बात बस इतनी सी थी - 1 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

  • मंजिले - भाग 14

     ---------मनहूस " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ कहानी है।...

श्रेणी
शेयर करे

बात बस इतनी सी थी - 1

बात बस इतनी सी थी

1

माता-पिता की इकलौती संतान के रूप में कुल को आबाद रखने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ढोता हुआ मैं अपने जीवन के चालीस बसंत पार कर चुका था, किंतु अभी तक मुझे अपने लिए अपने मन कोई रानी नहीं मिल सकी थी ।

उधर बुढ़ापे की चौखट पर खड़े हुए माता-पिता का अत्यधिक दबाव था कि मैं जल्दी-से-जल्दी शादी संपन्न करके उनकी वंश बेल को आगे बढ़ाऊँ और उनके सेवा-निवृत्त जीवन को आनंदपूर्वक व्यतीत करने के लिए उन्हें एक जीता-जागता खिलौना भेंट कर दूँ ! लेकिन इस मेरे लिए यह इतना सरल नहीं था, जितना मेरे माता-पिता समझते थे ।

बहू और पोते का इन्तजार करते-करते एक दिन पिता जी के दिल ने निराश होकर काम करने से इनकार कर दिया । अचानक उन्हें हार्ट अटैक आया और वे मुझे सुख की चाहत में दिन-रात भागती दौड़ती दुखों से भरी हुई इस दुनिया में छोड़कर स्थायी सुख तलाशने के लिए स्वर्ग में चले गये । पिता जी के जाने के बाद माता जी बहुत दुखी हुई ।

पिता जी का जाना मेरे लिए नसीहत थी । उनके जाने के बाद मेरी आँखें खुल गयी थी और मुझे थोडी-सी अक्ल आ गयी थी कि पिता जी न सही, कम-से-कम माता जी तो इस दुनिया को छोड़ने से पहले अपनी बहू और पोते को देखने और उनके साथ रहने का सुख भोग सकें । यही सोचकर मैंने मुझ चालीस वर्ष के नौजवान के लिए एक अदद जीवन-साथी की खोज को अब अभियान का रूप दे दिया था ।

जीवन-साथी की खोज के इसी अभियान की एक कड़ी के रूप में एक दिन मैं अपने एक मित्र के साथ उसकी गेट-टू-गेदर पार्टी में पहुँच गया । वहाँ उस मित्र ने जिन संपन्न-सम्मानित लोगों से मेरा परिचय कराया, उनमें से एक का परिचय कुछ इस तरह हुआ -

"इनसे मिलिए ! यह हैं दीपांशु ! अर्थात मिस्टर दीपक और इनकी तीसरी पत्नी - अंशुलिका ! दोनों में परस्पर इतना अधिक प्रेम है कि नाम का अंतिम आधा भाग हटाकर यह मिस्टर दीप रह गये हैं और मैडम अपने नाम का अंतिम आधा भाग हटाकर अंशु रह गयी हैं ! और दोनों को मिलाकर बन गये हैं, दीपांशु !"

उसी मित्र ने निकट ही DJ पर डांस कर रही एक अन्य महिला की ओर संकेत करके बताया -

"वह मिस्टर दीपक की दूसरे नम्बर की एक्स पत्नी हैं, जिससे इनका दो साल पहले तलाक हो चुका है । जिस सज्जन के साथ हमारी भाभी जी डांस का मज़ा लूट रही हैं, सुना है, अब उनके साथ गृहस्थी बसाने की योजना बना रही हैं । मज़े की बात यह भी है कि अब तक इस सज्जन की भी दो शादियाँ टूट चुकी हैं और गृहस्थी की गंगा में तीसरी बार डुबकी लगाकर अपना भाग्य आजमाने जा रहे हैं !"

उसी समय अचानक उस पार्टी में मुझे मेरे दो पुराने दोस्त दिखाई दिये । वर्षों पहले मेरे उन दोनों दोस्तों की शादी संपन्न हो चुकी थी और मैं अपने उन दोनों दोस्तों की पत्नियों को भली-भाँति पहचानता था, किंतु वह महिला, जो इस समय उनमें से एक दोस्त के हाथ में हाथ डाले हुए उसके बगल में खड़ी मेरे दोनों दोस्तों के साथ हँसते-बतियाते हुए पार्टी का आनन्द ले रही थी, मेरी पहचान से परे थी । जिज्ञासा और उत्सुकतावश मैं उन दोनों दोस्तों की ओर बढ़ गया । दोस्तों से हाय-हैलो होने के बाद बात आगे बढ़ी, तो पता चला कि वह महिला उन दोनों में से एक की दूसरी पत्नी थी । दूसरे दोस्त का भी पहली पत्नी से तलाक हो चुका है और इस समय अपनी जिन्दगी को जैसे-तैसे अकेले काट रहा है । इतना देख-सुनकर मेरा इस समय न केवल पार्टी से बल्कि शादी के नाम से भी मोहभंग हो गया था । इसलिए मैं घर वापिस लौट गया ।

चूँकि मैं पुनर्जीवन में विश्वास नहीं रखता हूँ, इसलिए अपनी हिंदू संस्कृति के अनुसार मैं सात फेरों के बंधन को सात जन्मों का या जन्म-जन्मांतर का संबंध तो नहीं मानता हूँ, किंतु वर्तमान लौकिक जीवन में दांपत्य सुख के लिए दम्पति के बीच प्रेम और विश्वास के दृढ़ सूत्र को जीवन के आनंद का आधार अवश्य मानता हूँ ।

हालांकि मैं स्त्री की शारीरिक-पवित्रता को ढकोसला मानकर खारिज करता हूँ, फिर भी स्त्री-पुरुष दोनों के मन की पवित्रता में मेरी पूरी आस्था है । मैं सोचता हूँ कि कोई भी संबंध-सूत्र तभी तक स्थायी रहता है, जब तक उस संबंध-सूत्र में बंधे हुए लोगों का मन पवित्र रहता है । जिस अनुपात में उनका अन्तर्मन स्वार्थ और अविश्वास से अछूता रहेगा, उसी अनुपात में उनका दाम्पत्य सम्बन्ध भी प्रेम-त्याग और विश्वास से परिपूर्ण रहता है ।

घर आकर मैं अपनी सोच के आधार पर पार्टी में अपनी आँखों से देखी और अनुभव की हुई नयी संस्कृति का विश्लेषण करने लगा कि पश्चिमी देशों की तरह अपना देश भी अब प्रगतिशील बन गया है । अब अपने देश में भी लोग अपना जीवन-साथी अपने मन के अनुरूप चुन सकते हैं और साथ ही जीवन-साथी अपनी रुचि-आवश्यकता के अनुरूप नहीं होने पर अलग भी हो सकते हैं । लोग अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा-तीसरा-चौथा, जब तक चाहें, जितने चाहे, जीवन-साथी बना सकते हैं ।

किंतु, अपने बारे में यह सब कल्पना करते ही मैं घबराहट से काँपने लगा । मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी । एक आवाज मेरे कानों में गूंजने लगी -

"यह भी कोई जिन्दगी है ! पूरी जवानी तो साथी बदलते-बदलते ही बीत जाएगी, जीवन का आनंद क्या खाक मिलेगा ? जीवन में प्रेम के बिना आनंद नहीं है । प्रेम का पौधा तभी पुष्पित-पल्लवित होता है, जब उसको त्याग-तपस्या और विश्वास के जल से सींचा जाता है ।"

मैं सोचने लगा, प्रेम करने का हुनर तो मुझे प्रकृति से मिला नहीं है ! पिछले पन्द्रह वर्षों से यही प्रयोग करता रहा हूँ कि पहली नजर में जिस लड़की से प्रेम हो जाएगा, उसी को जीवन-साथी बनाऊँगा ! मित्रों-परिचितों, रिश्तेदारों के माध्यम से भी और अपनी लगन से भी आज तक सैकड़ों लड़कियों के साथ इसी विचार से मुलाकात की है, परंतु आज तक कभी किसी से कहीं भी प्रेम नहीं हो सका ।

तभी एक निराशाजनक आवाज मेरे अंदर से आयी -

"तेरे सीने में वह दिल है ही नहीं, जो प्रेम कर सके ! जोहरी के माफिक आज तक हमेशा किसी लड़की के मन की कोमल भावनाओं के हीरे को परखने में तेरी नजर असफल ही रही है !"

अपनी ही आवाज में अपने दृष्टिकोण को सुनते-समझते हुए पितृ-ऋण, देव-ऋण से उऋण होने का कोई अनुकूल मार्ग न पाकर मैं निराशा एवं अपराध-बोध की ग्लानि के भँवर में डूबता जा रहा था । मैं मेरी समस्या पर विचार करने लगा कि एक और परम्परागत ढंग से विवाह करके नितांत अपरिचित लड़की को अपना जीवन-साथी बनाना मेरे लिए कठिन है, तो दूसरी ओर जीवन के चालीस बसंत पार करने के बाद भी आज तक मैं किसी परिचित लड़की को अपने दिल की रानी वहीं बना सका । किसी लड़की के साथ मेरा ऐसा भावात्मक रिश्ता नहीं बन पाया, जिसको मैं अपना जीवन साथी बना सकूँ ।

एक सप्ताह बाद मेरा दिल्ली के लिए तबादला होने वाला था । उस दिन के लिए मैं यह सोच-सोचकर परेशान था कि माता जी को छोड़कर दिल्ली जाते समय उनकी बहू और पोते की माँग को लेकर आशा भरी नजर का सामना मैं कैसे कर पाऊँगा ? कैसे ? कहाँ से ? किस लड़की को माता जी की बहू बनाकर लाऊँ ? मेरे सामने यह यक्ष प्रश्न पहाड़ बनकर खड़ा हुआ था । अपने इसी प्रश्न के साथ मैं ट्रांसफर होकर दिल्ली आ गया ।

एक सप्ताह बीतते-बीतते मेरा परिचय मेरे ऑफिस के अनेक साथी अधिकारियों और अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ हो गया था, जिनमें महिलाएँ भी थी और पुरुष भी थे ।

एक सप्ताह बाद भी मैं अपनी इसी समस्या के भँवर में फंसा हुआ था और अपने केबिन में बैठा हुआ कुछ फाइलें उलट-पलट कर रहा था । तभी अचानक मेरे कानों में एक झन्नाटेदार थप्पड़ का स्वर सुनाई पड़ा । थप्पड़ का स्वर मेरे बगल वाले केबिन की ओर से आया था, जहाँ मेरी समकक्ष एक महिला अधिकारी बैठती थी । मेरे मन में जिज्ञासा जागी कि आखिर ऑफिस में किसने ? और किसको ऐसा झन्नाटेदार थप्पड जड़ दिया है ?

अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए मैं जल्दी से उठकर अपने केबिन से बाहर निकला, तो देखा कि मेरे सभी सहकर्मी अपने-अपने केबिन के बाहर खड़े थे । उन सभी के कान मेरे बगल वाले केबिन पर लगे थे और सभी के मनःमस्तिष्क का लक्ष्य केबिन के अन्दर होने वाला घटनाक्रम था । कोई कुछ समझ पाता, उससे पहले ही अगले क्षण एक और थप्पड़ का स्वर उभरा और इसी के साथ महिला अधिकारी, जिसको सभी मिस मंजरी कहकर बुलाते थे, क्रोध में पैर पटकते हुए अपने केबिन से बाहर निकली ।

महिला अधिकारी मंजरी को केबिन से बाहर निकलते हुए देखा, तो सभी ने अपने-अपने केबिन के अंदर प्रवेश कर लिया । किन्तु, सभी का मनःमस्तिष्क अभी भी मंजरी के केबिन में अटका पड़ा था, इसलिए अपने-अपने केबिन के अंदर जाने के बाद भी सभी के आँख-कान और ध्यान उधर ही लगे हुए थे । कुछ देर बाद हम सभी ने मिस मंजरी के केबिन से एक वरिष्ठ अधिकारी को बाहर निकलते देखा, तो मेरे अतिरिक्त सभी ने अपने-अपने ढंग से कुछेक सैकेंड पहले घटित घटनाक्रम का अनुमान लगा लिया था । मेरे अलावा वे सभी जानते थे कि वह वरिष्ठ अधिकारी सभ्य समाज में नैतिकता के नाम से कहे और किए जाने वाले आचरण करने में विश्वास नहीं करता है ।

उस दिन के बाद उस पुरुष अधिकारी को मिस मंजरी के केबिन में दुबारा कभी नहीं देखा गया । मुझे मेरे ऑफिस के ही कुछ सूत्रों से ज्ञात हुआ था कि मिस मंजरी की शिकायत पर पुरुष अधिकारी को उसी दिन सस्पेंड कर दिया गया था ।

उस दिन के उस घटनाक्रम के पश्चात् मैं महिलाओं के साथ व्यवहार करने के विषय में बहुत सावधान हो गया था । मुझे खुद ही ऐसा महसूस होता था कि मैं उस महिला अधिकारी की आक्रामकता का अनुमान करके एक पुरुष होने के नाते महिला शब्द से भी भयभीत होने लगा हूँ !

उन दिनों मैंने यह भी महसूस किया था कि उस घटना के बाद से मेरे अंदर का पुरुष एक बहुत ही श्रेष्ठ सज्जन नवयुवक बनकर बाहर निकलता था और वह चाहता था कि उसकी श्रेष्ठता-सज्जनता की ओर किसी और का ध्यान जाए या ना जाए, पर मिस मंजरी का ध्यान उसकी तरफ जरूर जाए !

हालत यह हो गयी थी कि मेरा ध्यान काम करने की अपेक्षा इस विषय पर ज्यादा रहने लगा था कि उमिस मंजरी का ध्यान और उसकी नजर मेरी नव-पुष्पित सज्जनता की तरफ जा रहा है ? या नही ?

मेरे समय के सेकेंड, मिनट, घंटे और दिन यही सोचते-देखते बीतने लगे । यहाँ तक कि मैंने दोपहर का भोजन करने के लिए कैंटीन जाना भी छोड़ दिया । जिस समय वह घर से बनाकर लाये हुए लंच का आनंद लूटती थी, उस समय मैं अपने केबिन में फाइल उलटता-पलटता रहता था । महीनों इसी प्रकार बीत गये, किन्तु, उसने मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया । मैं इस स्थिति से निराश तो नहीं था, किंतु उदास अवश्य था ।

मुझे खुद ही कई बार अपने इस तरह के व्यवहार पर आश्चर्य भी होता था और तब बार-बार मैं एक ही प्रश्न में उलझ कर रह जाता था -

"आखिर मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ ?"

इस प्रश्न का उत्तर मुझे अक्सर मेरे अंदर से ही जल्दी ही मिल जाता था । पर इसके तुरन्त बाद मेरे सामने एक नया प्रश्न सिर उठा कर खड़ा हो जाता था -

"आखिर ऐसा क्या करूँ ? जिससे मुझे मेरे उद्देश्य यानी मिस मंजरी का ध्यान अपनी तरफ खींचने में शत-प्रतिशत सफलता मिल जाए ?"

हालांकि मिस मंजरी का ध्यान अपनी तरफ खींचने के अपने काम को मैं पूरी निपुणथा से कर रहा था, फिर भी अभी तक मैं अपनी उदासी से बाहर नहीं आ पाया था । इसके लिए और अपने उद्देश्य को जल्दी-से-जल्दी हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए मैं ऑफिस में नया-नया होने का लाभ उठाना शुरु कर दिया । मैं अब जरूरत नहीं होने पर भी मिस मंजरी से किसी फाइल के बारे में कुछ पूछने और सहायता लेने के बहाने उसके केबिन में जाने लगा था । जब वह अपनी कठोर पारखी नजर से मुझे घूरती, तब सज्जनता के आवरण में लिपटा हुआ मेरे अंदर का पुरुष मिस मंजरी की पकड़ से बचने के लिए अपनी शालीनता का परिचय देकर आंशिक संतुष्टि का अनुभव करता था । कई महीने यूँ ही बीत गये ।

पाँच महीने बाद मेरी उदासी के अंधेरे को निगलने वाले सूरज की रोशनी की हल्की-सी किरण तब दिखाई पड़ी , जब एक दिन दोपहर को लंच टाइम में मिस मंजरी मेरे केबिन में आयी और बोली -

"तुम्हें दोपहर को भूख नहीं लगती ?" मैं मिस मंजरी के उस प्रश्न का क्या उत्तर दूँ ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । फिर भी मैंने कह दिया -

"भूख ? लगती है !"

"आपको आज तक कभी लंच टाइम में तो खाना खाते तो नहीं देखा ?" मिस मंजरी ने दूसरा प्रश्न किया ।

"मुझे कैंटीन का खाना पसंद नहीं है !"

"कैंटीन का खाना पसंद नहीं है, तो घर से लंच बॉक्स क्यों नहीं लाते ?"

"सुबह ऑफिस आने की जल्दी होती है, इसलिए सुबह के समय खाना नहीं बना पाता हूँ ! शाम को ऑफिस से लौटकर मन-भरकर पकाता हूँ, पेट-भरकर खाता हूँ !"

"आप खुद खाना पकाते हैं ?"

"हाँ ! क्यों ? खुद खाना पकाना कोई गुनाह है क्या ?"

"नहीं-नहीं, मेरे कहने का मतलब था कि सब कुछ खुद ही करते हो, तो घर में आप अकेले रहते हो क्या ?"

"घर में तो मैं मेरी माता जी के साथ रहता था, लेकिन मेरा घर इस शहर में नहीं है !"

"आपका घर कहाँ है ? क्या आपके घर से यहाँ डेली अप-डाउन नहीं हो सकता ?"

"हमारा घर यहाँ से बहुत दूर है ! बिहार के एक शहर और वहाँ की राजधानी पटना में !"

मेरे उत्तर से संतुष्ट होकर मिस मंजरी ने लंबी साँस खींचते हुए सहमति में गर्दन हिला दी । इसके बाद उस दिन मिस मंजरी ने मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछा । बस, सम्मोहित-सी कुछ क्षणों तक मुझे एकटक निहारती रही और अगले कुछ क्षणों के बाद वहाँ से उठकर अपने केबिन में चली गयी ।

क्रमश..