सुरतिया - 3 vandana A dubey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुरतिया - 3

आप सोच रहे होंगे कि हम इतना सब क्यों बता रहे? अरे भाई! न बतायें, तो आप बाउजी को जान पायेंगे? नहीं न? तो चुपचाप पढ़िये उनके बारे में.

“क्या बाउजी..... कब से आवाज़ें लगा रही. आप सुनते ही नहीं. कितनी बार कहा है कान की मशीन लगाये रहा कीजिये. अगर नहीं लगानी थी, तो खरीदवाई ही क्यों? पच्चीस हज़ार की मशीन पड़ी है बिस्तर पर और मैं गला फाड़-फाड़ के पागल हुई जा रही हूं.”

सरोज, बाउजी की मंझली बहू की झल्लाई हुई आवाज़ इतनी तेज़ थी, कि कोई अगर बाहर के गेट पर होता, तो भी सुन लेता.

“हां बेटा, लगाये लेता हूं जा के.”

अतीत में विचरते बाउजी भी इस आवाज़ से वर्तमान में लौट आये.

“ अरे ये तो बता दीजिये कि रात में क्या खायेंगे? पनीर की सब्ज़ी बन रही है. आप तो खा नहीं पायेंगे. खिचड़ी या दलिया बनवा दूं क्या?”

“हां बेटा जो आराम से बन जाये बनवा दो. वैसे एकाध रोटी पनीर के साथ तो मैं भी खा सकता.....”

“अरे नहीं बाउजी. इतनी मसालेदार सब्ज़ी खाने की ज़रूरत नहीं है आपको. नुक्सान कर जाये, पेट खराब हो जाये तो फिर नई मुसीबत! वैसे भी पनीर हैवी होता है. आपको गैस बनने लगेगी.”

सरोज ने उनकी बात पूरी होने से पहले ही अपना फ़ैसला सुनाया.

“ठीक है. फिर जैसा तुम चाहो, करो.”

बाउजी की आवाज़ निरीह हो उठी थी अचानक ही. चाहते तो थे कि कहें- जब तय कर लिया है तो पूछना क्या? बना दो कुछ भी. अब तो बस पेट भरने से मतलब है. इच्छा/अनिच्छा कहां रह गयी उनकी?

जानते हैं, मुझे भी अच्छा नहीं लगा सरोज का दो टूक जवाब. कह देती कि ठीक है, एक रोटी भी खा लीजियेगा पनीर के साथ. अरे पेट का क्या है, वो तो कभी खिचड़ी खाने से भी खराब हो जाता है. गैस तो मूंग की दाल खाने से भी बनने लगती है. तो इस उमर में काहे को इतनी पाबन्दियां लगाना खाने पर? मन से खाई जाने वाली चीज़ नुक्सान भी नहीं करती, ऐसा मेरा मानना है.

बाउजी उठ के अन्दर चले गये थे, अपने कमरे में. कान की मशीन लगा ही लें तो ठीक है. कल सुधीर का पच्चीस हज़ार भी दे ही दें निकलवा के तो ठीक रहे. हांलांकि ग़लत नहीं कहा सरोज ने, लेकिन तब भी कई बातें अच्छी नहीं लगतीं बाउजी को. मशीन की कीमत की जगह उपयोगिता याद दिला देती न! वैसे भी, जबसे मशीन का पैसा सुधीर ने दिया, कई बार याद दिला चुकी सरोज. पहले तो उनका ध्यान नहीं गया था, लेकिन बाद में लगा, कि जब पहली मशीन उन्होंने खुद पैसा दे के खरीदी थी, तब तो नहीं टोका सरोज ने कभी! पैसा भी बाउजी खुद नहीं निकाल पाते. एटीएम से पैसा निकालने में उन्हें दिक़्क़त होती है. कल कहेंगे सुधीर से ऑफ़िस से लौटते वक़्त निकालता लाये. वैसे भी, पैसे के मामले में बाउजी कोताही नहीं करते. भगवान की दया से पेंशन के पैंतीस हज़ार रुपये मिल रहे उन्हें. पूरे पन्द्रह हज़ार निकलवा के रख देते हैं सरोज के हाथ पर. एकाध बार “अरे इसकी क्या ज़रूरत है” कहते हुए हाथ आगे बढ़ा देती है बहू, और वे भी –“ अरे नहीं, सरकार दे रही पेंशन, तो मुझे क्या करना है इसका बेटा? वक़्त ज़रूरत के लिये भी है ही मेरे पास. मंहगाई बहुत है, मैं जानता हूं. घर के काम आयेंगे पैसे रख लो.”