Baat bus itni si thi - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

बात बस इतनी सी थी - 13

बात बस इतनी सी थी

13.

उस दिन मैं पिछले दिन की तरह चाय-नाश्ता और दोपहर या रात के खाने के मुद्दे में अपनी जिंदगी को उलझाना नहीं चाहता था, इसलिए पूजा-अनुष्ठान सम्पन्न होने के तुरंत बाद चाय पिये बिना और नाश्ता किये बिना ही मैं ऑफिस जाने के लिए घर से निकल गया । मंजरी को मेरे माता जी के साथ चाय पीने और नाश्ता करने में एतराज था, लेकिन मेरे चाय और नाश्ता किये बिना ऑफिस के लिए निकलने में उसको कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि वह जानती थी कि मैं ऑफिस पहुँचकर कैंटीन में नाश्ता कर लूँगा ।

दूसरी ओर, मेरी माता जी को मेरे मंजरी के साथ चाय पीने और नाश्ता, लंच या डिनर करने में कोई एतराज नहीं था । लेकिन मेरे चाय और नाश्ता किये बिना ऑफिस के लिए निकलने से वे खुश नहीं थी । वे जानती थी कि कैंटीन का खाना मुझे पसन्द नही है । मैं बाहर का खाना खाता हूँ, मजबूरी में खाता हूँ ।

रात को जब मैं ऑफिस से लौटा, तो देखा मंजरी अपने कमरे में टीवी देख रही थी और माता जी ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठी हुई मेरा ऑफिस से लौटने का इंतजार कर रही थी । ऑफिस से लौटकर मुझे बहुत तेज भूख लगी थी, इसलिए मैं जल्दी से कपड़े बदलकर और मुँह हाथ धोकर डाइनिंग चेयर पर जाकर बैठ गया । जब मेरे सामने खाने की दो प्लेट आयी, तब मुझे पता चला कि मंजरी और मेरी माता जी, दोनों ने अलग-अलग खाना बनाया हुआ था । मजे की बात यह थी कि मेरे लिए दोनों ने ही खाना बनाया हुआ था ।

मेरे लिए यह निर्णय करना बहुत कठिन था कि माता जी के हाथ का बनाया हुआ खाना खाऊँ ? या मंजरी का बनाया हुआ ? माता जी के साथ बैठकर उनका बनाया हुआ खाना खाने का मतलब था, मंजरी के आरोपों की गठरी का बोझ बढ़ाना और मंजरी के साथ खाना खाने का मतलब था, माँ को बुढ़ापे में अकेली छोड़कर एहसान फरामोश हो जाना । दोनों में से कोई भी मेरे स्वभाव को रास नहीं आ रहा था । इसलिए मैं चुपचाप ड्राइंग रूम में जाकर भूखा ही सोफे पर लेट गया ।

माता जी ने मुझे कई बार खाना खाने के लिए कहा । मैने खाना खाने के लिए मना किया, तो उन्होंने कई बार मुझसे चाय पीने के लिए आग्रह किया । भूखा होने के बावजूद उनके आग्रह को बार-बार ठुकराना मेरे मन को बहुत कष्ट दे रहा था । लेकिन मुझे भुखों रहना मंजूर था, घर में क्लेश मंजूर नहीं था । इसलिए मैंने यह सोचकर मेरे भुखे रहने से माता जी दुखी न हो, भूखा होने के बावजूद हर बार उन्हें बस यही कहा -

"माता जी ! मुझे भूख नहीं है ! भूख होती, तो मैं आपकी बात कभी नहीं टालता ! आज मैंने दोस्तों के साथ ऑफिस की कैंटीन में खाना खा लिया था !"

मेरे 'न' कहने के बावजूद शायद एक माँ का हृदय यह अनुमान लगा सकता था कि मैंने ऑफिस में खाना नहीं खाया था और अभी भी मैं भूखा हूँ ! इसलिए माता जी एक थाली में खाना परोसकर, ढककर मेरे पास रखी सेंटर टेबल पर रख गयी और जाते-जाते मुझसे कह गई -

"बेटा ! जब भूख लगे, तो उठ कर खा लेना ! भूखे पेट भोजन का तिरस्कार नहीं करना चाहिए ! अन्न देवता का अपमान होता है !"

माता जी के जाने के बाद मंजरी आयी । उसने भी मुझसे कमरे में चलने और खाना खाकर सोने का आग्रह किया । मैंने उसको भी वही उत्तर दिया -

"मुझे भूख नहीं है ! आज मैंने दोस्तों के साथ ऑफिस की कैंटीन में खाना खा लिया था !"

"तो कमरे में चलकर बेड पर क्यों नहीं सो जाते ? सोफा सोने की जगह होती है क्या ?"

मैंने मंजरी को कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप सोफे पर लेटा रहा । कुछ देर तक वहाँ खड़े रहने के बाद मंजरी अपने कमरे में लौट गई । उसके जाने के बाद मैं दुखी मन से सोचने लगा.-

"मेरे जीवन-रथ की धुरी के दोनों छोर जिन दो पहियों पर टिके है और जिनके घूमने से मेरी जिन्दगी का रथ सुख-चैन से आगे बढता है, वे मेरे घर की ये दोनों देवियाँ हैं । इन दो देवियों में एक मेरी माँ है, जिसने मुझे जन्म दिया और बचपन से लेकर आज तक मेरे जीवन को सँवारती रही है । मेरी जिन्दगी में सुख-चैन और मेरे होंठों पर मुस्कान देखकर ही उसके जीने का मतलब पूरा होता है ।

दूसरी ओर म़जरी, मेरी पत्नी है, जो मेरे बाकी बचे जीवन को सँवारने का दावा करती है । मेरे जीवन में दोनों की महत्त्वपूर्ण जगह है । पर ये दोनों ही एक-दूसरी से इतनी दूर खड़ी हैं कि उनमें से किसी एक की तरफ मेरा एक छोटा-सा कदम बढ़ते ही मेरे जीवन-रथ का संतुलन बिगड़ने लगता है ।

इनमें से जिस छोर की ओर मेरा कदम बढ़ता है, वह दूसरे छोर की परवाह किये बिना यथार्थ की धरती से नाता तोड़कर ऊपर उठ जाता है और अपनी विजय पताका फहराने लगता है । ऐसी हालत में दूसरा छोर अकेलेपन के बोझ से दबकर गम के गड्ढे गड़ता जाता है । इस स्थिति में मेरे पास एक ही विकल्प बचता है कि मैं इन दोनों में से किसी की ओर अपना कदम ना बढ़ाऊँ !"

सोचते-सोचते मैंने सोफे पर लेटे-लेटे ही सोने की कोशिश की, लेकिन 'भूखे भजन न होय गोपाला, ये ले अपनी कंठी माला' की तर्ज पर मुझे भूखे पेट नींद नहीं आई । मैं काफी देर तक तो इधर-उधर करवटें बदलता रहा और फिर उठकर थोड़ी देर तक ड्राइंग रूम में टहलता रहा । लेकिन जब पेट में उछल-कूद करते चूहों ने मेरा साथ नहीं दिया, तो मैंने माता जी के निर्देश का पालन करते हुए अन्न देवता के सम्मान में सेंटर टेबल पर रखी थाली पर ढका हुआ कपड़ा उतारा और भरपेट खाना खाकर सो गया ।

पूरे एक सप्ताह तक मैंने अपनी यही दिनचर्या बनाऐ रखी - सुबह जल्दी उठकर नहाना-धोना और मंजरी के साथ पूजा-अनुष्ठान में शामिल होना । उसके बाद चाय-नाश्ता किए बिना ही ऑफिस के लिए निकल जाना । रात को ऑफिस से लौटकर आते ही ड्राइंग रूम में सोफे पर लेट जाना और भूखे पेट सोने की कोशिश करना । नींद नहीं आने पर बीच रात में उठकर खाना खाकर फिर वहीं सो जाना ।

एक सप्ताह के बाद, दीपावली से दो दिन पहले की रात को मैं ड्राइंग रूम में सोफे पर गहरी नींद में सो रहा था, अचानक मंजरी ने आकर मुझे जगाया और जिद करके मुझे अपने कमरे में ले गई । मुझे कमरे में ले जाकर उसने दरवाजा बंद कर दिया और मेरे साथ आलिंगन चुंबन करते हुए मेरी उत्तेजना को जगाने की कोशिश करने लगी । एक ओर तो मैं अभी तक भी आधी-सी नींद में ही था, पूरी तरह से जाग नहीं पाया था और दूसरी ओर, अधपकी कच्ची नींद में उठा दिया जाने की वजह से मेरे सिर में बहुत तेज दर्द होने लगा था । इसलिए मैं मंजरी के साथ ऐसा कुछ व्यलहार नहीं कर सका और उसका ऐसा कोई सकारात्मक जवाब नहीं दे सका, जैसी कि उसकी अपनी इच्छा थी और जैसी कि मुझसे उसकी आशा और अपेक्षा थी ।

मेरी ओर से कोई उत्तेजनाजनक क्रिया-कलाप न होते पाकर उसने पहले तो मुझे प्यार से समझाया और कूटनीति की भाषा में सेक्स करने का ऑफर दिया । उसके बाद जैसा वह चाहती थी मेरे वैसा कुछ नहीं करने पर, उसने गुस्से में छटपटाते हुए कहा -

"मुझे यहाँ आये हुए पूरा एक सप्ताह बीत चुका है ! उस दिन से आज तक तुमने हर दिन ऑफिस में और हर रात ड्राइंग रूम के सोफे पर सोकर बिताई है ! इस पूरे सप्ताह मैंने मेरा एक-एक पल तुम्हारे इंतजार में गुजारा है कि तुम मुझे समझोगे और मेरी कद्र करोगे ! इंतजार करते-करते अब मैं थक चुकी हूँ ! अब मैं और इंतजार नहीं कर सकती ! तुम मुझे इग्नोर करके मेरी इंसल्ट करते रहो और मैं सहती रहूँ, इतनी बेवकूफ नहीं हूँ मैं !"

"मैंने कब कहा कि तुम बेवकूफ हो ? मैं तो कहता हूँ, तुम जरूरत से ज्यादा समझदार हो !"

"तो फिर तुम आज तक मुझे इग्नोर क्यों करते रहे हो ?"

"मैंने कभी तुम्हें इग्नोर नहीं किया ! तुम जरूरत से ज्यादा समझदार हो, इसलिए तुम्हें खुद ही ऐसा लगता है ! इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?"

"चंदन ! तुम यह कहकर पीछे नहीं हट सकते कि इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ? तुम कुछ नहीं कर सकते, तो कौन करेगा ? तुम्हें वही सबकुछ करना होगा, जो किसी भी पति का धर्म और कर्म होता है !"

मंजरी के मुँह से पति का धर्म-कर्म सुनते ही मुझे शादी के बाद के वे दो सप्ताह याद हो आए, जब उसने पत्नी-धर्म से खुद मुँह फेरकर मुझे मेरा पति-धर्म-कर्म नहीं निभाने दिया था और अपनी जीत को हर धर्म-कर्म से ऊपर रखकर मेरे पुरुषत्व को पराजित करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी ।

आज जब मैं छः महीने पुराने अपने उसी दुःस्वप्न में खोया हुआ चुपचाप लेटा था, तब मंजरी मेरे पुरुषत्व को जगाने की कोशिश कर रही थी । आज मंजरी वह सब कर रही थी, जिससे मैं अपना पति-धर्म-कर्म पूरा कर सकूँ ! मंजरी की कोशिशों को देखकर अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा -

"मैं यह सब नहीं कर सकता, जो तुम चाहती हो !"

"क्यों चंदन ? क्यों ?"

"क्योंकि मुझे तुम्हारे साथ ऐसा फ़ील ही नहीं आ रहा है कि मैं कुछ करूँ या मुझे कुछ करना चाहिए !"

"चंदन ! ऐसा कैसे हो सकता है ? कि बंद कमरे में तुम्हारी अपनी पत्नी इस हालत में तुम्हारे साथ है और तुम उत्तेजित होने के बजाय कह रहे हो कि तुम्हें कुछ फील नहीं हो रहा है !"

"मैं इसमें क्या कर सकता हूँ ? फ़ील नहीं आ रहा, तो बस नहीं आ रहा !"

"चंदन ! सच-सच बताओ ! मेरे सिवा तुम्हारा किसी दूसरी लड़की के साथ अफेयर तो नहीं है ना ? जै तुम कह रहे हो, वैसा तो तभी हो सकता है, जब मेरे अलावा तुम्हारा किसी दछसरी लड़की के साथ कोई चक्कर चल रहा हो !"

"नहीं ! ऐसा कुछ नहीं है !"

"तुम झूठ बोल रहे हो ! ऐसा नहीं होता, तो मेरी इतनी कोशिश करने पर भी तुम्हारी उत्तेजना क्यों नहीं जागी ?"

मंजरी ने अपने शक के पक्ष में तर्क देते हुए कहा । मंजरी के शक को दूर करने के लिए मैंने उसके तर्क को झुठलाकर कहा -

"फिर तो यह तुम पर भी लागू होना चाहिए ! शादी करके दो सप्ताह तक हर रात मेरे साथ एक बिस्तर पर सोकर भी तुम्हें कुछ फ़ील क्यों नहीं आया था ?"

मैंने मंजरी को उन सातों रातों की एक-एक बात याद दिलाने की कोशिश की, जब उसने मेरी पुरुषोचित यौन भावनाओं को कुचलकर मुझे टॉर्चर किया था । लेकिन मेरी लाख कोशिशों के बाद भी मंजरी ने अपनी गलती नहीं मानी । न ही उसको अपनी भूल का एहसास हुआ और न ही वह अपने मन में घर कर चुके शक को छोड़ने के लिए तैयार थी ।

कुछ ही मिनटों में मंजरी ने अपने इर्द-गिर्द बेबुनियाद शक का एक ऐसा घेरा बना लिया था, जिसे तोड़कर वह खुद तो उससे बाहर आने की कोशिश कर ही नहीं रही थी, मैं उसको उस घेरे से बाहर निकालने का जितना प्रयास कर रहा था, उतना ही वह उसमें धँसती चली जा रही थी । अपनी इस जिद में ही वह मुझ पर पागलों की तरह चिल्लाने लगी -

"चंदन ! तुमने मुझे धोखा दिया है ! इस धोखे के लिए तुम्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता ! तुम्हें इसकी सजा भुगतनी ही पड़ेगी !"

"देखो, मंजरी ! मैंने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया है ! गलती तुमने की है ! एक नहीं अनेक गलतियाँ की हैं तुमने, जिनका तुम्हें जरा-सा भी एहसास नहीं है ! मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा कि खुद ही गलती करके तुम मेरी किस गलती को माफ नहीं करने की बात कर रही हो ? और किस गलती की मुझे सजा देना चाहती हो ?"

"चंदन ! मैं तुम्हें अभी भी कहती हूँ कि आज से पहले तुम्हारा किसी के साथ अफेयर रहा है, तो मैं पुरानी बातें मानकर तुम्हारी उस गलती को माफ कर दूँगी ! इसके लिए तुम्हें उसको भूल जाना पड़ेगा, जिसके लिए तुम मुझसे दूर जा रहे हो ! ऐसा तभी हो पाएगा, जब तुम उसको अपनी आज की जिंदगी से निकालकर खुद से पूरी तरह अलग कर दोगे !"

मेरी बात पर ध्यान देने की बजाय मंजरी ने दुबारा अपनी जिद और नासमझी दिखानी शुरू कर दी थी । मैंने एक फिर उसे समझाने की कोशिश की -

"मंजरी ! मेरा न किसी के साथ कभी अफेयर था, न अब है !"

"तुम झूठ बोल रहे हो ! मुझे अब तुम्हारी किसी बात पर भरोसा नहीं है ! मैं तुम्हें अभी भी यही कहती हूँ कि .. !"

मंजरी की जिद में उसके आरोपों को सुनते-सुनते अब मुझे नींद आने लगी थी । यह निश्चित था कि मंजरी के साथ मेरी सारी रात जागकर उसे सफाई देते-देते गुजार जाएगी, तब भी वह मेरी बात नहीं सुनेगी और अपनी-अपनी कहती रहेगी । मुझे सुबह ऑफिस जाने के लिए जल्दी उठना जरूरी था । इसलिए मैं वहाँ से उठकर वापस ड्राइंग रूम में आकर सोफे पर सो गया ।

क्रमश..

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