बात बस इतनी सी थी - 12 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • तेरी मेरी यारी - 1

      (1)ग्रीनवुड पब्लिक स्कूल की छुट्टी का समय हो रहा था। स्कूल...

  • Pankajs Short Stories

    About The AuthorMy name is Pankaj Modak. I am a Short story...

  • असली नकली

     सोनू नाम का एक लड़का अपने गाँव के जंगल वाले रास्ते से गुजर र...

  • मझली दीदी

                                                   मझली दीदी   ...

  • खामोश चाहतें

    तीन साल हो गए हैं, पर दिल आज भी उसी पल में अटका हुआ है जब पह...

श्रेणी
शेयर करे

बात बस इतनी सी थी - 12

बात बस इतनी सी थी

12.

माता जी और मंजरी को लेकर सोचते-सोचते मेरी नजर एक बार फिर खाने की प्लेट से जा टकराई । मैंने मंजरी से कहा -

"यह खाना कब तक यूँ ही रखा रहेगा, खा क्यों नहीं लेती हो ?"

"भूख नहीं है मुझे !"

"भूख नहीं है, तो बनाया क्यों था ?"

"तुम्हें भूख लगी होगी, इसलिए बनाया था !"

मंजरी का जवाब सुनकर मैं चादर ओढ़कर लेट गया और घर की कलह को बढ़ने से रोकने का कुछ उपाय सोचने लगा । मैं नहीं चाहता था, मेरी माता जी और मंजरी दोनों एक ही रसोई में अलग-अलग खाना बनाएँ और मैं किसी गेंद की तरह उन दोनों के बीच उछाला जाता रहूँ ! इस स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए मैंने रात का खाना ऑर्डर करके बाहर से मँगा लिया था । अपने हाथों से तीन प्लेट्स में खाना परोसकर मैंने डाइनिंग टेबल पर सजाकर माता जी और मंजरी से खाना खाने का आग्रह किया ।

माता जी मेरे पहली बार आग्रह करते ही आ गई और हाथ धोकर खाने के लिए बैठ गई । लेकिन मंजरी मेरे कई बार कहने के बावजूद अपने कमरे से उठकर बाहर नहीं आई । उसने हर बार मेरे आग्रह को सीमित-सा उत्तर देकर ठुकरा दिया -

"मुझे भूख नहीं है !"

सुबह से मंजरी ने कुछ नहीं खाया था, इसलिए यह मानना मुश्किल था कि उसको भूख नहीं है । केवल यही समझ में आता था कि वह नाराज है । नाराज भी उस बात के लिए है, जिसे मैं सही मानता हूँ, पर वह गलत मानती है और जिस बात को वह सही मानकर बैठी है, उसको मैं गलत मान रहा हूँ !

उस समय मेरे सामने एक ऐसी चुनौती आकर खड़ी हो गई थी, जिसे पार करना मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था । माता जी की प्लेट में खाना परोसा जा चुका था । वे खाने के लिए तैयार बैठी थी और मेरे बिना वे अकेले खाना नहीं खाएँगी, यह भी निश्चित था ।

दूसरी ओर, मेरे घर में सुबह से भूखी बैठी मंजरी का ध्यान करके मेरा खाना खाने का तनिक भी मन नहीं था । मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? क्या ना करूँ ? माताजी के साथ खाना खाकर उनका बेटा होने के अपने फर्ज को निभाऊँ ? या अपनी जिद पर अड़ी हुई भूख से बेचैन अपनी पत्नी मंजरी का साथ देने के लिए अन्न का परित्याग करके पति-धर्म का पालन करूँ ?

काफी देर तक मैं इन्हीं प्रश्नों का उत्तर पाने की जद्दोजहद में उलझा रहा । तभी मुझे बचपन में माँ से सुनी हुई एक सूक्ति याद आई । माँ मुझे बचपन में समझाया करती थी -

"कभी भी भूखे पेट सामने रखे हुए अन्न का तिरस्कार नहीं करना चाहिए ! ऐसा करने से अन्न देवता का अपमान होता है !"

मैंने माता जी की कही हुई उस सूक्ति को मन-ही-मन एक बार फिर दोहराया और रोटी का एक टुकड़ा अपने मुँह में डालते हुए माता जी से कहा -

"माता जी ! खाइए, शुरू कीजिए !"

"बेटा, मंजरी भी हमारे साथ खा लेती, तो उसको भी और हमें भी अच्छा लगता ! मैं उसको कमरे से लेकर आती हूँ !"

माता जी खुद इस सच्चाई को समझने के लिए तैयार नहीं थी कि मंजरी को उनके साथ बैठकर खाना-पीना या रहना अच्छा नहीं लगता है ! तब मैं उनको यह बात कैसे समझा सकता था ? मैं चुप बैठा रहा और मेरे अन्दर चल रही खींचतान को अपने दिल की गहराई तक महसूस करके माता जी मंजरी को बुलाने के लिए उसके कमरे में जाने के लिए उठने लगी।

एक पल के लिए मैंने भी सोचा कि माता जी यदि मंजरी को अपने साथ खाना खाने के लिए बुलाना चाहती हैं, तो उन्हें यह कोशिश कर लेनी चाहिए । लेकिन अगले ही पल मेरे मन में माता जी के मान-सम्मान की सुरक्षा को लेकर मंजरी के प्रति अविश्वास और आशंका ने जगह बना ली और मैंने जल्दी से माता जी को मंजरी के कमरे में जाने से रोकते हुए कहा -

"नहीं-नहीं ! आप परेशान मत होइए ! अभी उसको भूख नहीं है ! जब उसको भूख लगेगी, वह खा लेगी !"

मेरे मना करने पर माता जी वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गई । उस समय मैंने महसूस किया था कि माता जी का भी कुछ खाने का मन नहीं था । फिर भी अन्न देवता का अपमान नहीं हो जाए, इसलिए मेरा आग्रह मानकर उन्होंने भी और खुद मैंने भी थोड़ा-थोड़ा खाना खा लिया । बाकी जो बचा, उसे डिब्बे में बंद करके रेफ्रिजरेटर में सुरक्षित रख दिया ।

खाना खाने के बाद जब मैं अपने कमरे में गया, तब मंजरी मोबाइल पर अपनी मम्मी से बातें कर रही थी । मैं जाकर चुपचाप उसके पास बेड पर बैठ गया । मेरे बैठते ही उसने अपनी मम्मी से कहा -

"मम्मी जी ! अब मैं रखती हूँ, थोड़ी देर बाद आपसे दोबारा बात करूँगी !"

यह कहते हुए मंजरी ने कॉल काट दी और मोबाइल मेज पर रखकर तुरंत खड़ी होकर दरवाजा बंद करके दोबारा मेरे पास बैठती हुई बोली -

"याद है ? आपने एक दिन कहा था कि हमारी अरेंज मैरिज नहीं है, लव मैरिज है ?"

"हाँ, याद है !"

"तब तो तुम्हें यह भी याद होना चाहिए कि तुमने कहा था, हम दोनों की मर्जी से बना हुआ यह रिश्ता हम दोनों को ही बना कर रखना होगा ?"

"हाँ ! मैंने यह कहा था, मुझे यह भी याद है !"

"चंदन ! तब तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि जैसे ताली एक हाथ से नहीं बजती वैसे ही रिश्ता भी एक पक्ष के चलाने से नहीं चलता ! हमारे इस रिश्ते को मैं अकेली कब तक चलाती रह सकती हूँ ? बोलो !"

"अच्छा जी ! हमारे रिश्ते को तुम अकेली चला रही हो ? मेरी बूढ़ी माँ की परवाह किये बिना तुम केवल मेरे और अपने लिए सुबह की चाय और दोपहर का खाना बनाकर मुझे अपने साथ बैठकर खाने-पीने के लिए दबाव बनाकर भी तुम यह दावा कैसे कर सकती हो कि तुम रिश्ते को ला रही हो ? और यह भी कि अकेली चला रही हो ? अरे, तुम रिश्तों का मतलब समझती भी हो ?"

मैंने अपनी बात इस तरह व्यंग के लहजे में कही थी कि मंजरी को अपनी गलती का कुछ अहसास हो सके । लेकिन उसको अपनी गलती का कुछ अहसास तो नहीं, उल्टे उसको मेरी बात तीर की तरह चुभी । उसने पलटकर मेरी माता जी पर निशाना साधते हुए कहा -

"पहली बात, मैंने उनसे चाय के लिए पूछा था, उन्होंने मुझे चाय बनाने के लिए नहीं कहा । न ही यह बताया कि वह भी चाय पीएँगी । वह मुझसे कहती, तो मैं दो कप की जगह तीन कप चाय बना देती ! दूसरी बात, आपकी माता जी बूढ़ी हो गयी हैं, क्या उन्हें यह नहीं पता कि शादी के छः महीने बाद हम दोनों मिल रहे हैं, हमें एक-दूसरे के साथ भी थोड़ा टाइम स्पेंड करना चाहिए ?"

"इसके लिए माता जी को दोष क्यों देती हो ? माता जी ने कभी हम दोनों को एक-दूसरे के साथ टाइम स्पेंड करने से रोका है क्या ?"

"रोका नहीं है, तो कभी हम दोनों को अकेले छोडा भी तो नहीं है ! जब शादी हुई थी, मैं दो सप्ताह तक यहाँ रही थी । मैंने उन दो सप्ताह का सारा टाइम तुम्हारी माता जी सहित तुम्हारे पूरे परिवार के साथ बिताया था । क्या उन्होंने कभी एक बार भी कहा ? बेटा, तुम्हारी अभी-अभी शादी हुई है, बहू को लेकर हनीमून मनाने के लिए जाओ ! नहीं कहा न उन्होंने ? छः महीने हो गए हैं हमारी शादी को, और तब से मैं अपनी मम्मी के घर में रह रही हूँ, तुम्हारी माता जी ने आज तक कभी एक बार भी कहा ? जा बेटा, अपनी पत्नी से मिल आ ! नहीं कहा न ? मैं जानती हूँ कि तुम्हारी माता जी तुम्हें एक बार भी मेरी मम्मी के घर मुझसे मिलने के लिए भेजती, तो तुम जरूर जाते ! पर वह चाहती ही नहीं थी कि तुम मुझसे मिलने के लिए जाओ ! तुम्हारी माता जी चाहती, तो तुम मुझे मेरी मम्मी के घर से बहुत पहले लिवाकर ले आते ! पर वह चाहती ही नहीं थी कि मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँ !

अब मैं खुद चलकर आई हूँ, तो उन्हें मेरा आना और तुम्हारे साथ रहना अच्छा नहीं लग रहा है ! मैं तुम्हारे साथ बैठकर चाय पीते हुए या खाना खाते हुए तुम्हारे साथ दो-चार पल खुशी के बिताना चाहती हूँ, तो इसमें बुराई क्या है ? जब तुम मेरे कमरे में मेरे पास आते हो, तभी कुछ देर बाद ही तुम्हारी माता जी तुम्हें अपने पास बुला लेती हैं ? क्योंकि वह चाहती ही नहीं कि हम दोनों साथ बैठकर चाय पीएँ, खाना खाएँ, बतियाएँ और हम दोनों में प्यार बढ़े !"

मेरी माता जी को लेकर मंजरी की गलतफहमी और उन पर मंजरी के आरोपों से मेरा मन बोझिल रहा था । जितना कि मैं समझता था, माता जी हम दोनों को खुश देखना चाहती थी । यह अलग बात थी कि अपने बेटे-बहू के साथ अपना कुछ समय बिताकर वे खुद भी खुश रहना चाहती थी ।

दूसरी ओर मंजरी खुद तो मेरे साथ खुश रहना चाहती थी, लेकिन मेरी माता जी भी हमारी खुशियों में अधिकार के साथ शामिल हो सकें, यह मंजरी को स्वीकार नहीं था और मैं मेरी माता जी को इस अधिकार से वंचित करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था ।

बारह बजे तक हम दोनों में इसी तरह की बेसिर-पैर की बातों को लेकर विवाद चलता रहा । अंत में सोने से पहले मंजरी ने मुझे निर्देश देते हुए कहा -

"सुबह जल्दी उठ जाना ! सात बजे तुम्हें मेरे साथ पूजा में बैठना है ! पंडित जी ने कहा है कि यह पूजा किसी तरह के विघ्न के बिना संपन्न हो जाएगी, तो हमारे ऊपर से राहु की दशा टल जाएगी और हम दोनों के बीच वही पुराना प्यार लौट आएगा !"

"हमारा प्यार पंडित जी के बताये हुए पूजा-अनुष्ठान संपन्न करने से लौटेगा ?"

मैंने शंका जताई, क्योंकि मुझे हम दोनों के प्यार को वापस पाने में पूजा-अनुष्ठान से ज्यादा एक-दूसरे की जरूरतों को समझने और आपस में मधुर व्यवहार करते हुए एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने की जरूरत महसूस हो रही थी । मंजरी ने मेरी शंका का प्रतिवाद या समाधान करते हुए कहा -

"तुम ऐसा इसलिए कह रहे हो, क्योंकि तुम्हें कुछ भी पता नहीं है ! मैं तुम्हें बता देती हूँ, जिन्होंने यह पूजा करने के लिए कहा है, वे बहुत बड़े सिद्धि प्राप्त पंडित जी हैं !"

मैं उस विवाद को और ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहता था, इसलिए चुपचाप मंजरी की सहमति में गर्दन हिला दी और "गुड नाइट" कहकर चादर से मुँह ढाँपकर लेट गया । उस समय मेरे अंदर से एक मूक आवाज चीख-चीखकर कह रही थी -

"तुम्हारी जितनी श्रद्धा पूजा-अनुष्ठान कराने वाले उस पंडित के लिए है, यदि उससे आधी भी श्रद्धा तुम मेरी माता जी के प्रति रख सको, तो न केवल मेरे और तुम्हारे प्यार के दिन लौट आएँगे, बल्कि मेरी माता जी को लेकर तुम्हारे मन की सारी गलतफहमियाँ भी दूर हो जाएँगी ! पर एक बूढ़ी माँ को तुम श्रद्धा की पात्र नहीं समझती, अपनी प्रतिद्वंदी समझती हो और उससे उसके बेटे को छीनकर किसी निष्प्राण चीज की तरह उस पर अपना अधिकार कर लेने की झूठी महत्वाकांक्षा अपने मन में पाले फिरती हो !"

यह सब सोचते-सोचते मुझे नींद आ गयी । अगली सुबह मैं नियत समय से पहले नहा-धोकर मंजरी के साथ पूजा में बैठने के लिए तैयार हो गया । मेरी माता जी भी पूजा में बैठने के लिए नहा-धोकर तैयार होकर पूजा स्थल पर आकर खड़ी हो गई थी । मैंने माता जी से कहा -

"माता जी ! यह पूजा मंजरी ने मेरे और अपने लिए रखी है ! आपको इसमें शामिल होने की कोई खास जरूरत नहीं है !"

माता जी को मेरा इस तरह पूजा में बैठने से मना करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था, इसलिए वे उसी पल वहाँ से चली गई । अगले ही पल मेरी नजर मंजरी पर पड़ी तो मैंने देखा, उसके चेहरे पर संतोष के साथ-साथ खुशी भी साफ झलक रही थी । वह खुश थी कि माता जी को मैंने उसके कहे बिना ही पूजा में बैठने से मना कर दिया था ! शायद वह यही चाहती थी ।

माता जी को मंजरी के मन की बात का मेरे मुँह से कहा जाना, जोकि माता जी और मेरे बीच उतनी ही दूरी बना सकता था, जितनी दूरी मंजरी ने अपने मन में खुद मेरी माता जी से बनाकर रखी हुई थी, मंजरी के दिल को शान्ति दे रहा था ।

क्रमश..