बात बस इतनी सी थी
15.
सुबह आँखें खुली, तो माता जी अकेली ही घर की सफाई में लगी हुई थी । मंजरी नहा-धोकर पूजा की तैयारी कर रही थी । मेरे उठते ही माता जी ने छत पर लटक रहे पंखे और अलमारी के ऊपर रखे कुछ सामानों की ओर इशारा करके कहा -
"चंदन बेटा ! तुझे थोड़ी फुर्सत हो, तो इस पंखे की और इन सामानों की सफाई करने मे मेरी थोड़ी-सी सहायता कर दे ! इतनी ऊँचाई तक मेरा हाथ नहीं पहुँचता और स्टूल पर चढ़ने में अब मन घबराता है !"
उसी समय मंजरी ने मुझसे पूजा में शामिल होने का आग्रह करते हुए कहा -
"सात बजने वाले हैं, जल्दी नहा-धोकर आ जाओ ! पूजा की सारी तैयारी हो चुकी है !"
बिस्तर से उठते ही आज फिर मैं एक बड़ी समस्या में उलझ गया था, जिससे निकलने के लिए बौद्धिक और व्यवहारिक कसरत करना जरूरी था । मुझे समझ में नहीं आ रहा था, माता जी की बात मानूँ ? या मंजरी की ? पूजा में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन मैं मंजरी को नाराज करके त्योहार के अवसर पर घर में कलह नहीं बढ़ाना चाहता था ! वैसे तो मेरी नजर में घर की सफाई का काम पूजा करने से ज्यादा जरूरी था और उससे भी ज्यादा जरूरी था - माता जी की आज्ञा का पालन करना और उनका सहयोग करना ! लेकिन यह सब कुछ मंजरी को समझाना और उसका समझना मुश्किल नहीं, नामुमकिन था । जबकि माता जी को मनाना मेरे लिए मंजरी को समझाने से ज्यादा आसान था । मुझे यह भी विश्वास था कि माता जी की आज्ञा का तुरंत पालन नहीं होने पर भी घर की सुख-शांति पर कोई संकट नहीं आएगा ! इस तरह सारी स्थिति पर सोच विचार करनै के बाद मैंने माता जी से विनम्र निवेदन किया -
"माता जी ! थोड़ी देर में मैं मंजरी की पूजा संपन्न करा दूँ ? उसके बाद पूरे दिन घर की सफाई में आप के साथ सहयोग करूँगा !"
यह कहकर मैं माता जी के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना बाथरूम में चला गया और नहा-धोकर मंजरी की पूजा में शामिल हो गया । पूजा संपन्न कराने के बाद मैं घर की सफाई में माता जी के साथ सहयोग करने लगा ।
लगभग ग्यारह बजे जब मैं माता जी के साथ घर की सफाई हाथ बँटा रहा था, मेरे मोबाइल पर एक अज्ञात नंबर से कॉल आयी । मैंने कॉल रिसीव की, तो पता चला कि उधर से पटना महिला आयोग की अध्यक्षा बोल रही थी । उन्होंने मुझे बताया -
"मंजरी ने आपके और आपकी माता जी के खिलाफ़ आयोग में शिकायत दर्ज की है ! उस संदर्भ मे बात करने के लिए आपको अपनी पत्नी मंजरी के साथ दोपहर दो बजे तक महिला आयोग के ऑफिस में आना होगा !"
यह सुनकर कि मंजरी ने मेरे खिलाफ महिला आयोग में शिकायत की है, मेरे दिल-दिमाग को तेज झटका लगा । मैंने कभी नहीं सोचा था कि वह ऐसा करेगी ! मैं सिर पकड़ कर बैठ गया और सोचने लगा -
"आखिर मंजरी मुझसे क्या चाहती है ? मैं उसे कभी किसी काम के लिए मजबूर नहीं करता ! मेरी माता जी भी उसको कभी कुछ नहीं कहती ! इतना ही नहीं, माता जी ने उसके लिए महँगा उपहार भी मंगाकर दिया है ! फिर भी उसने मेरे साथ ही माता जी के खिलाफ भी शिकायत दर्ज करा दी है ! उसकी इच्छा के लिए मैंने माता जी को पूजा में शामिल होने से रोका, ताकि मंजरी संतुष्ट रहे ! उसको संतुष्ट रखने के लिए आज सुबह भी मैंने घर की सफाई करने में माता जी का सहयोग नहीं किया और पूजा में मेरी खास दिलचस्पी न होते हुए भी मैं मंजरी के साथ उसकी पूजा में शामिल हुआ था ! मैंने यह सब सिर्फ इसलिए किया था कि उसको कोई शिकायत न हो ! फिर भी उसको हमसे इतनी शिकायत है कि महिला आयोग के हस्तक्षेप के बिना उसकी शिकायत दूर नहीं हो सकती ?"
महिला आयोग का ऑफिस मेरे घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर था । माता जी को पूरी बात बताकर मैं लगभग सवा एक बजे घर से निकल गया । महिला आयोग के ऑफिस में पहुँचा, तो अध्यक्ष महोदया ने मुझसे पूछा -
"आप अकेले आए हैं ?"
"जी हाँ !"
"आपको अपनी पत्नी को साथ लेकर आने के लिए कहा गया था ! उन्हें अपने साथ क्यों नहीं लाए ?"
यह प्रश्न मुझे अर्थहीन-सा लगा, इसलिए मैंने उसका जवाब देना जरूरी नहीं समझा और चुप बैठा रहा ।
"चंदन जी ! आपको अपनी पत्नी को अपने साथ लेकर आना चाहिए था ! यह आपकी ड्यूटी बनती है कि जहांँ आपकी पत्नी को आपके सहयोग की जरूरत हो, वहाँ आप उनको सहयोग दें !"
इस बार अध्यक्षा महोदया के सुझाव पर मुझे थोड़ा गुस्सा और उनकी समझदारी पर तरस आ रहा था । अपने गुस्से पर काबू करते हुए मैंने उन्हें उत्तर दिया -
"मैडम ! हम साथ चल सकते, तो आपको कॉल करके मुझे यहाँ बुलाना नहीं पड़ता ! आपका यह ऑफिस उन्हीं लोगों के लिए खुला है, जो लोग एक-दूसरे के साथ नहीं चल सकते ! इस ऑफिस का अस्तित्व भी तभी तक है, जब तक लोगों में साथ चलने की अपनी समझ नहीं है !"
"आपकी पत्नी ने आपके खिलाफ यहाँ शिकायत लिखाई हैं ! इस विषय में आप कुछ कहेंगे ? उनका कहना है ... !
"मेरी पत्नी ने मेरे बारे में जो कुछ कहा है, या यहाँ लिखाया है, सब-कुछ एकदम सही है !"
"अरे रे ! पहले सुन तो लीजिए कि आपकी पत्नी ने अपनी शिकायत में आपके खिलाफ क्या कहा है ?"
"इसकी जरूरत नहीं है ! मुझे मेरी पत्नी पर विश्वास है ! उसने कुछ भी झूठ नहीं कहा होगा ! वह हमेशा सच बोलती है, सच के सिवा कुछ नहीं कहती !"
आयोग की अध्यक्षा के साथ मेरी बातें चल ही रही थी, तभी वहाँ पर मंजरी आ पहुँची । अध्यक्षा महोदया ने मुझे और मंजरी को आमने-सामने बिठाकर मंजरी को उसका पक्ष रखने का पहले अवसर दिया । मंजरी ने अपनी शिकायत में मुझ पर अनेक आरोप लगाए, जिनका सार यही था कि शादी होने के बाद छः महीने तक न तो मैं उससे मिलने के लिए उसके मायके गया, और न ही मैंने कभी कॉल करके मोबाइल पर उससे बात की । अब छः महीने बाद वह खुद चलकर मेरे पास आई है, तो एक सप्ताह में मैंने एक बार भी उसके साथ अपने पति धर्म-कर्म को नहीं निभाया है और अभी तक भी हम दोनों में उतनी ही दूरी है, जितनी किसी भाई-बहन में होती है । मेरे साथ-साथ मेरी माता जी पर भी मंजरी ने बहुत-से बेबुनियाद आरोप लगाये । मंजरी की शिकायत सुनने के बाद अध्यक्षा महोदया ने मुझसे कहा -
"आपको अपनी सफाई में कुछ कहना है ?"
मैं ऐसी कोई भी बात नहीं कहना चाहता था, जिससे मंजरी पर समाज की उंगली उठे या उसकी छवि खराब हो । मुझे हमेशा यही सिखाया गया था कि घर की बात कभी घर के बाहर नहीं जानी चाहिए और पति-पत्नी के विवाद कमरे के अंदर ही सुलझ जाने चाहिए ! पति-पत्नी के झगड़े में कभी भी तीसरे आदमी को जगह नहीं मिलनी चाहिए ।
मुझे लगता था कि यदि मंजरी मुझ पर कोई आरोप लगाती हैं, तब तो मेरी बदनामी होगी ही । पर अगर मैं मंजरी पर कोई प्रश्न उठाता हूंँ, तो भी समाज में मेरी ही बदनामी होगी और तब दुगनी बदनामी होगी । यह सोचकर मैंने अध्यक्षा महोदया को शांत लहजे में जवाब देते हुए कहा -
"जी नहीं ! मुझे मेरी सफाई में कुछ नहीं कहना है !"
"इसका मतलब यह माना जाए कि आपकी पत्नी ने आपके ऊपर जो आरोप लगाए हैं, आप उन्हें स्वीकार कर रहे हैं ?"
मैंने उनकी बात का किसी तरह भी विरोध नहीं किया और अपनी जगह चुप बैठा रहा, तो अध्यक्षा महोदया ने फिर कहा -
"तो क्या यह मान लिया जाए कि आपकी पत्नी ने आपके ऊपर जो आरोप लगाए हैं, आप उन्हें स्वीकार कर रहे हैं ?"
"जी ! आप ऐसा मान सकती हैं !"
"आपको अपनी भूल सुधारने के लिए एक महीने का समय दिया जा रहा है । इस दौरान यदि आप दोनों में सुलह समझौता नहीं होता है, तो आगे कार्यवाही की जाएगी !" आयोग की अध्यक्षा ने अपना निर्णय देते हुए कहा । अध्यक्षा महोदया के निर्णय के साथ ही सुनवाई पूरी हो चुकी थी । इसके बाद मैंने राहत की साँस ली और मैंने पूछा -
"मैं अब जा सकता हूँ ?"
"हाँ, अब आप जा सकते हैं ! अपनी पत्नी को साथ लेकर जाना और यह ध्यान रहे कि जब-जब आपको बुलाया जाएगा, तब-तब आपको आना पड़ेगा !"
हालांकि मुझे उस दिन ऑफिस नहीं जाना था, फिर भी मैंने मंजरी को साथ नहीं लेकर जाने का बहाना करते हुए कहा -
"मुझे ऑफिस जाना है ! पहले ही बहुत देर चुकी हो चुकी है ! ऑफिस के लिए अब मै और देर नहीं करना चाहता !"
"मिस्टर चंदन ! अपनी पत्नी को घर छोड़ने के बाद ऑफिस चले जाना ! रिश्ते निभाने के लिए और उन रिश्तों में प्यार-विश्वास बढ़ाने के लिए कभी-कभी ऑफिस देर से पहुँचना चलता है !"
आयोग की अध्यक्षा ने विनम्रता से मुझे समझाया । उनका समझाने का तरीका कुछ ऐसा था कि मेरे होठों पर मन्द-मन्द मुस्कुराहट खिल उठी और मैंने मंजरी की ओर मुड़कर उससे मुखातिब होकर कहा -
"चलो !"
वह तुरन्त ही मेरे साथ चल दी और बाहर खड़ी हुई मेरी गाड़ी में आकर बैठ गई ।
रास्ते में मंजरी ने मुझसे कई बार बातें करने की कोशिश की, लेकिन अब तक मेरा मूड इतना खराब हो चुका था कि बातें करना तो तो दूर, मुझे उसकी कोई बात सुनना भी अच्छा नहीं लग रहा था । उसके मुँह से निकलने वाला एक-एक शब्द मेरे कानों में तीर की तरह चुभ रहा था और मुझे भयानक कष्ट दे रहा था । कुछ मिनट तक मैं उस कष्ट को सहता रहा । कुछ मिनट बाद उस कष्ट से बचने के लिए मैंने गाड़ी में बहुत तेज आवाज में म्यूजिक चला दिया । अब मेरे कानों में उसका कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ सकता था ।
"मेरी बात सुन नहीं रहे हो ? या सुनना चाहते नहीं हो ? इसलिए मेरी बातों का जवाब देने की बजाय म्यजिक चला दिया है ?"
यह कहते हुए मंजरी ने एक झटके से म्यूजिक बंद कर दिया । उस समय उसके ऐसा करने पर मुझे बहुत गुस्सा आया था, लेकिन मैंने उसको कुछ न कहकर दुबारा म्यूजिक चला दिया । उसने फिर म्यूजिक बंद कर दिया । ऐसा कई बार हुआ कि मैंने म्यूज़िक चलाया और उसने बंद कर दिया । हमारा तीन किलोमीटर का सफर इसी तरह लड़ते-झगड़ते पूरा हुआ ।
घर पहुँचे, तो माता जी से कुछ बोले बिना ही मंजरी सीधे अपने कमरे में चली गई और वे बेचैन नजरों से कमरे जाती हुई मंजरी को देखती रही । उसके जाने के बाद माता जी ने मुझसे पूछा -
"क्या हुआ वहाँ ?"
"कुछ नहीं ! सब-कुछ ठीक है ! हम दोनों को अपनी अपनी भूल सुधारने के लिए एक महीने का वक्त दिया गया है !"
"भूल ? कौन-सी भूल सुधारने के लिए ?" माता जी ने शंकित-सी होकर पूछा ।
"आपस में एक-दूसरे की शिकायतों-जरूरतों को नहीं समझने की भूल !"
मैंने माता जी को समझाया, ताकि उन्हें कुछ संतोष हो सके । इसके बाद मैं ड्राइंग रूम में जाकर लेट गया ।
माता जी को तो मैंने समझा दिया था, लेकिन आज के घटनाक्रम - मंजरी की शिकायत पर महिला आयोग से मुझे कॉल आना, मेरा वहाँ जाना और फिर मंजरी का वहाँ जाकर मेरे सामने बैठकर मेरे साथ-साथ मेरी माता जी पर भी बेबुनियाद आरोप लगाकर खुद अपनी किसी गलती को महसूस न करना और न ही अपनी किसी गलती को स्वीकार करना, वहाँ से लौटते हुए मंजरी का मेरे साथ दबंग व्यवहार करना, इन सब से मेरा दिमाग बहुत खराब हो रहा था ।
मंजरी की हर एक गलती और उसके हर एक गलत व्यवहार को नजरअंदाज करके मेरे दिल में अब तक उसके लिए जो थोड़ा-बहुत प्यार और विश्वास बचा था, एक ओर वह उसका अनुचित लाभ उठा रही थी, तो दूसरी ओर आज के घटनाक्रम से मुझे मेरा वह प्यार-विश्वास खत्म-सा होता जान पड़ रहा था । उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि अब मंजरी के साथ जिंदगी बिताना बहुत मुश्किल हो गया है ! बल्कि मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो गया है !
मुझे शांत और परेशान देखकर माता जी भी परेशान हो रही थी । वे बार-बार मेरे पास आकर मेरी परेशानी की वजह जानने की कोशिश कर रही थी । उनकी परेशानी को कुछ कम करने के लिए मैं अपने होठों पर बनावटी हँसी के साथ उनके सफाई के काम में सहयोग करने लगा ।
अगले दिन दीपावली का त्योहार था । माता जी ने रसोई में त्यौहार की परंपरा के अनुसार कई प्रकार के व्यंजन बनाए थे । मंजरी ने भी उस दिन अपना अलग खाना नहीं बनाया, माता जी का बनाया हुआ खाना ही सबके साथ बैठकर खाया । उस दिन कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि अब जिन्दगी पटरी पर लौट आयेगी और सब कुछ ठीक हो जाएगा । लेकिन मैं गलत था । इतना सब कुछ ठीक होने पर भी घर में तनाव कम नहीं था । घर में हम तीन प्राणी थे - मैं, मंजरी और मेरी माता जी । और एक साथ खाना खाने के बाद भी हम तीनों अलग-अलग कमरों में अकेले-अकेले लेटे-बैठे हुए थे ।
मेरी माता जी ने इस अलगाव को कम करने के लिए एक छोटा-सा कदम उठाया । मैं ड्राइंग रूम में बैठा था, उन्होंने मेरे पास आकर मुझसे कहा -
"मंजरी को साथ लेकर अपने मित्रों और कुछ पड़ोसियों के घर जाकर दीपावली की मिठाई, गिफ्ट दे आ ! ऐसे त्योहारों पर ही तो घर की बहू अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों के यहाँ आना-जाना सीखेगी !"
मैंने तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर उस काम को भी टाल दिया । पड़ोस में कुछ लोगों के घर जाकर, जिनके साथ माता जी के बहुत घनिष्ठ संबंध थे, माता जी खुद ही मिठाई का डिब्बा दे आई थी । बाकी मित्रों-पड़ोसियों के गिफ्ट और मिठाई के डिब्बे घर में वैसे ही रखे रहे, जैसे मैं बाजार से लेकर आया था ।
शाम होते-होते घर में दीपावली के पावन पर्व की बधाई और शुभकामनाएँ देने के लिए मित्रों और पड़ोसियों का आना-जाना बढ़ने लगा था । आने वाले सभी लोग मंजरी के बारे में जरूर पूछते -
"बहू कहाँ है ? दिखायी नहीं दे रही ! उसकी तो इस बार यहाँ ससुराल में पहली दीवाली है, सबसे मिलना-जुलना चाहिए ! तभी सबसे परिचय होता है ! अपने मिलने वालों से पहचान बढ़ती है ! बहू की तबियत ठीक नही क्या ?"
घर में आने वाले हर मेहमान के सवालों का सामना करते-करते थककर मैंने और माता जी ने जब कई बार मंजरी से कहा -
"कमरे से बाहर निकलकर घर में आने-जाने वाले लोगों से मिलो ; उनका मुस्कुराहट से स्वागत करो ; बातचीत करो !" तब वह कुछ मिनट के लिए अपने कमरे से बाहर आयी और कुछ देर बाद फिर वापिस अपने कमरे में जाकर टीवी देखने लगी ।
रात में जब सारा शहर दीपकों से जगमगाने लगा, तब रात में हमारे घर में भी जगमग दीपक जले । परिवार के तीनों सदस्यों ने एक साथ बैठकर पूजा भी की । पूजा करने के बाद हम तीनों ने एक साथ बैठकर माता जी के हाथ का बनाया हुआ खाना खाया । इन सब चीजों को आपस कमें होने वाले व्यवहारों को बाहर से देखने पर लगता था कि अब सब-कुछ ठीक हो गया है, लेकिन अन्दर हम सभी के मन में अभी भी एक अजीब-सी खींचतान बनी हुई थी । इसी का परिणाम था कि दीपावली की रात भी - मंजरी अपने कमरे में, माता जी अपने कमरे में, और मैं ड्राइंग रूम में, हम तीनों अलग-अलग ही सोये थे ।
हालांकि माता जी को दीपावली के पावन पर्व की शुभ रात्रि को भी अपने बेटे-बहू का अलग-अलग सोना बहुत ही अशुभ लग रहा था, इसलिए उन्होंने कई बार मेरे पास आकर मुझे मंजरी के कमरे में उसके साथ सोने के लिए समझाया भी था । लेकिन मैं चाहते हुए भी पिछले दिन की बातों को अभी तक भूल नहीं सका था । पिछले दिन की एक-एक बात - महिला आयोग की अध्यक्ष की कॉल आने से लेकर मेरा महिला आयोग के ऑफिस में जाना, वहाँ पर मेरे और मेरी माता जी ऊपर लगाये गये मंजरी के आरोपों को सुनना और उसके बाद मंजरी को साथ लेकर वापिस घर लौटने तक का सारा घटनाक्रम मेरे दिल दिमाग में किसी फिल्म की तरह अभी भी चल रहा था । यह सारा घटनाक्रम मुझे अब तक इतना परेशान कर रहा था कि न चाहते हुए भी मैं माता जी के आग्रह को टालकर ड्राइंग रूम में सोफे पर ही सो गया ।
इसी तरह अन्दर-बाहर की खींचतान और तनाव में एक सप्ताह गुजर गया । एक सप्ताह बाद महिला आयोग के ऑफिस से मेरे मोबाइल पर दोबारा कॉल आई । इस बार उन्होंने मुझे मंजरी और मेरी माता जी, दोनों को लेकर आने के लिए कहा । मैंने माता जी को यह सब बताया, तो वे उदास होकर बोली -
"मुझे क्यों बुलाया है ?"
"पता नहीं ! लेकिन आपको चलना होगा !"
महिला आयोग की कॉल आने पर यूँ तो मैंने अनुमान लगा लिया था कि जरूर मंजरी ने उनसे दुबारा कोई शिकायत की होगी । फिर भी, अपने अनुमान को पक्का करने के लिए मैंने मंजरी से उसके कमरे में जाकर पूछा -
"तुमने फिर महिला आयोग में शिकायत की है ?"
"हाँ की है ! जब तक तुम तुम्हारा रवैया नहीं सुधारोगे, तब तक मैं यह सब करती रहूँगी !"
"इस बार क्या आरोप लगाया है ? क्या कहा है उनसे ?"
"वही सब कुछ, जो आप लोग मेरे साथ कर रहे हो ! और यह भी कि जो कुछ तुम्हें करना चाहिए, वह तुम नहीं कर रहे हो !" मंजरी में आत्मविश्वास के साथ कहा और फिर टेलीविजन देखने लगी ।
"मंजरी ! तुम बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रही हो कि महिला आयोग मुझसे वह सब करा सकता है, जो तुम चाहती हो !"
यह चेतावनी देकर मैंने मंजरी को महिला आयोग से आई हुई सूचना दी और यह सोचकर कि आयोग की अध्यक्षा कहीं मंजरी को अपने साथ न ले जाने की बात को लेकर माता जी के सामने ही मुझ पर कोई प्रश्न न उठाए, मैंने कमरे से बाहर निकलते हुए कहा -
"मैं माता जी को लेकर ठीक बारह बजे घर से निकल जाऊँगा । हमारे साथ चलना चाहो, तो ठीक बारह बजे जाकर गाड़ी में बैठ जाना ! मैं दोबारा नहीं कहूँगा !"
सही बारह बजे मेरे और माता जी के साथ मंजरी भी तैयार होकर घर से निकल गई और गाड़ी की ड्राइविंग सीट के बगल वाली सीट पर बैठ गयी । मेरे साथ बैठकर वह पूरे रास्ते हुई-बिना हुई कुछ-न-कुछ इधर-उधर की बातें करती रही और मैं चुपचाप सुनता रहा । माता जी भी पिछली सीट पर चुप बैठी थी ।
मेरी माता जी को अपने पूरे जीवन में कभी किसी कोर्ट-कचहरी या महिला आयोग में जाने की जरूरत नहीं पड़ी थी, इसलिए महिला आयोग के ऑफिस में पहुँचकर वह बहुत घबरा रही थी । उस समय तो उनकी आँखों से आंँसू भी निकल आए, जब मंजरी ने महिला आयोग की अध्यक्षा महोदया के सामने माता जी पर यह आरोप लगाया कि माता जी मुझे उसके पास नहीं जाने देती हैं ! मंजरी ने महिला आयोग की अध्यक्षा यह भी कहा कि अगर माता जी मुझे मंजरी के साथ रहने के लिए कहेंगी, तो मैं उसके साथ जरूर रहूँगा ! मंजरी ने कहा -
"माता जी चंदन को किसी पक्षी की तरह पिंजरे में बन्द करके रखती हैं ! ये पिंजरा खोलकर चंदन को मेरे पास आने और आकर मेरे साथ रहने की छूट दे देंगी, तो चंदन मेरे पास जरूर आएँगे और मेरे साथ पति की तरह ही रहेंगे भी !"
जितना मैं जानता था वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी । मंजरी न तो उस वास्तविकता समझ रही थी और न ही वह समझने की कोशिश कर रही थी । वास्तविकता यह थी कि माता जी कभी नहीं चाहती थी कि मेरे और मंजरी के बीच में कभी भी किसी तरह की कोई दूरी बने ! माता जी तो हमेशा हम दोनों के बीच की दूरी को कम या खत्म करने की कोशिश करती रहती थी ।
फिर भी महिला आयोग की अध्यक्षा के सामने माता जी चुपचाप बैठी रही और आँसुओं में डूबी हुई अपनी भीगी आँखों को छुपाने की कोशिश करते हुए मंजरी के आरोपों को सुनती रही । यह दूसरा अवसर था, जब मंजरी ने माता जी पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें दूसरे लोगों के सामने अपमानित किया था ।
पहली बार उसने माता जी का अपमान तब किया था, जब हमारी शादी हो रही थी और हम दोनों शादी के मंडप में बैठे हुए थे । तब तक हम दोनों की शादी संपन्न नहीं थी हुई थी, इसलिए तब मेरी माता जी ने मंजरी का विरोध करने में कुछ गलत नहीं समझा था । लेकिन आज जब मंजरी उनके बेटे की अर्द्धांगिनी बनकर उसके जीवन मे अपनी जगह ले चुकी थी, तब उसका विरोध करना माता जी को ठीक नहीं लग रहा था । इसलिए उन्होंने अपनी सफाई में बस इतना ही कहा -
"मैडम ! अब तक मैं इन दोनों के साथ इसलिए रह रही थी कि नई-नई गृहस्थी में शायद इन्हें मेरी जरूरत पड़ेगी ! अब, जब मेरी बहू को लगता है कि मैं इनकी गृहस्थी की गाड़ी में रोड़ा बन रही हूँ, तो मैं कल ही यहाँ से दूर अपने गाँव चली जाऊँगी !"
माता जी के निर्णय से मंजरी संतुष्ट थी । वह काफी खुश थी, लेकिन मैं खुद को उसके हाथों ठगा हुआ महसूस कर रहा था । शायद परिस्थिति की यही माँग थी, यह सोचकर मैं चुप रहा । मैंने न मंजरी के आरोपों का विरोध किया और न ही माता जी के फैसले का । माता जी के निर्णय से संतुष्ट होकर अध्यक्षा महोदया ने मुझे और मंजरी को साथ रहकर हमारी गृहस्थी को सँवारने के लिए एक महीने का और अतिरिक्त समय देकर घर भेज दिया ।
क्रमश..