज होंगी, क्योंकि मेरे अकेले बाजार जाने से एक ओर माता जी की आज्ञा का उल्लंघन हो रहा था, तो दूसरी ओर मंजरी मेरे साथ कुछ समय घर से बाहर बिताने के अवसर से वंचित हो रही थी । जो भी हो, मैं उस समय मंजरी नाम की आफत को ढोने के बिल्कुल मूड़ में नहीं था ।

रात के लगभग दस बजे जब मैं बाजार से लौटकर आया, माताजी ने डाइनिंग टेबल पर हम सबके लिए खाना परोस कर रखा था । मैं कपड़े बदलने के लिए कमरे में गया तो देखा, मंजरी ने भी कमरे में रखी छोटे मेज पर मेरे और अपने लिए दो प्लेटों में खाना सजाया हुआ था । लेकिन मैंनै उन दोनों को कह दिया -

"आप दोनों खा लीजिए ! मुझे भूख नहीं है, मैं आज बाजार में खाना खाकर आया हूँ !" वास्तविकता भी यही थी कि अपनी माता जी और मंजरी के बीच खाने के मुद्दे को लेकर होने वाले फिज़ूल के टकराव में पड़कर मैं अपना दिमाग खराब नहीं करना चाहता था, इसलिए आज मैं बाहर ही खाना खकर आया था । यह जानने के बाद कि मुझे वास्तव में भूख नहीं है, उन दोनों ने अकेले-अकेले बैठकर अपना-अपना बनाया हुआ खाना खाकर अपने अहम को संतुष्ट कर लिया ।

खाना खाने के बाद माता जी उस सामान को खोलने के लिए चली, जो उन्होंने बाजार से मंगाया था । सामान खोलने से पहले ही उन्होंने मुझे थोड़े गुस्से से घूरकर देखा और डाँटते हुए बोली -

"मंजरी को अपने साथ क्यों नहीं ले गया था ?"

"बस ऐसे ही ?"

"यह कोई जवाब है ?" माताजी ने दुबारा डाँटा ।

इस बार मैंने कोई जवाब नहीं दिया । चुपचाप उनके पास से हटकर दूसरे कमरे में चला गया । मेरे वहाँ से हटने के बाद माता जी ने एक-एक करके सारा सामान और गिफ्ट खोलकर देखे । उसके बाद उन्होंने थैले में से मंजरी का गिफ्ट निकाला और उस गिफ्ट को लेकर ढेर सारे स्नेह और आशीर्वाद के साथ मंजरी के कमरे की ओर चल दी । माता जी को मंजरी के कमरे की ओर जाते देखकर मुझे घबराहट होने लगी और मैं मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा -

"हे प्रभु, हे परमात्मा ! इस समय माता जी और मंजरी के बीच बहुत आत्मीय और मधुर बातचीत भले ही न हो सके, पर आप बस मेरी यह विनती जरूर सुन लेना कि उन दोनों में इतना कडुवा और कठोर संभाषण बिल्कुल मत होने देना, जिससे सामान्य व्यवहार के अनुशासन की सीमा ही टूट जाए !"

ईश्वर से प्रार्थना करते हुए मेरा पूरा ध्यान मेरे कान और मेरी आँखों के साथ एक पल का भी समय गँवाये बिना लगातार मंजरी के कमरे की ओर लगा हुआ था कि न जाने अगले पल क्या हो जाए ? खैर, दो मिनट बाद ही मुझे पता चल गया कि मैं बेकार में ही इतनी चिन्ता कर रहा था । माता जी मात्र दो मिनट में मंजरी के कमरे से बाहर निकल आयी । उस समय उनके चेहरे पर संतोष का भाव था । उन्हें संतुष्ट देखकर मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया -

"प्रभु ! आप सर्वव्यापी हैं ! आपने मेरी प्रार्थना सुनी भी और स्वीकार भी की ! मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूँ कि आज त्यौहार के दिन आपने मेरे घर की शांति भंग नहीं होने दी !"

माता जी के बाहर आने के कुछ देर बाद मैं कमरे में गया । मैं जानता था कि मंजरी को गणपति और लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ बहुत पसंद हैं । यह सोचकर मैं दीपावली के त्यौहार पर घर में स्थापित करने के लिए गणेश जी और लक्ष्मी जी की चांदी की मूर्तियाँ ले आया था, जो मैंने सभी सामानों से अलग, अभी तक अपने बैग में रखी हुई थी । मैंने वे दोनों मूर्तियाँ अपने बैग से निकालकर मंजरी की ओर बढ़ाते हुए कहा -

"यह लो ! मेरी ओर से तुम्हारे लिए दीपावली का गिफ्ट ! गणपति जी और लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ तुम्हें बहुत पसंद है ना ?"

मंजरी में मेरे हाथ से मूर्तियाँ लेकर बेड के सिरहाने रखे स्टूल पर रख दी और फिर चुपचाप टेलीविजन देखने लगी। उसी एक पल में मेरी नजर उसके चेहरे पर जा टिकी, जहाँ अभी भी ना कोई खुशी का भाव था, ना ही नाराजगी का । न उसने धन्यवाद कहने की जरूरत समझी और न ही यह बताने की कि उसको मूर्तियाँ पसंद है ? या पसंद नहीं हैं ?

कुछ क्षणों के बाद मेरी नजर मंजरी के चेहरे से हटी, तो देखा कि मुझसे कुछ देर पहले मंजरी को माता जी का दिया हुआ गिफ्ट, जो उन्होंने मुझसे मुन्ना ज्वेलर्स शॉप से मंगाया था, वह भी अभी तक वैसे ही डिब्बे में बंद रखा था, जैसे मैं लाया था । इसका मतलब था, उसने वह भी अभी तक खोलकर नहीं देखा था । शायद इसीलिए माता जी उसके कमरे से इतनी जल्दी निकल गई थी । मंजरी द्वारा माता जी की भावनाओं का यूँ तिरस्कार करना मुझे बहुत बुरा लग रहा था, इसलिए मैं उसी समय मंजरी से कुछ कहे बिना ही उसको टेलीविजन देखती छोड़कर ड्राइंग में आकर सोफे पर लेट गया ।

सोफे पर लेटकर मैं आज के मंजरी के व्यवहार के बारे में यह सोचने के लिए मजबूर हो गया कि अगर मंजरी मेरे साथ दीपावली मनाने के लिए यहाँ आयी है, तो मेरे और माता जी के दिये हुए दीपावली के गिफ्ट का वह इस तरह तिरस्कार क्यों कर रही है ? मंजरी के बारे में सोचते-सोचते मैं सुबह बिस्तर से उठने के बाद से अब तक के एक-एक करके सारे घटनाक्रम पर विचार करने लगा । दिन-भर के पल-पल की यात्रा करते-करते मुझे कब नींद आ गई, मुझे पता नहीं रहा।

क्रमश..