बात बस इतनी सी थी - 11 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 11

बात बस इतनी सी थी

11.

अगले दिन मैं निर्धारित समय से पहले एयरपोर्ट पर पहुँच गया । मंजरी एयरपोर्ट से बाहर आई, तो मैंने बाँहें फैलाकर उसका स्वागत किया । एयरपोर्ट पर ही एक कॉफी हाउस में जाकर हम दोनों ने कॉफी पी । उसके बाद मैं मंजरी को घर लेकर आया ।

घर पर मेरी माता जी ने भी अपनी बहू का स्वागत स्थानीय परंपरा के अनुसार और बहुत प्यार से किया । उन्होंने रात में अपने हाथ से मंजरी की पसंद के कई प्रकार के व्यंजन बनाए और अपने हाथों से मंजरी के लिए परोसे, ताकि मंजरी के दिल में अपनेपन का एहसास जागे और घर में प्रसन्नता का वातावरण बनें ।

मेरी माता जी मंजरी के आने पर बहुत खुश थी । वे सोचती थी कि बहू के साथ अब घर की खुशियाँ भी वापस आ गई हैं और उनके बेटे की जिंदगी में अब बहार लौट आएगी ! लेकिन मुझे ऐसा बिल्कुल भी आभास नहीं हो रहा था कि मंजरी के लौट आने से मेरे जीवन में किसी तरह का सुख या सुकून आने वाला है ! इसकी वजह मंजरी की वह चेतावनी थी, जो उसने रंजना से दिलवायी थी और खुद मंजरी का मेरे साथ एकदम अनचाहा असामान्य बनावटी व्यवहार था ।

खाना खाकर कमरे में जाते ही मंजरी चादर ओढ़कर मुँह ढककर सो गयी । यह सोचकर कि शायद मंजरी सफर करके थक गयी है, मैंने.उसको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा और मैं भी चुपचाप उसके पास ही लेट गया । लेटने के कूछ देर बाद मैं भी नींद के आगोश में चला गया ।

अगले दिन सुबह पाँच बजे मंजरी ने मुझे जगाने के लिए मेरी चादर उतारकर अलग रख दी और बोली -

"चन्दन ! उठो ! जल्दी उठकर नहा-धो लो ! हम दोनों को पूजा करनी है !"

"मुझे थोड़ी देर और सोना है ! अभी मेरी नींद पूरी नहीं हुई है !"

यह कहते हुए मैंने दुबारा चादर ओढ़ ली । मंजरी ने उसी समय बिस्तर छोड़ दिया और शौच आदि रोज के अपने जरूरी काम करके फ्रेश हो गई । जब मेरी माता जी बिस्तर से उठी, तब तक मंजरी स्नान भी कर चुकी थी और पूजा की तैयारी में लगी थी । पूजा की तैयारी करते-करते वह बार-बार मुझसे बिस्तर छोड़कर नहाने-धोने का आग्रह भी कर रही थी । सामान्य दिनों में मैं कभी न तो बहुत जल्दी बिस्तर से उठता था और न ही कभी पूजा में शामिल होता था । लेकिन उस दिन मंजरी के कहने पर मैंने जल्दी बिस्तर छोड़ दिया और नहा-धोकर पूजा में शामिल होने के लिए तैयार हो गया । मेरी माता जी यह देखकर बहुत खुश थी ।

माता जी हमेशा देर से पूजा करती थी, इसलिए वे अभी तक नहा-धोकर तैयार नहीं हुई थी । मैं यह सोचकर कि परिवार के सभी सदस्य एक साथ मिलकर पूजा करेंगे माता जी के तैयार होने तक पार्क में टहलने के लिए घर से बाहर निकल गया ।

जब मैं कुछ देर टहलकर घर वापस लौटा, माता जी नहा-धोकर बाथरूम से तभी बाहर निकली थी । मुझे देखते ही मंजरी गुस्से से लाल-पीली होकर माता जी की परवाह किए बिना मुझ पर झल्लाने लगी -

"नहाने के बाद कहाँ चले गए थे तुम ? मैंने तुम्हें इसलिए जल्दी उठाया था कि सात बजे तुम मेरे साथ पूजा में बैठोगे ! जल्दी उठने और नहा-धोकर तैयार होने के बाद भी तुम अब आए हो, जब साढ़े सात बज चुके हैं !"

मैंने स्थिति को सामान्य करने के लिए मुस्कुराकर कहा -

"साढ़े सात बज चुके हैं, तो क्या हुआ ? पूजा ही तो करनी है, अब हो जाएगी !"

"आपको कुछ पता नहीं है, इस पूजा का कितना महत्व है ? गुरु जी ने कहा था, हमारे जीवन में सुख-शांति के लिए हम दोनों को एक साल तक हर रोज सुबह सात बजे पूजा करनी होगी !"

मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहता था, इसलिए उसी समय पूजा की जगह पर जाकर बैठ गया । मंजरी के गुस्से को भाँपकर मेरी माता जी भी चुपचाप आकर पूजा में शामिल हो गई । मेरी माता जी मंजरी द्वारा किए जा रहे पूजा-अनुष्ठान में इसलिए शामिल हुई थी कि मंजरी को उनका पूजा में शामिल होना अच्छा लगेगा और उसका गुस्सा शांत हो जाएगा । लेकिन, मंजरी के हाव भाव देखकर ऐसा लग रहा था कि उसको माता जी का पूजा में शामिल होना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था ।

पूजा संपन्न होने के बाद मंजरी ने पहले मुझे, फिर माता जी को प्रसाद दिया । प्रसाद लेकर माता जी अपने कमरे में और मंजरी रसोई में चली गई । मैं भी अपने कमरे में जाकर लेट गया । लेटकर मैं मंजरी की उस भाव-भंगिमा के बारे में सोचता रहा, जो पूजा में माता जी के शामिल होने के समय मैंने उसके चेहरे पर देखी थी ।

मैं मंजरी के उस व्यवहार के बारे में, जो वह आज सुबह से कर रही थी, सोचते हुए अनुमान कर रहा था कि अब हमारा रिश्ता किस दिशा में जाएगा ? एक ओर मंजरी हमारे जीवन में सुख-शांति लाने के लिए पूजा-अनुष्ठान कर रही थी, तो दूसरी ओर उसके दिल में प्यार, व्यवहार में कोमलता और बातों में मधुरता या आत्मीयता कहीं दूर-दूर तक दिखायी नहीं पड़ती थी ।

मैं लेटा हुआ मंजरी के व्यवहार का विश्लेषण कर ही रहा था, तभी वह चाय लेकर आ पहुँची । वह केवल दो कप चाय लाई थी - एक कप मेरे लिए और एक कप अपने लिए । आज तक मैं अपनी माता जी के साथ चाय पीता रहा था, आज उसी घर में उनके बिना चाय पीना मुझे कुछ अजीब सा महसूस हुआ, तो मैंने मंजरी से कहा -

"चलो, बाहर डाइनिंग टेबल पर बैठकर माता जी के साथ ही पी लेंगे !"

"नहीं ! मैंने सिर्फ दो कप चाय बनायी है, आपके लिए और मेरे लिए ! हम इतने दिनों बाद मिले हैं, यहीं बैठकर एक-दूसरे के साथ चाय पीते हुए कुछ मीठी-मीठी मजेदार बातें करेंगे !"

"केवल मेरे लिए और अपने लिए ? और माता जी के लिए ...?" मैंने अपनी असहमति प्रकट करते हुए आश्चर्य से कहा ।

"इतना क्यों बिगड़ते हो ? उन्होंने मुझसे चाय बनाने के लिए नहीं बोला, इसलिए मैंने उनके लिए नहीं बनायी ! जब वह पिएँगी, तब बन जाएगी ! अभी तुम मेरे साथ बैठो और चाय पीने का मजा लो !" मंजरी ने अपनी भूल का एहसास किए बिना लापरवाही से जवाब दिया ।

माता जी को चाय पीने के लिए ऑफर किये बिना मंजरी के साथ अपने कमरे में बैठकर चाय पीना मुझे बहुत ही असहज लग रहा था, इसलिए मैं चाय छोड़कर कमरे से बाहर जाने लगा । मंजरी ने मुझे पीछे से पुकारकर कहा -

"चाय छोड़कर कहाँ जा रहे हो ?"

"कहीं नहीं ! यहीं हूँ ! अभी चाय पीने का मन नहीं है !"

कहते हुए मैं अपने कमरे से बाहर निकलकर ड्राइंग रूम में आकर बैठ गया और न्यूज पेपर पढ़ने लगा । उसी समय माता जी अपने कमरे से निकलकर रसोई में गई । उन्होंन चाय के बर्तन देखकर अनुमान लगा लिया था कि मंजरी चाय बनाकर पी चुकी है । उस समय उनके चेहरे पर हल्की-सी उदासी छा गई थी, जिसे देखकर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मंजरी का केवल हम दोनों के लिए चाय बनाना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था । इससे भी ज्यादा बुरा तो उन्हें इस बात का लग रहा होगा कि कुछ देर पहले मैं भी उन्हें चाय पीने के लिए एक बार भी ऑफर किये बिना अपने कमरे में मंजरी के साथ बैठकर चाय पी रहा था ।

उदास और बुझे मन से माता जी ने अपने लिए चाय बनाई और जैसे मंजरी के आने से पहले मुझे चाय बनाकर देती थी, ठीक उसी तरह चाय का कप लेकर ड्राइंग रूम में मेरे पास आकर उन्होंने मुझसे पूछा -

"बेटा, चाय पिएगा या पी चुका ?"

"नहीं, अभी नहीं पी है ! पीऊँगा ! लाइए !"

कहते हुए मैंने माता जी के हाथ से चाय का कप ले लिया । दूसरा कप माता जी खुद लेकर मेरे पास बैठ गयी और धीरे-धीरे उदास मन से चाय सिप करने लगी । मैं माता जी के साथ बैठकर चाय पी रहा था, तभी वहाँ पर मंजरी आई और कुछ पलों तक वहीं खड़ी होकर घायल शेरनी की तरह मुझे खूँखार नजरों से घूरती रही । कुछ पलों तक मुझे घूरते रहने के बाद मंजरी ने नाराज होकर कहा -

"अभी पाँच मिनट पहले तो कमरे में तुम मुझसे कह रहे थे, तुम्हारा चाय पीने का मन नहीं है ! अब पाँच मिनट में बड़ी जल्दी तुम्हें चाय की तलब आ गयी ?"

चाय की तलब नहीं है, कुछ पल माता जी के साथ बैठकल बिताने की तलब है !"

मेरा जवाब सुनकर मंजरी कुछ देर तक वहीं खड़ी होकर कभी मुझे और कभी माता जी को बारी-बारी से घूरती रही । लगभग दो-तीन मिनट के बाद वह पैर पटकती हुई वापिस अपने कमरे में चली गयी ।

मंजरी के जाने के बाद माता जी के चेहरे पर ग्लानि और पश्चाताप साफ देखा जा सकता था । यह पश्चाताप मुझे चाय देने और मेरे साथ बैठकर चाय पीने के लिए था और मंजरी का गुस्सा देखकर अपने अस्तित्व में आया था ।

उसके बाद मंजरी ने दोपहर का खाना बनाया । मुझे विश्वास था कि अब वह सुबह की भूल को दुबारा नहीं दोहराएगी । लेकिन उसने दोपहर को भी केवल मेरे लिए और अपने लिए ही खाना बनाया । मंजरी चाहती थी कि मैं उसके हाथ का बनाया हुआ खाना उसके साथ कमरे में बैठकर खाऊँ ! पर मेरे संस्कार और माता जी के लिए मेरी श्रद्धा मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं देते थे ! इसलिए मैं मंजरी की इच्छा की कद्र नहीं कर सका और उठकर बाहर चला गया !

मंजरी ने केवल मेरे लिए और अपने लिए ही खाना बनाया था, इसलिए माता जी को सुबह की चाय की तरह अपने लिए खाना भी खुद ही बनाना पड़ा । उन्होंने खाना भी सिर्फ अपने लिए ही नहीं बनाया, सुबह की चाय की तरह मेरे लिए भी बनाया और हमेशा की ही तरह खाना तैयार करके सबसे पहले मुझे परोसकर दिया । उसके बाद उन्होंने खुद की प्लेट में परोसा । उस समय खाना खाने को मेरा बिल्कुल मन नहीं था, लेकिन माता जी के कई बार आग्रह करने पर मैंने उनके साथ खाना खा लिया ।

माता जी के साथ भोजन करने के बाद मैं अपने कमरे में गया, जहाँ पर मंजरी अकेली बैठी थी । मैंने देखा, उसकी प्लेट में खाने का सारा सामान अब भी वैसे ही रखा था, जैसा मैं छोड़कर गया था । इसका मतलब था कि मंजरी ने अभी तक खाना नहीं खाया था । मुझे मंजरी का यह व्यवहार बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा कि एक तो उसने हम दोनों के साथ माता जी के लिए खाना नहीं बनाया । अब माता जी ने अपने लिए खुद खाना बनाया और मैंने उनके साथ बैठकर उनका बनाया हुआ खाना खा लिया, तो मंजरी अपना खाना छोड़कर भूखी बैठी है ! मैं सोचने लगा -

"आखिर मंजरी क्या चाहती हैं ? मैं हर पल मंजरी के साथ रहकर खा-पीकर उसके साथ सोकर माता जी को यह एहसास करा दूँ कि उनका बेटा उनके साथ रहकर भी उनसे बहुत दूर हो गया है ? यदि वह ऐसा चाहती है, तो वह बहुत ही गलत है ! मेरे जीवन में माता जी और मंजरी दोनों एक साथ भी रह सकती हैं ! आखिर मंजरी यह क्यों नहीं समझती ? कि माताजी ने अपने इस बेटे को इतना बड़ा करने में जितने कष्ट उठाए होंगे, वह उन सभी कष्टों के बदले बेटे से सिर्फ श्रद्धा और सम्मान ही तो चाहती है ! अगर एक बेटा अपनी माँ को यह भी न दे सके, तो लानत है उसके इस दुनिया में जिन्दा रहने को !"

क्रमश..